सोमवार, 23 अक्तूबर 2017

द्वादश भाव का परिचय

 द्वादश भाव कुंडली का अंतिम भाव होने से मनुष्य जीवन का भी अंतिम भाग है| प्रथम भाव(लग्न) से गणना करने पर द्वादश भाव सबसे आख़िरी भाव है अतः एक प्रकार से यह जीवनचक्र का अंत दर्शाता है| जो कुछ भी प्रारंभ हुआ है, उसे एक न एक दिन समाप्त होना है, क्योंकि लग्न जीवनारंभ का सूचक है इसलिए द्वादश भाव जीवन की समाप्ति को प्रदर्शित करता है| लग्न मनुष्य की जीवन शक्ति है, उसकी उर्जा है तथा द्वादश भाव उस उर्जा का व्यय कारक है| इसलिए इस भाव को व्यय स्थान भी कहा जाता है| फारसी में इस भाव को ख़र्च खाने कहते हैं| मनुष्य द्वारा प्राप्त जीवन, धन, यश, प्रसिद्धि आदि की हानि या नाश द्वादश भाव कर देता है इसलिए इस भाव को हानि या नाश स्थान भी कहते हैं| यह भाव त्रिक(6,8,12) भावों में से एक है| इस भाव का स्वामी प्रायः अशुभ माना जाता है परंतु यदि कोई ग्रह सिर्फ द्वादश भाव का स्वामी हो तथा अन्य किसी भी भाव का स्वामी न हो तो वह भावेश तटस्थ(Neutral) रहता है|
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द्वादश भाव के स्वामी का किसी दूसरे भाव में बैठना या किसी दूसरे भाव के स्वामी का द्वादश भाव में स्थित होना उस भाव के फल का नाश कर देता है| इसी आधार पर प्रत्येक भाव से द्वादश(पिछला) भाव, उस भाव के लिए विनाशकारी होता है| द्वादश भाव के स्वामी का प्रभाव अलगाववादी(Seperative) होता है| इस भाव से व्यय, नाश, हानि,, गुप्त शत्रु, बाया नेत्र, पैर, दंड, कारावास, अस्पताल, प्रवास, दान, दुर्गति, धन का सद्व्यय या अपव्यय, अंत, विदेशगमन, शयनकक्ष, दृष्टि की हानि, जल से मृत्यु, ग़रीबी, दुःख-संताप, मोक्ष, पारलौकिक विद्या, एकांत, सन्यास, त्याग, जीवनसाथी का अन्य प्रेम संबंध, निद्रा, स्वप्न, दुर्भाग्य, बदनामी, फरेब आदि का विचार किया जाता है| इस भाव का कारक ग्रह शनि है|
द्वादश भाव से निम्नलिखित विषयों का विचार किया जाता है-
नेत्र कष्ट- द्वादश भाव मनुष्य के बाएँ नेत्र से संबंधित है| क्योंकि हमारी आँखें प्रकाश के माध्यम से ही देख पाती हैं इसलिए यदि द्वादश(हानि) भाव में सूर्य या चन्द्रमा जैसे प्रकाशकारक(Luminaries) ग्रह स्थित हों और पाप ग्रहों से पीड़ित हों तो व्यक्ति के नेत्रों में कष्ट होता है|
जल द्वारा मृत्यु- किसी भी कुंडली में चतुर्थ, अष्टम तथा द्वादश भाव जल तत्व का प्रतिनिधित्व करते हैं| इसलिए द्वादश भाव एक जलीय भाव है| द्वादादेश तथा चतुर्थेश का प्रभाव जब भी अष्टम भाव(मृत्यु का स्वरुप) तथा अष्टमेश पर हो तो व्यक्ति की मृत्यु जल में डूबने से होती है|
विपरीत राजयोग- किसी भी जन्मकुंडली में छठा, आठवाँ तथा बारहवाँ भाव अशुभ माने जाते हैं| द्वादश भाव हानि का है इसलिए जब भी द्वादश भाव का स्वामी छठे या आठवें भाव(अशुभ भावों में स्थित होकर अशुभता की हानि अर्थात शुभफल) में स्थिति होकर पाप ग्रहों के प्रभाव में हो तो विपरीत राजयोग का सृजन करता है| जिसके फलस्वरूप व्यक्ति को असीम धन-संपति व भौतिक सुख-सुविधाओं की प्राप्ति होती है|
जीवनसाथी का दूसरे विपरीत लिंग से प्रेम संबंध- जन्मकुंडली में छठा तथा ग्यारहवां भाव शत्रु व अन्यत्व(Enemy & Others) के प्रतीक होते हैं| द्वादश भाव सप्तम स्थान(जीवनसाथी) से छठा(शत्रु) होता है इसलिए यह वैवाहिक जीवन में किसी दूसरे व्यक्ति के प्रवेश(Entry) अर्थात घुसपैठ को दर्शाता है| द्वादश भाव शैय्या सुख(Bed Pleasures) का भी है| यदि व्यक्ति की कुंडली में छठे व ग्यारहवें भाव के स्वामी(शत्रु व अन्यत्व) तथा राहु(बाहरी तत्व) का संबंध द्वादश भाव(शय्या सुख व भोग) व उसके स्वामी हो जाए तो मनुष्य का जीवनसाथी बाहरी व्यक्ति (परस्त्री या परपुरुष) से प्रेम संबंध रखता है अर्थात बेवफ़ा होता है|
मोक्ष- द्वादश भाव का कुंडली का अंतिम भाव होने से इसका संबंध मोक्ष से है| यदि लग्नेश का नवम भाव(धर्म स्थान) व नवमेश से शुभ संबंध हो और द्वादश भाव तथा द्वादादेश पर भी शुभ ग्रहों का प्रभाव पड़ रहा हो तो मृत्यु के उपरांत मनुष्य को मोक्ष की प्राप्ति होती है| यदि द्वादश भाव में केतु स्थित हो और उस पर शुभ ग्रहों का प्रभाव पड़ रहा हो तो यह भी मोक्ष का सूचक है|
पाँव(पैर)- द्वादश भाव को कालपुरुष का पैर माना गया है| यदि, द्वादश भाव, द्वादादेश, मीन राशि तथा गुरु पर पाप व क्रूर ग्रहों का प्रभाव हो तो मनुष्य को पैरों से संबंधित कष्ट जैसे पोलियो, लंगड़ापन आदि रोग होते हैं|
व्यय- द्वादश भाव जन्मकुंडली का अंतिम भाव होने से इसका संबंध हानि, ख़र्च या व्यय से है| मनुष्य के व्यय की प्रकृति किस प्रकार की होगी इसकी सूचना हमे द्वादश भाव से ही मिलती है| यदि द्वादश भाव तथा द्वादशेश पर शुभ ग्रहों का प्रभाव हो तो मनुष्य का व्यय सत्कर्मों में(दान, धर्म, पुण्य) होता है इसके विपरीत यदि इन घटकों पर पाप ग्रहों का प्रभाव हो तो मनुष्य अपने धन को गलत तरीके से ख़र्च करता है|
निद्रा व अनिद्रा- द्वादश भाव का संबंध शयन सुख से है अतः इसका निद्रा(Sleep) से भी घनिष्ठ संबंध है| उत्तम स्वास्थ्य हेतु उचित निद्रा लेना अति आवश्यक माना गया है| यदि द्वादश भाव व द्वादादेश पर शुभ ग्रहों का प्रभाव हो तो व्यक्ति गहरी व अच्छी नींद का आनंद लेता है इसके विपरीत यदि यह घटक पाप ग्रहों से पीड़ित हों तो मनुष्य को अनिद्रा(नींद न आना) की समस्या होती है| यह भाव निद्रा का होने के कारण स्वप्न(Dreams) से भी संबंधित है|
विदेश यात्रा या विदेश वास- द्वादश भाव निवास स्थान से दूर विदेशी भूमि को दर्शाता है| वैसे भी यह भाव चतुर्थ स्थान(घर या निवास) से नवम(लंबी यात्रा) है इसलिए घर से दूरी का प्रतीक है| अतः यह भाव मनुष्य के विदेश में निवास करने से भी संबंधित है|

