गुरुवार, 31 मई 2018

ज्योतिष और मानसिक रोग ( कारण और निवारण)

मानसिक बीमारी होने के बहुत से कारण होते हैं, इन कारणों का ज्योतिषीय आधार क्या है, इसकी जानकारी के लिये कुंडली के उन योगों का अध्ययन करेंगे जिनके आधार पर मानसिक बिमारियों का पता चलता है।
मानसिक बीमारी में चंद्रमा, बुध, चतुर्थ भाव व पंचम भाव का आंकलन किया जाता है। चंद्रमा मन है, बुध से बुद्धि देखी जाती है और चतुर्थ भाव भी मन है तथा पंचम भाव से बुद्धि देखी जाती है। जब व्यक्ति भावुकता में बहकर मानसिक संतुलन खोता है तब उसमें पंचम भाव व चंद्रमा की भूमिका अहम मानी जाती है। सेजोफ्रेनिया बीमारी में चतुर्थ भाव की भूमिका मुख्य मानी जाती है। शनि व चंद्रमा की युति भी मानसिक शांति के लिए शुभ नहीं मानी जाती है। मानसिक परेशानी में चंद्रमा पीड़ित होना चाहिए।

1- जन्म कुंडली में चंद्रमा अगर राहु के साथ है तब व्यक्ति को मानसिक बीमारी होने की संभावना बनती है क्योकि राहु मन को भ्रमित रखता है और चंद्रमा मन है. मन के घोड़े बहुत ज्यादा दौड़ते हैं. व्यक्ति बहुत ज्यादा हवाई किले बनाता है।

2- यदि जन्म कुंडली में बुध, केतु और चतुर्थ भाव का संबंध बन रहा है और यह तीनों अत्यधिक पीड़ित हैं तब व्यक्ति में अत्यधिक जिदपन हो सकती है और वह सेजोफ्रेनिया का शिकार हो सकता है. इसके लिए बहुत से लोगों ने बुध व चतुर्थ भाव पर अधिक जोर दिया है।

3- जन्म कुंडली में गुरु लग्न में स्थित हो और मंगल सप्तम भाव में स्थित हो या मंगल लग्न में और सप्तम में गुरु स्थित हो तब मानसिक आघात लगने की संभावना बनती है।

4- जन्म कुंडली में शनि लग्न में और मंगल पंचम भाव या सप्तम भाव या नवम भाव में स्थित हो तब मानसिक रोग होने की संभावना बनती है।

5- कृष्ण पक्ष का बलहीन चंद्रमा हो और वह शनि के साथ 12वें भाव में स्थित हो तब मानसिक रोग की संभावना बनती है. शनि व चंद्र की युति में व्यक्ति मानसिक तनाव ज्यादा रखता है।

6- जन्म कुंडली में शनि लग्न में स्थित हो, सूर्य 12वें भाव में हो, मंगल व चंद्रमा त्रिकोण भाव में स्थित हो तब मानसिक रोग होने की संभावना बनती है।

7- जन्म कुंडली में मांदी सप्तम भाव में स्थित हो और अशुभ ग्रह से पीड़ित हो रही हो।

8- राहु व चंद्रमा लग्न में स्थित हो और अशुभ ग्रह त्रिकोण में स्थित हों तब भी मानसिक रोग की संभावना बनती है।

9- मंगल चतुर्थ भाव में शनि से दृष्ट हो या शनि चतुर्थ भाव में राहु/केतु अक्ष पर स्थित हो तब भी मानसिक रोग होने की संभावना बनती है।

10- जन्म कुंडली में शनि व मंगल की युति छठे भाव या आठवें भाव में हो रही हो।

11- जन्म कुंडली में बुध पाप ग्रह के साथ तीसरे भाव में हो या छठे भाव में हो या आठवें भाव में हो या बारहवें भाव में स्थित हो तब भी मानसिक रोग होने की संभावना बनती है।

12- यदि चंद्रमा की युति केतु व शनि के साथ हो रही हो तब यह अत्यधिक अशुभ माना गया है और अगर यह अंशात्मक रुप से नजदीक हैं तब मानसिक रोग होने की संभावना अधिक बनती है।

13- जन्म कुंडली में शनि और मंगल दोनो ही चंद्रमा या बुध से केन्द्र में स्थित हों तब मानसिक रोग होने की संभावना बनती है।

मिरगी होने के जन्म कुंडली में लक्षणइसके लिए चंद्र तथा बुध की स्थिति मुख्य रुप से देखी जाती है. साथ ही अन्य ग्रहों की स्थिति भी देखी जाती है।

1- शनि व मंगल जन्म कुंडली में छठे या आठवें भाव में स्थित हो तब व्यक्ति को मिरगी संबंधित बीमारी का सामना करना पड़ सकता है।

2- कुंडली में शनि व चंद्रमा की युति हो और यह दोनो मंगल से दृष्ट हो।

3- जन्म कुंडली में राहु व चंद्रमा आठवें भाव में स्थित हों।


मानसिक रुप से कमजोर बच्चे अथवा मंदबुद्धि बच्चे

जन्म के समय लग्न अशुभ प्रभाव में हो विशेष रुप से शनि का संबंध बन रहा हो. यह संबंध युति, दृष्टि व स्थिति किसी भी रुप से बन सकता है।

1- शनि पंचम से लग्नेश को देख रहा हो तब व्यक्ति जन्म से ही मानसिक रुप से कमजोर हो सकता है।

2- जन्म के समय बच्चे की कुण्डली में शनि व राहु पंचम भाव में स्थित हो, बुध बारहवें भाव में स्थित हो और पंचमेश पीड़ित अवस्था में हो तब बच्चा जन्म से ही मानसिक रुप से कमजोर हो सकता है।

3- पंचम भाव, पंचमेश, चंद्रमा व बुध सभी पाप ग्रहों के प्रभाव में हो तब भी बच्चा जन्म से ही मानसिक रुप से कमजोर हो सकता है।

4- जन्म के समय चंद्रमा लग्न में स्थित हो और शनि व मंगल से दृष्ट हो तब भी व्यक्ति मानसिक रुप से कमजोर हो सकता है।

5- पंचम भाव का राहु भी व्यक्ति की बुद्धि को भ्रष्ट करने का काम करता है, बुद्धि अच्छी नहीं रहती है।

मेरे विचार से  मानसिक बीमारियों  के निवारण हेतु  बुध को  बल प्रदान करना सर्वथा उपयुक्त होगा । ऐसे व्यक्ति को पन्ना रत्न की अंगूठी चाँदी  में बनवाकर दाहिने हाथ की कनिष्ठा अंगुली में  धारण करना चाहिए । कुछ विशेष परिस्थितिओं  में गले में भी धारण किया जा सकता है । पन्ना का भष्म  आदि भी खिलाना लाभप्रद होगा । प्रज्ञा मन्त्र का अनुष्ठान एवं अपामार्ग की लता से हवन भी  कराना चाहिए।

