सोमवार, 29 जनवरी 2018

जानिये किस ग्रह के कारण हैं आप परेशान…

 आज मैं आपकों इन नियमों के फेर से बचने के लिये प्रत्येक ग्रह के अशुभ फल बता रहा हूं जिनकी मदद से आप आसानी से जान  पाओगे की वास्तव में आप को कौन सा ग्रह परेशान कर रहा हैं। ये किसी पुस्तक  का लेख न होकर मेरे अनुभव पर अधारित हैं जिन्हे मैने कई बार परखा है।

अशुभ सूर्य के प्रभाव पहचान-  व्यक्ति के अंदर अहंकार की भावना  बढना,  पैतृक घर में बदलाव होना, घर के मुख्य को परेशानी आना, कानूनी  विवादों में फंसना, पिता के कारण या उसकी सम्पति के कारण विवाद होना, पत्नि  से विछोह होना, सीनीयर अधिकारी से विवाद, दांत, बाल, आंख व हृदय में रोग  होना, सरकारी नौकरी में अडचन आना आदि।
अशुभ चंद्र के प्रभाव  पहचान- घर-परिवार के सुखमी आना,  मानसिक रोगों से परेशान होना, भय व घबराहट की स्थिति बनी रहना, माता से  दूरियां, सर्दी-जुखाम रहना, छाती सम्बंधित रोग, या रोगों का बना रहना,  कार्य व धन में अस्थिरता।

अशुभ मंगल के प्रभाव पहचान- मन में क्रोध व चिडचिडापन रहना,  भाइयों से विरोध होना, रक्त सम्बंधी विकार, मकान या जमीन के कारण परेशान  होना, अग्निभय या चोट-खरोच लगना, मशीन इत्यादि से नुकसान होना।

अशुभ बुध के प्रभाव- अल्पबुद्धि होना, बोलने और सुनने में  दिक्कत होना, आत्मविश्वास की कमी होना, नपुंसकता, व्यापार में हानि होना,  माता से विरोध होना, शिक्षा में बाधायें आना, मित्रों से धोखे मिलना।

अशुभ गुरु के प्रभाव
 बडे भाई, गुरुजन से विरोध व अनैतिक मार्ग  से हानि होना, अधिकारी से विवाद, अहंकारी होना, धर्म से जुडकर अधर्म करना,  पाखंडी, स्त्रियों के विवाह सुख को हीन करना, संतान दोष, अपमान व अपयश  होना, मोटापा आना, सूजन व चर्बी के रोग होना।

 अशुभ शुक्र के प्रभाव-  अशुभ शुक्र स्त्रि सुखों से दूर करता हैं,  सेक्स रोग, विवाह बाधा, प्रेम में असफलता मिलना, चंचल होना, अपने साथी के  साथ धोखा करना, सुखों से हीन होना,

शुभ शनि के प्रभाव- शनि के कारण जातक झडालूं, आलसी, दरिद्री,  अधिक निद्रा आना, वैराग्य से युक्त, पांव में या नशों से सम्बंधित व स्टोन  की दिक्कत आना, उपेक्षाओं का शिकार होना, विवाह बाधायें आना, नपुंसकता आदि  होना।

अशुभ राहु के प्रभाव- नशे इत्यादि के प्रति रूचि बढना, गलत  कार्यो से जुडना, शेयर मार्किट आदि से हानि होना, घर-गृहस्थी से दूर होना,  जेल या कानूनी अपराधों में संलग्न होना, फोडे फुंसी व घृणित रोग होना।

अशुभ केतु के प्रभाव केतु के प्रभाव राहु मंगल के मिश्रित फल  जैसे होते हैं। अत्यधिक क्रोधी, शरीर में अधिक अम्लता होना जिस कारण पेट  में जलन होती हैं तथा चेहरे पर दाग धब्बे होते हैं। किसी प्रकार के आप्रेशन  से गुजरना पडता हैं।

शुक्रवार, 19 जनवरी 2018

कालसर्प दोष प्रकार एवं उपाय

अग्रे राहुरध: केतु सर्वे मध्यगता: ग्रहा: | योगोयं कालसर्पाख्यो शीघ्रं तं तु विनाशय ||
आगे राहु हो या निचे केतु, मध्य में सभी सातों ग्रह विधमान हो तो कालसर्प योग बनता है |
कालसर्प योग का प्रभाव :
काल सर्प योग में उत्पन्न जातक को मानसिक अशांति, धनप्राप्ति में बाधा, संतान अवरोध एवं गृहस्थी में प्रतिपल कलह के रूप में प्रकट होता है। प्रायः जातक को बुरे स्वप्न आते हैं। कुछ न कुछ अशुभ होने की आशंका मन में बनी रहती है। जातक को अपनी क्षमता एवं कार्यकुशलता का पूर्ण फल प्राप्त नहीं होता है, कार्य अक्सर देर से सफल होते हैं। अचानक नुकसान एवं प्रतिष्ठा की क्षति इस योग के लक्षण हैं। जातक के शरीर में वात, पित्त, कफ तथा त्रिदोषजन्य असाध्य रोग अकारण उत्पन्न होते हैं। ऐसे रोग जो प्रतिदिन क्लेश (पीड़ा) देते हैं तथा औषधि लेने पर भी ठीक नहीं होते हों, काल सर्प योग के कारण होते हैं।जन्मपत्रिका के अनुसार जब-जब राहु एवं केतु की महादशा, अंतर्दशा आदि आती है तब यह योग असर दिखाता है। गोचर में राहु व केतु का जन्मकालिक राहु-केतु व चंद्र पर भ्रमण भी इस योग को सक्रिय कर देता है।
कालसर्प योग के भेद: काल सर्प योग उदित, अनुदित भेद से दो प्रकार के होते हैं। राहु के मुख मेें सभी सातों ग्रह ग्रसित हो जाएं तो उदित गोलार्द्ध नामक योग बनता है एवं राहु की पृष्ठ में यदि सभी ग्रह हों तो अनुदित गोलार्द्ध नामक योग बनता है।यदि लग्न कुंडली में सभी सातों ग्रह राहु से केतु के मध्य में हो लेकिन अंशानुसार कुछ ग्रह राहु केतु की धुरी से बाहर हों तो आंशिक काल सर्प योग कहलाता है। यदि कोई एक ग्रह राहु-केतु की धुरी से बाहर हो तो भी आंशिक काल सर्प योग बनता है। यदि केवल चंद्रमा अपनी तीव्रगति के कारण राहु केतु की धुरी से बाहर भी हो जाता है, तो भी काल सर्प दोष बना रहता है। अतः मुख्यतः छः ग्रह शनि, गुरु, मंगल व सूर्य, बुध, शुक्र राहु के एक ओर हैं तो काल सर्प दोष बनता है।
यदि राहु से केतु तक सभी भावों में कोई न कोई ग्रह स्थित हो तो यह योग पूर्ण रूप से फलित होता है। यदि राहु-केतु के साथ सूर्य या चंद्र हो तो यह योग अधिक प्रभावशाली होता है। यदि राहु, सूर्य व चंद्र तीनों एक साथ हों तो ग्रहण काल सर्प योग बनता है। इसका फल हजार गुना अधिक हो जाता है। ऐसे जातक को काल सर्प योग की शांति करवाना अति आवश्यक होता है।
बुध व शुक्र सूर्य के साथ ही विद्यमान रहते हैं। एवं सूर्य को राहु-केतु के एक ओर से दूसरी ओर आने में 6 माह तक लगते हैं। अतः काल सर्प योग अधिकतम 6 माह या उससे कम ही रहता है।
जब जब कालसर्प योग की स्थिति बनती है, पृथ्वी पर ग्रहों का गुरुत्वाकर्षण एक ओर बढ़ जाता है। जिसके कारण पृथ्वी पर अधिक हलचल रहती है व अधिक भूकंप व सुनामी आदि आते हैं। भूकंप की तीव्रता बढ़ जाती है। ऐसा पाया गया है कि अस्पताल में गर्भपात के केस अधिक होते हैं या अधिक मात्रा में आपरेशन होते हैं, खून का स्राव अधिक होता है एवं मानसिक रोग अधिक होते हैं। अतः कालसर्प दोष का प्रभाव विशेष देखने में आता है।
कालसर्प योग के प्रकार:
द्वादश भावों में राहु की स्थिति के अनुसार काल सर्प योग मुख्यतः द्वादश प्रकार के होते हैं। राहु जिस भाव में होकर कालसर्प दोष बनाता है उसी भाव के फल प्राप्त होते हैं। जैसे -
1 अनंत- स्वास्थ्य में परेशानी रहती है। षडयंत्र एवं सरकारी परेशानियों को झेलना पड़ता है। अनंत दुखों का सामना करना पड़ता है। बात-बात पर झूठ बोलना पड़ता है। पत्नी से झगड़ा रहता है।
2 कुलिक- आंखों में परेशानी रहती है, पेट खराब रहता है। लोग बोलने को गलत समझ लेते हैं और उसकी सफाई देनी पड़ती है। धन की कमी महसूस होती है। कुल में क्लेश झेलने पड़ते हैं।
3 वासुकि- कानों के कष्टों से पीडि़त रहते हैं। भाई बहनों से मेल मिलाप में कमी रहती है। कभी-कभी ऊर्जा का अभाव महसूस होता है। कैंसर आदि रोग से भी ग्रसित होने का भय होता है।
4 शंखपाल- माता-पिता का स्वास्थ्य खराब रहता है। घर में कलह बनी रहती है। घर में व वाहन में कुछ न कुछ मरम्मत की आवश्यकता पड़ती रहती है। काम में मन नहीं लगता है। व्यवसाय में नुकसान झेलना पड़ता है।
5 पदम्- संतान कहना नहीं मानती या संतान से कष्ट होता है। सोच-विचार कर किए गए कार्य भी हानि देते हैं। या आखिर में छोटी गलती के कारण नुकसान झेलना पड़ता है।
6 महापदम- स्वास्थ्य परेशान करता है। मामा की ओर से नुकसान होता है। खर्चे अधिक हो जाते हैं। अचानक अस्पताल आदि पर खर्च हो जाता हैं। जो वित्तीय प्रवाह को बिगाड़ देता है। अक्सर दुश्मन हावी हो जाते हैं या समय व पैसा बर्वाद करवा देते हैं।
7 तक्षक- पत्नी साथ नहीं देती। पारिवारिक व गृहस्थ जीवन उजड़ा सा रहता है। अपना स्वास्थ्य भी कभी-कभी अचानक खराब हो जाता है। धन हानि होती है।
8 कर्कोटक- स्वास्थ्य का विशेष ध्यान रखना पड़ता है। पेट की बीमारी व अपचन बनी रहती है। लोग थोड़ा बोलने पर भी प्रतिक्रिया करते हैं। धन संचय में परेशानी होती है। परिवार में कलह होती है।
9 शंखचुड- बड़े लोगों से मिलने में धन व समय नष्ट होता है। सिर दर्द या चक्कर आने का रोग हो जाता है। भाग्य साथ नहीं देता। हर काम में दुगनी मेहनत करनी पड़ती है।
10 घातक- पिता से विचार नहीं मिलते हैं। अचानक हानि हो जाती है। परिवार में कलह रहती है। एक काम अच्छी तरह से सेट नहीें होता। माता-पिता का स्वास्थ्य ध्यान आकर्षित करता रहता है।
11 विषधर- लाभ अचानक हानि में बदल जाता है। बड़े भाई बहनों का सहयोग नहीं प्राप्त होता। मित्र मंडली समय खराब कर देती है। एक से अधिक संबंध पारिवारिक कलह का कारण बनते हैं।
12 शेष नाग- रोग व अस्पताल पर विशेष व्यय होता है। कैंसर जैसे रोग तंग करते हैं। अपव्यय होता है। निरर्थक यात्रा होती है। समय-समय पर पैसे की दिक्कत महसूस होती है।

कुछ मुख्य उपाय

1. प्रति वर्ष मे एक बार किसी सिद्धस्थल जैंसे अमलेश्वर महाकाल धाम जाकर कालसर्प दोष की शांति करवाए एवं वर्ष मे एक-दों बार घर मे या मंदिर मे काल सर्पं शांति करवाएं। 2. नाग पंचमी पर रुद्राभिषेक करवाएं व नाग नागिन के एक या नौ जोड़े विसर्जित करें। 3. कालसर्प अंगूठी, लाकेट या यंत्र धारण करें। 4. भगवान विष्णु, शिव, राहु व केतु का पाठ व मंत्र जाप करें। 5. कालसर्प योग यंत्र के सम्मुख 43 दिन तक सरसों के तेल का दीया जलाकर निम्न मंत्र का जप करें। 6. ग्रहण के दिन तुला दान करें व नीले कंबल दान करें। 7. "ॐ नम: शिवाय" मंत्र का जप प्रतिदिन रुद्राक्ष माला पर करें व माला को धारण करें। 8. गरुड़ भगवान की पूजा करें। 9. 7 बुधवार एकाक्षी नारियल अपने ऊपर से उतारकर प्रवाहित करें। 10. 8, 9, व 13 मुखी रुद्राक्ष का कवच धारण करें।

मंगल ग्रह-एक दृष्टि

मंगल स्वभाव से तामसी और उग्र ग्रह है
विवाह संबंधों में मंगल दोष प्रमुख व्यवधान होता है और कई बार अज्ञानतावश भी मंगल वाली कुंडली का हौआ बना दिया जाता है और जातक का विवाह हो ही नहीं पाता। मंगल स्वभाव से तामसी और उग्र ग्रह है। यह जिस स्थान पर बैठता है उसका भी नाश करता है जिसे देखता है उसकी भी हानि करता है। केवल मेष व वृश्चिक राशि (स्वग्रही) में होने पर यह हानि नहीं करता। जब कुंडली में मंगल प्रथम, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम या द्वादश स्थान में हो तो पत्रिका मांगलिक मानी जाती है।

प्रथम स्थान का मंगल सातवीं दृष्टि से सप्तम को व चतुर्थ दृष्टि से चौथे घर को देखता है। इसकी तामसिक वृत्ति से वैवाहिक जीवन व घर दोनों प्रभावित होते हैं।चतुर्थ मंगल मानसिक संतुलन बिगाड़ता है, गृह सौख्‍य में बाधा पहुँचाता है, जीवन को संघर्षमय बनाता है। चौथी दृष्टि से यह सप्तम स्थान यानी वैवाहिक जीवन को प्रभावित करता है।सप्तम मंगल जीवनसाथी से मतभेद बनाता है व मतभेद कई बार तलाक तक पहुँच सकते हैं।अष्टम मंगल संतति सुख को प्रभावित करता है। जीवन साथी की आयु कम करता है।द्वादश मंगल विवाह व शैय्या सुख को नष्ट करता है। विवाह से नुकसान व शोक का कारक है।

कब नष्ट होता है यह दोष

मंगल गुरु की शुभ दृष्टि में होकर्क व सिंह लग्न में (मंगल राजयोगकारक ग्रह है।)उच्च राशि (मकर) में होने पर।स्व राशि का मंगल होने परशुक्र, गुरु व चंद्र शुभ होने पर भी मंगल की दाहकता कम हो जाती है।पत्रिका मिलान करते समय यदि दूसरे जातक की कुंडली में इन्हीं स्थानों पर मंगल, शनि या राहु हो तो यह दोष कम हो जाता है।

बुधवार, 17 जनवरी 2018

बुधादित्य योग और उसके फल

किसी भी  कुंडली में योग ही उसे ठीक स्थिती प्रदान करने में सहायक बनते आज उसी श्रंखला में बुधादित्य योग जातक को कुंडली के विभिन्न घर में उत्तम लाभ प्रदान करते हे । बुधादित्य योग कुंडली में अपनी स्थिति के आधार पर नीचे बताए गए कुछ संभावित फल प्रदान करते है। श्रेष्ठ योगो में एक योग है ये।

