शनिवार, 8 सितंबर 2018

नक्षत्र विवरण

१) अश्विनी
नक्षत्र - अश्विनी , नक्षत्र देवता - अश्विनीकुमार , नक्षत्र स्वामी - केतु  ,  नक्षत्र  पूज्य वृक्ष - वत्सनाग  , नक्षत्र ऐच्छिक वृक्ष - अडोसा ( अडूसा ) , नक्षत्र चरणाक्षर - चु, चे, चो, ला ४ चरण मेष राशी में  , नक्षत्र प्राणी- घोडा नक्षत्र तत्व - वायु , नक्षत्र गण- देव ,  नक्षत्र स्वभाव – मृदु.
अश्विनी नक्षत्र में जन्म हुए मनुष्य के गुण:- अलंकार प्रेमी , सुंदर, मनोहर -जिनको देखनेसे मन प्रसन्न हो, समर्थ, और बुद्धिमान होते है !
अश्विनी से जुड़े व्यवसाय:-  प्रेरक प्रशिक्षक, अभियान प्रबंधक,  एथलीट, खेल से संबंधित व्यवसाय, हवाई जहाज/ ऑटो / नाव / घोड़ा दौड़ी , सैन्य, कानून प्रवर्तन, इंजीनियरिंग, जौहरी, चिकित्सा व्यवसाय, फार्मासिस्ट,  सलाहकार , औषधि माहिर, शारीरिक रूप से साहसी क्षेत्र में कला प्रदर्शन , अन्वेषक, शोधकर्ता, और माली !
                                         
२) भरणी
नक्षत्र -भरणी ,  नक्षत्र देवता - यमाद्य पितर, नक्षत्र स्वामी -शुक्र, नक्षत्र आराध्य वृक्ष - आंवला, नक्षत्र ऐच्छिक  वृक्ष- काला कत्था ,  राशी व्याप्ती - ली, लु, ले, लो  ४ चरण मेष राशी में ,  नक्षत्र प्राणी - हाथी ,  नक्षत्र तत्व - अग्नी, नक्षत्र स्वभाव –क्रूर , नक्षत्र गण- मनुष्य . 
भरणी नक्षत्र में पैदा हुए मनुष्य के गुण:- कार्य करनेकी क्षमता रखनेवाले , सत्य का मार्ग अपनानेवाले या सत्य बोलनेवले, निरोगी, चतुर और सुखी !
भरणी नक्षत्र से जुड़े व्यवसाय :- बच्चे से जुडी (शिक्षण, बच्चे की देखभाल, आदि), स्त्री रोग विशेषज्ञ, दाई, प्रजनन विशेषज्ञ, ताबूत बनानेवाला, संपत्ति सलाहकार, हत्या जासूसी, लेखक, अंतिम संस्कार सेवाओं के साथ जुड़े क्षेत्र,  मनोरंजन, मॉडल, विदेशी या यौनकर्मियों से जुड़े , न्यायाधीश, होटल उद्योग, खानपान, पशु चिकित्सक, आग सेनानी, सर्जन, फोटोग्राफर, चरम गोपनीयता, भूभौतिकी, भूकंप और ज्वालामुखी विशेषज्ञों की स्थिति।                                                                           
३) कृतिका
नक्षत्र-  कृतिका , नक्षत्र देवता – अग्नी  , नक्षत्र स्वामी – रवि  , नक्षत्र पूजनीय वृक्ष - गूलर (औदुंबर) ,
नक्षत्र ऐच्छिक  वृक्ष – बहेड़ा , राशी व्याप्ती – अ, १ चरण मेष राशि में . ई, ऊ, ऐ ३ चरण वृषभ राशी में
 नक्षत्र प्राणी- बकरी  ,  नक्षत्र तत्व –अग्नी  , नक्षत्र गण- राक्षस,  नक्षत्र स्वभाव – क्रूर.
कृत्तिका नक्षत्र में जन्म लेनेवालोंके गुण:- अधिकतर भोजन में रूचि रखनेवाले , तेजस्वी और  जीवन में तरक्की के आसमान को छूते है !
कृत्तिका नक्षत्र से जुड़े व्यवसाय :-  प्राधिकारी या प्रबंधन की स्थिति, जनरल, आलोचक, अध्यापक, विश्वविद्यालय व्यवसाय, वकील, तकनीकी व्यवसाय, चाकू या तलवार, तलवारबाजी, आर्चर, लोहार, जौहरी, सर्जन, विस्फोटक या आग से जुड़े व्यवसायों के रूप में तेज वस्तुओं से संबंधित किसी भी क्षेत्र से , आग सेनानी, पुलिस, सेना, खनिक, पुनर्वास विशेषज्ञ, प्रेरक ट्रेनर, मिट्टी के बरतन, आध्यात्मिक शिक्षक, हेयर स्टाइलिस्ट, दर्जी, और अनाथालय के लिए काम करना !
                                         
४ ) रोहिणी
नक्षत्र- रोहिणी , नक्षत्र देवता –ब्रम्हा  , नक्षत्र स्वामी – चंद्र , नक्षत्र पूजनीय वृक्ष -काला जामुन ( जांभळ)     नक्षत्र ऐच्छिक वृक्ष- बेल  , राशी व्याप्ती -  ओ, वा, वि, वू ४ चरण वृषभ राशी में , नक्षत्र प्राणी- सांप , नक्षत्र तत्व- पृथ्वी ,  नक्षत्र गण- मनुष्य  ,  नक्षत्र स्वभाव- मृदु.
रोहिणी नक्षत्र में जन्म लेनेवालोंके गुण:- साफ-सफाई में ध्यान देनेवाले, सच बोलना पसंद करनेवाले, स्थिर बुद्धिवाले, मधुर भाषण करनेवाले और सुन्दर दिखनेवाले ! 
रोहिणी नक्षत्र से जुडी वृत्ति :- कृषि, धान्य प्रसंस्करण, वनस्पति, वैद्य, कलाकार, संगीतकार, मनोरंजन उद्योग, कॉस्मेटिक उद्योग,   जौहरी, रत्न व्यापारी, इंटीरियर डेकोरेटर, बैंकर, परिवहन व्यवसाय, पर्यटन, ऑटोमोबाइल उद्योग, तेल और पेट्रोलियम, वस्त्र उद्योग, शिपिंग उद्योग, पैकेजिंग और वितरण, और किसी भी जलीय उत्पादों और तरल पदार्थ के साथ जुड़ा हुआ पेशा !     