कालसर्प दोष भंग करने के लिए दैनिक छोटे उपाय

1 108 राहु यंत्रों को जल में प्रवाहित करें।
2 सवा महीने जौ के दाने पक्षियों को खिलाएं।
3 शुभ मुहूर्त में मुख्य द्वार पर अष्टधातु या चांदी का स्वस्तिक लगाएं और उसके दोनों ओर धातु निर्मित नाग.।
4 अमावस्या के दिन पितरों को शान्त कराने हेतु दान आदि करें तथा कालसर्प योग शान्ति पाठ कराये।
5 शुभ मुहूर्त में नागपाश यंत्रा अभिमंत्रित कर धारण करें और शयन कक्ष में बेडशीट व पर्दे लाल रंग के प्रयोग में लायें।
6. हनुमान चालीसा का 108 बार पाठ करें और मंगलवार के दिन हनुमान पर सिंदूर, चमेली का तेल व बताशा चढ़ाएं।.
7 शनिवार को पीपल पर शिवलिंग चढ़ाये व मंत्र जाप करें (ग्यारह शनिवार )
8 सवा महीने देवदारु, सरसों तथा लोहवान - इन तीनों को जल में उबालकर उस जल से स्नान करें।
9 काल सर्प दोष निवारण यंत्रा घर में स्थापित करके उसकी नित्य प्रति पूजा करें ।
10 सोमवार को शिव मंदिर में चांदी के नाग की पूजा करें, पितरों का स्मरण करें तथा श्रध्दापूर्वक बहते पानी में नागदेवता का विसर्जन करें।
11 श्रावण मास में 30 दिनों तक महादेव का अभिषेक करें।
12 प्रत्येक सोमवार को दही से भगवान शंकर पर - हर हर महादेव' कहते हुए अभिषेक करें। हर रोज श्रावण के महिने में करें।
13. सरल उपाय- कालसर्प योग वाला युवा श्रावण मास में प्रतिदिन रूद्र-अभिषेक कराए एवं महामृत्युंजय मंत्र की एक माला रोज करें।
14 यदि रोजगार में तकलीफ आ रही है अथवा रोजगार प्राप्त नहीं हो रहा है तो पलाश के फूल गोमूत्र में डूबाकर उसको बारीक करें। फिर छाँव में रखकर सुखाएँ। उसका चूर्ण बनाकर चंदन के पावडर में मिलाकर शिवलिंग पर त्रिपुण्ड बनाएँ। 41 दिन दिन में नौकरी अवश्य मिलेगी।.
15 शिवलिंग पर प्रतिदिन मीठा दूध उसी में भाँग डाल दें, फिर चढ़ाएँ इससे गुस्सा शांत होता है, साथ ही सफलता तेजी से मिलने लगती है।
16 किसी शुभ मुहूर्त में ओउम् नम: शिवाय' की 21 माला जाप करने के उपरांत शिवलिंग का गाय के दूध से अभिषेक करें और शिव को प्रिय बेलपत्रा आदि श्रध्दापूर्वक अर्पित करें। साथ ही तांबे का बना सर्प शिवलिंग पर समर्पित करें।
17 शत्रु से भय है तो चाँदी के अथवा ताँबे के सर्प बनाकर उनकी आँखों में सुरमा लगा दें, फिर शिवलिंग पर चढ़ा दें, भय दूर होगा व शत्रु का नाश होगा।
18 यदि पति-पत्नी या प्रेमी-प्रेमिका में क्लेश हो रहा हो, आपसी प्रेम की कमी हो रही हो तो भगवान श्रीकृष्ण की मूर्ति या बालकृष्ण की मूर्ति जिसके सिर पर मोरपंखी मुकुट धारण हो घर में स्थापित करें एवं प्रतिदिन उनका पूजन करें एवं ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय नम: शिवाय का यथाशक्ति जाप करे। कालसर्प योग की शांति होगी।
19 किसी शुभ मुहूर्त में मसूर की दाल तीन बार गरीबों को दान करें।
20 किसी शुभ मुहूर्त में सूखे नारियल के फल को बहते जल में तीन बार प्रवाहित करें तथा किसी शुभ मुहूर्त में शनिवार के दिन बहते पानी में तीन बार कोयला भी प्रवाहित करें
21 मंगलवार एवं शनिवार को रामचरितमानस के सुंदरकाण्ड का 108 बार पाठ श्रध्दापूर्वक करें।
22 महामृत्युंजय कवच का नित्य पाठ करें और श्रावण महीने के हर सोमवार का व्रत रखते हुए शिव का रुद्राभिषेक करें।
23 मंगलवार एवं शनिवार को रामचरितमानस के सुंदरकाण्ड का 108 बार पाठ श्रध्दापूर्वक करें।
24 86 शनिवार का व्रत करें और राहु,केतु व शनि के साथ हनुमान की आराधना करें। शनिवार को श्री शनिदेव का तैलाभिषेक करें
25 नव नाग स्तोत्रा का एक वर्ष तक प्रतिदिन पाठ करें।
26 प्रत्येक बुधवार को काले वस्त्रों में उड़द या मूंग एक मुट्ठी डालकर, राहु का मंत्रा जप कर भिक्षाटन करने वाले को दे दें। यदि दान लेने वाला कोई नहीं मिले तो बहते पानी में उस अन्न हो प्रवाहित करें। 72 बुधवार तक करने से अवश्य लाभ मिलता है।
27 कालसर्प योग हो और जीवन में लगातार गंभीर बाधा आ रही हो तब किसी विद्वान ब्राह्मण से राहु और केतु के मंत्रों का जप कराया जाना चाहिए और उनकी सलाह से राहु और केतु की वस्तुओं का दान या तुलादान करना चाहिए।)-
28 शिव के ही अंश बटुक भैरव की आराधना से भी इस दोष से बचाव हो सकता है।
29 प्रथम पूज्य शिव पुत्र श्री गणेश को विघ्रहर्ता कहा जाता है। इसलिए कालसर्प दोष से मुक्ति के लिए गणेश पूजा भी करनी चाहिए।
30-पुराणों में बताया गया है कि भगवान श्री कृष्ण ने कालिय नाग का मद चूर किया था। इसलिए इस दोष शांति के लिए श्री कृष्ण की आराधना भी श्रेष्ठ है।
31विद्यार्थीजन सरस्वती जी के बीज मंत्रों का एक वर्ष तक जाप करें और विधिवत उपासना करें।
32 एक वर्ष तक गणपति अथर्वशीर्ष का नित्य पाठ करें
33 नागपंचमी के दिन दूध-जलेबी का दान करें।
34 लाल रंग के कपडे की छोटी थैली में खांड या सौंठ भरकर अपने पास रखें
35 चांदी का ठोस हाथी घर में रखें।
36 रसोईघर में ही भोजन करें।
37 प्रत्येक शनिवार जलेबी का दान करें।
38 किसी शुभ मुहूर्त में मसूर की दाल तीन बार गरीबों को दान करें।
39 सवा महीने जौ के दाने पक्षियों को खिलाने के बाद ही कोई काम प्रारंभ करें।
40 काल सर्प दोष निवारण यंत्रा घर में स्थापित करके उसकी नित्य प्रति पूजा करें और भोजनालय में ही बैठकर भोजन करें अन्य कमरों में नहीं।
41 किसी शुभ मुहूर्त में नागपाश यंत्रा अभिमंत्रित कर धारण करें और शयन कक्ष में बेडशीट व पर्दे लाल रंग के प्रयोग में लायें।
42 काले और सफेद तील बहते जल में प्रवाह करें। किसी भी मंदिर में केले का दान करें।
43 शुभ मुहूर्त में मुख्य द्वार पर अष्टधातु या चांदी का स्वस्तिक लगाएं और उसके दोनों ओर धातु निर्मित नाग चिपका दें तथा एक बार देवदारु, सरसों तथा लोहवान इन तीनों को उबाल कर स्नान करें।
44 सोने की चेन पहनें।
45 सरस्वती का पूजन नीले पुष्पों से करें।
46 कन्या तथा बहन को उपहार देते रहें।
47 किसी शुभ मुहूर्त में ओउम् नम: शिवाय' की 11 माला जाप करने के उपरांत शिवलिंग का गाय के दूध से अभिषेक करें और शिव को प्रिय बेलपत्रा आदि सामग्रियां श्रध्दापूर्वक अर्पित करें। साथ ही तांबे का बना सर्प विधिवत पूजन के उपरांत शिवलिंग पर समर्पित करें।
48 हनुमान चालीसा का 108 बार पाठ करें और मंगलवार के दिन हनुमान जी की प्रतिमा पर लाल वस्त्रा सहित सिंदूर, चमेली का तेल व बताशा चढ़ाएं।
49 अपने गले में सोमवार, मंगलवार और शनिवार के दिन लाल धागे में 8 मुखी 2 दानें रुद्राक्ष, 9 मुखी 2 दानें रुद्राक्ष और 12 मुखी 3 दानें रुद्राक्ष धारण करें। कष्टों से अवश्य छुटकारा मिलेगा।