कुंडली के पहले घर अर्थात लग्न में स्थित बुधादित्य योग जातक को मान, सम्मान, प्रसिद्धि, व्यवसायिक सफलता तथा अन्य कई प्रकार के शुभ फल प्रदान कर सकता है।

कुंडली के दूसरे घर में बनने वाला बुध आदित्य योग जातक को धन, संपत्ति, ऐश्वर्य, सुखी वैवाहिक जीवन तथा अन्य कई प्रकार के शुभ फल प्रदान कर सकता है।

कुंडली के तीसरे घर में बनने वाला बुधादित्य योग जातक को बहुत अच्छी रचनात्मक क्षमता प्रदान कर सकता है जिसके चलते ऐसे जातक रचनात्मक क्षेत्रों में सफलता प्राप्त कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त तीसर घर का बुध आदित्य योग जातक को सेना अथवा पुलिस में किसी अच्छे पद की प्राप्ति भी करवा सकता है।

कुंडली के चौथे घर में स्थित बुधादित्य योग जातक को सुखमय वैवाहिक जीवन, ऐश्वर्य, रहने के लिए सुंदर तथा सुविधाजनक घर, वाहन सुख तथा विदेश भ्रमण आदि जैसे शुभ फल प्रदान कर सकता है।

कुंडली के पांचवे घर में बनने वाला बुध आदित्य योग जातक को बहुत अच्छी कलात्मक क्षमता, नेतृत्व क्षमता तथा आध्यातमिक शक्ति प्रदान कर सकता है जिसके चलते ऐसा जातक अपने जीवन के अनेक क्षेत्रों में सफलता प्राप्त कर सकता है।

कुंडली के छठे घर में स्थित बुधादित्य योग जातक को एक सफल वकील, जज, चिकित्सक, ज्योतिषी आदि बना सकता है तथा इस योग के प्रभाव में आने वाले जातक अपने व्यवसाय के माध्यम से बहुत धन तथा ख्याति अर्जित कर सकते हैं।

कुंडली के सातवें घर में स्थित बुधादित्य योग जातक के वैवाहिक जीवन को सुखमय बना सकता है तथा यह योग जातक को सामाजिक प्रतिष्ठा तथा प्रभुत्व वाला कोई पद भी दिला सकता है।

कुंडली के आठवें घर में बनने वाला बुधादित्य योग जातक को किसी वसीयत आदि के माध्यम से धन प्राप्त करवा सकता है तथा यह योग जातक को आध्यात्म तथा परा विज्ञान के क्षेत्रों में भी सफलता प्रदान कर सकता है।

कुंडली के नौवें घर में बनने वाला बुध आदितय योग जातक को उसके जीवन के अनेक क्षेत्रों में सफलता प्रदान कर सकता है तथा इस योग के शुभ प्रभाव में आने वाले जातक सरकार में मंत्री पद अथवा किसी प्रतिष्ठित धार्मिक संस्था में उच्च पद भी प्राप्त कर सकते हैं।

कुंडली के दसवें घर में बनने वाला बुधादित्य योग जातक को उसके व्यवसायिक क्षेत्र में सफलता प्रदान कर सकता है तथा ऐसा जातक अपने किसी अविष्कार, खोज अथवा अनुसंधान के सफल होने के कारण बहुत ख्याति भी प्राप्त कर सकता है।

कुंडली के ग्यारहवें घर में बनने वाला बुधादित्य योग जातक को बहुत मात्रा में धन प्रदान कर सकता है तथा इस प्रकार के बुध आदित्य योग के प्रभाव में आने वाला जातक सरकार में मंत्री पद अथवा कोई अन्य प्रतिष्ठा अथवा प्रभुत्व वाला पद भी प्राप्त कर सकता है।

कुंडली के बारहवें घर में बनने वाला बुधादित्य योग जातक को विदेशों में सफलता, वैवाहिक जीवन में सुख तथा आध्यात्मिक विकास प्रदान कर सकता है ।

मंगलवार, 16 जनवरी 2018

मंगल दोष का स्वमेव परिहार

मंगल दोष के परिहार स्वयं की कुंडली में (मंगल भी निम्न लिखित परिस्तिथियों में दोष कारक नहीं होगा)

1 जैसे शुभ ग्रहों का केंद्र में होना, शुक्र द्वितीय भाव में हो, गुरु मंगल साथ हों या मंगल पर गुरु की दृष्टि हो तो मांगलिक दोष का परिहार हो जाता है।

2 वर-कन्या की कुंडली में आपस में मांगलिक दोष की काट- जैसे एक के मांगलिक स्थान में मंगल हो और दूसरे के इन्हीं स्थानों में सूर्य, शनि, राहू, केतु में से कोई एक ग्रह हो तो दोष नष्ट हो जाता है।

3 मेष का मंगल लग्न में, धनु का द्वादश भाव में, वृश्चिक का चौथे भाव में, वृष का सप्तम में, कुंभ का आठवें भाव में हो तो भौम दोष नहीं रहता।

4 कुंडली में मंगल यदि स्व-राशि (मेष, वृश्चिक), मूलत्रिकोण, उच्चराशि (मकर), मित्र राशि (सिंह, धनु, मीन) में हो तो भौम दोष नहीं रहता है।

5 सिंह लग्न और कर्क लग्न में भी लग्नस्थ मंगल का दोष नहीं होता है। शनि, मंगल या कोई भी पाप ग्रह जैसे राहु, सूर्य, केतु अगर मांगलिक भावों (1,4,7,8,12) में कन्या जातक के हों और उन्हीं भावों में वर के भी हों तो भौम दोष नष्ट होता है। यानी यदि एक कुंडली में मांगलिक स्थान में मंगल हो तथा दूसरे की में इन्हीं स्थानों में शनि, सूर्य, मंगल, राहु, केतु में से कोई एक ग्रह हो तो उस दोष को काटता है।

 6 कन्या की कुंडली में गुरु यदि केंद्र या त्रिकोण में हो तो मंगलिक दोष नहीं लगता अपितु उसके सुख-सौभाग्य को बढ़ाने वाला होता है।

7 यदि एक कुंडली मांगलिक हो और दूसरे की कुंडली के 3, 6 या 11वें भाव में से किसी भाव में राहु, मंगल या शनि में से कोई ग्रह हो तो मांगलिक दोष नष्ट हो जाता है।

8 कुंडली के 1,4,7,8,12वें भाव में मंगल यदि चर राशि मेष, कर्क, तुला और मकर में हो तो भी मांगलिक दोष नहीं लगता है।

9 वर की कुण्डली में मंगल जिस भाव में बैठकर मंगली दोष बनाता हो कन्या की कुण्डली में उसी भाव में सूर्य, शनि अथवा राहु हो तो मंगल दोष का शमन हो जाता है.

10 जन्म कुंडली के 1,4,7,8,12,वें भाव में स्थित मंगल यदि स्व ,उच्च मित्र आदि राशि -नवांश का ,वर्गोत्तम ,षड्बली हो तो मांगलिक दोष नहीं होगा

11 यदि 1,4,7,8,12 भावों में स्थित मंगल पर बलवान शुभ ग्रहों कि पूर्ण दृष्टि हो

सोमवार, 15 जनवरी 2018

नवग्रह के दोष दूर करने के अचूक उपाय

ज्योतिष की मानें तो हर कोई किसी न किसी ग्रह दोष से ग्रस्त रहता है. कई बार उसे पता नहीं चलता कि किस वजह से उसकी जिंदगी में तूफान थमने का नाम नहीं ले रही. किस वजह से जीना मुहाल हो रहा है. तो क्या हैं नवग्रह दोष के लक्षण और उससे निजात पाने के उपाय. अगर बिना बात घर में कलह क्लेश हो, हर काम बनते-बनते बिगड़ जाते हैं, शत्रु अकारण परेशान कर रहे हों , सेहत नहीं दे रही साथ, मान सम्मान का हो रहा हो नाश, बच्चे की बुद्धि का नहीं हो रहा विकास तो आप नवग्रह दोषों से ग्रस्त हैं. फिर तो आप जान लीजिए वो 9 उपाय जो खत्म करेगा 9 ग्रहों के दोष.

1. सूर्य दोष के लक्षण:- असाध्य रोगों के कारण परेशानी, सिरदर्द, बुखार, नेत्र संबंधी कष्ट, सरकार के कर विभाग से परेशानी, नौकरी में बाधा

उपाय:- भगवान विष्णु की आराधना करें [ ऊं नमो भगवते नारायणाय ] मंत्र का 1 माला लाल चंदन की माला से जाप करें गुड़ खाकर पानी पीकर कार्य आरंभ करें बहते जल में 250 ग्राम गुड़ प्रवाहित करें सवा पांच रत्ती का माणिक तांबे की अंगूठी में बनवायें रविवार को सूर्योंदय के समय दाएं हाथ की मध्यमा अंगूली में धारण करें मकान के दक्षिण दिशा के कमरे में अंधेरा रखें पशु-पक्षियों के लिए पीने के पानी की व्यवस्था करें घर में मां, दादी का आशीर्वाद जरूर लें.

2. चंद्रमा दोष के लक्षण:- जुखाम, पेट की बीमारियों से परेशानी, घर में असमय पशुओं की मत्यु की आशंका, अकारण शत्रुओं का बढ़ना, धन का हानि

उपाय:- भगवान शिव की आराधना करें [ ऊं नम: शिवाय ] मंत्र का रूद्राक्ष की माला से 11 माला जाप करें बड़े बुजुर्गों, ब्रह्मणों, गुरूओं का आशीर्वाद लें सोमवार को सफेद कपड़े में मिश्री बांधकर जल में प्रवाहित करें चांदी की अंगूठी में चार रत्ती का मोती सोमवार को जाएं हाथ अनामिका में धारण करें शीशे की गिलास में दूध, पानी पीने से परेहज करें 28 वर्ष के बाद विवाह का निर्णय लें लाल रंग का रूमाल हमेशा जेब में रखें माता-पिता की सेवा से विशेष लाभ.

3. मंगल दोष के लक्षण:- घर में चोरी होने का डर, घर-परिवार में लड़ाई-झगड़े की आशंका, भाई के साथ संबंधों में अनबन, दांपत्य जीवन में तनाव, अकाल मृत्यु की आशंका.

उपाय: भगवान हनुमान की आराधना करें [ ऊं हं हनुमते रूद्रात्मकाय हुं फट कपिभ्यो नम: ] का 1 माला जाप करें हनुमान चालीसा या बजरंगबाण का रोज पाठ करें त्रिधातु की अंगुठी बाएं हाथ की अनामिका अंगूली में धारण करें 400 ग्राम चावल दूध से धोकर 14 दिन तक पिवत्र जल में प्रवाहित करें घर में नीम का पौधा लगायें बहन, बेटी, मौसी, बुआ, साली को मीठा खिलायें बहन, बुआ को कपड़े भेंट न दें तंदूर की बनी रोटी कुत्तों को खिलायें.

4. बुध दोष के लक्षण: स्वभाव में चिड़चिड़ापन, जुए-सट्टे के कारण धन की बड़ी हानि, दांत से जुड़े रोगों के कारण परेशानी सिर दर्द. अधिक तनाव की स्थिति.

उपाय: मां दुर्गा की आराधना करें ऊं ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे मंत्र का 5 माला जाप करें देवी के सामने अखंड घी का दीया जलायें घर की पूर्व दिशा में लाल झंडा लगायें सोने के आभूषण धारण करें, हरे रंग से परहेज करें खाली बर्तनों को ढ़ककर न रखें चौड़े पत्ते वाले पौधे घर में लगायें, मुख्य द्वार पंचपल्लव का तोरण लगायें 100 ग्रíम चावल, चने की दाल बहते जल में प्रवाहित करें.

5. गुरू दोष के लक्षण:- सोने की हानि, चोरी की आशंका उच्च शिक्षा की राह में बाधाएं झूठे आरोप के कारण मान-सम्मान में कमी पिता को हानि होने की आशंका.

उपाय:- परमपिता ब्रह्मा की आराधना करें बहते पानी में बादाम, तेल, नारियल प्रवाहित करें माथे पर केसर का तिलक लगायें सोने की अंगूठी में सवा पांच रत्ती का पुखराज गुरूवार को दाएं हाथ की तर्जनी अंगुली में धारण करें पूजा स्थल की नियमित रूप से सफाई करें पीपल के पेड़ पर 7 बार पीला धागा लेपटकर जल दें 600 ग्राम पीले चने मंदिर में दान दें जुए-सट्टे की लत न पालें, मांसाहार-मद्यपान से परहेज करें कारोबार में भाई का साथ लाभकारी संबंध मधुर बनायें रखें.

शुक्र दोष के लक्षण:- बिना किसी बीमारी के अंगूठे, त्वचा संबंधी रोगों से परेशानी, राजनीति के क्षेत्र में हानि, प्रेम व दापंत्य संबंधों में अलगाव जीवनसाथी के स्वास्थ्य को लेकर तनाव.

उपाय: मां लक्ष्मी की आराधना करें. [ ऊं श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये प्रसिद प्रसिद श्रीं ह्रीं श्रीं महालक्ष्मयै नम: ] रोज रात में मंत्र का 1 माला जाप करें मां लक्ष्मी को कमल के पुष्पों की माला चढ़ायें मंदिर में आरती पूजा के लिए गाय का घी दान करें 2 किलो आलू में हल्दी या केसर लगाकर गाय को खिलायें चांदी या मिटटी के बर्तन में शहद भरकर घर की छत पर दबा दें आडू की गुटली में सूरमा भरकर घास वाले स्थान पर दबा दें शुक्रवार के दिन मंदिर में कांसे के बर्तन का दान करें लाल रंग के गाय की सेवा करें, 800 ग्राम जिमीकंद मंदिर में दान करें.

शनि दोष के लक्षण: पैतृक संपत्ति की हानि, हमेशा बीमारी से परेशानी मुकदमे के कारण परेशानी बनते हुए काम का बिगड़ जाना.

उपाय: भगवान भैरव की आराधना करें [ ऊं प्रां प्रीं प्रौं शं शनिश्चराय नम: ] मंत्र का 1 माला जाप करें शनिदेव का 1 किलो सरसों के तेल से अभिषेक करें सिर पर काला तेल लगाने से परहेज करें 43 दिन तक लगातार. शनि मंदिर में जाकर नीले पुष्प चढ़ायें कौवे या सांप को दूध, चावल खिलायें किसी बर्तन में तेल भरकर अपना चेहरा देखें, बर्तन को जमीन में दबा दें शनिवार 800 ग्राम दूध, उड़द जल में प्रवाहित करें जल में दूध मिलाकर लकड़ी या पत्थर पर बैठकर स्नान करें घर की छत पर साफ-सफाई का ध्यान रखें 12 नेत्रहीन लोगों को भोजन करायें.

राहु दोष के लक्षण: मोटापेके कारण परेशानी अचानक दुर्घटना, लड़ाई-झगड़े की आशंका हर तरह के व्यापार में घाटा.

उपाय: मां सरस्वती की आराधना करें [ ऊं ऐं सरस्वत्यै नम: ] मंत्र का 1 माला जाप करें तांबेके बर्तन में गुड़, गेहूं भरकर बहते जल में प्रवाहित करें माता से संबंध मधुर रखें 400 ग्राम धनिया, बादाम जल में प्रवाहित करें घर की दहलीज के नीचे चांदी का पत्ता लगायें सीढ़ियों के नीचे रसोईघर का निर्माण न करवायें रात में पत्नी के सिर के नीचे 5 मूली रखें, सुबह मंदिर में दान कर दें मां सरस्वती के चरणों में लगातार 6 दिन तक नीले पुष्प की माला चढ़ायें चांदी की गोली हमेशा जेब में रखें लहसुन, प्याज, मसूर के सेवन से परहेज करें.

केतु दोष के लक्षण: बुरी संगत के कारण धन का हानि जोड़ों के दर्द से परेशानी संतान का भाग्योदय न होना, स्वास्थ्य के कारण तनाव.