५) मृगशीर्ष
नक्षत्र-  मृगशीर्ष ,  नक्षत्र देवता- चंद्र  , नक्षत्र स्वामी-  मंगळ  , नक्षत्र पूजनीय वृक्ष - काला कत्था , नक्षत्र ऐच्छिक वृक्ष- पीपल  , राशी व्याप्ती - वे, वो, २ चरण वृषभ राशी में , का, की २ चरण मिथुन राशी में ,  नक्षत्र प्राणी – सांप  , नक्षत्र तत्व- वायु  , नक्षत्र गण- देव , नक्षत्र स्वभाव- मृदु.
मृगशीर्ष नक्षत्र वाले मनुष्य के गुण:-  चतुर-चपल, उमंग से भरपूर, धनि, और सुख का भोग लेनेवाले !
मृगशीर्ष नक्षत्र से सम्बंधित कार्य :-  कलाकार के  गायक, संगीतकार, लेखक, कवि, चित्रकार, दार्शनिक, रत्न उद्योग, उत्पाद या सामग्री पृथ्वी से संबंधित, भूमि अभिवृद्धि, सर्वेक्षक, यात्रि, खोजकर्ता, इमारत ठेकेदार, व्यापार मशीनरी या इलेक्ट्रॉनिक्स से संबंधित, पशु चिकित्सक, पालतू जानवरों से संबंधित, फैशन और वस्त्र उद्योग, बिक्री प्रतिनिधि, विज्ञापन प्रसारक, शासन प्रबंध,  ज्योतिषि, शिक्षक की वृत्ति !

६) आर्द्रा
नक्षत्र –आर्द्रा, नक्षत्र देवता - रुद्र (शिव) , नक्षत्र स्वामी – राहु, नक्षत्र आराध्य वृक्ष - पिप्पली ( लम्बी काली मिर्च)
नक्षत्र पर्यायी वृक्ष – चंदन, नक्षत्र चरणाक्षर - कु,ख,ञ,छ. नक्षत्र प्राणी- कुत्ता, नक्षत्र तत्व- जल, नक्षत्र स्वभाव – तीक्ष्ण, नक्षत्र गण- मनुष्य.
जन्म नक्षत्र  फल:- जो अहंकार दिखाता हो, मदत करनेवालोंको भुला देनेवाला, हिंसा प्रेमी, और पाप कर्म करनेवाला !
नक्षत्र से जुडी वृत्ति:- शारीरिक श्रम से जुड़े काम,  इलेक्ट्रॉनिक्स, कंप्यूटर, सॉफ्टवेयर इंजीनियर, बिजली इंजीनियर, ध्वनि तकनीशियन, इलेक्ट्रॉनिक संगीत, वीडियो गेम डेवलपर, विशेष प्रभाव और 3-डी प्रौद्योगिकी, विज्ञान कथा लेखक, भाषाकोविद, चित्रकार , दार्शनिक, भौतिक विज्ञानी, शोधकर्ता, सर्जन, फार्मासिस्ट, परमाणु ऊर्जा उद्योग, मनोचिकित्सक, न्यूरोलॉजिस्ट के साथ काम करता है; जासूसी, बिक्री विशेषज्ञ, विश्लेषक, राजनेता, चोर, शतरंज खिलाड़ी आदि विषयों का ज्ञाता !

७) पुनर्वसु
नक्षत्र- पुनर्वसु, नक्षत्र देवता- अदिती, नक्षत्र स्वामी- गुरू, नक्षत्र आराध्य वृक्ष – बांस, नक्षत्र पर्यायी वृक्ष- बरगद
नक्षत्र चरणाक्षर- के,को,हा, ही, नक्षत्र प्राणी- बिल्ली, नक्षत्र तत्व- वायु,  नक्षत्र स्वभाव- सत्व, नक्षत्र गण- देव.
जन्म नक्षत्र फल:- सुखी, सुशिल, दमनशील, अल्प मेधावी, रोंगो से पीड़ित , अधिक प्यासा, और अल्प संतोषी ( थोड़ा मिलनेसेहि सतुंष्ट होनेवाला) !
नक्षत्र से जुडी वृत्तियाँ:- पर्यटन, यात्रा उद्योग, होटल प्रबंधक , व्यापार उद्योग, निर्माण, वास्तुकला, सिविल इंजीनियर्स, वैज्ञानिक, अध्यापक, लेखक, गूढ़ अध्ययन, दार्शनिक, मंत्रि, इतिहासकार, प्राचीन वस्तु का  व्यापारि, समाचार पत्र उद्योग, मकान मालिक, अंतरिक्ष यात्री, कोरियर, कारीगर, नवीन आविष्कार, तीरंदाजी, इनको अधिक तर अपने हाथों का उपयोग की आवश्यकता होती है !

८) पुष्य
नक्षत्र- पुष्य, नक्षत्र देवता- गुरु, नक्षत्र स्वामी- शनि, नक्षत्र आराध्य वृक्ष- पीपल,नक्षत्र पर्यायी वृक्ष- अंजीर
नक्षत्र चरणाक्षर- हु, हे, हो, डा, नक्षत्र प्राणी- बकरी, नक्षत्र तत्व- अग्नी, नक्षत्र स्वभाव- शुभ, नक्षत्र गण- देव
जन्म नक्षत्र फल:- जिनका मन सदा शांत रहता हो, महाज्ञानी, धनिक, सदा धर्म के मार्ग का अनुसरण करनेवाले और सुन्दर होते है !
नक्षत्र से जुडी वृत्तियाँ:- राजनेता, रईस, खानपान, खाद्य या पेय उद्योग, परिचारिक, डेयरी उद्योग, सलाहकार, मनोवैज्ञानिक, पादरी, पुजारि, पंडित,आध्यात्मिक सलाहकार, दान कार्यकर्ता, शिक्षक, बच्चे की देखभाल पेशेवर, कारीगर, अचल संपत्ति में व्यवसाय, किसान, पानी से संबंधित उद्योग, व्यापार रूढ़िवादी या पारंपरिक धर्मों से संबंधित कार्य में कुशल !

९) आश्लेषा
नक्षत्र- आश्लेषा, नक्षत्र देवता- सांप , नक्षत्र स्वामी - बुध, नक्षत्र आराध्य वृक्ष- नागकेसर ( लाल) , नक्षत्र पर्यायी वृक्ष -उंडी , नक्षत्र चरणाक्षर - डि,डू,डे,डो, नक्षत्र प्राणी- बिल्ली , नक्षत्र तत्व - जल , नक्षत्र स्वभाव- तीक्ष्ण  नक्षत्र गण- राक्षस.                 नक्षत्र जन्मफल:- जिद्दी स्वाभववला, अधिक आशावादी, पापकर्म निरत, और कृतघ्न , मदतगार को भूलनेवला !
विशेष:- इस नक्षत्र में जन्म लेनेवाले मनुष्य की नक्षत्र शांति पूजा करना अनिवार्य है.
नक्षत्र से जुडी वृत्ति - केमिस्ट या रासायनिक इंजीनियर, व्यवसाय जहर या खतरनाक सामग्री, पेट्रोलियम उद्योग, दवा उद्योग, ड्रग डीलर, तंबाकू उद्योग, चोर, गबन, वयस्क मनोरंजन उद्योग, सरीसृप, सपेरा, सर्जन, गुप्त आपरेशन-सर्विस, वकीलों के साथ काम करना, राजनीतिज्ञ सलाहकार, मनोवैज्ञानिक, कृत्रिम निद्रावस्था में लानेवाला, योग प्रशिक्षक, और नीमहकीम।