बुधवार, 30 मई 2018

चोरी गया सामान ज्ञात करना

कोई भी सामान खोना/चोरी होना आज
के समय मे सामान्य बात है। अंक विद्या में गुम हुई वस्तु के बारे में प्रश्र किया जाए तो उसका जवाब बहुत हद तक सच साबित होता है।

जैसे
सर्व प्रथम आप 1 से 108 के बीच का एक अंक मन मे सोचे।
और उस अंक को 9 से भाग दें। शेष जो अंक आये तो आगे लिखे अनुसार उसका
उत्तर होगा।

 शेष अंक 1 ( सूर्य का अंक है )
पूर्व में मिलने की आशा है।

शेष अंक 2 ( चंद्र का अंक है )
वस्तु किसी स्त्री के पास होने की
आशा है पर वापस नहीं मिलेगी।

शेष अंक 3 ( गुरु का अंक है )
वस्तु वापिस मिल जायेगी। मित्रों और परिवार के लोगों से पूछें।

शेष अंक 4 ( राहु का अंक है )
ढूढ़ने का प्रयास व्यर्थ है। वस्तु आप की
लापरवाही से खोई है।

शेष अंक 5 ( बुध का अंक है )
आप धैर्य रखें वस्तु वापस मिलने की आशा है।

शेष अंक 6 ( शुक्र का अंक है )
वस्तु आप किसी को देकर भूल गए हैं।
घर के दक्षिण पूर्व या रसोई घर में ढूंढने की कोशिश करें।

शेष अंक 7 ( केतु का अंक है )
चिंता न करें खोई वस्तु मिल जायेगी।

शेष अंक 8 ( शनि का अंक है )
खोई वस्तु मिलने की आशा नहीं है। वस्तु को भूल जाएँ तो अच्छा है।

शेष अंक 9 या 0 ( मंगल का अंक है )
यदि खोई वस्तु आज मिल गई तो ठीक अन्यथा मिलने की कोई आशा नहीं है।

उदाहरण :- के लिए अगर प्रश्नकर्ता ने 83 अंक कहा है तो 83 को 9 से भाग दें
83÷9 = 2
शेष आया 2 जो चंन्द्र का अंक है।

वस्तु किसी स्त्री के पास है पर वापस प्राप्त नही होगीl खोये सामान की जानकारी मिलेगी अथवा नहीं मिलेगी? इसके लिए सभी नक्षत्रों को चार बराबर भागों में बाँट दिया गया है. एक भाग में सात नक्षत्र आते हैं. उन्हें अंध, मंद, मध्य तथा सुलोचन नाम दिया गया है. इन नक्षत्रों के अनुसार चोरी की वस्तु का दिशा ज्ञान तथा फल ज्ञान के विषय में जो जानकारी प्राप्त होती है वह एकदम सटीक होती है.

 नक्षत्रों का लोचन ज्ञान

अंध लोचन नक्षत्र :-
रेवती, रोहिणी, पुष्य, उत्तराफाल्गुनी, विशाखा, पूर्वाषाढा़, धनिष्ठा.

मंद लोचन नक्षत्र :-
अश्विनी, मृगशिरा, आश्लेषा, हस्त, अनुराधा, उत्तराषाढा़, शतभिषा.

मध्य लोचन नक्षत्र:-
भरणी, आर्द्रा, मघा, चित्रा, ज्येष्ठा, अभिजित, पूर्वाभाद्रपद.

  सुलोचन नक्षत्र नक्षत्र :-
कृतिका, पुनर्वसु, पूर्वाफाल्गुनी, स्वाति, मूल, श्रवण, उत्तराभाद्रपद.

यदि वस्तु अंध लोचन में खोई है तो वह पूर्व दिशा में शीघ्र मिल जाती है.

 यदि वस्तु मंद लोचन में गुम हुई है तो वह दक्षिण दिशा में होती है और गुम होने के 3-4 दिन बाद कष्ट से मिलती है.

यदि वस्तु मध्य लोचन में खोई है तो वह पश्चिम दिशा की ओर होती है और एक गुम होने के एक माह बाद उस वस्तु की जानकारी मिलती है. ढा़ई माह बाद उस वस्तु के मिलने की संभावना बनती है.

यदि वस्तु सुलोचन नक्षत्र में गुम हुई है तो वह उत्तर दिशा की ओर होती है. वस्तु की ना तो मिलती है।

  गुम वस्तु की प्राप्ति हेतु दिव्य मंत्र

जीवन में भूलना, गुमना, चले जाना, बलात ले लेना अथवा लेने के बाद कोई भी वस्तु वापस नहीं मिलना ऐसी घटनाएं स्वाभाविक रूप से घटि‍त होती रहती है।
यदि आप का कोई भी सामान खो गया है या मिल नही रहा तो अपने पूजाघर मे एक देशी घी का दीपक लगाकर पूर्व अथवा उत्तर दिशा की ओर मुंह करके बैठें। अपनी गुम वस्तु की कामना को उच्चारण कर भगवान विष्‍णु के सुदर्शन चक्रधारी रूप का ध्यान करें इस मंत्र का विश्वासपूर्वक जप 1008 बार करें।इससे गुम हुई वस्तु एवं अपना फसा धन प्राप्ति होने की सम्भावना प्रबल हो जाती है।

मंत्र :- ॐ ह्रीं कार्तविर्यार्जुनो नाम राजा बाहु सहस्त्रवान।
यस्य स्मरेण मात्रेण ह्रतं नष्‍टं च लभ्यते।

रविवार, 13 मई 2018

ग्रहों की दृष्टियाँ

 ग्रहों की दृष्टि कौन-कौन सी है क्या सभी ग्रह अपने स्थान से सप्तम स्थान को और गुरु सप्तम के अलावा पंचम और नवम, मंगल चतुर्थ व अष्टम, शनि तृतीय व दशम को स्थान को देखते हैं अन्य किसी स्थान को नही?

चलिए चर्चा करते हैं कि कौन ग्रह अपने स्थान से किन-किन भावों को व कितनी दृष्टि से देखते हैं:-

ग्रहों की दृष्टियाँ:-

सभी ग्रह अपने स्थान से (स्थित भाव स्थान से) तृतीय व दशम स्थान पर एक पाद मतलब चतुर्थांश मतलब २५% की दृष्टि से देखते हैं इसी प्रकार सभी ग्रह नवम व पंचम स्थान को द्विपाद अर्थात आधी दृष्टि मतलब ५०% दृष्टि से, चतुर्थ व अष्टम स्थान को त्रिपाद अर्थात तीन चौथाई मतलब ७५% दृष्टि से एवं सप्तम स्थान को पूर्ण दृष्टि मतलब १००% अर्थात संपूर्ण दृष्टि से देखते हैं।

यह पाद वृद्धिक्रम से दृष्टि ग्रह दृष्टिफल को भी क्रमशः चतुर्थांश फल, अर्द्ध फल, तीन चौथाई व पूर्ण फल प्रदान करते हैं अर्थात ३-१० स्थान में ग्रह दृष्टि से १/४ फल, ५-९ स्थान में १/२ फल, ४-८ स्थान में ३/४ फल व ७ स्थान में ग्रह पूर्ण दृष्टि से पूर्ण फल प्राप्त होता है।