उपाय: भगवान गणेश की आराधना करें [ ऊं गं गणपतये नम:] मंत्र का 1 माला जाप करें गणेश अथर्व शीर्ष का पाठ करें कुंवारी कन्याओं का पूजन करें, पत्नी का अपमान न करें घर के मुख्य द्वार पर दोनों तरफ तांबे की कील लगायें पीले कपड़े में सोना, गेहूं बांधकर कुल पुरोहित को दान करें दूध, चावल, मसूर की दाल का दान करें बाएं हाथ की अंगुली में सोना पहनने से लाभ 43 दिन तक मंदिर में लगातार केला दान करें काले व सफेद तिल बहते जल में प्रवाहित करें.

राहु की महादशा में नवग्रहों की अंतर्दशाओं का फल एवं उपाय अशोक शर्मा राहु मूलतः छाया ग्रह है, फिर भी उसे एक पूर्ण ग्रह के समान ही माना जाता है। यह आद्र्रा, स्वाति एवं शतभिषा नक्षत्र का स्वामी है। राहु की दृष्टि कुंडली के पंचम, सप्तम और नवम भाव पर पड़ती है। जिन भावों पर राहु की दृष्टि का प्रभाव पड़ता है, वे राहु की महादशा में अवश्य प्रभावित होते हैं। राहु की महादशा 18 वर्ष की होती है।
राहु में राहु की अंतर्दशा का काल 2 वर्ष 8 माह और 12 दिन का होता है। इस अवधि में राहु से प्रभावित जातक को अपमान और बदनामी का सामना करना पड़ सकता है। विष और जल के कारण पीड़ा हो सकती है। विषाक्त भोजन, से स्वास्थ्य प्रभावित हो सकता है। इसके अतिरिक्त अपच, सर्पदंश, परस्त्री या पर पुरुष गमन की आशंका भी इस अवधि में बनी रहती है। अशुभ राहु की इस अवधि में जातक के किसी प्रिय से वियोग, समाज में अपयश, निंदा आदि की संभावना भी रहती है। किसी दुष्ट व्यक्ति के कारण उस परेशानियों का भी सामना करना पड़ सकता है।

उपाय: भगवान शिव के रौद्र अवतार भगवान भैरव के मंदिर में रविवार को शराब चढ़ाएं और तेल का दीपक जलाएं। शराब का सेवन कतई न करें। लावारिस शव के दाह-संस्कार के लिए शमशान में लकड़िया दान करें। अप्रिय वचनों का प्रयोग न करें।

राहु में बृहस्पति: राहु की महादशा में गुरु की अंतर्दशा की यह अवधि दो वर्ष चार माह और 24 दिन की होती है। राक्षस प्रवृत्ति के ग्रह राहु और देवताओं के गुरु बृहस्पति का यह संयोग सुखदायी होता है। जातक के मन में श्रेष्ठ विचारों का संचार होता है और उसका शरीर स्वस्थ रहता है। धार्मिक कार्यों में उसका मन लगता है। यदि कुंडली में गुरु अशुभ प्रभाव में हो, राहु के साथ या उसकी दृष्टि में हो तो उक्त फल का अभाव रहता है।

उपाय : किसी अपंग छात्र की पढ़ाई या इलाज में सहायता करें। शैक्षणिक संस्था के शौचालयों की सफाई की व्यवस्था कराएं। शिव मंदिर में नित्य झाड़ू लगाएं। पीले रंग के फूलों से शिव पूजन करें।

राहु में शनि: राहु में शनि की अंतदर्शा का काल 2 वर्ष 10 माह और 6 दिन का होता है। इस अवधि में परिवार में कलह की स्थिति बनती है। तलाक भाई, बहन और संतान से अनबन, नौकरी में या अधीनस्थ नौकर से संकट की संभावना रहती है। शरीर में अचानक चोट या दुर्घटना के दुर्योग, कुसंगति आदि की संभावना भी रहती है। साथ ही वात और पित्त जनित रोग भी हो सकता है। दो अशुभ ग्रहों की दशा-अंतर्दशा कष्ट कारक हो सकती है।

उपाय : भगवान शिव की शमी के पत्रों से पूजा और शिव सहस्रनाम का पाठ करना चाहिए। महामृत्युंजय मंत्र के जप स्वयं, अथवा किसी योग्य विद्वान ब्राह्मण से कराएं। जप के पश्चात् दशांश हवन कराएं जिसमें जायफल की आहुतियां अवश्य दें। नवचंडी का पूर्ण अनुष्ठान करते हुए पाठ एवं हवन कराएं। काले तिल से शिव का पूजन करें।

राहु में बुध: राहु की महादशा में बुध की अंतर्दशा की अवधि 2 वर्ष 3 माह और 6 दिन की होती है। इस समय धन और पुत्र की प्राप्ति के योग बनते हैं। राहु और बुध की मित्रता के कारण मित्रों का सहयोग प्राप्त होता है। साथ ही कार्य कौशल और चतुराई में वृद्धि होती है। व्यापार का विस्तार होता है और मान, सम्मान यश और सुख-समृद्धि की प्राप्ति होती है।

उपाय: भगवान गणेश को शतनाम सहित दूर्वाकुंर चढ़ाते रहें। हाथी को हरे पत्ते, नारियल गोले या गुड़ खिलाएं। कोढ़ी, रोगी और अपंग को खाना खिलाएं। पक्षी को हरी मूंग खिलाएं।

राहु में केतु: राहु की महादशा में केतु की यह अवधि शुभ फल नहीं देती है। एक वर्ष और 18 दिन की इस अवधि के दौरान जातक को सिर में रोग, ज्वर, शत्रुओं से परेशानी, शस्त्रों से घात, अग्नि से हानि, शारीरिक पीड़ा आदि का सामना करना पड़ता है। रिश्तेदारों और मित्रों से परेशानियां व परिवार में क्लेश भी हो सकता है।

उपाय: भैरवजी के मंदिर में ध्वजा चढ़ाएं। कुत्तों को रोटी, ब्रेड या बिस्कुट खिलाएं। कौओं को खीर-पूरी खिलाएं। घर या मंदिर में गुग्गुल का धूप करें।

राहु में शुक्र: राहु की महादशा में शुक्र की प्रत्यंतर दशा पूरे तीन वर्ष चलती है। इस अवधि में शुभ स्थिति में दाम्पत्य जीवन में सुख मिलता है। वाहन और भूमि की प्राप्ति तथा भोग-विलास के योग बनते हैं। यदि शुक्र और राहु शुभ नहीं हों तो शीत संबंधित रोग, बदनामी और विरोध का सामना करना पड़ सकता है।

उपाय करें- सांड को गुड़ या घास खिलाएं। शिव मंदिर में स्थित नंदी की पूजा करें और वस्त्र आदि दें। एकाक्षी श्रीफल की स्थापना कर पूजा करें। स्फटिक की माला धारण करें।

राहु में सूर्य: राहु की महादशा में सूर्य की अंतर्दशा की अवधि 10 माह और 24 दिन की होती है, जो अन्य ग्रहों की तुलना में सर्वाधिक कम है। इस अवधि में शत्रुओं से संकट, शस्त्र से घात, अग्नि और विष से हानि, आंखों में रोग, राज्य या शासन से भय, परिवार में कलह आदि हो सकते हैं। सामान्यतः यह समय अशुभ प्रभाव देने वाला ही होता है।

उपाय: इस अवधि में सूर्य को अघ्र्य दें। उनका पूजन एवं उनके मंत्र का नित्य जप करें। हरिवंश पुराण का पाठ या श्रवण करते रहें। चाक्षुषोपनिषद् का पाठ करें। सूअर को मसूर की दाल खिलाएं।

राहु में चंद्र: एक वर्ष 6 माह की इस अवधि में जातक को असीम मानसिक कष्ट होता है। इस अवधि में जीवन साथी से अनबन, तलाक या मृत्यु भी हो सकती है। लोगों से मतांतर, आकस्मिक संकट एवं जल जनित पीड़ा की संभावना भी रहती है। इसके अतिरिक्त पशु या कृषि की हानि, धन का नाश, संतान को कष्ट और मृत्युतुल्य पीड़ा भी हो सकती है।

उपाय: राहु और चंद्र की दशा में उत्पन्न होने वाली विषम परिस्थितियों से बचने के लिए माता की सेवा करें। माता की उम्र वाली महिलाओं का सम्मान और सेवा करें। प्रत्येक सोमवार को भगवान शिव का शुद्ध दूध से अभिषेक करें। चांदी की प्रतिमा या कोई अन्य वस्तु मौसी, बुआ या बड़ी बहन को भेंट करें।

 राहु में मंगल: राहु की महादशा में मंगल की अंतर्दशा का यह समय एक वर्ष 18 दिन का होता है। इस काल में शासन व अग्नि से भय, चोरी, अस्त्र शस्त्र से चोट, शारीरिक पीड़ा, गंभीर रोग, नेत्रों को पीड़ा आदि हो सकते हंै। इस अवधि में पद एवं स्थान परिवर्तन तथा भाई को या भाई से पीड़ा की संभावना भी रहती है।

कुंडली से जाने वैधव्य योग

1.  सप्तम भाव व अष्टम भाव का स्वामी दोनों पापी ग्रहों के साथ 6 या 12 वे स्थान में एक साथ बैठे हो तो ऐसी स्त्री विधवा हो जाती है |

2. सप्तम भाव में केतु बैठा हो तथा राहु सूर्य व शनि के साथ मंगल आठवें या 12वें भाव में बैठा हो तो ऐसी स्त्री विधवा हो जाती   हैं |

2.  लग्न एवं सप्तम भाव में पापी ग्रहों तथा तीन ग्रहों पर शुभ ग्रह की दृष्टि या युक्ति ना हो तो ऐसी स्त्री 7 से 10 वर्ष के भीतर विधवा हो जाती है|

3.  सप्तम स्थान में मेष या वृश्चिक राशि हो दो पापी ग्रहों के साथ राहु हो सप्तम स्थान में बैठा हो तो निश्चित रुप से विधवा योग बन जाता है |

4.  चंद्र लग्न पाप कर्तरी योग में हो तथा चंद्र लग्न से सप्तम अष्टम स्थान में पापी ग्रह बैठे हो तो ऐसी स्त्री जल्द ही विधवा बन जाती है|

5.  चंद्रमा के साथ राहु शुक्र के साथ मंगल तथा अष्टम स्थान में पापी ग्रह होने पर स्त्री की कुंडली में विधवा योग बनता है |

6.  सप्तम स्थान में बुध व शनि हो तो ऐसी स्त्री विधवा भी हो जाती है और साथ ही व्यभिचार भी करती है |

7.  यदि लग्न में शनि बैठा हो उससे अष्टम या बारहवें स्थान में राहु केतु सूर्य के साथ मंगल बैठा हो तो ऐसी स्त्री विधवा हो जाती है |

8.  यदि दो या तीन पापी ग्रहों के साथ मंगल सप्तम या अष्टम स्थान में बैठा हो तो ऐसी स्त्री विवाह के बाद शीघ्र ही विधवा हो जाती है |

9.  सप्तम स्थान में वेश्या वृश्चिक राशि मे राहु हो तथा मंगल छठे आठवें या 12वें स्थान में बैठा हो तो ऐसी स्त्री निश्चित रुप से विधवा हो जाती है |

10.  सप्तमेश अष्टम स्थान में हो और अष्टमेश सप्तम स्थान में हो और पापी ग्रहों से युक्त या दृष्ट हो तो ऐसी  स्त्री निश्चित रूप से विधवा हो जाती है |

11.  यदि बुध सप्तम भाव का स्वामी होकर पापी ग्रहों के साथ नीच या शत्रु राशि में यह अस्त होकर अष्टम स्थान में बैठा हो तथा उसे पापी ग्रह देखते हो तो ऐसी स्त्री अपने पति की हत्या कर के परिवार का नाश कर देती है |

12.  मंगल मिथुन या कन्या लग्न का सप्तम स्थान में हो सूर्य, शनि, राहु, केतु ,इन ग्रहों की दृष्टि मंगल के ऊपर हो तो ऐसी स्त्री कम उम्र में ही विधवा हो जाती है।

गुरुवार, 11 जनवरी 2018

पित्र दोष दूर करने का सटीक उपाय

पित्र दोष दूर करने का सटीक उपाय
सूर्य पिता का कारक होता है और कुंडली मे 5,9,10 व लग्न भाव पिता के कारक होते है।पंचम भाव इसलिए कारक होता कि वह नवम भाव से नवम होता है अर्थात पिता के पिता यानी पूर्वज होता है काल पुरुष की कुंडली मे पंचम भाव सिंह राशि का होता है अर्थात पिता का घर और 12 भाव को मोक्ष्य का भाव माना जाता है।अर्थात सिंह से 12 वां भाव मोक्ष्य यानी कर्क राशि होती है।कर्क राशि की रेखा उज्जैन से होकर गुजरती है औऱ वहां सिद्धवट नामक स्थान पर जहां से कर्क रेखा गुजरती है वहां पर पूरी विधि विधान से पित्र शांति का अनुष्ठान करवाए ओर तर्पन दे निश्चित ही लाभ मिलेगा।

जब तक ऊपर सुझाए उपाय नही कर सको तो निम्न उपाय करने चाहिए
1 अमावश्या के दिन पित्रो के नाम पर किसी विद्वान,संत,ब्राह्मण को भोजन कराएं व दान दक्षिणा देकर विदा करें।
2 अमावश्या के दिन से शुरू कर के प्रतिदिन जल रखने के स्थान पर श्याम के समय सुहागिन स्त्री पूरी तरह से सज धज कर साड़ी का पल्लू सर पर रख कर दुल्हन के वेश में होकर एक घी का दीपक अपने पूर्वजों के नाम का जलाए।
3 श्याम के समय रसोईघऱ को पूरी तरह से पवित्र कर के एक ताम्र पात्र में जल भरकर रसोईघर में खाना बनाने के स्थान पर पूर्वजों के नाम से नित्य ढककर रख देना चाहिए और सुबह उठ कर उस पात्र के जल को तुलसी,पीपल,नीम या किसी देव वृक्ष पर अर्पित कर देना चाहिए
4 प्रतिदिन पूर्वजों के नाम की कम से कम 5 आहुतियां देकर हवन करना चाहिए और नियमित पित्रों के नाम से जल अर्पित(तर्पण) करना चाहिए
5 रोज सुबह जल्दी उठकर पितृतुल्य बुजुर्ग या मातृतुल्य स्त्री के चरण स्पर्श कर के उनका आशीर्वाद लेने चाहिए