कुछ विशिष्ट योग

द्विभार्या योग? राहू लग्न में पुरुष राशि (सिंह के अलावा) में हो अथवा 7वें भाव में सूर्य, शनि, मंगल, केतु या राहू में से कोर्इ भी दो ग्रह (युति दृष्टि द्वारा) जुड़ जाएं तो द्विभार्या योग बनता है। (ऐसे में सप्तमेष व द्वादशेश की स्थिति भी विचारनी चाहिए)। अष्टमेश सप्तमस्थ हो तो द्विभार्या योग होता है।

राजयोग? नवमेश तथा दशमेश एकसाथ हो तो राजयोग बनता है। दशमेश गुरू यदि त्रिकोण में हो तो राजयोग होता है। एकादशेश, नवमेश व चन्द्र एकसाथ हो (एकादश स्थान में) तथा लग्नेश की उन पर पूर्ण दृष्ट हो तो राजयोग बनता है। ( राजयोग में धन, यश, वैभव, अधिकार बढ़ते है)

विपरीत राजयोग? 6ठें भाव से 8वें भाव का सम्बन्ध हो जाएं। अथवा दशम भाव में 4 से अधिक ग्रह एक हो जाएं। या फिर सारे पापग्रह प्राय: एक ही भाव में आ जाए तो विपरित योग बनता है। इस राजयोग के भांति यदा तरक्की नही होती जाती। किन्तु बिना प्रयास के ही आकस्मिक रूप से सफलता, तरक्की धन या अधिकार की प्राप्ति हो जाती है।

आडम्बरी राजयोग? कुंडली में समस्त ग्रह अकेले बैठें हो तो भी जातक को राजयोग के समान ही फल मिलता है। किन्तु यह आडम्बरी होता है।

विधुत योग? लाभेश परमोच्च होकर शुक्र के साथ हो या लग्नेश केन्द्र में हो तो विधुत योग होता है। इसमें जातक का भाग्योदय विधुतगति से अर्थात अति द्रुतगामी होता है।

नागयोग? पंचमेश नवमस्थ हो तथा एकादशेश चन्द्र के साथ धनभाव में हो तो नागयोग होता है। यह योग जातक को धनवान तथा भाग्यवान बनाता है।

नदी योग? पंचम तथा एकादश भाव पापग्रह युक्त हों किन्तु द्वितीय व अष्टम भाव पापग्रह से मुक्त हों तो नदी योग बनता है, जो जातक का उच्च पदाधिकारी बनाता है।

विश्वविख्यात योग? लग्न, पंचम, सप्तम, नवम, दशम भाव शुभ ग्रहों से युक्त या दृष्ट हो तो जातक विश्व में विख्यात होता है। इसे विश्वविख्याति योग कहते है।

अधेन्द्र योग :- लग्नकुंडली में सभी ग्रह यदि पांच से ग्यारह भाव के बीच ही हों तो अधेन्द्र योग होता है। ऐसी जातक सर्वप्रिय, सुन्दर देहवाला व समाज में प्रधान होता है।

दरिद्र योग? केन्द्र के चारों भाव खाली हों अथवा सूर्य द्वितीय भाव में तथा द्वितियेश शनि वक्री हों और 2, 8, 6, 12 या 3 भाव में हों तो लाख प्रयास करने पर भी जातक दरिद्र ही रहता है।

बालारिष्ट योग? चन्द्रमा 5, 7, 8, 12 भाव में हो तथा लग्न पापग्रहों से युत हो तो बालारिष्ट योग बनता है। अथवा चन्द्रमा 12वें भाव में क्षीण हो तथा लग्न व अष्टम में पापग्रह हों, केन्द्र में भी कोर्इ शुभ ग्रह न हो तो भी बालारिष्ट योग बनता है। बालारिष्ट योग में जातक की मृत्यु बाल्यकाल में ही हो जाती है। अथवा बाल्यवस्था में उसे मृत्यु तुल्य कष्ट झेलना पड़ता है।

मृतवत्सा योग? पंचमेश षष्ठ भाव में गुरू व सूर्य से युक्त हो तो जातक की पत्नी का गर्भ गिरता रहता है। अथवा मृत संतान पैदा होती है। अत: इसे मृतवत्सा योग कहते है।

छत्रभंग योग? राहू, शनि व सूर्य में से कोर्इ भी दो ग्रह यदि दशम भाव पर निज प्रभाव ड़ालते है। और दशमेश सबल न हो तो छत्रंभग योग बनता है। जातक यदि राजा है तो राज्य से पृथक हो जाता है। अन्यथा कार्यक्षेत्र व्यवसाय में अत्यन्त कठिनाइयां व विघ्न आते है, तरक्की नही हो पाती।

चाण्डाल योग? क्रूर व सौम्य ग्रह एक ही भाव में साथ हों तो चाण्डाल योग बनता है। विशेषकर गुरू-मंगल, गुरू-शनि, या गुरू-राहू साथ हों तो। इससे योग के बुरे फल मिलते है। तथा जातक की संगति व सोच दूषित हो जाते है।

सुनफा योग? कुंडली में चन्द्रमा जहां हो उससे अगले भाव में (सूर्य को छोड़कर) यदि कोर्इ भी ग्रह बैठा हो तो सुनफा योग बनता है। इससे जातक का लाभ बढ़ता है। (यदि आगे बैठने वाला ग्रह सौम्य या चन्द्रमा का मित्र है तो शुभ लाभ व फल बढ़ते है। अन्यथा कुछ अपेक्षाकृत कमी आ जाती है)।

महाभाग योग? यदि जातक दिन में जन्मा है। (प्रात: से साय: तक) तथा लग्न, सूर्य व चन्द्र विषम राशि में है। तो महाभाग योग बनता है। यदि रात में जन्मा है। (साय: के बाद प्रात: से पूर्व) तथा लग्न, सूर्य व चंद्र समराशि में है। तो भी महाभाग योग बनता है। यह सौभाग्य को बढ़ाता है।

प्रेम विवाह योग? तृतीय, पंचम व सप्तम भाव व उनके भावेषों का परस्पर दृष्टि युति राशि से संबध हो जाए तो जातकों (स्त्री-पुरूष) में प्रेम हो जाता है। लेकिन यदि गुरू भी इन संबधो में शामिल हो जाए तो उनका प्रेम ‘प्रेम विवाह’ में परिवर्तित हो जाता है। लेकिन तृतीय भाव व तृतीयेश न हो, केवल पंचम, सप्तम भाव व भावेश का ही दृष्टि, युति, राशि संबंध हों और गुरू भी साथ हो तो जातक प्रेम तो करता है, लेकिन जिससे प्रेम करता हेै। उससे विवाह नही करता। भले ही जातक स्त्री हो या पुरूष।

गजकेसरी योग? लग्न या चन्द्र से गुरू केन्द्र में हो तथा केवल शुभग्रहों से दृष्टयुत हो, अस्त, नीच व शत्रु राशि में न हो तो गजकेसरी योग होता है। जो जातक को अच्छी पहचान प्रतिष्ठा दिलाता है।

बुधादित्य योग? 10वें भाव में बुध व सूर्य का योग हो। पर बुध अस्त न हो तथा सूर्य मित्र या उच्च का हो तो व्यापार में सफलता दिलाने वाला यह योग बुधादित्य योग के नाम से जाना जाता है।

पापकर्तरी योग? शुभ ग्रह जिस भाव में हो उसके पहले व बाद के भाव में क्रूरपापग्रह हों तो पापकर्तरी योग बनता है। इससे बीच के भाव में बैठा हुआ ग्रह पाप प्रभाव तथा दबाव में आकर पीड़ित होता है। अत: शुभ फल कम दे पाता है, उसी भाव में शुभ ग्रह दो पापग्रहों या दो से अधिक पापग्रहों के साथ बैठे तो पापमध्य योग बनता है।