विशेष दृष्टि:-

शनि अपने स्थान से ३, १० स्थान पर पूर्ण दृष्टि करता है, गुरु अपने स्थान से ५, ९ स्थान पर पूर्ण दृष्टि करता है, मंगल अपने स्थान से ४, ८ स्थान पर पूर्ण दृष्टि करता है और सूर्य, चंद्र, बुध व शुक्र अपने स्थान से कलत्र स्थान (७ स्थान) पर पूर्ण दृष्टि करते हैं।

लग्नानुसार भाग्योदय वर्ष

कुंडली में बारह भाव होते हैं और ये 12 राशियों (मेष, वृष, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुंभ और मीन) का प्रतिनिधित्व करते हैं। कुंडली का प्रथम भाव यानी कुंडली के केंद्र स्थान में पहला घर जिस राशि का होता है, उसी राशि के अनुसार कुंडली का लग्न निर्धारित होता है। लग्न के आधार पर कुंडलियां बारह प्रकार की होती हैं।

अपनी कुंडली का पहला भाव यानी लग्न देखिए और यहां जानिए किस-किस उम्र में आपका भाग्योदय हो सकता है...       
                                                                         मेष लग्न की कुंडली:
जिन लोगों की कुंडली मेष लग्न की है, सामान्यत: उनका भाग्योदय 16 वर्ष की आयु में या 22 वर्ष की आयु, 28 वर्ष की आयु, 32 वर्ष की आयु या 36 वर्ष की आयु में हो सकता है।

वृष लग्न की कुंडली:
जिन लोगों की कुंडली वृष लग्न की है, उनका भाग्योदय 25 वर्ष की आयु, 28 वर्ष की आयु, 36 वर्ष की आयु या 42 वर्ष की आयु में भाग्योदय हो सकता है।

मिथुन लग्न की कुंडली:
मिथुन लग्न की कुंडली वाले लोगों का भाग्योदय करने वाली आयु है 22 वर्ष, 32 वर्ष, 35 वर्ष, 36 वर्ष या 42 वर्ष। इन वर्षों में मिथुन राशि के लोगों का भाग्योदय हो सकता है।

कर्क लग्न की कुंडली:
जिन लोगों की कुंडली कर्क लग्न की है, उनका भाग्योदय 16 वर्ष की आयु, 22 वर्ष की आयु, 24 वर्ष की आयु, 25 वर्ष की आयु, 28 वर्ष की आयु या 32 वर्ष की आयु में हो सकता है।

सिंह लग्न की कुंडली:
जिन लोगों की कुंडली सिंह लग्न की है, उनका भाग्योदय 16 वर्ष की आयु में, 22 वर्ष की आयु में, 24 वर्ष की आयु में, 26 वर्ष की आयु में, 28 वर्ष की आयु में या 32 वर्ष की आयु में हो सकता है।

कन्या लग्न की कुंडली:
कन्या लग्न की कुंडली वाले लोगों का भाग्योदय इन आयु वर्ष में हो सकता है- 16 वर्ष, 22 वर्ष, 25 वर्ष, 32 वर्ष, 33 वर्ष, 35 वर्ष या 36 वर्ष।

तुला लग्न की कुंडली:
जिन लोगों की कुंडली तुला लग्न की है, उनके भाग्य का उदय 24 वर्ष की आयु में हो सकता है। यदि 24 वर्ष की आयु में भाग्योदय न हो तो इसके बाद 25 वर्ष की आयु में, 32 वर्ष की आयु में, 33 वर्ष की आयु में या 35 वर्ष की आयु में भाग्योदय हो सकता है।

वृश्चिक लग्न की कुंडली:
वृश्चिक लग्न की कुंडली वाले लोगों का भाग्योदय 22 वर्ष की आयु में, 24 वर्ष की आयु में, 28 वर्ष की आयु में या 32 वर्ष की आयु में हो सकता है।

धनु लग्न की कुंडली:
जिन लोगों की कुंडली धनु लग्न की है, उनका भाग्योदय 16 वर्ष की आयु में, 22 वर्ष की आयु में या 32 वर्ष की आयु में हो सकता है।

मकर लग्न की कुंडली:
मकर लग्न की कुंडली वाले लोगों का भाग्योदय 25 वर्ष की आयु में या 33 वर्ष की आयु में या 35 वर्ष की आयु में या 36 वर्ष की आयु में हो सकता है।

कुंभ लग्न की कुंडली:
जिन लोगों की कुंडली कुंभ लग्न की है, उनका भाग्योदय 25 वर्ष की आयु में, 28 वर्ष की आयु में, 36 वर्ष की आयु में या 42 वर्ष की आयु में हो सकता है।

मीन लग्न की कुंडली:
मीन लग्न की कुंडली वाले लोगों का भाग्योदय 16 वर्ष की आयु में, 22 वर्ष की आयु में, 28 वर्ष की आयु में या 33 वर्ष की आयु में हो सकता है।

शुक्रवार, 4 मई 2018

फलित में जन्मांग के इतर षोडश वर्ग की महत्वता

 आज भौतिक व संघर्ष युग में ज्योतिष सबसे तेज से व्यवहार में आने वाला विषय है, प्रतिदिन ज्योतिषी भी बढ़ते जा रहे हैं, कुछ सूत्रों को पढ़कर व  जानकार ही कोई भी ज्योतिषी बन बैठता है, वह लोग मात्र जन्मांग कुण्डली का विश्लेषण करके ही फलित कर देते हैं, लेकिन जानकारी अभ्यास के अभाव में शेष षोडश वर्ग का विवेचन नहीं कर पाते हैं, आज इस अपने इस लेख मे सभी सोलह प्रकार की कुंडलियों को परिभाषित किया गया है कि षोडश वर्ग कि कोनसी कुण्डली से क्या देखा जाता है?

1. लग्न कुंडली (डी-1) जन्म के समय पूर्व क्षितिज में उदित राशि को लग्न मानकर बनायी गयी कुंडली को लग्न/जन्म कुंडली कहते हैं।जन्म के समय चन्द्र द्वारा गृहीत राशि को लग्न मान कर बनायी गयी कुंडली को राशि कुंडली कहते हैं। वर्गों के लिये लग्न कुंडली ही आधार होती है। फल प्राप्ति के लिये जन्मकुंडली में योग होना आवश्यक है। वर्ग कुंडली का महत्व या तो उस फल की पुष्टि करना, नकारना या उसके स्वरूप को कम या अधिक करना होता है।

2. होरा (डी-2) उपयोग: होरा कुंडली का अध्ययन मुख्यतः जातक की आर्थिक समृद्धि को जांचने के लिये किया जाता है। द्वितीय भाव के अन्य कारक तत्वों के लिये भी इसे देखा जा सकता है।आर्थिक समृद्धि से तात्पर्य स्वयं अर्जित किये हुए धन से लेना चाहिये न कि परिवार से प्राप्त किये हुए होरा के स्वामी: सूर्य की होरा का स्वामित्व देवों (स्व प्रयास से ही धन प्राप्ति होगी) का और चन्द्र की होरा का स्वामित्व पितृ/पूर्वजों (मेहनत की अपेक्षा फल अधिक क्योंकि पूर्वजों का आशीर्वाद होता है) का होता है। कुछ मुख्य नियम – होरा कुंडली में पुरुष ग्रहों (सूर्य, गुरु, मंगल) का सूर्य की होरा में होना समृद्धि के लिये शुभ होता है। स्त्री ग्रहों (चन्द्र, शुक्र) और शनि का फल चन्द्र होरा में शुभ होता है। बुध, दोनों होरा में शुभ होते हैं। – सूर्य की होरा में स्थित आत्मकारक (सर्वाधिक भोगांश वाला ग्रह) उन्नति के लिये शुभ माना जाता है।