१०) मघा
नक्षत्र- मघा, नक्षत्र देवता- पितर, नक्षत्र स्वामी- केतु, नक्षत्र आराध्य वृक्ष- बरगद  , नक्षत्र पर्यायी वृक्ष- रिठा
नक्षत्र चरणाक्षर- मा,मि,मू,मे, नक्षत्र प्राणी- चूहा , नक्षत्र तत्व- अग्नी , नक्षत्र स्वभाव- क्रूर , नक्षत्र गण- राक्षस
नक्षत्र जन्मफल :- दो से ज्यादा भाई-बहन के साथ रहनेवाला, धनिक, हर तरह के भोग भोगनेवाला, भगवान और माता-पिता की भक्ति करनेवाला, सदा उत्साह से भरपूर !
नक्षत्र से जुडी वृत्ति:- प्रबंधक, कार्यकारी अधिकारी, अध्यक्ष, प्रशासन, रॉयल्टी, सरकारी अधिकारी, कथा लेखक, नौकरशाह, रईस, वकील, न्यायाधीश, रेफरी, राजनीतिज्ञ, लाइब्रेरियन, वक्ता, इतिहासकार, संग्रहालय में पदवी, एंटीक डीलर, पुरातत्व विद्वान जेनेटिक इंजीनियर, प्राचीन संस्कृति का शोध कर्ता, दस्तावेजीकरण  कलाकार, वक्ता, तांत्रिक !

११) पुर्वा (फाल्गुनी)
नक्षत्र- पुर्वा (फाल्गुनी) , नक्षत्र देवता -  भग ,  नक्षत्र स्वामी – शुक्र, नक्षत्र आराध्य वृक्ष - पलाश (पळस)
नक्षत्र पर्यायी वृक्ष- बेल, नक्षत्र चरणाक्षर - मो,टा,टी,टु,  नक्षत्र प्राणी- चूहा , नक्षत्र तत्व- क्रुर, नक्षत्र स्वभाव - सत्व
नक्षत्र गण- मनुष्य
नक्षत्र जन्मफल:- सदा प्रिय वचन बोलनेवाला, दान-धर्म करनेवाला, आकर्षक व्यक्तित्व , यात्रा प्रेमी और राज सेवक ( उच्च स्थान का सेवक )
नक्षत्र से जुडी वृत्तियाँ:-  कार्यकारी, सरकारी अधिकारी, मनोरंजन, मेकअप कलाकार, मॉडल, फोटोग्राफर, चित्रकार, कला संग्रहालय या गैलरी, संगीतकार, शिक्षक, रत्न व्यापारी, शारीरिक फिटनेस ट्रेनर, इंटीरियर डेकोरेटर, महिला के उत्पादों के साथ काम करते हैं, गुप्त -चिकित्सक, नींद चिकित्सक, जीवविज्ञानी, पर्यटन, कपास और रेशम उद्योग।

१२) उत्तरा (फाल्गुनी)
नक्षत्र- उत्तरा (फाल्गुनी) , नक्षत्र देवता-  अर्यमा , नक्षत्र स्वामी-  रवि, नक्षत्र आराध्य वृक्ष- पिंपरी( प्लक्ष )
नक्षत्र पर्यायी वृक्ष - श्वेत कनेर , नक्षत्र चरणाक्षर -  टे,टो,पा,पी, नक्षत्र प्राणी- गाय , नक्षत्र तत्व – वायु,       
नक्षत्र स्वभाव-  सत्व , नक्षत्र गण- मनुष्य
नक्षत्र जन्मफल:- दिखनेमें सुन्दर, अपनी विद्या से धन कमानेवाला, भोगी, और सुखोंका अनुभोग लेनेवाला !
नक्षत्र से जुडी वृत्ति:- मनोरंजन, संगीतकार, कलाकार, प्रबंधक, नेता, सार्वजनिक आंकड़ा, खेल सुपरस्टार, संगठन के प्रमुख, शिक्षक, उपदेशक, परोपकारि, शादी सलाहकार, संयुक्त राष्ट्र के साथ काम, राजनायक, संस्थापक, बैंकर, लेनदार, सामाजिक कार्यकर्ता, सलाहकार , कमांडर !

१३) हस्त
नक्षत्र- हस्त, नक्षत्र देवता- सुर्य, नक्षत्र स्वामी- चंद्र, नक्षत्र आराध्य वृक्ष- चमेली , नक्षत्र पर्याय वृक्ष- रिठा
नक्षत्र चरणाक्षर- पू,ष,ण,ठ , नक्षत्र प्राणी- भैंस , नक्षत्र तत्व- वायु, नक्षत्र स्वभाव- रज  , नक्षत्र गण- देव
नक्षत्र जन्मफल:- उमंग से भरपूर, धैर्यवान, जो पेय- जल से सम्बंधित वस्तु का प्रेमी, दयावान, और कालांतर से बुद्धि में बदलाव आने से चोरी का मार्ग अपनानेवाला।
नक्षत्र से जुड़े व्यवसाय:-  कारीगर, यांत्रिकी, गहने निर्मात विशेषज्ञ, शारीरिक श्रम, कसरत, सर्कस कलाकार, आविष्कारक, प्रकाशक, प्रिंटिंग उद्योग, कार्ड डीलर, जुआरी, बैंकर, लेखाकार, टाइपिस्ट  क्लीनर, नौकरानी, मालिश, रासायनिक उद्योग, वस्त्र उद्योग, टैरो कार्ड पाठक, ज्योतिषी, नीलामकर्ता, मिट्टी के बरतन कर्ता, इंटीरियर डेकोरेटर, माली, खाद्य उत्पादन, नावी, मूर्तिकार, पेशेवर हास्य अभिनेता, भाषण चिकित्सक, परीक्षण कलाकार, जादूगर और चोरी में माहिर !

१४) चित्रा
नक्षत्र- चित्रा, नक्षत्र देवता- त्वष्टा , नक्षत्र स्वामी- मंगळ, नक्षत्र आराध्य वृक्ष- बेल , नक्षत्र पर्याय वृक्ष- बकूल
नक्षत्र प्राणी- बाघ , नक्षत्र तत्व- वायु,  नक्षत्र स्वभाव- तीक्ष्ण ( तम),  नक्षत्र चरणाक्षर- पे,पो,रा,री,
नक्षत्र गण- राक्षस
नक्षत्र जन्मफल:- अधिक रंग-बेरंगी कपड़े, आभूषण, सजावट के वस्तु पहनना पसंद करनेवाला या पहननेवाला, बड़े तेजस्वी आँखे और सुन्दर दिखनेवाला.
नक्षत्र से जुडी वृत्ति:- आर्किटेक्ट, डिजाइनर, मूर्तिकार, कारीगर, फैशन डिजाइनर, कॉस्मेटिक डिजाइनर, प्लास्टिक सर्जन, फोटोग्राफर, ग्राफिक कलाकार, संगीतकार, प्रसारक, इंटीरियर डिजाइनर, गहने डिजाइनर, फेंग शुई विशेषज्ञ, आविष्कारक, मशीनरी के उत्पादन का व्यापारी, बिल्डर, चित्रकार , पटकथा लेखक, सेट डिजाइनर, कला निर्देशक, थिएटर कलाकार, झांज संगीतकार, औषधि माहिर, विज्ञापन, बहुमुखी प्रतिभाशाली।