सरकारी नौकरी अथवा व्यवसाय का योग? जन्मकुंडली में बाएं हाथ पर ग्रहों की संख्या अधिक हो तो जातक नौकरी करता है। दाएं हाथ पर अधिक हों तो व्यापार करता है। सूर्य दाएं हाथ पर हों तो सरकारी नौकरी कराता है। शनि बाएं हाथ पर हो तो नौकरी कराता है। 10 वें घर से शनि व सूर्य का सम्बन्ध हो जाए (दृष्टियुतिराशि से) तो जातक प्राय: सरकारी नौकरी करता है। गुरू व बुध बैंक की नौकरी कराते है। बुध व्यापार भी कराते है। गुरू सुनार का अध्यापन कार्य भी कराता है।

विजातीय विवाह योग? राहू 7वें भाव में हो तो जातक का विवाह प्राय: विजातीय विवाह होता है। (पुरूष राशि में हो तो और भी प्रबल सम्भावनाएं होती है।

चक्रयोग ? यदि किसी कुंडली में एक राशि से छ: राशि के बीच सभी ग्रह हों तो चक्रयोग होता है। यह जातक को मंत्री पद प्राप्त करने वाला होता है।

अनफा योग? यदि किसी कुंडली में चन्द्रमा से पिछले भाव में कोर्इ शुभ ग्रह हों तो अनफा योग बनता है। इससे चुनाव में सफलता तथा अपने भुजाबल से यश, धन प्राप्त होता है।

भास्कर योग? सूर्य से दूसरे भाव में बुध, बुध से 11वें भाव में चन्द्र और चन्द्र से त्रिकोण में गुरू हो तो भास्कर योग होता है। ऐसा जातक प्रखरबुद्वि, धन, यश, रूप, पराक्रम, शास्त्र ज्ञान, गणित व गंधर्व विधा का जानकार होता है।

चक्रवती योग? यदि कुंडली के नीच /पाप ग्रह की राशि का स्वामी या उसकी उच्च राशि का स्वामी लग्न में हो या चन्द्रमा से केन्द्र (1,4,7,10) में हो तो जातक चक्रवती सम्राट या बड़ी धार्मिक गुरूनेता होता है।

कुबेर योग? गुरू, चन्द्र, सूर्य पंचमस्थ, तृतीयस्थ व नवमस्थ हो और बलवान स्थिति में भी हो तो जातक कुबेर के समान धनी व वैभवयुक्त होता है।

अविवाहित / विवाह प्रतिबंधक योग? चन्द्र पंचमस्थ हो या बलहीनअस्तपापपीडित हो तथा 7वें व 12वें भाव में पापग्रह हो तो जातक कुंआरा ही रहता है। शुक्र व बुुध 7वें भाव में शुभग्रहों से दृष्ट न हों तो जातक कुंआरा रहता है। अथवा राहू व चन्द्र द्वादशस्थ हों तथा शनि व मंगल से दृष्ट हों तो जातक आजीवन कुंआरा रहता है। इसी प्रकार सप्तमेष त्रिकस्थान में हो और 6, 8, 12 के स्वामियों में से कोर्इ सप्तम भाव में हो तब भी जातक कुंआरा रहता है। शनि व मंगल, शुक्र व चन्द्र से 180° पर कुंडली में हो तो भी जातक कुंआरा रहता है।

पतिव्रता योग? यदि गुरू व शुक्र, सूर्य या मंगल के नवमांश में हो तो जातक एक पत्नीव्रत तथा महिला जातक पतिव्रता होती है। यदि द्वितीयेश व सप्तमेश नीच राशि में हो परन्तु सभी शुभ ग्रह केन्द्र या त्रिकोण में हो तो स्त्री जातक पतिव्रता तथा जातक एक पत्नीव्रत वाला होता है। बुध यदि गुरू के नवमांश में हों तो भी पतिव्रता योग होता है चन्द्रमा यदि सप्तम भाव में हो (महिला कुंडली) पाप प्रभाव में न हो तों भी स्त्री पति के लिए कुछ भी कर सकने वाली होती है।

अरिश्टभंग योग? शुक्लपक्ष की रात्रि का जन्म हो और छठे या 8वें भाव में चन्द्र हो तो सर्वारिष्ट नाशक योग होता है। जन्म राशि का स्वामी 1, 4, 7, 10 में स्थित हों तो भी अरिश्टनाशक योग होता है। चन्द्रमा, स्वराशि, उच्च राशि या मित्रराशि में हो तो सर्वारिष्ट नष्ट होते है। चन्द्रमा के 10वें भाग में गुरू, 12वें में बुध, शुक्र व कुंडली के 12वें में पापग्रह हों तो भी अरिष्ट नष्ट होते है।

मूक योग? गुरू व षष्ठेश लग्न में हो अथवा बुध व षष्ठेश की युति किसी भी भाव (विशेषकर दूसरे) में हो। अथवा क्रूर ग्रह सनिध में और चन्द्रमा पापग्रहों से युक्त हो। या कर्क, वृश्चिक व मीन राशि के बुध को अमावस्य का चन्द्र सम्बन्ध है। तो मूक योग बनता है। इस योग में जातक गूंगा होता है। विशेष? 8 व 12 राशि पापग्रहों से युक्त हो तथा किसी भी राशि के अंतिम अंशो में वृष राशि का चन्द्र हो तथा चंद्र पर पापग्रहों की दृष्टि हो तो जातक जीवन भर गूंगा रहता है।

बधिर योग? शनि से चौथे स्थान में बुध हो तथा षष्ठेश त्रिक भावों में हो तो बधिर योग होता है। अथवा पूर्ण चन्द्र व शुक्र साथ बैठे हो तो बधिर योग बनता है। 12वें भाव में बुध-शुक्र की युति हो अथवा 3, 5, 9, 11 भावों में पापग्रह बिना शुभ ग्रहों से दृष्ट हों अथवा 6,12 भाव में बैठे षष्ठेश पर शनि की दृष्टि न हो तो भी बधिर योग होता है।