3. द्रेष्काण (डी-3) उपयोगः द्रेष्काण कुंडली का अध्ययन मुख्यतः जातक के छोटे भाई-बहन का होना/न होना, उनसे संबंधित सुख-दुःख, जातक का स्वभाव और रुचियों के लिये किया जाता है। तृतीय भाव के अन्य कारक तत्वों के लिये भी इसे देखा जा सकता है। 22 वें द्रेष्काण की गणना जातक की मृत्यु के स्वरूप को जानने के लिये की जाती है। द्रेष्काण के स्वामी: प्रथम द्रेष्काण के स्वामी नारद, द्वितीय के अगस्त्य और तृतीय के दुर्वासा ऋषि। द्रेष्काण स्वामी अपने स्वभावानुसार फल देते हैं। कुछ मुख्य नियम: – द्रेष्काण कुंडली में जन्मकुंडली के तृतीयेश और कारक मंगल का सुस्थित होना बहन-भाइयों से अच्छे संबंध दर्शाता है। – द्रेष्काण कुंडली का बली लग्न/ लग्नेश भाई-बहन का होना सुनिश्चित करता है। – द्रेष्काण कुंडली के तृतीय/ तृतीयेश का निरीक्षण भी सहोदरों के होने या न होने में भूमिका निभाता है। – द्रेष्काण कुंडली के एकादश/एकादशेश का निरीक्षण बड़े भाई-बहनों के लिये किया जाता है।

4. चतुर्थांश (डी-4) उपयोग: चतुर्थांश कुंडली का अध्ययन जातक की चल-अचल सम्पत्ति, वाहन, चरित्र, माता-सुख, स्कूली शिक्षा आदि के लिये किया जाता है। मंगल सम्पति का, बुध शिक्षा का, चन्द्र माता का और शुक्र वाहन के कारक हैं। चतुर्थांश के स्वामीः प्रत्येक भाग के क्रमशः स्वामी हैं: सनक (अपने अनुसार चलना जैसे एक पागल/ सनकी व्यक्ति), सानन्द (सफलता या असफलता खुशी-खुशी स्वीकार करने वाला), सनत (हिम्मत न हारने वाला) और सनातन (हर परिस्थिति में प्रसन्न)। कुछ मुख्य नियम: – चतुर्थांश कुंडली के लग्न/लग्नेश अगर बली हों तो जातक के सुखों में स्थायित्व बना रहता है। लग्न पर गुरु (धन का कारक) की दृष्टि आर्थिक तौर पर शुभ होती है। – चतुर्थांश कुंडली में लग्नेश और चतुर्थेश की परस्पर शुभ स्थिति माता से सम्बन्ध का स्तर दर्शाती है । – चतुर्थ भाव और शुक्र बली हो तो जातक को वाहन आदि सुखों की प्राप्ति होती है। – चतुर्थ भाव और मंगल बली हो तो जातक को सम्पत्ति (चर एवं अचल) आदि सुखों की प्राप्ति होती है। – चतुर्थ भाव के साथ चन्द्र भी पीड़ित हो तो जातक का चरित्र अच्छा नहीं होता और जातक धूर्त होता है।

5. सप्तमांश (डी-7) उपयोग: यह वर्ग, जन्मकुंडली के पंचम भाव से सम्बंधित प्रजनन/ संतति सम्बंधित फलों के सूक्ष्म रूप को दर्शाता है। इससे पंचम भाव में अन्य कारक तत्वों (उच्च शिक्षा डी 24 से देखते हैं), मनन/ मन्त्र, जीवन-साथी की समृद्धि, सृजनात्मकता आदि भी देख सकते हैं। सप्तमांश के स्वामी: विषम राशियों में स्थित ग्रहों के सप्तमांशों का स्वभाव क्रमशः क्षार (खट्टा/कठोर खनिज), क्षीर (खीर), दधि (दही, किसी भी प्रकार का आकार लेने में सक्षम पर खट्टा भी), इक्षुरस (गन्ने की भांति सीधा/कठोर परन्तु बहुत मिठास भी), मद्य (शराब) और शुद्ध जल। सम राशि में यह क्रम विपरीत होता है, अर्थात पहले सप्तमांश में स्थित ग्रह का स्वभाव शुद्ध जल के समान, दूसरे का मद्य/नशा के समान आदि। कुछ मुख्य नियम: – सप्तमांश कुंडली का बली लग्न/ लग्नेश संतति उत्पत्ति सुनिश्चित करते हैं। – सप्तमांश कुंडली में पंचम/पंचमेश एवं कारक गुरु की शुभ स्थिति संतति उत्पत्ति की पुष्टि करते हैं। – जन्मकुंडली के लग्नेश की सप्तमांश कुंडली में शुभ स्थिति संतान से अच्छे संबंधों की ओर इशारा करती है। – पुत्र सहम की जन्म एवं सप्तमांश कुंडली में स्थिति भी संतान के साथ संबंधों की गुणवत्ता को दर्शाती है। – बीज/क्षेत्र स्फुट से प्रजनन एवं उत्पत्ति की क्षमता का आकलन होता है।

6. नवांश (डी-9) उपयोग: नवांश कुंडली का प्रयोग जन्मकुंडली के पूरक के रूप में किया जाता है। मुख्य रूप से नवांश को विवाह के होने/न होने, वैवाहिक जीवन की गुणवत्ता और जीवन साथी का चरित्र आदि को जानने के लिये किया जाता है। नवमांश के स्वामी: चर राशि में देव, मनुष्य, राक्षस, स्थिर में मनुष्य, राक्षस, देव तथा द्विस्वभाव में राक्षस, देव, मनुष्य नवांश भाव के अधिपति होते हैं। अर्थात, राशि के नौ हिस्से होने से यह आवृत्ति तीन-तीन बार होगी। कुछ मुख्य नियम: – जन्मकुंडली और नवांश कुंडली के लग्नेश के अच्छे संबंध जातक और उसके जीवन साथी के बीच परस्पर सहयोग, सुखमय संबंध और समन्वय दर्शाते हैं। – अगर जन्मकुंडली का सप्तमेश और नवांश कुंडली लग्न दोनों बली हों तो वैवाहिक जीवन सुखमय होता है। नवांश में सप्तम/सप्तमेश का निरीक्षण इसकी पुष्टि या मात्रा को कम/ज्यादा करता है। – नवांश में राजा सूर्य और रानी चन्द्र का एक दूसरे से अधिकतम दूरी यानी सम-सप्तक होने को वैवाहिक सुखों की दृष्टि से शुभ नहीं माना जाता है, जैसे आपसी विचारों में तालमेल की कमी, परस्पर सहयोग की कमी या परस्पर वैमनस्य का भाव आदि। – जन्मकुंडली के सप्तम, सप्तमेश और कारक शुक्र (पुरुष)/गुरु (स्त्री) की शुभ स्थिति विवाह होने की संभावनाओं को दर्शाती है। नवांश का बली लग्न विवाह होने की पुष्टि या मात्रा को कम/ज्यादा करता है। अधिकतर नवांश का बली लग्न विवाह को सुनिश्चित करता है। – जन्मकुंडली के लग्नेश एवं सप्तमेश की नवांश में शुभ स्थिति विवाह के होने, सामान्य उम्र में होने एवं विवाह पश्चात सुखी संबंधों का संकेत देती है। इन दोनों की स्थिति जन्म एवं नवांश कुंडली में परस्पर 6/8 या 2/12 होना अशुभ होता है। – गुरु का सप्तम/सप्तमेश से सम्बन्ध शीघ्र या विलम्ब से विवाह की प्रवृत्ति देता है। अर्थात, सामान्य उम्र में विवाह नहीं होता क्योंकि गुरु अंतिम सत्य की ओर प्रवृत्त करता है। – त्रिंशांश लग्न पर पीड़ा भी विवाह में विलम्ब कारक होती है।