१५) स्वाती
नक्षत्र- स्वाती , नक्षत्र देवता- वायु ,  नक्षत्र स्वामी- राहु, नक्षत्र आराध्य वृक्ष- अर्जुन ,  नक्षत्र पर्याय वृक्ष- जरुल
नक्षत्र चरणाक्षर- रू,रे,रो,ता .  नक्षत्र प्राणी- भैंसा ,  नक्षत्र तत्व- अग्नी ,  नक्षत्र स्वभाव- सत्व ,  नक्षत्र गण- देव
नक्षत्र जन्मफल:- दमनशील इंद्रिय निग्रह रखनेवाला मेहनती व्यापारी, कृपा का पात्र धर्म का आचरण करके प्रिय वचन से सब का मन प्रसन्न करनेवाला !
नक्षत्र से जुडी वृत्तियाँ:-  व्यवसाय और व्यापार, खेल, गायक, संगीतकार, हवा उपकरण, अन्वेषक, स्वतंत्र उद्यमी, पायलट,  शोधकर्ता, सेवा व्यवसाय, सॉफ्टवेयर उद्योग, चरम खेल, शिक्षक, राजदूत, वकील, न्यायाधीश, राजनीतिज्ञ, संघ के नेता, राजनयिक परिचारिक, योग प्रशिक्षक, से जुड़े काम में दिलचस्पी रखनेवाले !

१६) विशाखा
नक्षत्र- विशाखा, नक्षत्र देवता- इंद्राग्नी ,  नक्षत्र स्वामी- गुरू , नक्षत्र आराध्य वृक्ष- बबूल ( नागकेशर )       नक्षत्र पर्याय वृक्ष- पारिजात,  नक्षत्र गण- राक्षस,  नक्षत्र प्राणी- बाघ , नक्षत्र चरणाक्षर- ती,तो,ते,तू .   
नक्षत्र तत्व-  वायु,   नक्षत्र स्वभाव- रज.
नक्षत्र जन्मफल:- द्वेषी जो दूसरे पर जलने वाला, लोभी, परन्तु तेजस्वी, बोलने में समर्थ वाग्मी, हरबात पर जघडनेवाला।
नक्षत्र से जुड़े काम और व्यवसाय:- शोधकर्ता, वैज्ञानिक, सैनिक, सैन्य नेता, लेखक, राजनेता, वकील, सार्वजनिक वक्ता, आव्रजन अधिकारि, पुलिस गार्ड, मजदूर, फैशन मॉडल, भाषण (प्रसारक) से जुड़े व्यवसाय, धार्मिक कट्टरपंथि, नर्तक, शराब का व्यापारी आदि विषयोंमें रूचि रखनेवाले हो सकते है !

१७) अनुराधा
नक्षत्र- अनुराधा, नक्षत्र देवता- मित्र , नक्षत्र स्वामी- शनि, नक्षत्र आराध्य वृक्ष- नागकेशर, नक्षत्र पर्याय वृक्ष-  बकुल ( मोलसिरि),  नक्षत्र चरणाक्षर- ना,नि,नू,ने .  नक्षत्र प्राणी- हिरन ,  नक्षत्र तत्व- पृथ्वी ,  नक्षत्र स्वभाव- सत्व ,   नक्षत्र गण- देव
जन्म नक्षत्रफल:-   जो अनुराधा नक्षत्र में जन्म लेता है वह धनवान, विदेश वासी या विदेश से लगाव रहनेवाला, अधिक भूक से बाधित, और सदा घूमनेवाला, प्रयाणप्रिय !
नक्षत्र से जुड़े व्यवसाय :-  कलाकार, संगीतकार, व्यवसाय प्रबंधन, पर्यटन उद्योग, दंत चिकित्सक, आपराधिक वकील, खनन इंजीनियर, वैज्ञानिक, सांख्यिकीविद्, गणितज्ञ, मानसिक माध्यम, ज्योतिषि, जासूस, फोटोग्राफर, सिनेमा, उद्योगपति, सलाहकार, मनोवैज्ञानिक, खोजकर्ता, राजनयिक, विदेशी देशों से जुड़े व्यवसाय समूह की गतिविधि संगठन / संस्था के कार्यकारी.

१८) जेष्ठा
नक्षत्र- जेष्ठा, नक्षत्र देवता- इंद्र, नक्षत्र स्वामी- बुध,  नक्षत्र आराध्य वृक्ष- सांबर ( खजूर) ,  नक्षत्र पर्याय वृक्ष- बेतस, नक्षत्र चरणाक्षर- नो,या,यी,यु .  नक्षत्र प्राणी- हिरन ,  नक्षत्र तत्व- पृथ्वी, नक्षत्र स्वभाव- तम, नक्षत्र गण- राक्षस.
जन्म नक्षत्रफल:-  मित्रों की संख्या कम रहनेवाला , अर्थात कम-कम से मित्रता करनेवाला, सदा आनंद से परिपूर्ण, धर्म मार्ग से चलनेवाला, और गरम मिजाजवाला !
नक्षत्र से जुडी वृत्तियाँ :-  संगीतकार, सैन्य नेता, राजनेता, पुलिस जासूस, इंजीनियर, प्रबंधक, दार्शनिक, बुद्धिजीवी, स्वरोजगार, सरकारी अधिकारि, प्रशासनिक पद, पत्रकार, रेडियो और टीवी कमेंटेटर, टॉक शो होस्ट, अभिनेता,फायरब्रिगेड, माफिया, वन रेंजर, साल्वेशन आर्मी के साथ व्यवसाय, शारीरिक श्रम, एथलीट, हवाई यातायात नियंत्रण, रडार, सर्जन।

१९) मूळ
नक्षत्र- मूळ, नक्षत्र देवता- निॠति (राक्षस),  नक्षत्र स्वामी- केतु, नक्षत्र आराध्य वृक्ष- राळ, नक्षत्र पर्याय वृक्ष- बबूल, नक्षत्र चरणाक्षर- ये,यो,भा,भी .  नक्षत्र प्राणी- कुत्ता ,  नक्षत्र तत्व- जल,  नक्षत्र स्वभाव- तम,  नक्षत्र गण- राक्षस .
जन्म नक्षत्रफल:-  धनवान सम्मानित सुखी मनुष्य, परजन हिंसा से बाधित , स्थिर स्वभाववाला और सुख का अनुभाग लेनेवाला !
नक्षत्र से जुडी वृत्ति :-  व्यापार, बिक्री, डॉक्टर, फार्मासिस्ट, दार्शनिक, सार्वजनिक वक्ता, विवादकर्ता, प्रचारक, लेखक, वकील, राजनेता, आध्यात्मिक शिक्षक, चिकित्सक, औषधि माहिर, दंत चिकित्सक, दवा पुरुष,       मनोचिकित्सक, संन्यासि, पुलिस अधिकारि, जांचकर्ता, सैनिक, आनुवंशिक शोधकर्ता, खगोल विज्ञानी , ताबूत बनानेवाला, रॉक संगीतकार, तांत्रिक अध्ययन, खनन उद्योग, विनाशकारी गतिविधि से सम्बंधित !