बुधवार, 11 अक्तूबर 2017

चन्द्र के शुभ एवं अशुभ योग

नवग्रहों में चन्द्रमा को शुभ ग्रह माना जाता है. यह हमारी पृथ्वी का सबसे नजदीकी ग्रह भी है अत: इसका प्रभाव भी जल्दी होता है. जन्म कुण्डली में चन्द्र जिस राशि मे बैठा होता है वही व्यक्ति का राशि होता है. चन्द्र राशि का महत्व लग्न के समान ही होता है. फलदेश करते समय लग्न कुण्डली के समान ही चन्द्र कुण्डली का भी प्रयोग किया जाता है. चन्द्र कई प्रकार के योग का भी निर्माण करता है जिनमे से कुछ योग शुभ फल देते हैं तो कुछ अशुभ फलदायी होते हैं.
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चन्द्र के शुभ योग - The Auspiciuos Yogas of Moon
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गजकेशरी योग (Gajakesari Yoga)
चन्द्र द्वारा निर्मित शुभ योगों में गजकेशरी योग (Gajakeshri Yoga) काफी जाना-पहचाना नाम है. यह योग गुरू चन्द्र के सम्बन्ध से बनता है. जब गुरू एवं चन्द्र जन्म कुण्डली में एक दूसरे से केन्द्र स्थान में यानी 1, 4, 7, 10, में होगा अथवा गुरू चन्द्र की युति इन भावों में होगी तो गजकेशरी योग बनेगा. सामान्यतया इस योग (Gajakeshri Yoga) से प्रभावित व्यक्ति ज्ञानी होते हैं. इनमें विवेक तथा दया की भावना होती है. आमतौर पर इस योग वाले व्यक्ति उच्च पद पर कार्यरत होते हैं. अपने गुणों एवं कर्मों के कारण मृत्यु के पशचात भी इनकी ख्याति बनी रहती है.
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सुनफा योग (Sunapha Yoga)
जन्म कुण्डली में जिस भाव में चन्द्र होता है उससे दूसरे घर में कोई ग्रह बैठा हो तो सुनफा योग (Sunapha Yoga) बनता है. इस योग में राहु केतु एवं सूर्य का विचार नहीं किया जाता है यानी चन्द्र से दूसरे घर में इन ग्रहों के होने पर सुनफा योग नहीं माना जाएगा. इस योग (Sunapha Yoga) में चन्द्र से दूसरे घर में शुभ ग्रह हों तो योग उच्च स्तर का होता है. जबकि, एक शुभ तथा दूसरा अशुभ ग्रह हों तो इसे मध्यम दर्जे का माना जाता है. यदि दोनों अशुभ ग्रह हैं तो निम्न स्तर का सुनफा योग (Sunapha Yoga) बनेगा. यह योग जिस स्तर का होता है उसी अनुरूप व्यक्ति को इसका लाभ मिलता है. जिनकी कुण्डली में यह योग (Sunapha Yoga) होता है वह सरकारी क्षेत्र से लाभ प्राप्त कर सकते हैं. धन-सम्पत्ति उच्छी होती है.
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अनफा योग (Anapha Yoga)
सुनफा योग की भांति अनफा योग (Anapha Yoga) में भी सूर्य को गौण माना जाता है यानी सूर्य से इस योग का विचार नहीं किया जाता है. अनफा योग (Anapha Yoga) कुण्डली में तब बनता है जब जन्म कुण्डली में चन्द्र से बारहवें घर में कोई ग्रह बैठा होता है. ग्रह अगर शुभ है तो योग प्रबल होगा. चन्द्र से बारहवें घर में अशुभ ग्रह होने पर योग कमज़ोर होगा. इस योग (Anapha Yoga) से प्रभावित व्यक्ति उदार एवं शांत प्रकृति का होता है. नृत्य, संगीत एवं दूसरी कलाओं में इनकी रूचि होती है. सुख-सुविधाओं में रहते हुए भी वृद्धावस्था में मन विरक्त हो जाता है. योग एवं साधना इन्हें पसंद आता है.
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दुरूधरा योग (Durdhara Yoga)
चन्द्र की स्थिति से दुरूधारा योग तब बनता है जब चन्द्र जिस भाव में हो उस भाव से दोनों तरफ कोई ग्रह बैठा हो. ध्यान रखने वाली बात यह है कि दोनों तरफ में से किसी ओर सूर्य नहीं होना चाहिए. अगर चन्द्र के दोनों तरफ शुभ ग्रह होंगे तो योग अधिक शक्तिशाली होगा. एक ग्रह शुभ दूसरा अशुभ तो मध्यम दर्जे का योग बनेगा इसी प्रकार दोनों तरफ अशुभ ग्रह हों तो निम्न स्तर का योग बनेगा. दुरूधरा योग के विषय में यह कहा जाता है कि इससे प्रभावित व्यक्ति समृद्धशाली होता है. इन्हें भूमि एवं भवन का सुख भी प्राप्त होता है.
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चन्द्र के अशुभ योग (Inauspicious Yogas of Moon)
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केमद्रुम योग (Kemadruma Yoga)
चन्द्र द्वारा निर्मित अशुभ योगों में केमद्रुम (Kemadruma Yoga) प्रमुख है. यह योग (Kemadruma Yoga) जन्मपत्री में तब बनता है जबकि चन्द्र के दोनों तरफ के भाव में कोई ग्रह नहीं हो. इस योग (Kemadruma Yoga) के विषय में माना जाता है कि इससे प्रभावित व्यक्ति का मन अस्थिर रहता है. असामाजिक कार्यों में इनका मन लगता है. इनके जीवन में काफी उतार-चढ़ाव भी आते रहते हैं.
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पुनर्फू योग (Punarphoo Yoga)
जन्म कुण्डली में चन्द्र एवं शनि की युति होने पर पुनर्फू योग (Punarphoo Yoga) बनता है. चन्द्र शनि की युति एवं राशि परिवर्तन से भी पुनर्फू योग (Punarphoo Yoga) निर्मित होता है. यह योग अशुभ फलदायी माना जाता है. पुनर्फू योग के कारण विवाह में रूकावट आती है. आमतौर पर इस योग (Punarphoo Yoga) से प्रभावित व्यक्ति की शादी विलम्ब से होती है. वैवाहिक जीवन में परेशानी एवं अचानक अचानक उतार-चढ़ाव भी इन्हें देखना पड़ता है.