7. दशमांश (डी-10) उपयोग: दशमांश कुंडली का अध्ययन जीवन वृत्ति एवं आजीविका से सम्बंधित उपलब्धियों (सफलता, उन्नति, असफलता, बाधा आदि) के लिये किया जाता है। इसके अध्ययन से जातक के व्यवसाय की दिशा भी इंगित होती है। दशमांशों के स्वामी: विषम राशियों में क्रम (प्रथम से दशम दशमांश तक) से इन्द्र, अग्नि, यम, राक्षस, वरुण, वायु, कुबेर, ईशान, ब्रह्मा और अनंत स्वामी है। सम राशि में विपरीत क्रम है अर्थात प्रथम दशमांश में स्वामी अनंत, द्वितीय के ब्रह्मा आदि। ग्रह अपने दशमांश स्वामी के स्वभावानुसार भी फल देगा। कुछ मुख्य नियम: – दशमांश कुंडली में लग्न/लग्नेश का सुस्थित, बली या शुभ प्रभाव में होने से जातक की सक्षमता का ज्ञान होता है। अर्थात, आजीविका में समस्याओं से सामना करने की क्षमता। – दशमांश कुंडली का दशम/दशमेश के बली होने पर आजीविका बिना बाधा/कठिनाइयों के सुचारु रूप से चलती रहती है। पीड़ा के अनुरूप ही मात्रा कम या अधिक होती है। – दशमांश कुंडली में कारक सूर्य का प्रसिद्धि, शनि का नौकरी, बुध का व्यवसाय और चन्द्र का मानसिक सबलता के लिए निरीक्षण करना चाहिये।

8. द्वादशांश (डी-12) उपयोग: जन्मकुंडली का द्वादश भाव पूर्व जन्म और आगामी जन्म की कड़ी के रूप में भी देखा जाता है क्योंकि यह मोक्ष का कारक और जन्मकुंडली का आखिरी भाव है। सामान्यतः द्वादशांश कुंडली का प्रयोग माता-पिता की प्रतिष्ठा (जैसे, सामाजिक और आर्थिक स्तर) एवं उनसे सम्बंधित सुख-दुःख का अध्ययन करने के लिये किया जाता है। द्वादशांशों के स्वामी: प्रथम चार द्वादशांशों के स्वामी क्रमशः गणेश, अश्विनी कुमार, यम और सर्प हैं और इसी कर्म की आवृत्ति आगे होती रहती है। कुछ मुख्य नियम: – पिता के कारक सूर्य और माता के कारक चन्द्र हैं। अतः इस वर्ग कुंडली में इनकी स्थिति का आकलन आवश्यक है। – इसके अतिरिक्त इस वर्ग कुंडली के लग्न और लग्नेश की स्थिति का विश्लेषण माता-पिता की सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति ज्ञात करने के लिये करते हैं। इसके अतिरिक्त वर्ग कुंडली में निर्मित धन एवं राज योग भी सामाजिक एवं आर्थिक स्तर की पुष्टि करते हैं। – पिता की आयु के लिये नवम से अष्टम (चतुर्थ) और माता की आयु के लिये चतुर्थ से अष्टम (एकादश) का विश्लेषण भी किया जाता है।

9. षोडशांश (डी-16) उपयोग: सामान्यतः इस वर्ग कुंडली का अध्ययन वाहन सुख, जीवन की सामान्य खुशियां, विलासिता आदि के लिये किया जाता है। खुशियों से तात्पर्य चल-सुख से है जबकि डी-4 से स्थिर सुख देखा जाता है। चन्द्र की सोलह कलाओं की तरह राशि के सोलह हिस्से होते हैं। चन्द्र से सम्बन्ध होने के कारणवश इस वर्ग कुंडली से जातक की मानसिक सहनशीलता भी देखते हैं। कुछ मुख्य नियम: चं. – डी-16 वर्ग कुंडली में राजयोग एवं धनयोग अत्यधिक खुशियाँ एवं ऐश्वर्य देते हैं। – बली शुक्र (सांसारिक सुखों का कारक) समस्त सांसारिक विलासिता (वस्त्र, वाहन, स्त्री सुख आदि) देता हैपरन्तु अशुभ राशि में होने से कुछ हानि जैसे चोरी, वाहन दुर्घटना आदि भी हो सकती है। – बली/शुभ गुरु मानसिक संतुष्टि प्रदान करता है जिससे सुख की अनुभूति स्वतः ही होने लगती है।

10 विंशांश (डी-20) उपयोग: सामान्यतः इस वर्ग कुंडली का अध्ययन उन खुशियों को देखने के लिये किया जाता है जो आध्यात्मिकता एवं धार्मिक झुकाव या उनसे सम्बंधित क्रिया-कलापों से प्राप्त होती है। कुछ मुख्य नियम: प्रत्येक जीव में परमात्मा का ही अंश विद्यमान होता है परन्तु उसकी मात्रा अलग-अलग हो सकती है। मोक्ष प्राप्ति की ओर अग्रसर बने रहने के लिये आध्यात्मिक एवं धार्मिक उन्नति निरन्तर बनी रहनी आवश्यक है। डी-20 में निम्न तथ्यों पर ध्यान देना चाहिये। – डी-20 में शुभ एवं अशुभ योगों को देखें। जितने अधिक शुभ योग, उतनी ही अधिक आध्यात्मिकता एवं धार्मिकता की उन्नति। – डी-20 में लग्न/लग्नेश, पंचम/ पंचमेश और नवम/नवमेश का विश्लेषण करना चाहिये। – अगर विंशांश कुंडली का लग्न, जन्म कुंडली के लग्न से 6, 8, 12 की राशि है तो आध्यात्मिकता एवं धार्मिकता की उन्नति में बाधाएं होंगी। – सूर्य एवं शनि का बली होना शुभ संकेत है। – बली शुक्र होने पर यौन-जीवन पर नियंत्रण होता है जो उन्नति की लिये आवश्यक है।

11. चतुर्विंशांश (डी-24) उपयोग: सामान्यतः इस वर्ग कुंडली का अध्ययन शैक्षिक प्राप्तियों एवं ज्ञान से सम्बंधित फलों (सफलता, असफलता, बाधा आदि) के लिये किया जाता है। कुछ मुख्य नियम: – शिक्षा के लिये जन्म कुंडली में 4ए 4स्ए 5ए 5स् के अध्ययन के साथ-साथ इनकी स्थिति का डी 24 में भी अध्ययन आवश्यक है। दशानाथों का आकलन भी दोनों कुंडलियों में करना चाहिये। – डी 24 का बली लग्न/लग्नेश शिक्षा के सुचारु रूप से चलने को इंगित करता है। – सबसे बली ग्रह शिक्षा की दिशा भी इंगित करता है। – शिक्षा के कारक बुध और गुरु का भी जन्म एवं वर्ग कुंडली में आकलन करना चाहिये।

12. सप्तविंशांश (डी-27) उपयोग: इस वर्ग कुंडली को नक्षत्रांश भी कहते हैं क्योंकि इसके भी 27 भाग होते हैं। इस वर्ग कुंडली का अध्ययन जातक की शारीरिक एवं मानसिक शक्ति को देखने के लिये किया जाता है। शारीरिक शक्ति से तात्पर्य है, रोग प्रतिरोधक क्षमता का और मानसिक शक्ति से तात्पर्य है, मानसिक सबलता या सहनशीलता। नक्षत्रों के स्वामी ही (अश्विनी कुमार, यम, अग्नि आदि) सप्तविंशांश के स्वामी होते हैं। ?कुछ मुख्य नियम: – प्रत्येक ग्रह अपने कारक तत्वों के आधार पर फल देता है। सूर्यः सामान्य स्वास्थ्य, पेट, हड्डी, दाहिनी आँख आदि। चन्द्र: रक्त सम्बंधित, बायीं आँख, मानसिक विकार आदि। मंगल: रक्तचाप, दुर्घटना, सर्जरी, हड्डी की मज्जा आदि। बुध: त्वचा सम्बंधित, वाणी, स्नायु तंत्र आदि। गुरु: मधुमेह, मोटापा आदि। शुक्र: यौन विकार आदि। शनि वायु संबंधित, कैंसर, नसें, पेट के रोग आदि। राहु/केतु: विष, कीटाणु सम्बंधित, छाले आदि। – वर्ग कुंडली में पीड़ित ग्रह सम्बंधित शारीरिक एवं मानसिक अवसाद देते हैं।