२०) पूर्वाषाढा
नक्षत्र- पूर्वाषाढा,  नक्षत्र देवता- जल, नक्षत्र स्वामी- शुक्र, नक्षत्र आराध्य वृक्ष- वेत, नक्षत्र पर्याय वृक्ष- गिलोय
नक्षत्र चरणाक्षर- भू,ध,प,ढ. नक्षत्र प्राणी- वानर,  नक्षत्र तत्व- जल ,  नक्षत्र स्वभाव- रज,  नक्षत्र गण- मनुष्य .
जन्म नक्षत्रफल:-  सुन्दर-सुशिल सदा आनंद में रहनेवाली स्त्री का पति , अर्थात मनचाही पत्नी के साथ रहनेवाला, सम्मानित और अचल स्नेह-दया से परिपूर्ण !
नक्षत्र से जुड़े कार्य:-  नेता, वकील, सार्वजनिक वक्ता, प्रेरक वक्ता, लेखक, अभिनेता, कलाकार, मनोरंजन, कवि, शिक्षक, पर्यटन उद्योग, विदेशी व्यापारि, शिपिंग उद्योग, नौसेना अधिकारी, समुद्री विशेषज्ञ, मत्स्य उद्योग, मनोचिकित्सक, कच्चे माल का उद्योग, पानी और तरल पदार्थ से सम्बंधित  व्यवसाय, रिफाइनर, युद्ध रणनीतिकार, कॉस्ट्यूम डिजाइनर, हेयर स्टाइलिस्ट, वैद्यों के लिए करना !

२१) उत्तराषाढा
नक्षत्र- उत्तराषाढा,  नक्षत्र देवता- विश्वदेव, नक्षत्र स्वामी- रवि, नक्षत्र आराध्य वृक्ष- कटहल,  नक्षत्र पर्याय वृक्ष- कांचन, नक्षत्र चरणाक्षर- भे, भो,जा,जी,   नक्षत्र प्राणी- मुंगुस,  नक्षत्र तत्व- पृथ्वी, नक्षत्र स्वभाव- स्थिर नक्षत्र गण- मनुष्य.
जन्म नक्षत्र फल :-  धार्मिक देवभक्त, विनय गुण से संपन्न,भारी मात्रा में मित्र और अपने लोगोंमे रहनेवाला, कृतज्ञ और सुन्दर दिखनेवाले होते है !
नक्षत्र से जुड़े व्यापार;- बड़ी जिम्मेदारी और नैतिक प्रकृति, से सम्बंधित, वैज्ञानिक, सैन्य कार्यकर्ता, सामाजिक कार्यकर्ता, सरकारी कर्मचारी, प्रचारक, पुजारि, सलाहकार, ज्योतिषि, वकील, न्यायाधीश, मनोवैज्ञानिक, घोड़े का व्यवसाय, खोजकर्ता, पहलवान, एथलीट, शिकारी, मुक्केबाज, व्यापार के अधिकारि के व्यवसाय , प्राधिकरण के आंकड़ों का व्यवसाय, सुरक्षा कर्मि, समग्र चिकित्सक।

२२) श्रवण
नक्षत्र- श्रवण, नक्षत्र देवता- विष्णु, नक्षत्र स्वामी- चंद्र,  नक्षत्र आराध्य वृक्ष- अर्क ,( दूधिया पौधा)  नक्षत्र पर्याय वृक्ष- आम ,  नक्षत्र चरणाक्षर- शी,शू,शे,शो.  नक्षत्र प्राणी- वानर,  नक्षत्र तत्व- पृथ्वी, नक्षत्र स्वभाव- चर,  नक्षत्र गण- देव.
जन्म नक्षत्रफल:-  धनवान हर तरह के आनंद से परिपूर्ण , वेद-शास्त्र का ज्ञाता, बड़े दिलवाला ,अपने परिवार जन के साथ प्रेम से रहनेवाला और प्रसिद्ध व्यक्ति कहलानेवाला !
नक्षत्र से जुड़े कार्य:- शिक्षक, भाषाविद्, भाषण चिकित्सक, भाषा अनुवादक, कथाकार  धार्मिक विद्वान, शिक्षक, नेता, शोधकर्ता, भूविज्ञानी, टेलीफोन ऑपरेटर, प्राचीन परंपरा का शोधकर्ता, हास्य अभिनेता, संगीत उद्योग, समाचार प्रसारक, टॉक शो होस्ट, सलाहकार, मनोचिकित्सकों के संरक्षण, मनोवैज्ञानिक, ज्योतिषि, रेडियो ऑपरेटर, परिवहन, पर्यटन, होटल और रेस्तरां उद्योग, चिकित्सक, समग्र चिकित्सा, दान कार्यकर्ता !

२३) धनिष्ठा
नक्षत्र- धनिष्ठा, नक्षत्र देवता- वसु, नक्षत्र स्वामी- मंगळ, नक्षत्र आराध्य वृक्ष- शमी, नक्षत्र पर्याय वृक्ष- नीम
नक्षत्र चरणाक्षर- गा,गी,गू,गे.  नक्षत्र प्राणी- सिंह,  नक्षत्र तत्व- पृथ्वी, नक्षत्र स्वभाव- शुभ , नक्षत्र गण- राक्षस.
जन्म नक्षत्रफल:- दान-धर्म करनेवाला, शूरता से धन कमानेवाला परंतु लोभी अर्थात  अनुभोग की अपेक्षा करनेवाला, संगीत प्रेमी और धनवान कहलानेवाला होगा !
नक्षत्र से जुडी वृत्ति:-  संगीतकार, नर्तकी, कलाकार, डॉक्टर, सर्जन, रियल एस्टेट एजेंट, संपत्ति प्रबंधन, वैज्ञानिक, शोधकर्ता, भौतिक विज्ञानी, इंजीनियरिंग, खनन, धर्मार्थ कार्यकारी , कवि, मनोरंजन, व्यापार, गीतकार, संगीत वाद्ययंत्र, गायक, मणि डीलर के निर्माता, एथलीट, समूह समन्वयक, ज्योतिषि, समग्र चिकित्सक।

२४) शततारका
नक्षत्र- शततारका, नक्षत्र देवता- वरुण, नक्षत्र स्वामी- राहु, नक्षत्र आराध्य वृक्ष- कदंब, नक्षत्र पर्याय वृक्ष- आपटा
नक्षत्र प्राणी- घोडा, नक्षत्र तत्व- जल, नक्षत्र स्वभाव- चर, नक्षत्र चरणाक्षर- गो,सा,सी,सू.  नक्षत्र गण- राक्षस.
जन्म नक्षत्रफल:-  स्पष्टतासे सामने से बोलनेवाला, अच्छे-बुरे आदत से पीड़ित, अपने धैर्य से शत्रु का संहार करनेवाला अर्थात शत्रु पर विजय प्राप्त करनेवाला और किसीके हाथ नहीं आनेवाला !
नक्षत्र से सम्बंधित व्यवसाय:- चिकित्सक, सर्जन, एक्स-रे तकनीशियन, खगोल विज्ञानी, ज्योतिषि, इंजीनियर, वैमानिकी, अंतरिक्ष इंजीनियर, पायलट, परमाणु विज्ञानि, शोधकर्ता, बिजली, लेखक, सचिव, फिल्म और टेलीविजन, दवा, जड़ी बूटियों का कार्य कर्ता, ड्रग डीलर, अपशिष्ट निपटान, प्लास्टिक और पेट्रोलियम, ऑटोमोबाइल उद्योग, अन्वेषक !