इन कारणों से पूजा पाठ फल नहीं देते- जानिए कारण व रहिए सावधान

आइये यह जानने का प्रयास करते है कि ऐसा क्यों होता है।
वैसे इसके कारण बहुत से हो सकते है परंतु जो बहुत ही सामान्य कारण है जैसे कि…
अनुपयुक्त रत्न पहनना
यदि किसी व्यक्ति ने अनुपयुक्त रत्न पहना होगा या फिर किसी अनुभवहीन के कहने पर कोई रत्न धारण कर लिया होगा और वह रत्न अनुकूल न होने पर सर्वप्रथम आपका मन बेचैन कर देगा। नींद उड़ जाएगी, नींद यदि आएगी तो बुरे और गलत सपने दिखाई देने लगेंगे। ये तो अनुपयुक्त रत्न धारण करने पर तुरंत प्रभाव होंगे परंतु अनुपयुक्त रत्न आपके पूजा पाठ को व्यर्थ बनाना शुरू कर देगा। आपकी पूजा इस प्रकार हो जाएगी जैसेकि छेद युक्त घड़े में पानी डाला जाए।
इस समस्या अर्थात पूजा पाठ का असर न होने पर सर्वप्रथम यह देखे कि अभी हाल ही में आपने कोई रत्न तो धारण नहीं कर लिया है।
पूजा पाठ का आसन और अन्य विकार
हमारे शास्त्रों में पूजा पाठ इत्यादि के लिए आसन का प्रावधान बताया गया है और आसन के बारें में विस्तार से चर्चा की गयी है। इसलिए आप यह सुनिश्चित कर लें कि पूजा पाठ के समय आप उचित आसन का प्रयोग ही करें।
पूजा के समय आप यदि मंत्र पढ़ते है, लंबे पाठ आरती इत्यादि करते है परंतु आसन का प्रयोग नहीं करते तो तो आपकी पूजा का पृथ्वीकरण हो जाएगा। पूजा के फलस्वरूप पैदा हुई ऊर्जा आसन के अभाव में पृथ्वी में समा जाएगी। अंतत: आप अपनी साधना के फल से वंचित हो जाएंगे।
पूजा अर्चना को गुप्त स्थान में करने का विधान बताया गया है क्योंकि यदि पूजा के समय यदि कोई छू देता है तो भी पूजा के फलस्वरूप पैदा हुई ऊर्जा का पृथ्वीकरण हो जायेगा| सामान्य भाषा में हम कहते कि अर्थिन्ग (earthing) हो रहीं है।
पूजा के बाद यदि कोई क्रोध करता है, सो जाता है, निंदा करता है तो भी पूजा का फल पूजा करने वाले को प्राप्त नहीं होता। इसलिए इन बातों से बचने का प्रयास करें।
कभी भी पूजा चारपाई पर बैठ कर न करें | नंगे फर्श पर न बैठें | यदि आसन मिलना सम्भव न हो तो उनी कम्बल प्रयोग कर सकते हैं| अभिप्राय है कि पृथ्वी के सीधे संपर्क में आने से बचें।
भूत प्रेत या अतृप्त आत्मा का होना
सामान्यत: यदि किसी परिवार में किसी अविवाहित सदस्य की अकाल मृत्यु हो जाती है तो उसे अतृप्त आत्मा माना जाता है और अतृप्त आत्मा अपनी मुक्ति के लिए बाधाएं पैदा करती है। पूजा पाठ का लाभ न प्राप्त होने पर इस बिन्दु पर भी ध्यान दें कि आपके परिवार में कहीं इस प्रकार की कोई घटना घटित तो नहीं हुई है यदि ऐसा हुआ है तो उस अतृप्त आत्मा की मुक्ति के लिए शास्त्रों में बताए गए नियमों में निहित विधियों का पालन करें।
घर का किसी अन्य बाधा या वास्तुदोष से ग्रस्त होना
आप किसी नए मकान में रहने के लिए आएं है तो सुनिश्चित कर ले कि आपने अपना घर किसी नि:संतान व्यक्ति से तो नहीं खरीदा है। बहुत बार देखा गया है कि पितृ दोष के फलस्वरूप व्यक्ति नि:संतान रहता है और उससे प्राप्त हुई वस्तु भी दोष ग्रस्त हो सकती है।
यह भी सुनिश्चित कर लें कि आपका घर कब्रिस्तान पर तो नहीं बना है। कब्रिस्तान पर बने घर रहने के लिए उपयुक्त नहीं होते।
घर में पूजा स्थल घर की दक्षिण पश्चिम या पश्चिम दिशा में होने पर भी पूजा पाठ का लाभ प्राप्त नहीं होता।
पूजा पाठ सदा घर के किसी स्थान में करना चाहिए जहां पर आसानी से सबकी दृष्टि नहीं पड़ती। यदि घर में प्रवेश होते ही पूजा स्थल पर सबकी दृष्टि पड़ती है, अर्थात पूजा स्थल छिपा नहीं है तो भी पूजा पाठ का लाभ नहीं मिलता। सीढी के नीचे भी पूजा गृह अच्छा नहीं माना जाता।
मंत्रों का उच्चारण गलत होने पर भी पुजा व्यर्थ होती है
मंत्र हमारे ऋषि मुनियों द्वारा अविष्कृत बहुत ही वैज्ञानिक ध्वनियाँ है। मंत्र जाप से कुछ भी प्राप्त किया जा सकता है। यदि आप नियमित पूजा में मंत्र जाप करते है तो ध्यान रखें कि आपका मंत्र उच्चारण शुद्ध हो अन्यथा पूजा निरर्थक ही होगी। एक अक्षर की गलती आपको मन्त्र से होने वाले लाभ से वंचित रख सकती है | कभी कभी मन्त्र का उच्चारण गलत होने से नुक्सान होता भी देखा गया है | एक एक अक्षर से मन्त्र बनता है यदि कहीं त्रुटी हो तो मन्त्र देने वाले से सही उच्चारण सीख कर ही मंत्र जाप करें।
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सही उच्चारण सीख कर ही मन्त्र जाप करें|
मांस-मदिरा का सेवन
आप शास्त्र अनुसार नियमित पूजा पाठ करते हैं तो आपके खानपान में भी शुद्धता रहनी चाहिए। पूजा पाठ आप करते है परंतु आपके द्वारा या आपके परिवार के किसी अन्य सदस्य द्वारा मांस-मदिरा का सेवन किया जाता है तो पूजा का पूरा फल पाने की उम्मीद न करें
इस विषय पर मैंने बहुत ही संक्षिप्त रूप से विवेचना की है। पूजा पाठ का फल प्राप्त न होने पर इन कारणो पर ध्यान दें,

मंगलवार, 10 अक्तूबर 2017

प्रेम और ज्योतिष

प्रेम एक पवित्र भाव है। मानव मात्र प्रेम के सहारे जीता है और सदैव प्रेम के लिए लालयित रहता है। प्रेम का अर्थ केवल पति-पत्नी या प्रे‍मी-प्रेमिका के प्रेम से नहीं लिया जाना चाहिए। मनुष्य जिस समाज में रहता है, उसके हर रिश्ते से उसे कितना स्नेह- प्रेम मिलेगा, यह बात कुंडली भली-भाँति बता सकती है।
कुंडली का पंचम भाव प्रेम का प्रतिनिधि भाव कहलाता है। इसकी सबल स्थिति प्रेम की प्रचुरता को बताती है। इस भाव का स्वामी ग्रह यदि प्रबल हो तो जिस भाव में स्थित होता है, उसका प्रेम जातक को अवश्य मिलता है।

* पंचमेश लग्नस्थ होने पर जातक को पूर्ण देह सुख व बुद्धि प्राप्त होती है।
* पंचमेश द्वितीयस्थ होने पर धन व परिवार का प्रेम मिलता है।
* तृतीयस्थ पंचमेश छोटे भाई-बहनों से प्रेम दिलाता है।
* पंचमेश चतुर्थ में हो तो माता का, जनता का प्रेम मिलता है।
* पंचमेश पंचम में हो तो पुत्रों से प्रेम मिलता है।
* पंचमेश सप्तम में हो तो जीवनसाथ‍ी से अत्यंत प्रेम रहता है।
* पंचमेश नवम में हो तो भाग्य साथ देता है, ईश्‍वरीय कृपा मिलती है। पिता से प्रेम मिलता है।
* पंचमेश दशमस्थ होकर गुरुजनों, अधिकारियों का प्रेम दिलाता है।
* पंचमेश लाभ में हो तो मित्रों व बड़े भाइयों का प्रेम मिलता है।
पंचमेश की षष्ट, अष्‍ट व व्यय की स्थिति शरीर व प्रेम भरे रिश्तों को नुकसान पहुँचाती है।
पंचम भाव के अतिरिक्त लग्न का स्वामी द्वितीय में जाकर परिवार का, तृतीय में भाई-बहनों का, चतुर्थ में माता व जनता का, पंचम में पुत्र-पुत्री का, सप्तम में पत्नी का, नवम में पिता का व दशम में गुरुजनों का स्नेह दिलाता है।
प्रेम विवाह योग

कुंडली में पंचम भाव का स्वामी प्रबल होकर सप्तम में हो या सप्तमेश पंचम में हो, शुक्र-मंगल युति-प्रतियुति हो, केंद्र या नव पंचम योग हो, लग्नेश पंचम, सप्तम या व्यय में हो, पत्रिका में चंद्र, शुक्र शुभ हो तो प्रेम विवाह अवश्‍य होता है।


यदि सप्तम में स्वराशि का मंगल हो, फिर भी जीवन साथी का भरपूर प्रेम मिलता है। सप्तम व व्यय पर शुभ ग्रहों की दृष्‍टि विवाह सुख बढ़ाती है, प्रेम संबंध प्रबल करती है, वहीं अशुभ ग्रहों की उपस्थिति प्रेम की राह में रोडे अटकाती है।
प्रेम विवाह मुख्यत: शुक्र प्रधान राशियों में देखा जाता है। जैसे वृषभ व तुला ! इसके अतिरिक्त धनु राशि के व्यक्ति रुढि़यों को तोड़ने का स्वभाव होने से प्रेम विवाह करते हैं। इसके अलावा कर्क राशि में यदि चंद्र-शुक्र प्रबल हो तो प्रेम विवाह में रुचि रहती है। पंचम भाव यदि शनि से प्रभावित हो और शनि सप्तम में हो तो प्रेम विवाह अवश्‍य होता है।
* केतु यदि नवम भाव या व्यय में स्थित हो तो मनुष्‍य को आध्यात्मिक प्रेम मिलता है, अलौकिक शक्ति के प्रेम को हासिल करने में उसकी रुचि रहती है।