13. त्रिंशांश (डी-30) उपयोग: इस वर्ग कुंडली का अध्ययन जीवन की दुर्घटनाएं, बाधाएं, असफलता, दुर्भाग्य आदि के अध्ययन के लिये किया जाता है। इस वर्ग का अध्ययन जातक के नैतिक आचरण को देखने के लिये भी किया जाता है। इस वर्ग कुंडली में लग्न पर पीड़ा होने पर विवाह में देरी भी हो सकती है। कुछ मुख्य नियम: – इस वर्ग कुंडली में सूर्य और चन्द्र का विश्लेषण नहीं होता। – बाकी ग्रह अपनी भाव स्थिति एवं कारकत्वों के अनुसार बाधाओं (पीड़ित होने पर) को इंगित करते हैं। मंगल: क्रोध / गुस्सा / आक्रामकता), बुध: ईष्र्या, गुरुः अहंकार, शुक्र: कामुकता, शनिः नशा/लत, राहुः लोभ/लालच, केतुः गलत सोच आदि। – बली लग्न और लग्नेश बाधा रहित जीवन देते हैं। – चतुर्थ भाव पीड़ित होने पर नैतिक चरित्र में कमी होती है। – अपने ही त्रिशांश में स्थित ग्रह अपने कारकत्वों में वृद्धि करते हैं। – त्रिंशांश लग्न पर पीड़ा विवाह में विलम्ब कारक होती है।

14. खवेदांश (डी-40) उपयोग: इस वर्ग कुंडली का अध्ययन शुभाशुभ फलों की मात्रा ज्ञात करने के लिये किया जाता है। उपरोक्त त्रिंशांश वर्णन में जातक के अशुभ फलों का अध्ययन था और खवेदांश में शुभ फलों का अध्ययन होता है। खवेदांशों के स्वामी: विष्णु, चन्द्र, मरीचि, त्वष्टा, धाता, शिव, रवि, यम, यक्ष, गन्धर्व, काल व वरुण ये बारी-बारी से खवेदांश के अधिपति होते हैं। कुछ मुख्य नियम: – लग्न और लग्नेश के बली होने पर शुभ घटनाएं अधिक होती हैं। – त्रिकोण के स्वामी भी सुस्थित एवं शुभ प्रभाव में हो तो शुभ फल अध् िाक होते हैं। – शुभ फलों के लिये सूर्य एवं चंद्रमा का भी सुस्थित होना आवश्यक है। उपरोक्त उदाहरण में, वर्ग कुंडली का लग्न नवमेश गुरु से दृष्ट है-शुभ, राहु/केतु के अक्ष में-अशुभ, लग्नेश मंगल एकादश में शुभ। अर्थात, शुभ फलों की अधिकता। पंचमेश सूर्य दिग्बली होकर दशम में होकर अति शुभ है परन्तु शत्रु राशि में होने से उन्नति तो देगा परन्तु शिखर की नहीं। नवमेश गुरु नवम भाव में स्वराशि एवं मित्र राशिस्थ होकर बली है। अर्थात, त्रिकोणेशों की स्थिति अच्छी है जो शुभ फलों की मात्रा में वृद्धि दर्शाती है।

15. अक्षवेदांश (डी-45) उपयोग: इस वर्ग कुंडली का अध्ययन जातक के चरित्र, व्यवहार, आचरण एवं सामान्य शुभाशुभ प्रभावों के अध्ययन के लिये किया जाता है। अक्षवेदांशों के स्वामी: चर राशियों में क्रमशः ब्रह्मा, महेश, विष्णु, स्थिर राशियों में महेश, विष्णु, ब्रह्मा एवं द्विस्वभाव राशियों में विष्णु, ब्रह्मा, महेश अधिदेव होते हैं। कुछ मुख्य नियम: – सूर्य, आत्मा का प्रतिनिधित्व करते हैं। शुभ राशि एवं शुभ प्रभाव युक्त सूर्य सात्विक आत्मा के गुण दर्शायेगा और अशुभ सूर्य उससे विपरीत। – चन्द्र, मन का कारक होने से मानसिक नैतिकता या अनैतिकता प्रदर्शित करते हैं। – लग्नेश, तृतीयेश, षष्ठेश एवं नवमेश का शुभ राशि में होना जातक की सोच में शुद्धता एवं पवित्रता दर्शाता है।

16 षष्ठ्यांश (डी-60) पाराशर जी ने इस वर्ग कुंडली को जन्मकुंडली एवं नवांश कुंडली से भी अधिक महत्व दिया है, परन्तु इसके प्रयोग का
अधिक प्रचलन नहीं है क्योंकि इसके लिये जन्म समय का बिल्कुल सही होना आवश्यक होता है। लगभग 2 मिनट के अंतर से षष्ठ्यांश कुंडली बदल जाती है। उपयोग: इस वर्ग कुंडली का अध्ययन जन्मकुंडली की भांति सभी पहलुओं पर विचार के लिये किया जा सकता है। षष्ठ्यांशों के स्वामी: एक राशि में कुल साठ षष्ठ्यांश होते हैं। पाराशर जी ने विषम राशियों में घोर, राक्षस, देव, कुबेर आदि क्रम से तीस और सम राशियों इन्दुरेखा, भ्रमण, पयोधि आदि क्रम से तीस अधिपति वर्णित किये हैं। ये सभी अधिपति नाम तुल्य शुभाशुभ फल देने वाले होते हैं। कुछ मुख्य नियम: – इस वर्ग में बनने वाले योगों का अध्ययन भी करना चाहिये। – किसी भी परिणाम के पूर्वानुमान के लिये तीनों अर्थात जन्म, नवांश एवं षष्ठ्यांश कुंडली देखकर ही फलित करना चाहिये।  एक अच्छा ज्योतिषी, जो मानव सेवा को अपना धर्म मानता है, सदैव वर्ग अध्ययन के बाद ही फलित करता है जिससे ऋषियों द्वारा दिये गये ज्ञान का नियमों सहित उपयोग हो और फलित की सटीकता रहे और ज्योतिषी का धर्म पूर्ण हो।

अष्टम भाव:-एक विचार

अष्टम भाव आयु भाव है इस भाव को त्रिक भाव, पणफर भाव और बाधक भाव के नाम से जाना जाता है | आयु का निर्धारण करने के लिए इस भाव को विशेष महत्ता दी जाती है | इस भाव से जिन विषयों का विचार किया जाता है | उन विषयों में व्यक्ति को मिलने वाला अपमान, पदच्युति, शोक, ऋण, मृत्यु इसके कारण है | इस भाव से व्यक्ति के जीवन में आने वाली रुकावटें देखी जाती है | आयु भाव होने के कारण इस भाव से व्यक्ति के दीर्घायु और अल्पायु का विचार किया जाता है।

अष्टम भाव आयु को दर्शाता है यह भाव क्रिया भाव भी है | इसे रंध्र अर्थात छिद्र भी कहते हैं क्योंकि यहाँ जो भी कुछ प्रवेश करता है वह रहस्यमय हो जाता है | जो वस्तु रहस्यमय होती है वह परेशानी व चिंता का कारण स्वत: ही बन जाती है | बली अष्टम भाव लम्बी आयु को दर्शाता है. साधारणत: अष्टम भाव में कोई ग्रह नही हो तो अच्छा रहता है | यदि कोई भी ग्रह आठवें भाव में बैठ जाये चाहे वह शुभ हो या अशुभ कुछ न कुछ बुरे फल तो अवश्य ही देता है।