सोमवार, 8 जनवरी 2018

शनि सूर्य की युति एवं उपाय

सूर्य सुलभ दृष्ट, प्रकाशवान व ज्वलंत ग्रह है। वह जीवनी शक्ति, पिता, सफलता, सत्ता, सोना, लाल कपड़ा, तांबा, ऊर्जा, स्वास्थ्य, आरोग्य, औषधि आदि का कारक है। इसका आंखों की ज्योति, शरीर के मेरूदंड, तथा पाचन क्रिया पर प्रभुत्व है। सूर्य के तेज के कारण अन्य ग्रह- चंद्र, मंगल, शनि, शुक्र, बृहस्पति व बुध उसके पास आने पर अस्त होकर प्रभावहीन हो जाते हैं, परंतु राहु व केतु सूर्य के समीप आने पर उसे ग्रहण लगाते हैं। सूर्य को ग्रहों का राजा माना गया है। वह 24 घंटे में भचक्र में 10 प्रगति कर एक राशि का गोचर 30 दिन में पूरा करता है। सूर्य सिंह राशि का स्वामी है, मेष में उच्च तथा तुला राशि में नीचस्थ होता है। उसकी विंशोत्तरी दशा छः वर्ष की होती है। सूर्य के विपरीत शनि ग्रह प्रकाशहीन, दूरबीन से दृष्ट और ठंडा ग्रह है। वह आलस, दासता, गरीबी, लंबी बीमारी और मृत्यु का मुख्य कारक है। शनि काले तिल, तेल, उड़द, लोहा, कोयला व काले वस्त्र आदि का कारक है। भचक्र में शनि दो राशियों- मकर व कुंभ का स्वामी है। वह तुला राशि में उच्च तथा मेष राशि में नीचस्थ होता है। शनि एक राशि का गोचर ढाई वर्ष में पूरा करता है। वह कुंडली में षष्ठ, अष्टम और द्वादश (त्रिक) भावों का कारक है जो कष्ट, दुःख और हानि दर्शाते हैं। अतः उसे नैसर्गिक पापी ग्रह की संज्ञा दी गई है, परंतु वह तुला, मकर, कुंभ और वृष लग्नों में शुभकारी होता है। बलवान शनि जातक की प्रगति में पूर्ण सहायक होता है। अन्य ग्रहों पर शनि के दुष्प्रभाव से उनके कारकत्व में न्यूनता आती है। सूर्य से अस्त होने पर शनि अधिक कष्टकारी बन जाता है। हृदय को खून ले जाने वाली नाड़ियों के संकुचित होने से जातक हृदय रोग से ग्रस्त होता है। शनि ग्रह के बारे में हिंदू धार्मिक ग्रंथों में अनेक महत्वपूर्ण तथ्य प्राप्त होते हैं। जैसे शनि सूर्य के पुत्र हैं। इनका सूर्य की पत्नी की छाया से जन्म होने के कारण ये कृष्ण वर्ण, कुरूप तथा पिता समान ज्ञानी और बलवान ग्रह हैं। इनकी हानिकारक दृष्टि से बचने के लिए पिता सूर्य द्वारा जन्म के तुरंत बाद ब्रह्मांड में बहुत दूर फेंके जाने के कारण यह प्रकाश रहित और शीतल ग्रह है। कुंडली में अशुभ भाव में स्थित होने पर शनि शीत-जनित और दीर्घकालीन रोग व कष्ट देता है। इनका अपने पिता सूर्य से शत्रुवत व्यवहार है। शनि शिवजी के परम प्रिय शिष्य हैं। शनि के धार्मिक, सात्विक और निष्पक्ष आचरण से प्रसन्न होकर शिवजी ने इन्हें सभी प्राणियों के कर्मफल का निर्णायक बनाया था। विंशोत्तरी दशा में शनि को 19 वर्ष प्राप्त हैं। सप्तम दृष्टि के अतिरिक्त शनि की तीसरी और दसवीं पूर्ण दृष्टि होती है। शनि जिस भाव में स्थित हों उसमें स्थिरता तथा दृष्ट ग्रह व भावों के कार्यकाल को हानि पहुंचाते हंै। शनि कष्टकारी होने पर शिवजी तथा हनुमान जी की आराधना लाभकारी होती है। कुंडली में इन दो विपरीत प्रकृति वाले शक्तिशाली ग्रहों की युति स्वभावतः जातक का जीवन कठिनाईयों से भरा और हताशापूर्ण बनाती है। इस बारे में कुछ मानद ज्योतिष ग्रंथों का मार्गदर्शन इस प्रकार है:- फलदीपिका (अ. 18) के अनुसारः ‘सूर्य व शनि साथ-साथ हो तो जातक धातु के बर्तन निर्माण और व्यापार द्वारा अपना निर्वाह करता है अर्थात् मेहनत से जीवन यापन करता है। सारावली (अ. 15.7) के अनुसार: जातक धातुशिल्पी होता है। यह युति 6, 8, 12 (त्रिक) भावों में होने पर जातक पारिवारिक क्लेशों से घिरा रहता है। पुनश्च, (अ. 31, 22.25) के अनुसार: लग्न में सूर्य-शनि की युति होने पर जातक की माता का चरित्र संदिग्ध होता है। जातक स्वयं दुश्चरित्र, मलिन और दुष्कर्मी होता है। चतुर्थ भाव में धन की कमी, रिश्तेदारों से खराब संबंध और माता का सुख कम प्राप्त होगा। सप्तम भाव में युति से जातक आलसी, मंदबुद्धि, दुर्भागी और नशे का सेवन करता है तथा पति-पत्नी के संबंधों में कटुता रहती है। दशम भाव में युति होने पर जातक विदेश में या स्वदेश में निम्न स्तर की नौकरी से धन कमाता है, और वह भी चोरी चला जाता है जिससे जातक धनहीन और दुःखी रहता है। सूर्य-शनि की युति के फलादेश का अध्ययन दर्शाता है कि शनि के दुष्प्रभाव से युति वाले भाव तथा उससे सप्तम भाव के फलादेश में न्यूनता आती है। यह युति सूर्य के कारकत्व पिता की स्थिति, उनका स्वास्थ्य तथा जातक के अपने कार्यक्षेत्र तथा मान-सम्मान में कमी करती है। जातक के अपने पिता से संबंध अच्छे नहीं रहते। सूर्य के अधिक निर्बल होने पर पिता का साया जल्दी उठ जाता है या जातक अपने पिता से अलग हो जाता है। इसी प्रकार संबंधियों से भी अलगाव होता है। अतः कुछ आचार्य इस युति को ‘विच्छेदकारी योग’ की संज्ञा देते हैं।
सूर्य-शनि युति जनित कष्टों को सहनशील बनाने के लिए आगे दिये गये उपाय लाभदायक सिद्ध हो सकते हैं:- उपाय 1. सूर्य को बल देने के लिए जातक को सूर्योदय से पहले जागकर अपने पिता के चरण स्पर्श कर उनका आशीर्वाद प्राप्त करना चाहिए। पिता की उम्र के व्यक्तियों का आदर करना चाहिए। 2. स्नान के बाद उगते सूर्य को तांबे के बर्तन में जल, थोड़ा गंगाजल, रोली, खांड और लाल फूल डालकर ‘ऊँ’ आदित्याय नमः। ‘ऊँ’ भास्कराय नमः। ‘ऊँ’ सूर्याय नमः का उच्चारण करते हुए धीरे-धीरे सूर्य को अघ्र्य देना चाहिए। ध्यान रखें कि छींटे पैर पर न पड़ें तथा चढ़े हुए जल से अपना तिलक करना चाहिए। उसके बाद एक माला ‘ंऊँ आदित्याय नमः’ मंत्र का जप करना चाहिए। 3. प्रत्येक रविवार को अनार फाड़कर सूर्य को अघ्र्य के बाद भोग अर्पण करते समय सूर्य मंत्र का धीरे-धीरे जप करना चाहिए। कुछ अनार के दाने प्रसादस्वरूप ग्रहण करना चाहिए। साथ ही शनि की शांति के लिए 1. प्रत्येक शनिवार सायंकाल शनिदेव का तैलाभिषेक करके कुछ तेल को मिट्टी के दीपक में डालकर समीपस्थ पीपल के पेड़ की जड़ के पास प्रज्ज्वलित करना चाहिए और ‘ऊँ शं शनैश्चराय नमः’ मंत्र का कुछ समय जप करना चाहिए। 2. उसके बाद मंदिर के सामने बैठे अपाहिज भिखारियों को उड़द दाल-चावल की खिचड़ी या उड़द दाल के बड़े यथाशक्ति बांटना चाहिए। धन का दान नहीं देना चाहिए। 3. अपने नौकरांे और सफाई कर्मचारियों से अच्छा व्यवहार और सामथ्र्य अनुसार कभी-कभी उनकी सहायता करते रहना चाहिए। उपरोक्त उपाय श्रद्धापूर्वक कुछ माह करने से जीवन में सुख-शांति का अनुभव होना आरंभ हो जाएगा।

रविवार, 7 जनवरी 2018

विवाह वर्ष ज्ञात करने की ज्योतिषीय विधि

आयु के जिस वर्ष में गोचरस्थ गुरु लग्न, तृतीय, पंचम, नवम या एकादश भाव में आता है, उस वर्ष शादी होना निश्चित समझना चाहिए। परंतु शनि की दृष्टि सप्तम भाव या लग्न पर नहीं होनी चाहिए। अनुभव में देखा गया है कि लग्न या सप्तम में बृहस्पति की स्थिति होने पर उस वर्ष शादी हुई है।

विवाह कब होगा यह जानने की दो विधियां यहां प्रस्तुत हैं। जन्म लग्न कुंडली में सप्तम भाव में स्थित राशि अंक में १० जोड़ दें। योगफल विवाह का वर्ष होगा। सप्तम भाव पर जितने पापी ग्रहों की दृष्टि हो, उनमें प्रत्येक की दृष्टि के लिए 4-4 वर्ष जोड़ योगफल विवाह का वर्ष होगा। जहां तक विवाह की दिशा का प्रश्न है, ज्योतिष के अनुसार गणित करके इसकी जानकारी प्राप्त की जा सकती है। जन्मांग में सप्तम भाव में स्थित राशि के आधार पर शादी की दिशा ज्ञात की जाती है। उक्त भाव में मेष, सिंह या धनु राशि एवं सूर्य और शुक्र ग्रह होने पर पूर्व दिशा, वृष, कन्या या मकर राशि और चंद्र, शनि ग्रह होने पर दक्षिण दिशा, मिथुन, तुला या कुंभ राशि और मंगल, राहु, केतु ग्रह होने पर पश्चिम दिशा, कर्क, वृश्चिक, मीन या राशि और बुध और गुरु ग्रह होने पर उत्तर दिशा की तरफ शादी होगी। अगर जन्म लग्न कुंडली में सप्तम भाव में कोई ग्रह न हो और उस भाव पर अन्य ग्रह की दृष्टि न हो, तो बलवान ग्रह की स्थिति राशि में शादी की दिशा समझनी चाहिए।

एक अन्य नियम के अनुसार शुक्र जन्म लग्न कंुडली में जहां कहीं भी हो, वहां से सप्तम भाव तक गिनें। उस सप्तम भाव की राशि स्वामी की दिशा में शादी होनी चाहिए। जैसे अगर किसी कुंडली में शुक्र नवम भाव में स्थित है, तो उस नवम भाव से सप्तम भाव तक गिनें तो वहां से सप्तम भाव वृश्चिक राशि हुई। इस राशि का स्वामी मंगल हुआ। मंगल ग्रह की दिशा दक्षिण है। अतः शादी दक्षिण दिशा में करनी चाहिए।

शनिवार, 6 जनवरी 2018

कुछ विशेष योग

बहुसन्तान योग 
पंचमेश शनि शुक्र के साथ पाप स्थानगत हो | आठवें भाग में पंचमेश हो | पंचमेश तथा तृतीयेश साथ-साथ हो | पंचमेश के स्थान में तृतीयेश हो | सप्तमेश-तृतीयेश का अन्योंयास्रित योग हो ।

गोद जाने का योग
कर्क या सिंह राशि मे पापग्रह हो | ४ या १०वें स्थान पर पापग्रह हो | चन्द्रमा से चतुर्थ राशि मे पापग्रह हो | सूर्य से ९वें स्थान पर पापग्रह हो | चन्द्रमा या सूर्य शत्रुक्षेत्र मे हो |

जमींदारी योग= 
चौथे घर का मालिक दशम मे तथा दशमेश चतुर्थ मे हो | चतुर्थेश, २ या ११वें स्थान पर हो | चतुर्थेश, दशमेश और चन्द्रमा बलवान हों तथा परस्पर मित्र हों | पंचमेश लग्न मे हो | सप्तमेश, नवमेश तथा एकादशेश लग्न मे हों |

ससुराल से धन-प्राप्ति के योग
सप्तमेश और द्वतीयेश एक साथ हों और उन पर शुक्र की दृष्टि हो | चौथे घर का स्वमी सातवें घर में हो, शुक्र चौथे स्थान पर हो, तो ससुराल से धन मिलता है | सप्तमेश नवमेश शुक्र द्वारा देखे जाते हों | बलवान धनेश सातवें स्थान पर बैठे शुक्र द्वारा देखा जाता हो |

धन-सुख योग 
दिन मे जन्म लेने वाले जातक का चन्द्रमा अपने नवांश मे हो तथा उसे गुरु देखता हो, तो धन-सुख योग होता है | रात मे जन्म हो, चंद्रमा को शुक्र देखता हो, तो धन-प्राप्ति होती है | भाग्य के स्वामी का लाभ के स्वामी के साथ योग हो | चौथे घर का मालिक भाग्येश के साथ बैठा हो | भाग्येश और पंचमेश का योग हो | भाग्येश और द्वितीयेश का योग हो | दशमेश और लाभेश साथ हों | दशमेश और चतुर्थेश २, ४, ५, ९ घर मे साथ बैठे हो | धनेश और पंचमेश का योग हो | लग्न का स्वामी चौथे घर के साथ बैठे हो | लाभेश और चतुर्थेश का योग हो | लाभेश और धनेश का योग हो | लाभेश और लग्नेश का योग हो | लग्नेश और धनेश का योग हो | लग्न का स्वामी पांचवें स्थान के स्वामी के साथ हो |

महालक्ष्मी योग 
धन और एश्वर्य प्रदान करने वाला योग है। यह योग कुण्डली Kundli में तब बनता है जब धन भाव यानी द्वितीय स्थान का स्वामी बृहस्पति एकादश भाव में बैठकर द्वितीय भाव पर दृष्टि डालता है। यह धनकारक योग (Dhan Yoga) माना जाता है।

इसी प्रकार एक महान योग है सरस्वती योग
यह तब बनता है जब शुक्र बृहस्पति और बुध ग्रह एक दूसरे के साथ हों अथवा केन्द्र में बैठकर एक दूसरे से सम्बन्ध बना रहे हों। युति अथवा दृष्टि किसी प्रकार से सम्बन्ध बनने पर यह योग बनता है। यह योग जिस व्यक्ति की कुण्डली में बनता है उस पर विद्या की देवी मां सरस्वती की कृपा रहती है। सरस्वती योग वाले व्यक्ति कला, संगीत, लेखन, एवं विद्या से सम्बन्धित किसी भी क्षेत्र में काफी नाम और धन कमाते हैं।