यदि आप पुत्र चाहते है

दंपति की इच्छा होती है कि उनके घर में आने वाला नया सदस्य पुत्र ही हो। कुछ लोग पुत्र-पुत्री में भेद नहीं करते, ऐसे लोगों का प्रतिशत बहुत कम है। यदि आप पुत्र चाहते हैं या पुत्री चाहते हैं तो कुछ तरीके यहां दिए जा रहे हैं, जिन पर अमल कर उसी तरीके से सम्भोग करें तो आप कुछ हद तक अपनी मनचाही संतान प्राप्त कर सकते हैं-
* पुत्र प्राप्ति हेतु मासिक धर्म के चौथे दिन सहवास की रात्रि आने पर एक प्याला भरकर चावल का धोवन यानी मांड में एक नीबू का रस निचोड़कर पी जावें। अगर इच्छुक महिला रजोधर्म से मुक्ति पाकर लगातार तीन दिन चावल का धोवन यानी मांड में एक नीबू निचोड़कर पीने के बाद उत्साह से पति के साथ सहवास करे तो उसकी पुत्र की कामना के लिए भगवान को भी वरदान देना पड़ेगा। गर्भ न ठहरने तक प्रतिमाह यह प्रयोग तीन दिन तक करें, गर्भ ठहरने के बाद नहीं करें।
* गर्भाधान के संबंध में आयुर्वेद में लिखा है कि गर्भाधान ऋतुकाल (मासिक धर्म) की आठवीं, दसवीं और बारहवीं रात्रि को ही किया जाना चाहिए। जिस दिन मासिक ऋतु स्राव शुरू हो, उस दिन तथा रात को प्रथम दिन या रात मानकर गिनती करना चाहिए। छठी, आठवीं आदि सम रात्रियां पुत्र उत्पत्ति के लिए और सातवीं, नौवीं आदि विषम रात्रियां पुत्री की उत्पत्ति के लिए होती हैं अतः जैसी संतान की इच्छा हो, उसी रात्रि को गर्भाधान करना चाहिए।
* इस संबंध में एक और बात का ध्यान रखें कि इन रात्रियों के समय शुक्ल पक्ष यानी चांदनी रात (पूर्णिमा) वाला पखवाड़ा भी हो, यह अनिवार्य है, यानी कृष्ण पक्ष की रातें हों तो गर्भाधान की इच्छा से सहवास न कर परिवार नियोजन के साधन अपनाना चाहिए।
* शुक्ल पक्ष में जैसे-जैसे तिथियां बढ़ती हैं, वैसे-वैसे चन्द्रमा की कलाएं बढ़ती हैं। इसी प्रकार ऋतुकाल की रात्रियों का क्रम जैसे-जैसे बढ़ता है, वैसे-वैसे पुत्र उत्पन्न होने की संभावना बढ़ती है, यानी छठवीं रात की अपेक्षा आठवीं, आठवीं की अपेक्षा दसवीं, दसवीं की अपेक्षा बारहवीं रात अधिक उपयुक्त होती है।
* पूरे मास में इस विधि से किए गए सहवास के अलावा पुनः सहवास नहीं करना चाहिए, वरना घपला भी हो सकता है। ऋतु दर्शन के दिन से 16 रात्रियों में शुरू की चार रात्रियां, ग्यारहवीं व तेरहवीं और अमावस्या की रात्रि गर्भाधान के लिए वर्जित कही गई है। सिर्फ सम संख्या यानी छठी, आठवीं, दसवीं, बारहवीं और चौदहवीं रात्रि को ही गर्भाधान संस्कार करना चाहिए।
* गर्भाधान वाले दिन व रात्रि में आहार-विहार एवं आचार-विचार शुभ पवित्र रखते हुए मन में हर्ष व उत्साह रखना चाहिए। गर्भाधान के दिन से ही चावल की खीर, दूध, भात, शतावरी का चूर्ण दूध के साथ रात को सोते समय, प्रातः मक्खन-मिश्री, जरा सी पिसी काली मिर्च मिलाकर ऊपर से कच्चा नारियल व सौंफ खाते रहना चाहिए, यह पूरे नौ माह तक करना चाहिए, इससे होने वाली संतान गौरवर्ण, स्वस्थ, सुडौल होती है।
* गोराचन 30 ग्राम, गंजपीपल 10 ग्राम, असगंध 10 ग्राम, तीनों को बारीक पीसें, चौथे दिन स्नान के बाद पांच दिनों तक प्रयोग में लाएं, गर्भधारण के साथ ही पुत्र अवश्य पैदा होगा।

शक्तिशाली व गोरे पुत्र प्राप्ति के लिए—

गर्भिणी स्त्री ढाक (पलाश) का एक कोमल पत्ता घोंटकर गौदुग्ध के साथ रोज़ सेवन करे | इससे बालक शक्तिशाली और गोरा होता है | माता-पीता भले काले हों, फिर भी बालक गोरा होगा | इसके साथ सुवर्णप्राश की २-२ गोलियां लेने से संतान तेजस्वी होगी |
यदि आपकी संनात होती हो परन्तु जीवित न रहती हो तो सन्तान होने पर मिठाई के स्थान पर नमकीन बांटें। भगवान शिव का अभिषेक करायें तथा सूर्योदय के समय तिल के तेल का दीपक पीपल के पेड़ के पास जलायें, लाभ अवश्य होगा। मां दुर्गा के दरबार में सुहाग सामिग्री चढ़ाये तथा कुंजिका स्तात्र का पाठ करें तो भी अवश्य लाभ मिलेगा।

पुत्र प्राप्ति हेतु गर्भाधान का तरीका—–

पुराने आयुर्वेद ग्रंथों में पुत्र-पुत्री प्राप्ति हेतु दिन-रात, शुक्ल पक्ष-कृष्ण पक्ष तथा माहवारी के दिन से सोलहवें दिन तक का महत्व बताया गया है। धर्म ग्रंथों में भी इस बारे में जानकारी मिलती है।

यदि आप पुत्र प्राप्त करना चाहते हैं और वह भी गुणवान, तो हम आपकी सुविधा के लिए हम यहाँ माहवारी के बाद की विभिन्न रात्रियों की महत्वपूर्ण जानकारी दे रहे हैं।

* चौथी रात्रि के गर्भ से पैदा पुत्र अल्पायु और दरिद्र होता है।

* पाँचवीं रात्रि के गर्भ से जन्मी कन्या भविष्य में सिर्फ लड़की पैदा करेगी।

* छठवीं रात्रि के गर्भ से मध्यम आयु वाला पुत्र जन्म लेगा।

* सातवीं रात्रि के गर्भ से पैदा होने वाली कन्या बांझ होगी।

* आठवीं रात्रि के गर्भ से पैदा पुत्र ऐश्वर्यशाली होता है।

* नौवीं रात्रि के गर्भ से ऐश्वर्यशालिनी पुत्री पैदा होती है।

* दसवीं रात्रि के गर्भ से चतुर पुत्र का जन्म होता है।

* ग्यारहवीं रात्रि के गर्भ से चरित्रहीन पुत्री पैदा होती है।

* बारहवीं रात्रि के गर्भ से पुरुषोत्तम पुत्र जन्म लेता है।

* तेरहवीं रात्रि के गर्म से वर्णसंकर पुत्री जन्म लेती है।

* चौदहवीं रात्रि के गर्भ से उत्तम पुत्र का जन्म होता है।

* पंद्रहवीं रात्रि के गर्भ से सौभाग्यवती पुत्री पैदा होती है।

* सोलहवीं रात्रि के गर्भ से सर्वगुण संपन्न, पुत्र पैदा होता है।
व्यास मुनि ने इन्हीं सूत्रों के आधार पर पर अम्बिका, अम्बालिका तथा दासी के नियोग (समागम) किया, जिससे धृतराष्ट्र, पाण्डु तथा विदुर का जन्म हुआ। महर्षि मनु तथा व्यास मुनि के उपरोक्त सूत्रों की पुष्टि स्वामी दयानंद सरस्वती ने अपनी पुस्तक ‘संस्कार विधि’ में स्पष्ट रूप से कर दी है। प्राचीनकाल के महान चिकित्सक वाग्भट तथा भावमिश्र ने महर्षि मनु के उपरोक्त कथन की पुष्टि
पूर्णरूप से की है।