ग्रह कैसे फल देगा यह तो ग्रह के बल के आधार पर ही निर्भर करता है. इस अवस्था में अगर किसी ग्रह को आठवें भाव में देखा जाए तो वह उस भाव का स्वामी ही है | कोई भी ग्रह आठवें भाव में बैठता है तो अपने शुभ स्वभाव को खो देता है. ऎसे में शनि को अपवाद रूप में आठवें भाव में शुभ माना गया है | क्योंकि वह आयु प्रदान करने में सहायक बनता है | अष्टमेश आठवें भाव की रक्षा करता है | अष्टमेश की मजबूती का निर्धारण उस पर पड़ने वाली दृष्टियों अथवा संबंधों के द्वारा होती है।

कुछ अन्य तथ्यों द्वारा देखा जाए तो अष्टमेश अचानक आने वाले प्रभाव दिखाता है | यह भाव जीवन में आने वाली रूकावटों से रूबरू कराता है. जहां – जहां अष्टमेश का प्रभाव पड़ता है उससे संबंधित अवरोध जीवन में दिखाई पड़ते हैं | अष्टमेश जिस भाव में स्थित होता है उस भाव के फल अचानक दिखाई देते हैं और वह अचानक से मिलने वाले फलों को प्रदान करता है।

व्यक्ति अपने जीवन में जो उपहार देता है, उन सभी की व्याख्या यह भाव करता है | इस भाव से व्यक्ति के द्वारा कमाई, गुप्त धन-सम्पत्ति, विदेश यात्रा, रहस्यवाद, स्त्रियों के लिए मांगल्यस्थान, दुर्घटनाएं, देरी खिन्नता, निराशा, हानि, रुकावटें, तीव्र, मानसिक चिन्ता, दुष्टता, गूढ विज्ञान, गुप्त सम्बन्ध, रहस्य का भाव देखा जा सकता है।

अष्टम भाव का कारक ग्रह शनि है. आयु के लिए इस भाव से शनि का विचार किया जाता है | अष्टम भाव से स्थूल रुप में मुख्य रुप में आयु का विचार किया जाता है | अष्टम भाव सूक्ष्म रुप में जीवन के क्षेत्र की बाधाएं देखी जाती है | अष्टमेश व नवमेश का परिवर्तन योग बन रहा हों, तो व्यक्ति पिता की पैतृक संपति प्राप्त करता है | अष्टमेश व दशमेश आपस में परिवर्तन योग बना रहा हों, तो व्यक्ति को कार्यों में बाधा, धोखा प्राप्त हो सकता है | उसे जीवन में उतार-चढ़ाव का सामना करना पड़ता है।

सशक्त शुक्र अष्टम भाव में भी अच्छा फल प्रदान करता है। शुक्र अकेला अथवा शुभ ग्रहों के साथ शुभ योग बनाता है। स्त्री जातक में शुक्र की अष्टम स्थिति गर्भपात को सूचक। आठवें भाव का शुक्र जातक को विदेश यात्रायें जरूर करवाता है,और अक्सर पहले से माता या पिता के द्वारा सम्पन्न किये गये जीवन साथी वाले रिस्ते दर किनार कर दिये जाते है,और अपनी मर्जी से अन्य रिस्ते बनाकर माता पिता के लिये एक नई मुसीबत हमेशा के लिये खड़ी कर दी जाती है।

जातक का स्वभाव तुनक मिजाज होता है । पुरुष वर्ग कामुकता की तरफ़ मन लगाने के कारण अक्सर उसके अन्दर जीवन रक्षक तत्वों की कमी हो जाती है,और वह रोगी बन जाता है,लेकिन रोग के चलते यह शुक्र जवानी के अन्दर किये गये कामों का फ़ल जरूर भुगतने के लिये जिन्दा रखता है,और किसी न किसी प्रकार के असाध्य रोग जैसे तपेदिक या सांस की बीमारी देता है,और शक्तिहीन बनाकर बिस्तर पर पड़ा रखता है। इस प्रकार के पुरुष वर्ग स्त्रियों पर अपना धन बरबाद करते है,और स्त्री वर्ग आभूषणो और मनोरंजन के साधनों तथा महंगे आवासों में अपना धन व्यय करती है।

अष्टम भाव अचानक प्राप्ति का है इसके अंदर ज्योतिषी विद्याएं गुप्त विद्याएं अनुसंधान समाधि छुपा खजाना अध्यात्मिक चेतना प्राशक्तियों की प्राप्ति योग की ऊंची साधना मोक् पैतृक संपत्ति विरासत अचानक आर्थिक लाभ अष्टम भाव के सकारात्मक पक्ष है और लंबी बीमारी मृत्यु का कारण तथा दांपत्य जीवन अष्टम भाव के नकारात्मक पक्ष है |

आठवें भाव में शुक्र होने के कारण जातक देखने में सुंदर होते है। निडर और प्रसन्नचित्त शारीरिक,आर्थिक अथवा स्त्रीविषय सुखों में से कम से कम कोई एक सुख पर्याप्त मात्रा में इन्हे मिलता है।


विदेश यात्रा अवसर मिलते रहेंगे।

नौकर चाकर और सवारी का भी पूर्ण सुख मिलता रहेगा।

शुक्र कभी धन का सुख तो कभी ऋण का दुःख भी देता है।

एेसे जातक को २५ वर्ष के बाद विवाह करना चाहिए।

जातक यहाँ ऋणी रहेगा ही रहेगा

जीवन साथी या पुत्र को लेकर चिंताएं भी रह सकती है।

कमाई भी उतनी ही होगी, जितना कर्ज होगा।

अष्टम् भाव के कारकत्व…

1. आयु
2. पाप कर्म ( पिछले जनम के )
3. अचानक/घटना
4. संकट
5. चोरी
6. रुकावटे/ अड़चने/विघ्न
7. परेशानिया
8. दुःख
9. गुप्त शत्रु
10. पूर्ण विनाश
11. दुर्भाग्य
12. शत्रुता
13. षड़यंत्र
14. अकाल मृत्यु
15. मृत्यु का कारन
16. स्पाउस का मारक स्थान
17. स्पाउस का धन
18. सार्वजनिक निंदा
19. छुपे हुए अफेयर्स
20. पैंत्रिक सम्पति
21. गढ़ा धन
22. अचानक प्राप्ति
23. अचानक घाटा/ loss
24. नवम से द्वादश भाव
25. स्पाउस की वाण
26. शिप द्वारा विदेश यात्रा
27. समाधी
28. रिसर्च
29. खदान और सुरंग
30. अध्यात्म
31. मोक्ष त्रिकोण का 2 कोण 5 ऑफ़ 4h
32. संतान की हैप्पीनेस (4 ऑफ़ 5) 3 ऑफ़ 6
33. दूसरा ट्रिक भाव… 6,8,124
34. भाग्य की हानि
35. एक जीवन चक्र का अंत
36. माता की शीक्षा
37. आकस्मिक परिवर्तन
38. दुर्घटना
39. असाध्य रोग
40. अंडर दि टेबल इनकम
41. उनेर्नेद मनी फ्रॉम लिगेसी /इन्शुरन्स /दोव्री
42. आय का कर्म स्थान
43. कर्म का आय स्थान
44. गिफ्ट
45. छोटे भाई की नौकरी
46. बड़े भाई का भौतिक सुख
47. बड़े भाई की सर्विस (प्रोफेशन)
48. तंत्र एवम् रहस्यमयी गुप्त विद्याये
49.सास का लाभ स्थान
50.ससुराल का धन

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