शुक्रवार, 5 जनवरी 2018

कुंडली में विष योग एवं उपाय

फलदीपिका’ ग्रंथ के अनुसार ‘‘आयु, मृत्यु, भय, दुख, अपमान, रोग, दरिद्रता, दासता, बदनामी, विपत्ति, निन्दित कार्य, नीच लोगों से सहायता, आलस, कर्ज, लोहा, कृषि उपकरण तथा बंधन का विचार शनि ग्रह से होता है। ‘‘अपने अशुभ कारकत्व के कारण शनि ग्रह को पापी तथा अशुभ ग्रह कहा जाता है। परंतु यह पूर्णतया सत्य नहीं है। वृष, तुला, मकर और कुंभ लग्न वाले जातक के लिए शनि ऐश्वर्यप्रद, धनु व मीन लग्न में शुभकारी तथा अन्य लग्नों में वह मिश्रित या अशुभ फल देता है। शनि पूर्वजन्म में किये गये कर्मों का फल इस जन्म में अपनी भाव स्थिति द्वारा देता है। वह 3, 6, 10 तथा 11 भाव में शुभ फल देता है। 1, 2, 5, 7 तथा 9 भाव में अशुभ फलदायक और 4, 8 तथा 12 भाव में अरिष्ट कारक होता है। बलवान शनि शुभ फल तथा निर्बल शनि अशुभ फल देता है। यह 36वें वर्ष से विशेष फलदाई होता है। शनि की विंशोत्तरी दशा 19 वर्ष की होती है। अतः कुंडली में शनि अशुभ स्थित होने पर इसकी दशा में जातक को लंबे समय तक कष्ट भोगना पड़ता है। शनि सब से धीमी गति से गोचर करने वाला ग्रह है। वह एक राशि के गोचर में लगभग ढाई वर्ष का समय लेता है। चंद्रमा से द्वादश, चंद्रमा पर, और चंद्रमा से अगले भाव में शनि का गोचर साढ़े-साती कहलाता है। वृष, तुला, मकर और कुंभ लग्न वालों के अतिरिक्त अन्य लग्नों में प्रायः यह समय कष्टकारी होता है। शनि एक शक्तिशाली ग्रह होने से अपनी युति अथवा दृष्टि द्वारा दूसरे ग्रहों के फलादेश में न्यूनता लाता है। सप्तम दृष्टि के अतिरिक्त उसकी तीसरे व दसवें भाव पर पूर्ण दृष्टि होती है। शनि के विपरीत चंद्रमा एक शुभ परंतु निर्बल ग्रह है। चंद्रमा एक राशि का संक्रमण केवल 2( से 2) दिन में पूरा कर लेता है। चंद्रमा के कारकत्व में मन की स्थिति, माता का सुख, सम्मान, सुख-साधन, मीठे फल, सुगंधित फूल, कृषि, यश, मोती, कांसा, चांदी, चीनी, दूध, कोमल वस्त्र, तरल पदार्थ, स्त्री का सुख, आदि आते हैं। जन्म समय चंद्रमा बलवान, शुभ भावगत, शुभ राशिगत, ऐसी मान्यता है कि शनि और चंद्रमा की युति जातक द्वारा पिछले जन्म में किसी स्त्री को दिये गये कष्ट को दर्शाती है। वह जातक से बदला लेने के लिए इस जन्म में उसकी मां बनती है। माता का शुभत्व प्रबल होने पर वह पुत्र को दुख, दारिद्र्य तथा धन नाश देते हुए दीर्घकाल तक जीवित रहती है। यदि पुत्र का शुभत्व प्रबल हो तो जन्म के बाद माता की मृत्यु हो जाती है अथवा नवजात की शीघ्र मृत्यु हो जाती है। इसकी संभावना 14वें वर्ष तक रहती है। दर्शाती है, जिसका अशुभ प्रभाव मध्य अवस्था तक रहता है। शनि के चंद्रमा से अधिक अंश या अगली राशि में होने पर जातक अपयश का भागी होता है। सभी ज्योतिष ग्रंथों में शनि-चंद्र की युति का फल अशुभ कहा है। ‘‘जातक भरणम्’ ने इसका फल ‘‘परजात, निन्दित, दुराचारी, पुरूषार्थहीन’’ कहा है। ‘बृहद्जातक’ तथा ‘फलदीपिका’ ने इसका फल ‘‘परपुरूष से उत्पन्न, आदि’’ बताया है। अशुभ फलादेश के कारण इस युति को ‘‘विष योग’’ की संज्ञा दी गई है। ‘विष योग’ का अशुभ फल जातक को चंद्रमा और शनि की दशा में उनके बलानुसार अधिक मिलता है। कंटक शनि, अष्टम शनि तथा साढ़ेसाती कष्ट बढ़ाती है। ऐसी मान्यता है कि शनि और चंद्रमा की युति जातक द्वारा पिछले जन्म में किसी स्त्री को दिये गये कष्ट को दर्शाती है। वह जातक से बदला लेने के लिए इस जन्म में उसकी मां बनती है। माता का शुभत्व प्रबल होने पर वह पुत्र को दुख, दारिद्र्य तथा धन नाश देते हुए दीर्घकाल तक जीवित रहती है। यदि पुत्र का शुभत्व प्रबल हो तो जन्म के बाद माता की मृत्यु हो जाती है अथवा नवजात की शीघ्र मृत्यु हो जाती है। इसकी संभावना 14वें वर्ष तक रहती है। कुंडली में जिस भाव में ‘विष योग’ स्थित होता है उस भाव संबंधी कष्ट मिलते हैं। नजदीकी परिवारजन स्वयं दुखी रहकर विश्वासघात करते हैं। जातक को दीर्घकालीन रोग होते हैं और वह आर्थिक तंगी के कारण कर्ज से दबा रहता है। जीवन में सुख नहीं मिलता। जातक के मन में संसार से विरक्ति का भाव जागृत होता है और वह अध्यात्म की ओर अग्रसर होता है। विभिन्न भावों में ‘विष योग’ का फल प्रथम भाव (लग्न) इस योग के कारण माता के बीमार रहने या उसकी मृत्यु से किसी अन्य स्त्री (बुआ अथवा मौसी) द्वारा उसका बचपन में पालन-पोषण होता है। उसे सिर और स्नायु में दर्द रहता है। शरीर रोगी तथा चेहरा निस्तेज रहता है। जातक निरूत्साही, वहमी एवं शंकालु प्रवृत्ति का होता है। आर्थिक संपन्नता नहीं होती। नौकरी में पदोन्नति देरी से होती है। विवाह देर से होता है। दांपत्य जीवन सुखी नहीं रहता। इस प्रकार जीवन में कठिनाइयां भरपूर होती हैं। द्वितीय भाव घर के मुखिया की बीमारी या मृत्यु के कारण बचपन आर्थिक कठिनाई में व्यतीत होता है। पैतृक संपत्ति मिलने में बाधा आती है। जातक की वाणी में कटुता रहती है। वह कंजूस होता है। धन कमाने के लिए उसे कठिन परिश्रम करना पड़ता है। जीवन के उत्तरार्द्ध में आर्थिक स्थिति ठीक रहती है। दांत, गला एवं कान में बीमारी की संभावना रहती है। तृतीय भाव जातक की शिक्षा अपूर्ण रहती है। वह नौकरी से धन कमाता है। भाई-बहनों के साथ संबंध में कटुता आती है। नौकर विश्वासघात करते हैं। यात्रा में विघ्न आते हैं। श्वांस के रोग होने की संभावना रहती है। चतुर्थ भाव माता के सुख में कमी, अथवा माता से विवाद रहता है। जन्म स्थान छोड़ना पड़ता है। मध्यम आयु में आय कुछ ठीक रहती है, परंतु अंतिम समय में फिर से धन की कमी हो जाती है। स्वयं दुखी दरिद्र होकर दीर्घ आयु पाता है। उसके मृत्योपरांत ही उसकी संतान का भाग्योदय होता है। पुरूषों को हृदय रोग तथा महिलाओं को स्तन रोग की संभावना रहती है। पंचम भाव विष योग होने से शिक्षा प्राप्ति में बाधा आती है। वैवाहिक सुख अल्प रहता है। संतान देरी से होती है, या संतान मंदबुद्धि होती है। स्त्री राशि में कन्यायें अधिक होती हैं। संतान से कोई सुख नहीं मिलता। षष्ठ भाव जातक को दीर्घकालीन रोग होते हैं। ननिहाल पक्ष से सहायता नहीं मिलती। व्यवसाय में प्रतिद्धंदी हानि करते हैं। घर में चोरी की संभावना रहती है। सप्तम भाव स्त्री की कुंडली में विष योग होने से पहला विवाह देर से होकर टूटता है, और वह दूसरा विवाह करती है। पुरूष की कुंडली में यह युति विवाह में अधिक विलंब करती है। पत्नी अधिक उम्र की या विधवा होती है। संतान प्राप्ति में बाधा आती है। दांपत्य जीवन में कटुता और विवाद के कारण वैवाहिक सुख नहीं मिलता। साझेदारी के व्यवसाय में घाटा होता है। ससुराल की ओर से कोई सहायता नहीं मिलती। अष्टम भाव दीर्घकालीन शारीरिक कष्ट और गुप्त रोग होते हैं। टांग में चोट अथवा कष्ट होता है। जीवन में कोई विशेष सफलता नहीं मिलती। उम्र लंबी रहती है। अंत समय कष्टकारी होता है। नवम भाव भाग्योदय में रूकावट आती है। कार्यों में विलंब से सफलता मिलती है। यात्रा में हानि होती है। ईश्वर में आस्था कम होती है। कमर व पैर में कष्ट रहता है। जीवन अस्थिर रहता है। भाई-बहन से संबंध अच्छे नहीं रहते। दशम भाव पिता से संबंध अच्छे नहीं रहते। नौकरी में परेशानी तथा व्यवसाय में घाटा होता है। पैतृक संपत्ति मिलने में कठिनाई आती है। आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं रहती। वैवाहिक जीवन भी सुखी नहीं रहता। एकादश भाव बुरे दोस्तों का साथ रहता है। किसी भी कार्य मंे लाभ नहीं मिलता। 1 संतान से सुख नहीं मिलता। जातक का अंतिम समय बुरा गुजरता है। बलवान शनि सुखकारक होता है। द्वादश स्थान जातक निराश रहता है। उसकी बीमारियों के इलाज में अधिक समय लगता है। जातक व्यसनी बनकर धन का नाश करता है। अपने कष्टों के कारण वह कई बार आत्महत्या तक करने की सोचता है। महर्षि पराशर ने दो ग्रहों की एक राशि में युति को सबसे कम बलवान माना है। सबसे बलवान योग ग्रहों के राशि परिवर्तन से बनता है तथा दूसरे नंबर पर ग्रहों का दृष्टि योग होता है। अतः शनि-चंद्र की युति से बना ‘विष योग’ सबसे कम बलवान होता है। इनके राशि परिवर्तन अथवा परस्पर दृष्टि संबंध होने पर ‘विष योग’ संबंधी प्रबल प्रभाव जातक को प्राप्त होते हैं। इसके अतिरिक्त शनि की तीसरी, सातवीं या दसवीं दृष्टि जिस स्थान पर हो और वहां जन्मकुंडली में चंद्रमा स्थित होने पर ‘विष योग’ के समान ही फल जातक को प्राप्त होते हैं।
 उपाय
शिवजी शनिदेव के गुरु हैं और चंद्रमा को अपने सिर पर धारण करते हैं। अतः ‘विषयोग’ के दुष्प्रभाव को कम करने के लिए देवों के देव महादेव शिव की आराधना व उपासना करनी चाहिए। सुबह स्नान करके प्रतिदिन थोड़ा सरसों का तेल व काले तिल के कुछ दाने मिलाकर शिवलिंग का जलाभिषेक करते हुये ‘ऊँ नमः शिवाय’ का उच्चारण करना चाहिए। उसके बाद कम से कम एक माला ‘महामृत्युंजय मंत्र’ का जप करना चाहिए। शनिवार को शनि देव का संध्या समय तेलाभिषेक करने के बाद गरीब, अनाथ एवं वृद्धों को उरद की दाल और चावल से बनी खिचड़ी का दान करना चाहिए। ऐसे व्यक्ति को रात के समय दूध व चावल का उपयोग नहीं करना चाहिए क्योंकि इससे चंद्रमा और निर्बल हो जाता है।