२५) पुर्वाभाद्रपदा
नक्षत्र- पुर्वाभाद्रपदा, नक्षत्र देवता- अजैक चरण, नक्षत्र स्वामी- गुरू, नक्षत्र आराध्य वृक्ष- आम , नक्षत्र पर्याय वृक्ष- हिरडा,  नक्षत्र चरणाक्षर- से,सो,दा,दी.  नक्षत्र प्राणी- सिंह, नक्षत्र तत्व- अग्नी, नक्षत्र स्वभाव- सत्व           नक्षत्र गण- मनुष्य.
जन्म नक्षत्रफल:- दुःख से चिंतित रहनेवाला, स्त्रीवश, धनिक, दान देने में समर्थ कहलानेवाला और दान-धर्म करनेवाला कहलाएगा !
नक्षत्र से जुडी वृत्तियां:- व्यापार, प्रशासन, संख्याकोविद ,ज्योतिषी, पुजारी, तपस्वी, ताबूत निर्माताओं, कब्रिस्तान के रखवाले, सर्जन, चिकित्सक, मनोचिकित्सक, कट्टरपंथि, कण, हॉरर या रहस्य कहानिकार, हथियार निर्माता, काला जादू, चमड़ा उद्योग के लेखक, हत्या जासूस, धातु उद्योग, आग, विषाक्त पदार्थों का व्यवसाय।

२६) उत्तराभाद्रपदा
नक्षत्र- उत्तराभाद्रपदा,  नक्षत्र देवता- अहिर्बुधन्य, नक्षत्र स्वामी- शनि, नक्षत्र आराध्य वृक्ष- नीम
नक्षत्र पर्याय वृक्ष- आमला ,  नक्षत्र चरणाक्षर-,  नक्षत्र प्राणी- गाय, नक्षत्र तत्व- जल, नक्षत्र गण-  मनुष्य,  नक्षत्र स्वभाव- रज .
जन्म नक्षत्रफल:-  जिनका जन्म इस नक्षत्र में होता है वह व्यक्ति अधिक बोलनेवाले,सुखी, शत्रुपर विजय प्राप्त करनेवाले होंगे तथा धर्म पर निष्ठा रखकर  अपने पुत्र ,परिवार के साथ आनंद से रहेंगे !
नक्षत्र से जुड़े व्यवसाय:-  दार्शनिक, लेखक, शिक्षक, धर्मार्थ कार्य, आयात या निर्यात काम, पर्यटन उद्योग, धार्मिक कार्य, ज्योतिषि, योग और ध्यान के विशेषज्ञ, परामर्शदाता, चिकित्सक, आरोग्य, तांत्रिक व्यवसायी, साधु, संगीतकार, रात का चौकीदार, इतिहासकार, पुस्तकालय, विरासत पर रहने वाले लोगों के साथ रहना इत्यादि !

२७) रेवती
नक्षत्र- रेवती, नक्षत्र देवता- पूषा, नक्षत्र स्वामी- बुध, नक्षत्र आराध्य वृक्ष- मोह ( मधुक ), नक्षत्र पर्याय वृक्ष- जेष्ठमध या इमली ,  नक्षत्र चरणाक्षर- दे,दो,चा,चि, नक्षत्र प्राणी- हाथी ,  नक्षत्र तत्व- जल नक्षत्र स्वभाव- मृदु  नक्षत्र गण- देव
जन्म नक्षत्रफल:-  सदा साफ सुतरा रहना पसंद करनेवाले, धैर्य और शौर्यता को प्रदर्शन करनेवाले धनि बनेंगे इनका शरीर भी मजबूत होगा !
नक्षत्र से जुडी वृत्तियाँ:-  धर्मार्थ कार्य, शहरी योजनाकार, सरकारी कर्मचारि, मनोविज्ञान, रहस्यमय या धार्मिक कार्य, कृत्रिम निद्रावस्था में लानेवाला, ट्रैवल एजेंट, विमान परिचारिका, पत्रकार, संपादक, प्रकाशक, अभिनेता, हास्य कलाकार, राजनेता, चित्रकार, संगीतकार, मनोरंजन, भाषाविद्, जादूगर,सड़क योजनाकार, ज्योतिषि, प्रबंधक, रत्न डीलर, शिपिंग उद्योग, अनाथालय या पालक की देखभाल, ड्राइविंग व्यवसाय, हवाई यातायात नियंत्रण, यातायात पुलिस, प्रकाश घर के काम से सम्बंधित हो सकते है।

सोमवार, 3 सितंबर 2018

जन्म कुंडली की डिटेल के बिना जन्म कुंडली बनाने की विधि


गुमीय साधन गणित..द्वारा।।

माना कि ये थोडा कठिन है परन्तु इस विधा से किसी भी मनुष्य की जन्म कुंंडली ... बिना जन्म डिटेल के भी बनाई जा सकती है बस कुछ दिन अभ्यास जरूर कर लेना चाहिये ताकि ... पूर्णं रूपेण समझ में आ जाऐ।।

      जानें कैसे....

कभी कभी किसी कारणवश जन्म तारीख और दिन माह वार आदि का पता नही होता है, कितनी ही कोशिशि की जावे लेकिन जन्म तारीख का पता नही चल पाता है, जातक को सिवाय भटकने के और कुछ नही प्राप्त होता है, किसी ज्योतिषी से अगर अपनी जन्म तारीख निकलवायी भी जावे तो वह क्या कहेगा, इसका भी पता नही होता है, इस कारण के निवारण के लिये आपको कहीं और जाने की जरूरत नही है, किसी भी दिन उजाले में बैठकर एक सूक्षम दर्शी सीसा लेकर बैठ जावें, और अपने दोनो हाथों बताये गये नियमों के अनुसार देखना चालू कर दें, साथ में एक पेन या पैंसिल और कागज भी रख लें, तो देखें कि किस प्रकार से अपना हाथ जन्म तारीख को बताता है।
अपनी वर्तमान की आयु का निर्धारण करें
हथेली मे चार उंगली और एक अगूंठा होता है, अंगूठे के नीचे शुक्र पर्वत, फ़िर पहली उंगली तर्जनी उंगली की तरफ़ जाने पर अंगूठे और तर्जनी के बीच की जगह को मंगल पर्वत, तर्जनी के नीचे को गुरु पर्वत और बीच वाली उंगली के नीचे जिसे मध्यमा कहते है, शनि पर्वत, और बीच वाली उंगले के बाद वाली रिंग फ़िंगर या अनामिका के नीचे सूर्य पर्वत, अनामिका के बाद सबसे छोटी उंगली को कनिष्ठा कहते हैं, इसके नीचे बुध पर्वत का स्थान दिया गया है, इन्ही पांच पर्वतों का आयु निर्धारण के लिये मुख्य स्थान माना जाता है, उंगलियों की जड से जो रेखायें ऊपर की ओर जाती है, जो रेखायें खडी होती है, उनके द्वारा ही आयु निर्धारण किया जाता है, गुरु पर्वत से तर्जनी उंगली की जड से ऊपर की ओर जाने वाली रेखायें जो कटी नही हों, बीचवाली उंगली के नीचे से जो शनि पर्वत कहलाता है, से ऊपर की ओर जाने वाली रेखायें, की गिनती करनी है,ध्यान रहे कि कोई रेखा कटी नही होनी चाहिये,शनि पर्वत के नीचे वाली रेखाओं को ढाई से और बृहस्पति पर्वत के नीचे से निकलने वाली रेखाओं को डेढ से, गुणा करें,फ़िर मंगल पर्वत के नीचे से ऊपर की ओर जाने वाली रेखाओं को जोड लें, इनका योगफ़ल ही वर्तमान उम्र होगी।