गर्भाधान मुहूर्त—–

जिस स्त्री को जिस दिन मासिक धर्म हो,उससे चार रात्रि पश्चात सम रात्रि में जबकि शुभ ग्रह केन्द्र (१,४,७,१०) तथा त्रिकोण (१,५,९) में हों,तथा पाप ग्रह (३,६,११) में हों ऐसी लग्न में पुरुष को पुत्र प्राप्ति के लिये अपनी स्त्री के साथ संगम करना चाहिये। मृगशिरा अनुराधा श्रवण रोहिणी हस्त तीनों उत्तरा स्वाति धनिष्ठा और शतभिषा इन नक्षत्रों में षष्ठी को छोड कर अन्य तिथियों में तथा दिनों में गर्भाधान करना चाहिये,भूल कर भी शनिवार मंगलवार गुरुवार को पुत्र प्राप्ति के लिये संगम नही करना चाहिये।

मंगलवार, 3 अक्तूबर 2017

जीवन साथी किस दिशा में होगा

कुंडली में जीवनसाथी का मुख्य भाव होता है सप्तम भाव। इस भाव की प्रबलता या निर्बलता के आधार पर विवाह की संभावना, सफलता या असफलता के बारे में जाना जाता है। यदि विवाह भाव प्रबल है तो जीवन साथी का साथ मिलेगा यह पक्का हो जाता है। फिर प्रश्न आता है साथी की दिशा निर्धारित करने का।

सबसे पहले विवाह भाव यानि सप्तम भाव में जो राशि है उसे देखा जाता है। इस भाव के स्वामी को भी देखते हैं। यदि भावेश प्रबल है, अच्छी स्थिति में है तो इस राशि की दिशा के अनुसार साथी के मिलने की दिशा के बारे में जाना जा सकता है। तत्पश्चात नजर इस भाव में बैठे ग्रह पर भी डालें।

यदि इस भाव में बैठा ग्रह भाव के स्वामी से प्रबल है, तो इस ग्रह की दिशा के अनुसार साथी की दिशा मानना चाहिए। यदि भावेश और सप्तम में बैठा ग्रह समान रूप से प्रभावशाली है, तो दोनों के मध्य की दिशा जानना चाहिए। यदि ग्रह कमजोर है मगर भाव का स्वामी प्रबल है तो भाव के स्वामी यानी भावेश की दिशा को ही साथी की दिशा मानना चाहिए।

नीचे विभिन्न ग्रहों की दिशा दी जा रही है :-

ND
चन्द्र : वायव्य दिशा
बुध : उत्तर दिशा
शुक्र : आग्नेय दिशा
सूर्य : पूर्व दिशा
मंगल : दक्षिण दिशा
गुरु : ईशान दिशा
शनि : पश्चिम दिशा
राहू-केतु : नैऋत्य दिशा

उदाहरण के लिए यदि सप्तम भाव में मेष राशि है तो राशि का स्वामी यानि भावेश मंगल हुआ। यदि मंगल स्वराशि का है, यानि प्रबल है तो मंगल की दिशा यानि दक्षिण दिशा को ही साथी की दिशा मानना चाहिए। यदि मंगल कमजोर है, मगर सप्तम में चन्द्र है जो शुभ प्रभाव में है तो वायव्य दिशा को साथी की दिशा मानना चाहिए।

यदि मंगल और चन्द्र दोनों ही प्रबल हो तो इनके मध्य की दिशा को लिया जाना चाहिए। इस प्रकार से उपरोक्त विधि से साथी की दिशा का एक अंदाज लगाया जा सकता है।

किस दिशा में और ससुराल की कितनी दुरी

ससुराल की दूरी:

सप्तम भाव में अगर वृष, सिंह, वृश्चिक या कुंभ राशि स्थित हो, तो लड़की की शादी उसके जन्म स्थान से 90 किलोमीटर के अंदर ही होगी। यदि सप्तम भाव में चंद्र, शुक्र तथा गुरु हों, तो लड़की की शादी जन्म स्थान के समीप होगी। यदि सप्तम भाव में चर राशि मेष, कर्क, तुला या मकर हो, तो विवाह उसके जन्म स्थान से 200 किलोमीटर के अंदर होगा। अगर सप्तम भाव में द्विस्वभाव राशि मिथुन, कन्या, धनु या मीन राशि स्थित हो, तो विवाह जन्म स्थान से 80 से 100 किलोमीटर की दूरी पर होगा। यदि सप्तमेश सप्तम भाव से द्वादश भाव के मध्य हो, तो विवाह विदेश में होगा या लड़का शादी करके लड़की को अपने साथ लेकर विदेश चला जाएगा।

शादी की आयु:

यदि जातक या जातका की जन्म लग्न कुंडली में सप्तम भाव में सप्तमेश बुध हो और वह पाप ग्रह से प्रभावित न हो, तो शादी 13 से 18 वर्ष की आयु सीमा में होता है। सप्तम भाव में सप्तमेश मंगल पापी ग्रह से प्रभावित हो, तो शादी 18 वर्ष के अंदर होगी। शुक्र ग्रह युवा अवस्था का द्योतक है। सप्तमेश शुक्र पापी ग्रह से प्रभावित हो, तो 25 वर्ष की आयु में विवाह होगा। चंद्रमा सप्तमेश होकर पापी ग्रह से प्रभावित हो, तो विवाह 22 वर्ष की आयु में होगा। बृहस्पति सप्तम भाव में सप्तमेश होकर पापी ग्रहों से प्रभावित न हो, तो शादी 27-28 वें वर्ष में होगी। सप्तम भाव को सभी ग्रह पूर्ण दृष्टि से देखते हैं तथा सप्तम भाव में शुभ ग्रह से युक्त हो कर चर राशि हो, तो जातिका का विवाह दी गई आयु में संपन्न हो जाता है। यदि किसी लड़की या लड़के की जन्मकुंडली में बुध स्वराशि मिथुन या कन्या का होकर सप्तम भाव में बैठा हो, तो विवाह बाल्यावस्था में होगा।
आयु के जिस वर्ष में गोचरस्थ गुरु लग्न, तृतीय, पंचम, नवम या एकादश भाव में आता है, उस वर्ष शादी होना निश्चित समझना चाहिए। परंतु शनि की दृष्टि सप्तम भाव या लग्न पर नहीं होनी चाहिए। अनुभव में देखा गया है कि लग्न या सप्तम में बृहस्पति की स्थिति होने पर उस वर्ष शादी हुई है।

विवाह कब होगा

यह जानने की दो विधियां यहां प्रस्तुत हैं। जन्म लग्न कुंडली में सप्तम भाव में स्थित राशि अंक में 10 जोड़ दें। योगफल विवाह का वर्ष होगा। सप्तम भाव पर जितने पापी ग्रहों की दृष्टि हो, उनमें प्रत्येक की दृष्टि के लिए 4-4 वर्ष जोड़ योगफल विवाह का वर्ष होगा।

पति का अपना मकान

लड़की की कुंडली में दसवां भाव उसके पति का भाव होता है। दशम भाव अगर शुभ ग्रहों से युक्त या दृष्ट हो, या दशमेश से युक्त या दृष्ट हो, तो पति का अपना मकान होता है।

   
पति का मकान बहुत विशाल

राहु, केतु, शनि, से भवन बहुत पुराना होगा। मंगल ग्रह में मकान टूटा होगा। सूर्य, चंद्रमा, बुध, गुरु एवं शुक्र से भवन सुंदर, सीमेंट का दो मंजिला होगा। अगर दशम स्थान में शनि बलवान हो, तो मकान बहुत विशाल होगा।
       विदेश में पति या ससुराल

यदि सप्तमेश सप्तम भाव से द्वादश भाव के मध्य हो,तो विवाह विदेश में होगा या लड़का शादी करके लड़की को अपने साथ लेकर विदेश चला जाएगा।
कुंडली में जहां शुक्र स्थित है उस से सातवें स्थान पर जो राशि स्थित है उस राशि के स्वामी की दिशा में ही विवाह होता है| ग्रहों के स्वामी व उनकी दिशा निम्न प्रकार है:-