कारको भाव नाशाय

जन्मकुंडली के बारह भाव मानव जीवन के विभिन्न अवयवों को दर्शाते हैं। किसी भाव के फल का विचार करते समय सर्वप्रथम उस भाव और भावेश के बल का आकलन किया जाता है। जिस भाव में उसके स्वामी या शुभ ग्रह की स्थिति हो, या उनकी दृष्टि पड़ती हो, तब वह भाव बलवान होकर शुभ फलदायक होता है। इसके विपरीत स्थिति में वह भाव निर्बल होकर शुभ फल नहीं देता है। जब भाव का स्वामी स्वोच्च, मित्र या स्वराशि में स्थित होकर शुभ भावाधिपतियों से संबंध बनाता है तब वह बलवान होता है और अपने स्वामित्व भाव का उत्तम फल देता है। भावेश का बली होना भाव की शुभता बढ़ाता है। भाव व भावेश के साथ ही उस भाव के ‘नित्य कारक’ ग्रह का भी आंकलन आवश्यक होता है। ‘भाव कारक’, ‘वस्तु कारक’, ‘योग कारक’ व ‘जैमिनी कारक’ सर्वथा भिन्न हैं। महर्षि पाराशर ने प्रत्येक भाव का एक ‘नित्य कारक’ निर्धारित किया था - सूर्यो गुरुः कुजः सोमो गुरुभौमः सितः शनिः। गुरुंचन्द्रसुतो जीवो मन्द´च भावकारकाः।। परंतु कालांतर में रचित ज्योतिष ग्रंथों में वर्णित ‘नित्य भावकारक’ इस प्रकार हैं- प्रथम भाव -सूर्य, द्वितीय भाव-बृहस्पति, तृतीय भाव-मंगल, चतुर्थ भाव - चंद्र व बुध, पंचम भाव -बृहस्पति, षष्ठ भाव -शनि व मंगल, सप्तम भाव - शुक्र, अष्टम भाव - शनि, नवम भाव - सूर्य व बृहस्पति, दशम भाव - सूर्य, बुध, बृहस्पति व शनि, एकादश भाव - बृहस्पति, द्वादश भाव - शनि। फलदीपिका ग्रंथ (15, 25) के अनुसार- तस्मिन भावे कारके भावनाथे वीर्योपेते तस्य भावस्य सौरव्यम्। अर्थात्, ”जब भाव, भावेश और कारक तीनों बलवान हों तब उस भाव का अच्छा फल व्यक्ति को प्राप्त होता है।“ ‘भाव प्रकाश’ ग्रंथ के अनुसार- भवन्ति भावभावेशकारका बलसंयुताः। तदा पूर्ण फलं द्वाभ्याम एकेनाल्प फलं वदेत्।। अर्थात् ” यदि भाव, भाव का स्वामी तथा भाव का कारक तीनों बलवान हों तब उस भाव का पूर्ण फल कहना चाहिए, और यदि तीन में से दो बलवान हों तो आधा फल कहना चाहिए, तथा केवल एक ही बलवान होने पर बहुत थोड़ा फल होता है। ‘जातक पारिजात’ ग्रंथ (अ. 2-51) ने प्रचलित भाव कारकों का विवरण देने के बाद अगले श्लोक (अ. 2-52) में कहा है कि यदि शुक्र, बुध और बृहस्पति लग्न से क्रमशः सप्तम, चतुर्थ और पंचम भाव में हानिप्रद होते हैं तथा शनि अष्टम भाव में शुभ फल करता है। ज्ञातव्य है कि उपरोक्त ग्रह इन भावों के कारक माने गये हैं। परंतु ‘भावार्थ रत्नाकर’ ग्रंथ के रचयिता श्री रामानुजाचार्य ने निम्न श्लोक में सभी कारक ग्रहों को संबंधित भाव में हानिकारक बताया है- सर्वेषु भाव स्थानेषु तत्त्द भावादिकारकः। विद्यते तस्यभावस्य फलमस्वंल्पमुदीरितय्।। अर्थात्, ”सभी कारक ग्रह अपने संबंधित भाव में स्थित होने पर उस भाव के फल को बहुत कम करते हैं।“ उपरोक्त शलोक कालांतर में ”कारको भाव नाशाय“ नामक लोकोक्ति के रूप में प्रचलित हो गया। इसी आधार पर बृहस्पति का पंचम भाव में होना पुत्र अभाव का सूचक, शुक्र की सप्तम भाव में स्थिति वैवाहिक सुख का अभाव सूचक, तथा छोटे भाई के कारक मंगल ग्रह का तृतीय भाव में सिथति छोटे भाई के अभाव का सूचक कहा जाता है। अपवाह स्वरूप केवल शनि ग्रह का अष्टम (आयु) में होना दीर्घायु देता है। ‘कारको भाव नाशाय’ के पीछे जो हेतु है उस पर विचार करने से ज्ञात होता है कि जब किसी भाव का कारक उसी भाव में स्थित होता है तब साझे विषय के दो द्योतक (भाव व कारक) इकट्ठे होंगे और उन पर किसी पापी ग्रह का प्रभाव होने पर उनके साझे तथ्य की हानि होगी। वहीं शनि ग्रह की अष्टम आयु) भाव में स्थिति अपनी धीमी चाल से आयु को बढ़ायेगा। अनुभव में भी आता है कि जब भाव में उसका कारक शत्रु राशि में या अशुभ प्रभावी होने पर ही उस भाव के फल में कमी आती है। परंतु जब कोई ग्रह उस भाव में स्थित हो जिसका वह कारक है और वह स्वराशि अथवा मित्र राशि में स्थित हो वा शुभ दृष्ट हो तब अवश्य ही भाव फल की वृद्धि होती है। जैसे तृतीय भाव में मंगल यदि स्वराशि या मित्र राशि में हो और शुभ दृष्ट हो तो जातक का भाई अवश्य होता है। इसी प्रकार चतुर्थ भाव में चंद्रमा शुभ राशि में शुभ दृष्ट होने पर माता दीर्घजीवी होती है तथा सप्तम भाव में शुभ राशि स्थित व दृष्ट शुक्र वैवाहिक सुख देता है। उपरोक्त तथ्य को दर्शाती कुछ कुंडलियां प्रस्तुत हैं। 1. पुरुष: 14.9.1938, 23.36, झांसी भ्रातृकारक मंगल तृतीय भाव में मित्र सिंह राशि में भावेश सूर्य के साथ है। मंगल अपनी मूल त्रिकोण राशि से पंचम भाव में है। लग्नेश बुध तृतीय भाव में मित्र सूर्य के साथ है। तृतीय भाव स्थित ग्रहों पर बृहस्पति की सप्तम दृष्टि है। जातक के दो छोटे भाई हैं। इसके विपरीत श्री जवाहर लाल नेहरू की कुंडली देखिये। 2. 14.11.1889, 23.03 इलाहाबाद भ्रातृकारक मंगल तृतीय भाव में अपनी शत्रु राशि कन्या में स्थित है। मंगल अपनी मूल त्रिकोण राशि से षष्ठ भाव में स्थित है। उस पर कोई शुभ दृष्टि नहीं है। तृतीयेश बुध पर शनि और राहु की दृष्टि है और वह ‘पापकर्तरी योग में है। सर्वविदित है कि नेहरूजी का छोटा भाई नहीं था। यह स्थिति भाव, भावेश व भाव कारक की अशुभ स्थिति का फल था। 3. स्त्री: 5.5.1963, 16.40, भटिंडा (पंजाब) जातिका की कन्या लग्न है। उसमें पक्षबली एकादशेश चंद्रमा स्थित है। सप्तम भाव में पति कारक स्वक्षेत्री बृहस्पति और कलत्रकारक उच्च शुक्र की युति है तथा उन पर पक्षबली चंद्रमा की दृष्टि है। अतः शनि ग्रह की सप्तम भाव पर दृष्टि विशेष अशुभ न कर पाई। जातिका अति सुंदर और सुशील है, तथा सौभाग्यशाली जीवन व्यतीत कर रही है। इसके विपरीत ब्रिटिश राजकुमारी डायना की कुंडली का अवलोकन कीजिए। 4. 1.7.1961, 17.00, लंदन (यू.के.) कुंडली में कलत्रकारक शुक्र सप्तम भाव में स्वक्षेत्री है जिससे उनका ब्रिटिश राजघराने में विवाह हुआ। परंतु शुक्र पर नीच व वक्री तथा शनि पीड़ित बृहस्पति की दृष्टि है। शुक्र से चतुर्थ केंद्र में मंगल और राहु स्थित हैं। जिससे उनकी कामुकता में वृद्धि हुई और उनके कई व्यक्तियों से तथाकथित संबंध बने और अपने पति से तलाक हुआ। यह सब कलत्रकारक शुक्र पर दुष्प्रभाव के कारण हुआ। 5. श्री लाल बहादुर शास्त्री, पूर्व प्रधानमंत्री 2.10.1904, 11.42, वाराणसी पुत्रकारक बृहस्पति पंचम भाव में मित्र राशि मेष में स्थित है। पंचमेश मंगल पंचम से पंचम (नवम) भाव में अपनी मित्र सिंह राशि में है तथा उस पर बृहस्पति की दृष्टि है। पंचम भाव पर स्वक्षेत्री शुक्र की भी दृष्टि है। सभी जानते हैं कि उनके दो पुत्र थे। 6. पुरुष: 27.5.1967, 14.45, लखनऊ कुंडली में माता का कारक चतुर्थ भाव में स्थित है। चंद्रमा पर मंगल, शनि और राहु की दृष्टि है। परंतु चंद्रमा पक्षबली है तथा शुक्र से दृष्ट है। चंद्रमा का उच्च बृहस्पति से राशि विनिमय है। इस प्रकार चंद्रमा बलवान है। चंद्रमा से अष्टम (आयु) भाव में उच्च बृहस्पति ने भी माता को दीर्घायु बनाया, यद्यपि उनका स्वास्थ्य अच्छा नहीं है। चंद्रमा पर शुभ प्रभाव के कारण ‘कारको भाव नाशाय’ निष्प्रभावी रहा। इस संबंध में आचार्य मंत्रेश्वर के विचार प्रस्तुत हैं। ‘फलदीपिका’ ग्रंथ (15.17) में उन्होंने सर्वमान्य भाव कारको का उल्लेख किया है तथा श्लोक 15-25 में कहा है कि भाव का शुभ फल पाने के लिये भाव, भावेश व भाव कारक को बलवान होना चाहिए। परंतु श्लोक 15.26 में स्वयं का विचार न देते हुए कहा है: धर्मे सूर्यः शीतगुर्बन्धुभावे शौर्य भौमः पंचमे देवमन्त्री। कामे शुक्रश्चाष्टमे भानुपुत्रः कुर्यात्तस्य क्लेशमित्याहुरन्ये।। अर्थात्, ”अन्य आचार्यों का मत है कि नवम भाव में सूर्य, चतुर्थ में चंद्रमा, तृतीय भाव में मंगल, पंचम भाव में बृहस्पति, सप्तम भाव में शुक्र तथा अष्टम भाव में शनि, इन भावों के लिए कष्टकारी होते हैं। श्लोक के अंत में ‘क्लेशभित्याहुरन्ये’ का प्रयोग उनकी ‘कारकोभावनाशाय’ से सहमति नहीं दर्शाता। आचार्य कालिदास ने भी अपने ग्रंथ ‘उत्तरकालामृत’ (अध्याय 4.12) में भाव के शुभ फल प्राप्ति के लिए भाव, भावेश व भावकारक का बलवान होना आवश्यक बताया है। इनके बल आंकलन व आपसी संबंध के बारे में मार्गदर्शन करते हुए उन्होंने कहा हैः भावानां फलकारकाश्च विमुखा नैसर्गिकाश्चाय यद्भावेशान्वितमांशपावपि तथा तद्भावत्कारकौ। यद्यत्कारकराशिगो शुभखगस्त तत्फलध्वंसकस्तत्तत्कारक भावयोगवशतः स्वल्पं फलं कारयेत्।। अर्थात, ”यदि किसी भाव के स्वामी तथा उस भाव के कारक में नैसर्गिक शत्रुता हो, अथवा किसी भाव तथा उसके कारक की उन ग्रहों से शत्रुता हो, जो कि भावेशाधिष्ठित राशि तािा नवांश के स्वामी हैं, तो उस भाव की हानि होती है। इसी प्रकार जिस भाव के कारक की राशि में पाप ग्रह हो, उस भाव के फल की हानि होती है। ऐसे ही जिस भाव तथा उसके कारक से पाप ग्रह की युति हो तब भी उस भाव का फल बहुत अल्प हो जाता है। उदाहरणार्थ नवम् भाव पिता का है तथा सूर्य नवम भाव का कारक है। मिथुन लग्न में नवमेश शनि होता है जो कारक सूर्य का वैरी है। अतः मिथुन लग्न में सूर्य की नवम भाव में स्थिति अशुभ फलदायक होगी। विभिन्न ज्योतिष ग्रंथों पर आधारित उपरोक्त विवचेन यह दर्शाता है कि ‘कारको भाव नाशाय’ पूर्ण सत्य नहीं है। केवल उसके आधार पर फलादेश करना सही नहीं होगा। भाव व भावेश की तरह भाव कारक के बल का शास्त्रोक्त पूर्ण आंकलन करने के उपरांत ही किसी भाव का फलादेश कहना चाहिए।

बुधवार, 3 जनवरी 2018

पितृ दोष के लक्षण

१ घर में पितृ दोष होगा तो घर के बच्चे की शिक्षा , दिमाग , बाल ,व्यवहार पर अच्छा प्रभाव नहीं पड़ता ।
२ जिन जातकों को पितृ दोष होता है उनके लिए इस दिन का बहुत महत्व है , बहुत से कारण होते है की हमारे अपने पितरों से सम्बन्ध अच्छे नहीं हो पाते , कारण , आपके जीवन में रुकावटें , परेशानियाँ और क्या नहीं होता । इसीलिए इस दिन की गयी पूजा आपको लाभ पंहुचा सकती है ।
३ पितृ दोष कही न कही अनेको दोषों को उत्पन्न करने वाला होता है जैसे की वंश न बढ़ने का दोष , असफलता मिलने का दोष , बाधा दोष और भी बहुत कुछ । तो इन दिनों में की गयी पूजा और तर्पण अगर विधि विधान और मन लगाकर किया जाए तो अच्छे फल देने वाली सिद्ध होती है ।
४ बालो पर सबसे पहले प्रभाव पड़ता है , जैसे की , समय से पहले बालों का सफ़ेद हो जाना , सिर के बीच के हिस्से से बालों का कम होना , हर कार्य में नाकामी हाथ लगाना , घर में हमेशा कलह रहना ,बीमारी घर के सदस्यों को चाहे छोटी हो या बड़ी घेरे रखती है , यह सब लक्षण पितृ दोष घर में है इसको बताते है । और अगर घर में पितृ दोष है तो किसी भी सदस्य को सफलता आसानी से हाथ नहीं लगती ।
५ पितृ दोष कुंडली में है अगर , तो कुंडली के अच्छे गृह उतना अच्छा फल जितना उन्हें देना चाहिए ।
६ घर के सभी लोग आपस में झगड़ते है , घर के बच्चों के विवाह देरी से होते है , और काफी दिक्कतों का सामना भी करना पड़ता है विवाह करने में , घर में धन ना के बराबर रुकेगा अगर पितृ दोष हावी है तो ,बीमारी या फिर क़र्ज़ देने में धन चला जायेगा जुडा हुआ धन , पुरानी चीजे ठीक कराने में धन निकल जायेगा पर रकेगा नहीं ।

७ परिवार की मान और प्रतिष्ठा में गिरावट आती है , पितृ दोष के कारण घर में पेड़-पौधे या फिर जानवर नहीं पनप पाते । घर में शाम आते आते अजीब सा सूनापन हो जायेगा जैसे की उदासी भरा माहौल, घर का कोई हिसा बनते बनते रह जायेगा या फिर बने हुए हिस्से में टूट-फुट होगी , उस हिस्से में दरारे आ जाती है ।
८ घर का मुखिया बीमार रहता है , रसोई घर के अस - पास वाली दीवारों में दरार आ जाते है । जिस घर में पितृ दोष हावी होता है उस घर से कभी भी मेहमान संतुष्ट होकर नहीं जायेंगे चाहे आप कुछ भी क्यूँ न कर ले या फिर कितनी ही खातिरदारी कर ले , मेहमान हमेशा नुक्स निकाल कर रख देंगे यानी की मोटे तौर पर आपकी इज्ज़त नहीं करेंगे ।
९ घर में चीजे और साधन होते हुए भी घर के लोग खुश नहीं रहते । जब पैसे की जरुरत पड़ती है तो पैसा मिल नहीं पाता । ऐसे घर के बच्चों को उनकी नौकरी या फिर कारोबार में स्थायित्व लम्बे समय बाद ही हो पाता है , बच्चा तेज़ होते हुए भी कुछ जल्दी से हासिल नहीं कर पायेगा ऐसी परिस्थितियाँ हो जायेंगी ।
१० जिस घर में पितृ दोष होता है उस घर में भाई-बहन में मन-मुटाव रहता ही रहता है , कभी कभी तो परिस्थितियाँ ऐसी हो जाती है की कोई एक दूसरे की शकल तक देखना पसंद नहीं करता । पति-पानी में बिना बात के झगडा होना भी ऐसे घर में स्वाभाविक है जिस घर में पितृ दोष हो ।
११ ऐसे घर के लोग जब एक दूसरे के साथ रहेंगे तो हमेशा कलेश करके रखेंगे परन्तु जैसे ही एक दुसरे से दूर जायेंगे तो प्रेम से बात करेंगे ।
१२ घर में स्त्रियों के साथ दुराचार करना , उन्हें नीचा दिखाना , उनका सम्मान न करने से शुक्र गृह बहुत बुरा फल देता है जिसका असर आने वाली चार पीड़ियों तक रहता है । तो शुक्र गृह भी पित्र दोष लगाता है कुंडली में ।

१३ जिस घर में जानवरों के साथ बुरा सुलूक किया जाता है उस घर में पितृ दोष आना स्वाभाविक है । और जो जानवरों के साथ बुरा सुलूक करते है वह ही नहीं अपितु उनका पूरा परिवार और उनकी संतान पर पितृ दोष के बुरे प्रभाव के हिस्सेदार जाने-अनजाने में बन जाते है ।
१४ जिस घर में विनम्र रहने वाले व्यक्ति का अपमान होता है वह घर पितृ दोष से पीड़ित होगा , साथ में जो लोग कमजोर व्यक्ति का अपमान करेंगे वह भी पितृ दोष से प्रभावित होंगे ।
१५ जमीन हथियाने से , हत्या करने से पित्र दोष लगेगा ।
१६ जो लोग समाज-विरॊधि काम काम करेंगे उनका बृहस्पति खराब होकर उनकी कई पीड़ियों तक पितृ दोष देता रहता है ।
१७ बुजुर्गों का अपमान जहा हुआ वह समझिये पितृ दोष आया ही आया ।
१८ सीड़ियों के निचे रसोई या फिर सामान इक्कठा करने का स्टोर बनाने से पितृ दोष लगता है ।
१९ मित्र या प्रेमी को धोखा देने से पितृ दोष लगता है , शेर-मुखी घर में रहने वाले लोगो को पितृ दोष के दुष्प्रभाव झेलने पड़ते है । {शेर-मुखी ऐसा घर होता है जो शुरू शुरू में चौड़ा होता है परन्तु जैसे जैसे आप घर के अंदर जाते जायेंगे वह पतला होता चला जाता है ।

किन-किन ग्रहों की कौन सी दृष्टि होती है

सूर्य:- अपने बैठे हुए स्थान से सातवें स्थान को देखता है।

चन्द्र:- अपने बैठे हुए स्थान से सातवें स्थान को देखता है।

मंगल:- अपने बैठे हुए स्थान से चौथे, सातवें और आठवें स्थान को देखता है।

बुध:- अपने बैठे हुए स्थान से सातवें स्थान को देखता है।

गुरु:- अपने बैठे हुए स्थान से पांचवे, सातवें और नौवे स्थान को देखता है।

शुक्र:- अपने बैठे हुए स्थान से सातवें स्थान को देखता है।

शनि:- अपने बैठे हुए स्थान से तीसरे, सातवें और दसवें स्थान को देखता है।

*राहु और केतु की दृष्टि:-*

राहु और केतु को छाया ग्रह कहते हैं इनकी दृष्टि को लेकर हर ज्योतिषियों के अपने-अपने मत हैं कोई कहता है कि राहु और केतु अपने स्थान से पांचवे, सातवे और नौवे स्थान को देखता है तो कोई कहता है कि केवल सातवें स्थान को देखता है तो कोई कहता है कि राहु की दृष्टि होती है किंतु केतु की नही।

अतः सामान्य तौर पर राहु और केतु जहाँ बैठते हैं वहां के फल में कमी लाते हैं और सातवें भाव के फल में कमी लाते हैं किंतु इनका पूर्ण प्रभाव इनके बैठे हुए स्थान से पांचवे और नौवे भाव पर न पड़ने से उन भावों का फल पूर्णतया नष्ट नही होता अतः उन भावों के मिले-जुले फल मिलते रहते हैं।

सोमवार, 1 जनवरी 2018

शापितदोष ओर उसका शांति विधान

 शापितदोष ओर उसका शांति विधान

- श्रापित दोष का मतलब हुआ किसी व्यक्ति को श्राप मिला हुआ होना... श्रापित दोष तब होता है, जब किसी की कुंडली के एक ही स्थान पर शनि और राहु दोनों उपस्थित होते हैं... यह व्यक्ति द्वारा पूर्व में किए पापों का नतीजा होता है.... जो अब सामने आता है.. ये एक पूर्व का कुछ कर्म बताता है जो अभी तक किया जाना बाकि है..
अगर किसी की कुंडली में श्रापित दोष हो तो उसे अच्छा फल नहीं मिलता है.. भले ही उसकी कुंडली में अच्छे ग्रहों का समूह मौजूद हो.. लेकिन प्राचीन ज्योतिषशास्त्रों के अनुसार जब राहु और केतु शनि के साथ आ जाएं...या उसकी युति प्रति युति हो तो इस स्थिति को श्रापित योग कहा जाता है... जिसे अच्छा और बुरा दोनों फल में माना जाता है... ऐसी स्थिति जिसकी कुंडली में होती है.... उस व्यक्ति के पास अपार धन तो होता है... पर जब तक उस दोष से मुक्ति नही पायी जाती तब तक जातक उसके अशुभ फलो के प्रभाव में जीना पड़ता है.. कितना भी अच्छा आचरण उसे अच्छा फल के बजाये विपरीत फल भी दे सकता है.. और उससे उल्टा धर्मं के विपरीत कर्म कभी कभी अच्छा फल दे जाता है.. तब ये बात कुछ अजीब लगती है.. ऐसा ही कुछ मंगल के साथ राहु या केतु की युति से भी होता है.