अपने जन्म का महिना और सूर्य राशि को पता करने का नियम।

अपने दोनो हाथों की तर्जनी उंगलियों के तीसरे पोर और दूसरे पोर में लम्बवत रेखाओं को २३ से गुणा करने पर जो संख्या आये, उसमें १२ का भाग देने पर जो संख्या शेष बचती है,वही जातक का जन्म का महिना और उसकी राशि होती है, महिना और राशि का पता करने के लिये इस प्रकार का वैदिक नियम अपनाया जा सकता है:-
१-बैशाख-मेष राशि
२.ज्येष्ठ-वृष राशि
३.आषाढ-मिथुन राशि
४.श्रावण-कर्क राशि
५.भाद्रपद-सिंह राशि
६.अश्विन-कन्या राशि
७.कार्तिक-तुला राशि
८.अगहन-वृश्चिक राशि
९.पौष-धनु राशि
१०.माघ-मकर राशि
११.फ़ाल्गुन-कुम्भ राशि
१२.चैत्र-मीन राशि
इस प्रकार से अगर भाग देने के बाद शेष १ बचता है तो बैसाख मास और मेष राशि मानी जाती है,और २ शेष बचने पर ज्येष्ठ मास और वृष राशि मानी जाती है।
हाथ में राशि का स्पष्ट निशान भी पाया जाता है। प्रकृति ने अपने द्वारा संसार के सभी प्राणियों की पहिचान के लिये अलग अलग नियम प्रतिपादित किये है,जिस प्रकार से जानवरों में अपनी अपनी प्रकृति के अनुसार उम्र की पहिचान की जाती है,उसी प्रकार मनुष्य के शरीर में दाहिने या बायें हाथ की अनामिका उंगली के नीचे के पोर में सूर्य पर्वत पर राशि का स्पष्ट निशान पाया जाता है। उस राशि के चिन्ह के अनुसार महिने का उपरोक्त तरीके से पता किया जा सकता है।

पक्ष और दिन का तथा रात के बारे में ज्ञान करना।।

वैदिक रीति के अनुसार एक माह के दो पक्ष होते है,किसी भी हिन्दू माह के शुरुआत में कृष्ण पक्ष शुरु होता है,और बीच से शुक्ल पक्ष शुरु होता है,व्यक्ति के जन्म के पक्ष को जानने के लिये दोनों हाथों के अंगूठों के बीच के अंगूठे के विभाजित करने वाली रेखा को देखिये,दाहिने हाथ के अंगूठे के बीच की रेखा को देखने पर अगर वह दो रेखायें एक जौ का निशान बनाती है, तो जन्म शुक्ल पक्ष का जानना चाहिये। और जन्म दिन का माना जाता है, इसी प्रकार अगर दाहिने हाथ में केवल एक ही रेखा हो, और बायें हाथ में अगर जौ का निशान हो तो जन्म शुक्ल पक्ष का और रात का जन्म होता है,अगर दाहिने और बायें दोनो हाथों के अंगूठों में ही जौ का निशान हो तो जन्म कृष्ण पक्ष रात का मानना चाहिये,।
साधारणत: दाहिने हाथ में जौ का निशान शुक्ल पक्ष और बायें हाथ में जौ का निशान कृष्ण पक्ष का जन्म बताता है।

जन्म तारीख की गणना।

मध्यमा उंगली के दूसरे पोर में तथा तीसरे पोर में जितनी भी लम्बी रेखायें हों,उन सबको मिलाकर जोड लें,और उस जोड में ३२ और मिला लें,फ़िर ५ का गुणा कर लें,और गुणनफ़ल में १५ का भाग देने जो संख्या शेष बचे वही जन्म तारीख होती है। दूसरा नियम है कि अंगूठे के नीचे शुक्र क्षेत्र कहा जाता है,इस क्षेत्र में खडी रेखाओं को गुना जाता है,जो रेखायें आडी रेखाओं के द्वारा काटी गयीं हो,उनको नही गिनना चाहिये,इन्हे ६ से गुणा करने पर और १५ से भाग देने पर शेष मिली संख्या ही तिथि का ज्ञान करवाती है,यदि शून्य बचता है तो वह पूर्णमासी का भान करवाती है,१५ की संख्या के बाद की संख्या को कृष्ण पक्ष की तिथि मानी जाती है।

जन्म वार का पता करना।

अनामिका के दूसरे तथा तीसरे पोर में जितनी लम्बी रेखायें हों,उनको ५१७ से जोडकर ५ से गुणा करने के बाद ७ का भाग दिया जाता है,और जो संख्या शेष बचती है वही वार की संख्या होती है। १ से रविवार २ से सोमवार तीन से मंगलवार और ४ से बुधवार इसी प्रकार शनिवार तक गिनते जाते है।

जन्म समय और लगन की गणना।

सूर्य पर्वत पर तथा अनामिका के पहले पोर पर,गुरु पर्वत पर तथा मध्यमा के प्रथम पोर पर जितनी खडी रेखायें होती है,उन्हे गिनकर उस संख्या में ८११ जोडकर १२४ से गुणा करने के बाद ६० से भाग दिया जाता है,भागफ़ल जन्म समय घंटे और मिनट का होता है,योगफ़ल अगर २४ से अधिक का है,तो २४ से फ़िर भाग दिया जाता है। इस तरह घंटे-मि.  आदि जन्मादि काल प्राप्त हो जाता है...
 अब इन सभी से सहज और पूर्ण जन्म कुंंडली तैयार करके,  जाचक का सटीक फलित भी किया जा सकता है।
            लेखक- पं. कृपाराम उपाध्याय,भोपाल

सोमवार, 20 अगस्त 2018

संतान बाधा योग

हर स्त्री-पुरुष की यह कामना होती है कि उन्हें एक योग्य संतान उत्पन हो जिससे उनका वंश चले और वह उम्र के आखरी पड़ाव में उनका सहारा बने। नीचे दिए गए ग्रह योग जो संतान बाधक योग हैं,  यदि किसी की कुंडली में मौजूद हो तो उन्हें अवश्य सचेत हो जाना चाहिए और समय रहते उचित उपाय के जरिये उन प्रतिकूल ग्रहों को अनुकूल बनाना चाहिए जिनके वजह यह बाधक योग उत्पन्न हुए हैं।

1:- लग्न से, चंद्र से तथा गुरु से पंचम स्थान पाप ग्रह से यक्त हो और वहाँ कोई शुभ ग्रह न बैठा हो न ही शुभ ग्रह की दृष्टि हो।