राशि स्वामी दिशा

मेष, वृश्चिक मंगल दक्षिण

वरिश, तुला शुक्र अग्नि कोण (दक्षिण-पूर्व)

मिथुन, कन्या बुध उत्तर

कर्क चंद्रमा वायव्य कोण (उत्तर-पश्चिम)

सिंह सूर्य पूर्व

धनु, मीन गुरु ईशान (उत्तर-पूर्व)

मकर, कुम्भ शनि पश्चिम

मतान्तर से मिथुन के स्वामी राहु व धनु के स्वामी केतु माने गए हैं तथा इनकी दिशा नैऋत्य (दक्षिण-पश्चिम) कोण मानी गयी है|उदाहरण के लिए किसी कन्या का जन्म लग्न मेष है व शुक्र उसके पंचम भाव में बैठे हैं तो शुक्र से 7 गिनने पर 11 वां भाव आता है, जहां कुम्भ राशि है| इसके स्वामी शनि हैं| राशि कि दिशा पश्चिम है| इसलिए इस कन्या का ससुराल जन्म स्थान से पश्चिम दिशा में होगा| कन्या के पिता को चाहिए कि वह इस दिशा से प्राप्त विवाह प्रस्तावों पर प्रयास करें ताकि समय व धन की बचत हो|
सहायता से मिल जाती हैं।
विवाह दिशा निर्धारण में दो मत हैं। प्रथम मत के अनुसार शुक्र के सातवें स्थान का स्वामी जिस दिशा का अधिपति होता है, उसी दिशा में कन्या (बेटी) का विवाह होता है। दूसरे मत के अनुसार सप्तमेश जिस ग्रह के घर में बैठा होता है, उस ग्रह की दिशा में ही कन्या का विवाह होता है। प्रकारान्तर से दोनों मत मान्य हैं।
प्रथम मत कभी-कभी गलत भी हो सकता है परन्तु दूसरा मत ब$डा ही सटीक है। अत: इसी मत के विषय में यहां विस्तार से बताया जा रहा है। सप्तमेश अगर सूर्य हो और वह अपनी ही राशि में बैठा हो अथवा कोई भी ग्रह सप्तमेश होकर सिंह राशि में बैठा हो तो पूर्व दिशा में विवाह होगा अथवा इसके ठीक उल्टा पश्चिम दिशा में होगा। सप्तमेश अगर कर्क राशि में बैठा हो तो पश्चिमोत्तर दिशा में अर्थात वायव्य कोण मेें अथवा इसके ठीक विपरीत अग्निकोण (पूर्व-दक्षिण के कोण) पर विवाह का योग होता है। सप्तमेश यदि मंगल की राशि मेष अथवा वृश्चिक में बैठा हो तो दक्षिण दिशा में अथवा इसके ठीक विपरीत उत्तर दिशा में विवाह होता है।
सप्तमेश यदि बुध की राशि मिथुन अथवा कन्या में बैठा हो तो उत्तर अथवा दक्षिण दिशा में कन्या का विवाह होना बताया जाता है। सप्तमेश अगर गुरू की राशि धनु अथवा मीन में हो तो विवाह ईशान कोण अर्थात पूर्वोत्तर (नैत्रदत्य) दिशा में विवाह होने का योग बनता है। सप्तमेश यदि शुक्र की राशि वृष या तुला में स्थित हो तो विवाह आग्नेय (पूर्व-दक्षिण) अथवा वायव्य (पश्चिमोत्तर) दिशा में होता है। सप्तमेश अगर शनि की राशि मकर अथवा कुम्भ में स्थित हो तो पश्चिम दिशा अथवा ठीक उल्टा पूर्व दिशा में विवाह होना चाहिए।
दिशा निर्धारण के बाद कन्या के ससुराल की दूरी को इन विधियों से जाना जा सकता है। इसके लिए सप्तमेश अंशों को देखा जाता है तथा सूर्यादि ग्रहों की गति को भी जानना आवश्यक होता है। सप्तमेश जितनी यात्रा कर सप्तमेश जितनी यात्रा कर चुका हो, उतने ही किलोमीटर की दूरी पर विवाह हो सकता है। अंश का निर्धारण बहुत ही सावधानी पूर्वक किया जाता है। सप्तमेश चन्द्रमा से जितने घर आगे होगा, उतने ही प्रति घर तीस डिग्री के हिसाब से दिशा में परिवर्तन होगा। सप्तमेश जिसके गृह में बैठा होगा, उसी के अनुसार वर या कन्या का घर होगा।
मान लें कि सप्तमेश शनि स्वगृही है या अन्य कोई भी ग्रह सप्तमेश होकर शनि के घर में बैठा हो तो निश्चित रूप से वर या कन्या का घर टूटा-फूटा या पुराना खण्डहर जैसा होगा अथवा ऐसा होगा जिसमें नौकर रहते थे या निन्दनीय कार्य करने वाले लोग रहते रहे थे। यह मात्र एक उदाहरण था। इसी प्रकार अन्य ग्रहों के प्रभाव के कारण भी होता है। अगर सप्तमेश सूर्य के घर में बैठा हो तो ससुराल वाले घर के समीप शिव का मन्दिर अवश्य होगा।
सप्तमेश अगर कर्कराशि (चन्द्र के गृह) में बैठा हो तो कन्या का ससुराल किसी नदी या जल के समीप स्थित होगा। उस मकान में अथवा मकान के निकट दुर्गा जी का मंदिर अवश्य होना चाहिए। यह भी संभव है कि उस स्थान के निकट शराब या दवा निर्माण का भी कार्य होता हो। कन्या के ससुराल के लोग दुर्गा माता के भक्त होंगे।
सप्तमेश अगर (मंगल के गृह) मेष अथवा वृश्चिक में बैठा हो तो कन्या के ससुराल में या उसके घर के निकट अग्नि से संबंधित व्यवसाय (रेस्टोरेन्ट, चाय की दुकान) होगी। सप्तमेश यदि (बुध के घर) मिथुन अथवा कन्या राशि में बैठा हो तो कन्या के परिवार वाले प$ढे-लिखे एवं विष्णु के भक्त होते हैं। कन्या की सास या ससुर परमैथुन के अभ्यस्त होते हैं। कन्या को ससुर से बचकर ही रहने की सलाह ज्योतिष शास्त्र देता है। सप्तमेश अगर बृहस्पति की राशि धनु अथवा मीन में बैठा हो तो कन्या का विवाह किसी तीर्थ स्थल में होना संभव होता है। ससुराल के लोग शिव भक्त होते हैं सप्तमेश अगर बृहस्पति की राशि धनु अथवा मीन में बैठा हो तो कन्या का विवाह किसी तीर्थ स्थल में होना संभव होता है। ससुराल के लोग शिव भक्त होते हैं।
सप्तमेश अगर शुक्र की राशि वृष अथवा तुला में बैठा हो तो जातक के ससुराल के निकट कोई नदी होती है तथा ससुराल पक्ष के लोग देवी के भक्त होते हैं। ससुराल के व्यक्ति व्यापारी तथा खुशहाल होते हैं। सप्तमेश भले ही किसी भी राशि में बैठा हो और वह राहू से संयुक्त हो तो ससुराल के लोग पितृ पक्ष मे कमजोर होते हैं।अगर सप्तमेश केतु से प्रभावित हो तो ससुराल के लोग पितृ पक्ष से आर्थिक रूप से मजबूत होते हैं। विवाह के पश्चात कन्या काफी सुखी रहती है तो वह मालकिन बनकर ससुराल वालों के हृदय पर राज्य करती रहती है।यह ज्योतिषीए बिन्दू लगभग कसोटी पर खरे उतरते है।किन्तु वर्तमान मे बढती विवाह की उम्र तथा भौतिकवादी अवधारणा व देशकाल और लोकाचार को ध्यान मे रखते हुए विवेचना करे।

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