शापित दोष शान्ति विधान पद्धति

शापित दोष शांति विधान कैसे हो..? ऐसा सवाल हर एक का होता है.. क्योंकि विधि विधान करना मेरा काम है और मैं हर धार्मिक विधान करता हु.. ओर एक बात हर किसीका काम का तंरिक अलग अलग होता है.. तो आज मैं अपने गुरुदेव का बताया तंरिका आपके सामने रखता हूं..

- पहेले तो ये जान ले शापित दोष किस ग्रहो की युति से होता है और ये क्यों आती है.. शापित दोष जब कुंडली मे शनि राहु या केतु से युति प्रतियुति करता है तब होती है.. मान्यता के अनुसार ये परिवार में कोई पुराना अप-मृत्यु बताती है.. मतलब एक प्रकार का पितृदोष है.. पर इसका शांति कुछ इस प्रकार से होता है...

- सब से पहले इसमे नवग्रहों के जाप होता है.. ये जाप भी चारगुना करने का विधान है.. कुछ परिस्थिति में एक गुना भी होता है.. सब ग्रहो के जाप के बाद उसका दशांश होम होता है.. फिर तर्पन मार्जन आदि के बाद पूर्णाहुति के साथ ये कार्य सम्पन होता है.. अब इसके पूरे होते ही जो जातक है उसे श्राप से मुक्ति मिली तो उसे पितृ कार्य करने का अधिकार मिला.. दूसरे दिन पितृ कार्य करके पितृ की शांति के लिए श्राद्ध होता है.. जिसका नाम है "नारायणबलि श्राद्ध".. इस श्राद्ध से समस्त पितृ की शांति की जाती है.. ओर उसका आर्शीवाद प्राप्त किया जाता है.. अब दो अपसव्य कार्य के बाद १०वे दिन भगवान महारुद्र की पूजा षोडषोपचार या त्रिशोपचार.. अलग अलग काम्य पदार्थो से अभिषेक करके की जाती है.. ओर उसके बाद ब्रह्मभोजन दान आदि आदि से इसकी समाप्ति होती है....

- अब कुछ विस्तार से जाने तो ये विधान १० दिन का होता है.. इसकी सुरुआत मंगल या शनि से करना चाहिए.. जैसे मैं मंगल से काम की सुरुआत करता हु.. मंगलवार को प्रातः में सब से पहले स्थापन किया जाता है.. स्थापन में पंचदेव के पाँच.. प्रधान राहु केतु शनि के तीन.. सर्वतोभद्र ओर पितृ का स्थापन ऐसे १० स्थापन होते है.. उसके बाद पंचांग कार्य से नाम गोत्र के साथ पूजा के बाद मंगल के जाप किये जाते है.. अब आगे पोस्ट में बताया है वैसे हर एक ग्रह के जाप की संख्या अलग अलग बताई गई है.. वैसे मंगल का ४गुना के हिसाब से ४०००० जाप होते है ५ ब्राह्मणों के साथ.. जाप सॅमको खत्म होने के बाद उत्तर पूजन होता है और मंगल का काम मंगलवार शाम को खत्म होता है.. इस तरह दूसरे दिन राहु केतु ओर बुध का जाप.. जैसे मंगल का किया उसी पध्धति से.. गुरुवार को गुरु का.. शुक्रवार शुक्र का.. शनिवार शनि का.. रविवार सूर्य का.. ओर सोमवार चंद्र का जाप किये जाते है.. अब सब जाप कर्म खत्म होने के बाद जाप की शुद्धि के लिए दशांश होम तर्पन मार्जन पूर्णाहुतु के साथ ८ दिन का काम पूरा होता है.. फिर ९वे दिन पितृ श्राद्ध.. ओर १० वे दिन महादेव की पूजा के साथ १० दिन का श्रापित दोष विधान सम्पन्न होता है.. इस विधान का बहोत बड़ा फल मिलते मैन देखा है.. पर इस विधान को सात्विक भाव से करना चहोये.. ज्यादा विस्तार से समजना मुश्किल है.. आशा करता हु ये माहिती आपके लिए उपयोगी सिद्ध होगी ।

पूर्वजन्म के दोष कही आपकी परेशानी का कारण तो नही

मनुष्य की मृत्यु के समय जो कुंडली बनती है, उसे पुण्य चक्र कहते हैं. इससे मनुष्य के अगले जन्म की जानकारी होती है। मृत्यु के बाद उसका अगला जन्म कब और कहां होगा, इसका अनुमान लगाया जा सकता है।

जातक-पारिजात में मृत्युपरांत गति के बारे में बताया गया है. यदि मरण काल में लग्न में गुरु हो तो जातक की गति देवलोक में, सूर्य या मंगल हो तो मृत्युलोक, चंद्रमा या शुक्र हो तो पितृलोक और बुध या शनि हो तो नरक लोक में जाता है. यदि बारहवें स्थान में शुभ ग्रह हो, द्वादशेश बलवान होकर शुभ ग्रह से दृष्टि होने पर मोक्ष प्राप्ति का योग होता है. यदि बारहवें भाव में शनि, राहु या केतु की युति अष्टमेश के साथ हो, तो जातक को नरक की प्राप्ति होती है. जन्म कुंडली में गुरु और केतु का संबंध द्वादश भाव से होने पर मोक्ष की प्राप्ति होती है।
पत्रिाका में गुरु, शनि और राहू की स्थिति आत्माओं का सम्बन्ध पूर्व कर्म के कर्मो से प्राप्त फल या प्रभाव बतलाती है :-
1. गुरु यदि लग्न में हो तो पूर्वजों की आत्मा का आशीर्र्वाद या दोष दर्शाता है। अकेले में या पूजा करते वक्त उनकी उपस्थिति का आभास होता है। ऐसे व्यक्ति कों अमावस्या के दिन दूध का दान करना चाहिए।

2. दूसरे अथवा आठवें स्थान का गुरु दर्शाता है कि व्यक्ति पूर्व जन्म में सन्त या सन्त प्रकृति का या और कुछ अतृप्त इच्छाएं पूर्ण न होने से उसे फिर से जन्म लेना पड़ा। ऐसे व्यक्ति पर अदृश्य प्रेत आत्माओं के आशीर्वाद रहते है। अच्छे कर्म करने तथा धार्मिक प्रवृति से समस्त इच्छाएं पूर्व होती हैं। ऐसे व्यक्ति सम्पन्न घर में जन्म लेते है। उत्तरार्ध में धार्मिक प्रवृत्ति से पूर्ण जीवन बिताते हैं। उनका जीवन साधारण परंतु सुखमय रहता है और अन्त में मौत को प्राप्त करते है।
3. गुरु तृतीय स्थान पर हो तो यह माना जाता है कि पूर्वजों में कोई स्त्री सती हुई है और उसके आशीर्वाद से सुखमय जीवन व्यतीत होता है किन्तु शापित होने पर शारीरिक, आर्थिक और मानसिक परेशानियों से जीवन यापन होता है। कुल देवी या मॉ भगवती की आराधना करने से ऐसे लोग लाभान्वित होते हैं।
4. गुरु चौथे स्थान पर होने पर जातक ने पूर्वजों में से वापस आकर जन्म लिया है। पूर्वजों के आशीर्वाद से जीवन आनंदमय होता है। शापित होने पर ऐसे जातक परेशानियों से ग्रस्त पाये जाते हैं। इन्हें हमेशा भय बना रहता है। ऐसे व्यक्ति को वर्ष में एक बार पूर्वजों के स्थान पर जाकर पूजा अर्चना करनी चाहिए और अपने मंगलमय जीवन की कामना करना चाहिए।
5. गुरु नवें स्थान पर होने पर बुजुर्गों का साया हमेशा मदद करता रहता हैं। ऐसा व्यक्ति माया का त्यागी और सन्त समान विचारों से ओतप्रोत रहता है। ज्यों-ज्यों उम्र बढ़ती जाती है वह बली, ज्ञानी बनता जाएगा। ऐसे व्यक्ति की बददुआ भी नेक असर देती है।
6. गुरु का दसवें स्थान पर होने पर व्यक्ति पूर्व जन्म के संस्कार से सन्त प्रवृत्ति, धार्मिक विचार, भगवान पर अटूट श्रळा रखता है। दसवें, नवें या ग्यारहवें स्थान पर शनि या राहु भी है, तो ऐसा व्यक्ति धार्मिक स्थल, या न्यास का पदाधिकारी होता है या बड़ा सन्त। दुष्टध्प्रवृत्ति के कारण बेइमानी, झूठ, और भ्रष्ट तरीके से आर्थिक उन्नति करता है किन्तु अन्त में भगवान के प्रति समर्पित हो जाता हैं ।
7. ग्यारहवें स्थान पर गुरु बतलाता है कि व्यक्ति पूर्व जन्म में तंत्रा मंत्रा गुप्त विद्याओं का जानकार या कुछ गलत कार्य करने से दूषित प्रेत आत्माएं परिवारिक सुख में व्यवधान पैदा करती है। मानसिक अशान्ति हमेशा रहती है। राहू की युति से विशेष परेशानियों का सामना करना पड़ता है। ऐसे व्यक्ति को मां काली की आराधना करना चाहिए और संयम से जीवन यापन करना चाहिए।
8. बारहवें स्थान पर गुरु, गुरु के साथ राहु या शनि का योग पूर्वजन्म में इस व्यक्ति द्वारा धार्मिक स्थान या मंदिर तोडने का दोष बतलाता है और उसे इस जन्म में पूर्ण करना पडता है। ऐसे व्यक्ति को अच्छी आत्माएं उदृश्यरुप से साथ देती है। इन्हें धार्मिक प्रवृत्ति से लाभ होता है। गलत खान-पान से तकलीफों का सामना करना पड़ता है।

अब शनि का पूर्वजों से सम्बन्ध

1. शनि का लग्न या प्रथम स्थान पर होना दर्शाता है कि यह व्यक्ति पूर्वजन्मों में अच्छा वैद्य या पुरानी वस्तुओं जड़ी-बुटी, गूढ़विद्याओं का जानकार रहा होगा। ऐसे व्यक्ति को अच्छी अदृश्य आत्माएं सहायता करती है। इनका बचपन बीमारी या आर्थिक परेशानीपूर्ण रहता है। ये ऐसे मकान में निवास करते हैं, जहां पर प्रेत आत्माओं का निवास रहता हैं। उनकी पूजा अर्चना करने से लाभ मिता हैं।
2. शनि दूसरे स्थान पर हो तो माना जाता है। कि ऐसा व्यक्ति पूर्व जन्म में किसी व्यक्ति को अकारण सताने या कष्ट देने से उनकी बददुआ के कारण आर्थिक, शारीरिक परिवारिक परेशानियां भोगता है। राहु का सम्बन्ध होने पर निद्रारोग, डऱावने स्वप्न आते हैं या किसी प्रेत आत्मा की छाया उदृश्य रुप से प्रत्येक कार्य में रुकावट डालती है। ऐसे व्यक्ति मानसिक रुप से परेशान रहते हैं।
3. शनि या राहु तीसरे या छठे स्थान पर हो तो अदृश्य आत्माएं भविष्य में घटने वाली घटनाओं का पूर्वाभास करवाने में मदद करती है। ऐसे व्यक्ति जमीन संबंधी कार्य, घर जमीन के नीचे क्या है, ऐसे कार्य में ज्ञान प्राप्त करते हैं। ये लोग कभी-कभी अकारण भय से पीडि़त पाये जाते हैं।
4. चौथे स्थान पर शनि या राहु पूर्वजों का सर्पयोनी में होना दर्शाता है। सर्प की आकृति या सर्प से डर लगता है। इन्हें जानवर या सर्प की सेवा करने से लाभ होता है। पेट सम्बन्धी बीमारी के इलाज से सफलता मिलती है।
5. पॉचवें स्थान पर शनि या राहु की उपस्थिति पूर्व जन्म में किसी को घातक हथियार से तकलीफ पहुचाने के कारण मानी जाती है। इन्हें सन्तान संबंधी कष्ट उठाने पड़ते हैं। पेट की बीमारी, संतान देर से होना इत्यादि परेशानियॉ रहती हैं।
6. सातवें स्थान पर शनि या राहू होने पर पूर्व जन्म संबंधी दोष के कारण ऑख, शारीरिक कष्ट, परिवारिक सुख में कमी महसूस करते हैं । धार्मिक प्रवृत्ति और अपने इष्ट की पूजा करने से लाभ होता है।
7. आठवें स्थान पर शनि या राहु दर्शाता है कि पूर्व जन्म में किसी व्यक्ति पर तंत्रा-मंत्रा का गलत उपयोग करने से अकारण भय से ग्रसित रहता हैं। इन्हें सर्प चोर मुर्दों से भय बना रहता हैं। इन्हें दूध का दान करने से लाभ होता है
8. नवें स्थान पर शनि पूर्व जन्म में दूसरे व्यक्तियों की उन्नति में बाधा पहुचाने का दोष दर्शाता है। अतरू ऐसे व्यक्ति नौकरी में विशेष उन्नति नहीं कर पाते हैं।
9. शनि का बारहवें स्थान पर होना सर्प के आशीर्वाद या दोष के कारण आर्थिक लाभ या नुकसान होता है। ऐसे व्यक्ति ने सर्पाकार चांदी की अंगुठी धारण करनी चाहिए ऐसे लोग सर्प की पूजा करने से लाभान्वित होते हैं। भगवान शंकर पर दूध पानी चढ़ाने से भी लाभ मिलता है।
10. जन्म पत्रिका के किसी भी घर में राहु और शनि की युति है ऐसा व्यक्ति बाहर की हवाओं से पीडि़त रहता है। इनके शरीर में हमेंशा भारीपन रहता है, पूजा अर्चना के वक्त अबासी आना आलसी प्रवृत्ती, क्रोधी होने से दोष पाया जाते हैं।
कुंडली के पंचम भाव के स्वामी ग्रह से जातक के पूर्वजन्म के निवास का पता चलता है.
पूर्नजन्म में जातक की दिशा : जन्म कुंडली के पंचम भाव में स्थित राशि के अनुसार जातक के पूर्वजन्म की दिशा का ज्ञान होता है।
पूर्नजन्म में जातक की जाति : जन्म कुंडली में पंचमेश ग्रह की जो जाति है, वही पूर्व जन्म में जातक की जाति होती है।

राशि के अनुसार पौधारोपण

अपनी राशि के अनुसार पौधारोपण करें और जीवन में खुशियों की बाहर लाएं

मेष राशि _ मनी प्लांट ,रातरानी, अशोक .

वृषभ _ दूर्वा, तुलसी ,अमरुद,

मिथुन _ चंपा ,केला, तुलसी,

कर्क _ अशोक, चांदनी ,गुलाब,

सिंह _   तुलसी, रातरानी

कन्या _ तुलसी ,मनी प्लांट ,अमरबेल

तुला _ दूर्वा, तुलसी ,चांदनी, गुलाब या अमरुद

वृश्चिक _ मीठी नीम ,अमरबेल, केला, अशोक

धनु _ केला ,तुलसी ,नाग चंपा ,

मकर _ तुलसी ,गेंदा ,मोगरा ,मरवा,

 कुंभ  _ रातरानी,  गिलोय, तुलसी या दूर्वा

मीन _  केला ,तुलसी, अशोक , मीठा नीम ,अमरुद ,

  इन पौधों को अपनी अपनी राशि के अनुसार लगाये और जीवन में खुशियों की बाहर लाएं.

नीच राशि विचार

ज्योतिष में अट्ठाइस नक्षत्र, बारहराशियां, नौ ग्रह और बारह भावजन्मकुंडली निर्माण का आधार होते हैंतथा इन्हीं घटकों के विश्लेषण से किसीभी जातक के जीवन की स्थिति औरजीवन में घटने वाली घटनाओं कोनिश्चित किया जाता है पर ज्योतिष केआधार इन सभी घटकों में भी नव ग्रहोंकी ही महत्वपूर्ण भूमिका होती है हमारीजन्मकुंडली में स्थित प्रत्येक ग्रह कीअपनी अलग विशेष भूमिका होती हैप्रत्येक ग्रह हमारे जीवन के भिन्न भिन्नपक्षों को नियंत्रित करता है। हमारीकुंडली में स्थित प्रत्येक ग्रह वास्तव में दोप्रकार से अपनी भूमिका निभाता है एकतो ग्रह के जो नैसर्गिक गुण तत्व हैं उसरूप में और दूसरा भावेश के रूप मेंकुंडली में स्थित कोई भी ग्रह जितनाबली और अच्छी स्थिति में होगा उतनाही अच्छा परिणाम देगा और उस ग्रह सेनियंत्रित होने वाली चीजें जीवन मेंअच्छी मात्रा में प्राप्त होंगी और जबकोई ग्रह पीड़ित या कमजोर स्थिति मेंहो तो उस ग्रह से नियंत्रित होने वालीचीजों में संघर्ष उत्पन्न होता है और उसग्रह से नियंत्रित होने वाले पदार्थों कीजीवन में कमी रहती है। नीच राशिकिसी भी ग्रह की वह स्थिति होती हैजिसमे ग्रह सबसे कमजोर स्थिति मेंहोता है इसलिए नीच राशि में बैठे ग्रहको नकारात्मक परिणाम देने वाला मानागया है।

नकारात्मक दृष्टिकोण – यदि कुंडलीमें कोई ग्रह नीचस्थ हो अर्थात अपनीनीच राशि में स्थित हो तो ऐसे में वहबहुत कमजोर स्थिति में होता है जिससेउस नीचस्थ ग्रह से नियंत्रित होने वालीवस्तुएं या पदार्थ जीवन में बहुत संघर्षके बाद और कम मात्रा में प्राप्त होती हैं, कुंडली में कोई भी ग्रह नीच राशि में होनेपर उसके नैसर्गिक कारक तत्वों में तोसंघर्ष उत्पन्न होता ही है साथ ही नीचस्थग्रह जिस भाव का स्वामी है उस भाव सेनियंत्रित होने वाली चीजों में भी संघर्षउत्पन्न होता है उदाहरण के लिए यदिमेष लग्न की कुंडली में सूर्य अपनी नीचराशि तुला में हो तो सूर्य नीच राशि मेंहोने से ऐसे में व्यक्ति को प्रसिद्धि प्रतिष्ठायश और पिता के सुख में तो कमी होगीही क्योंकि ये सब सूर्य के नैसर्गिककारक तत्व हैं साथ ही सूर्य यहाँ पँचमभाव का स्वामी है अतः नीचस्थ सूर्य केकारण शिक्षा और संतान से जुडीसमस्याएं भी जीवन में रहेंगी। इन सबके अलावा यहाँ एक बात औरमहत्वपूर्ण है नीच राशि में बैठा ग्रह स्वयंतो कमजोर होता ही है पर जिस भाव मेंहोता है उस भाव को भी बहुत पीड़ितकर देता है और उस भाव से सम्बंधितपदार्थों में संघर्ष उत्पन्न करता है ऊपरवाले उदाहरण के अनुसार मेष लग्न कीकुंडली में सूर्य सप्तम भाव में तुला राशिमें नीचस्थ होगा तो इससे कुंडली कासप्तम भाव भी पीड़ित हो जायेगाजिससे व्यक्ति के वैवाहिक जीवन मेंउतार चढ़ाव और संघर्ष उपस्थित होगा।

सकारात्मक दृष्टिकोण – कुण्डली मेंकिसी भी ग्रह का नीच राशि में होनानिश्चित ही एक संघर्ष उत्पन्न करने वालायोग होता है और नीच राशि में स्थितग्रह से सम्बंधित कारक तत्वों की अल्पमात्रा में प्राप्ति होती है पर नीचस्थ ग्रहके कुछ सकारात्मक पहलू भी होते हैं।जब कुंडली में कोई भी ग्रह अपनी नीचराशि में होता है तो जिस भाव में नीचस्थग्रह स्थित होता है उसके सामने वालेभाव अर्थात अपने से सातवे भाव कोउच्च दृष्टि से देखता है क्योंकि किसी भीग्रह की नीच और उच्च राशि परस्परसमसप्तक (आमने सामने) होती हैंजिससे जब कोई ग्रह नीच राशि में होताहै तो सामने वाले भाव पर उस नीचस्थग्रह की उच्च दृष्टि पड़ती है जिससे वहभाव बहुत बली और मजबूत हो जाता हैऔर भाव के कारक तत्वों में वृद्धि होतीहै उदाहरण के लिए मकर लग्न कीकुंडली में शनि चतुर्थ भाव में अपनीनीच राशि मेष में हो तो वह दशम भावको उच्च दृष्टि (तुला राशि) से देखेगाजिससे दशम भाव बली होजायेगा औरकरियर में उन्नतिदायक होगा अतः नीचराशि में बैठा ग्रह अपने सामने वाले भावको बली कर देता है। इसके आलावायदि कुंडली में कोई ग्रह नीच राशि में होऔर ऐसे में उस नीचस्थ ग्रह की नीचराशि का स्वामी या उच्चनाथ (उस राशिमें उच्च होने वाला ग्रह) दोनों में से कोईभी यदि लगन से केंद्र (1,4,7,10 भाव) में हो तो उस ग्रह का नीच भंग होजाताहै जिससे नीचस्थ ग्रह के नकारात्मकपरिणाम में कुछ हद तक कमी आ जातीहै नीच भंग होने की इस स्थिति कोनीचभंग राजयोग भी कहते हैं। इसकेअतिरिक्त यदि लग्न कुंडली में कोई ग्रहनीच राशि में हो पर नवांश कुंडली में वहग्रह स्व राशि या अपनी उच्च राशि में होतो भी नीच राशि में होने के नकारात्मकमें काफी कमी आजाती है अर्थात नवांशकुंडली में उच्च या स्व राशि में होने सेनीचस्थ ग्रह को सकारात्मक बल मिलजाता है और उससे उत्पन्न संघर्ष में कमीआती है। 

वक्री ग्रह

1- सारावली मे कहा गया है कि शुभ ग्रह
वक्री हो तो अधिकार और शक्ति को बढाते है तथा
अशुभ ग्रह वक्री होकर चिन्ता  व्यथा बेकार
की यात्रा देते है
2- वैद्यनाथ के जातकपारिजात मे लिखा है कि यदि कोई शुभ ग्रह
होकर शुभ स्थान पर है तो उसकी शुभता
बढती है और अशुभ अनिस्ट भावो मे
वक्री होकर अशुभता बढाता है|
3- उत्तरकालामृत मे कहा है कि वक्री ग्रह
अपनी उच्चराशि जैसा फल देते है और जो ग्रह
नीच का हो तो उच्च का फल देता है और उच्च ग्रह
नीच का फल देता है
4- फलदीपीका मे कहा गया है कि यदि
ग्रह नीच राशि या नीच नवांश मे हो और
अस्त ना हो वक्री है तो महान बली
समझा जाता है और यदि उच्च का होकर मित्र के घर का,अपने
घर का या वर्गोत्तम भी हो और अस्त हो तो ग्रह
अमावस के चंद्र जैसा अशुभ फल देता है
5- होरासार मे कहा गया है कि गुरू वक्री होकर
मकर राशि को छोडकर सभी मे पूरा बली
होता है यदि कोई भी ग्रह वक्री है तो
वह उच्च का फल देता है और अपनी दशा मे धन
यश मान सम्मान प्रतिष्ठा देता है
6- ज्योतिषतत्वप्रकाश मे कहा गया है कि क्रूर ग्रह
वक्री होने पर अति क्रूर और सौम्य ग्रह
वक्री होने पर अति सौम्य फल देते है
7- आरम्भसिद्धि मे कहा गया है कि मंगल वक्री
हो तो 15दिन  बुध 10दिन  गुरू 1मास शुक्र 10दिन और शनि
5 महिना तक पिछली राशि का फल देता है जिसमे वे
स्थित होते है उसके बाद ही उस राशि का फल देते
है जिसमे वे है
8 प्रश्नप्रकाश  मे कहा गया है कि मंगल बुध शु्क्र
वक्री होकर पिछली राशि का फल देते है
और गुरू शनि उसी राशि का फल देते है जिसमे वे स्थित
है

निष्कर्ष
जब कोई ग्रह वक्री होकर किसी राशि के
उन्ही अंशो पर आगे पीछे भ्रमण करता
है तो उस स्थान को अत्यधिक प्रभावित करता है नीच
का ग्रह उच्च का फल देत है और उच्च का ग्रह
नीच का फल देता है ग्रह जिस भाव मे शुभ फल देने
वाला है वहां वक्री होने से वह उस स्थान के फल का
विस्तार करता है और वक्री ग्रह उस स्थान का फल
खराब करता है और कम करता है *जैसे* कर्क लग्न के जातक
की कुंडली मे मंगल दशम मे
वक्री है तो दशम को अधिक बल देगा और व्यवसाय
की उन्नती करेगा और यदि मंगल आठवें
घर मे अशुभ है तो अष्टम के अशुभ फल बढा देगा यह विचार
भी सही है कि मंगल बुध शुक्र
वक्री होकर पिछली राशि का फल देते है
गुरू शनि उसी राशि का जिसमे वे है

नक्षत्र से स्वभाव निर्धारण

नक्षत्र संख्या में 27 हैं और एक राशि ढाई नक्षत्र से बनती है। नक्षत्र भी जातक का स्वभाव निर्धारित करते हैं।
1. अश्विनी : बौद्धिक प्रगल्भता, संचालन शक्ति, चंचलता व चपलता इस जातक की विशेषता होती है।
2. भरणी : स्वार्थी वृत्ति, स्वकेंद्रित होना व स्वतंत्र निर्णय लेने में समर्थ न होना इस नक्षत्र के जातकों में दिखाई देता है।
3. कृतिका : अति साहस, आक्रामकता, स्वकेंद्रित, व अहंकारी होना इस नक्षत्र के जातकों का स्वभाव है। इन्हें शस्त्र, अग्नि और वाहन से भय होता है।
4. रोहिणी : प्रसन्न भाव, कलाप्रियता, मन की स्वच्छता व उच्च अभिरुचि इस नक्षत्र की विशेषता है।
5. मृगराशि : बु्द्धिवादी व भोगवादी का समन्वय, तीव्र बुद्धि होने पर भी उसका उपयोग सही स्थान पर न होना इस नक्षत्र की विशेषता है।
6. आर्द्रा : ये जातक गुस्सैल होते हैं। निर्णय लेते समय द्विधा मन:स्थिति होती है, संशयी स्वभाव भी होता है।
7. पुनर्वसु : आदर्शवादी, सहयोग करने वाले व शांत स्वभाव के व्यक्ति होते हैं। आध्यात्म में गहरी रुचि होती है।
8. अश्लेषा : जिद्दी व एक हद तक अविचारी भी होते हैं। सहज विश्वास नहीं करते व 'आ बैल मुझे मार' की तर्ज पर स्वयं संकट बुला लेते हैं।
9. मघा : स्वाभिमानी, स्वावलंबी, उच्च महत्वाकांक्षी व सहज नेतृत्व के गुण इन जातकों का स्वभाव होता है।
10. पूर्वा : श्रद्धालु, कलाप्रिय, रसिक वृत्ति व शौकीन होते हैं।
11. उत्तरा : ये संतुलित स्वभाव वाले होते हैं। व्यवहारशील व अत्यंत परिश्रमी होते हैं।
12. हस्त : कल्पनाशील, संवेदनशील, सुखी, समाधानी व सन्मार्गी व्यक्ति इस नक्षत्र में जन्म लेते हैं।
13. चित्रा : लिखने-पढ़ने में रुचि, शौकीन मिजाजी, भिन्न लिंगी व्यक्तियों का आकर्षण इन जातकों में झलकता है।
14. स्वाति : समतोल प्रकृति, मन पर नियंत्रण, समाधानी वृत्ति व दुख सहने व पचाने की क्षमता इनका स्वभाव है।
15. विशाखा : स्वार्थी, जिद्दी, हेकड़ीखोर व्यक्ति होते हैं। हर तरह से अपना काम निकलवाने में माहिर होते हैं।
16. अनुराधा : कुटुंबवत्सल, श्रृंगार प्रिय, मधुरवाणी, सन्मार्गी, शौकीन होना इन जातकों का स्वभाव है।
17. ज्येष्ठा : स्वभाव निर्मल, खुशमिजाज मगर शत्रुता को न भूलने वाले, छिपकर वार करने वाले होते हैं।
18. मूल : प्रारंभिक जीवन कष्टकर, परिवार से दुखी, राजकारण में यश, कलाप्रेमी-कलाकार होते हैं।
19. पूर्वाषाढ़ा : शांत, धीमी गति वाले, समाधानी व ऐश्वर्य प्रिय व्यक्ति इस नक्षत्र में जन्म लेते हैं।
20. उत्तराषाढ़ा : विनयशील, बुद्धिमान, आध्यात्म में रूचि वाले होते हैं। सबको साथ लेकर चलते हैं।
21. श्रवण : सन्मार्गी, श्रद्धालु, परोपकारी, कतृत्ववान होना इन जातकों का स्वभाव है।
22. धनिष्ठा : गुस्सैल, कटुभाषी व असंयमी होते हैं। हर वक्त अहंकार आड़े आता है।
23. शततारका : रसिक मिजाज, व्यसनाधीनता व कामवासना की ओर अधिक झुकाव होता है। समयानुसार आचरण नहीं करते।
24. पुष्य : सन्मर्गी, दानप्रिय, बुद्धिमान व दानी होते हैं। समाज में पहचान बनाते हैं।
25. पूर्व भाद्रपदा : बुद्धिमान, जोड़-तोड़ में निपुण, संशोधक वृत्ति, समय के साथ चलने में कुशल होते हैं।
26. उत्तरा भाद्रपदा : मोहक चेहरा, बातचीत में कुशल, चंचल व दूसरों को प्रभावित करने की शक्ति रखते हैं।
27. रेवती : सत्यवादी, निरपेक्ष, विवेकवान होते हैं। सतत जन कल्याण करने का ध्यास इनमें होता है।

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