2:- लग्न, चंद्र तथा गुरु से पंचम स्थान का स्वामी छठे, आठवें या बारहवें भाव में बैठा हो।

3:- यदि पंचमेश पाप ग्रह होते हुए पंचम में हो तो पुत्र होवे किन्तु शुभ ग्रह पंचमेश होकर पंचम में बैठ जाये और साथ में कोई पाप ग्रह हो तो वह पाप ग्रह संतान बाधक बनेगा।

4:- यदि पंचम भाव में वृष, सिंह, कन्या या वृश्चिक राशि हो और पंचम भाव में सूर्य, आठवें भाव में शनि तथा लग्न में मंगल  स्थित हो तो संतान होने में दिक्कत होती है एवं विलंब होता है।

5:- लग्न में दो या दो से अधिक पाप ग्रह हों तथा गुरु से पांचवें स्थान पर भी पाप ग्रह हो तथा ग्यारहवें भाव में चन्द्रमा हो तो भी संतान होने में विलंब होता है।

6:- प्रथम, पंचम, अष्टम एवं द्वादस । इन चारो भावों में अशुभ ग्रह हो तो वंश वृद्धि में दिक्कत होती है।

7:- चतुर्थ भाव में अशुभ ग्रह, सातवें में शुक्र तथा दसवें में चन्द्रमा हो तो भी वंश वृद्धि के लिए बाधक है।

8:- पंचम भाव में चंद्रमा तथा लग्न, अष्टम तथा द्वादश भाव में पाप ग्रह हो तो भी वंश नहीं चलता।

9:- पंचम में गुरु, सातवें भाव में बुध- शुक्र तथा चतुर्थ भाव में क्रूर ग्रह होना संतान बाधक है।

10:- लग्न में पाप ग्रह, लग्नेश पंचम में, पंचमेश तृतीय भाव में हो तथा चन्द्रमा चौथे भाव में हो तो पुत्र संतान नहीं होता।

11:- पंचम भाव में मिथुन, कन्या, मकर या कुंभ राशि हो। शनि वहां बैठा हो या शनि की दृष्टि पांचवे भाव पर हो तो पुत्र संतान प्राप्ति में समस्या होती है।

12:- षष्ठेश, अष्टमेश या द्वादशेश पंचम भाव में हो या पंचमेश 6-8-12 भाव में बैठा हो या पंचमेश नीच राशि में हो या अस्त हो तो संतान बाधायोग उत्पन्न होता है।

13:- पंचम में गुरु यदि धनु राशि का हो तो बड़ी परेशानी के बाद संतान की प्राप्ति होती है।

14:- पंचम भाव में गुरु कर्क या कुंभ राशि का हो और गुरु पर कोई शुभ दृष्टि नहीं हो तो प्रायः पुत्र का आभाव ही रहता है।

15:- तृतीयेश यदि 1-3-5-9 भाव में बिना किसी शुभ योग के हो तो संतान होने में रूकावट पैदा करते हैं।

16:- लग्नेश, पंचमेश, सप्तमेश एवं गुरु सब के सब दुर्बल हों तो जातक संतानहीन होता है।

17:- पंचम भाव में पाप ग्रह, पंचमेश नीच राशि में बिना किसी शुभ दृष्टि के तो जातक संतानहीन होता है।

18:-  सभी पाप ग्रह यदि चतुर्थ में बैठ जाएँ तो संतान नहीं होता।

19:- चंद्रमा और गुरु दोनों लग्न में हो तथा मंगल और शनि दोनों की दृष्टि लग्न पर हो तो पुत्र संतान नहीं होता ।

20:- गुरु दो पाप ग्रहों से घिरा हो और पंचमेश निर्बल हो तथा शुभ ग्रह की दृष्टि या स्थिति न हो तो जातक को संतान होने में दिक्कत होता है।

21:- दशम में चंद्र, सप्तम में राहु तथा चतुर्थ में पाप ग्रह हो तथा लग्नेश बुध के साथ हो तो जातक को पुत्र नहीं होता ।

22:- पंचम,अष्टम, द्वादश तीनो स्थान में पाप ग्रह बैठे हों तो जातक को पुत्र नहीं होता।

23:- बुध एवं शुक्र सप्तम में, गुरु पंचम में तथा चतुर्थ भाव में पाप ग्रह हो एवं चंद्र से अष्टम भाव में भी पाप ग्रह हो तो जातक के लड़का नहीं होता।

24:- चंद्र पंचम हो एवं सभी पाप ग्रह 1-7-12 या 1-8-12 भाव में हो तो संतान नहीं होता ।

25:- पंचम भाव में तीन या अधिक पाप ग्रह बैठे हों और उनपर कोई शुभ दृष्टि नहीं हो तथा पंचम भाव पाप राशिगत हो तो संतान नहीं होता।

26:- 1-7-12 भाव में पाप ग्रह शत्रु राशि में हों तो पुत्र होने में दिक्कत होती है ।

27:- लग्न में मंगल, अष्टम में शनि, पंचम में सूर्य हो तो यत्न करने पर ही पुत्र प्राप्ति होती है।

28:- पंचम में केतु हो और किसी शुभ गृह की दृष्टि न हो तो संतान होने में परेशानी होती है।

29:- पति-पत्नी दोनों के जन्मकालीन शनि तुला राशिगत हो तो संतान प्राप्ति में समस्या होती है।

मंगलवार, 14 अगस्त 2018

ज्योतिष में गर्भाधान काल

ज्योतिष में गर्भाधान काल
पुरुष के वीर्य और स्त्री के रज से मन सहित जीव (जीवात्मा) का संयोग जिस समय होता है उसे गर्भाधान काल कहते हैं। गर्भाधान का संयोग (काल) कब आता है ? इसे ज्योतिष शास्त्र बखूबी बता रहा है। चरक संहिता के अनुसार – आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी इन पंच महाभूतों और इनके गुणों से युक्त हुआ आत्मा गर्भ का रुप ग्रहण करके पहले महीने में अस्पष्ट शरीर वाला होता है। सुश्रुत ने इस अवस्था को ‘कलल’ कहा है। ‘कलल’ भौतिक रूप से रज, वीर्य व अण्डे का संयोग है।
शुक्ल पक्ष की दशमी से कृष्ण पक्ष की पंचमी तक चंद्रमा को शास्त्रकारों ने पूर्णबली माना है। शुक्ल पक्ष के चंद्रमा की कलाऐं जैसे-जैसे बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे स्त्री-पुरुषों के मन में प्रसन्नता और काम-वासना बढ़ती है। जब गोचरीय चंद्रमा का शुक्र अथवा गुरु से दृष्टि या युति संबंध होता है, तब इस फल की वृद्धि होती है।

सफल प्रेम की डेटिंग का समय

जिस समय आपकी राशि से गोचर का चंद्रमा चौथा, आठवां बारहवां न हो। रश्मियुक्त हो। शुक्र अथवा गुरु से दृष्ट या युत हो। उस समय प्रेमी या प्रेमिका से आपकी मुलाकात (डेटिंग) सफल होती है और आपकी मनोकामना पूर्ण होती है। इस मुहूर्त में आपकी पत्नी भी सहवास के लिए सहर्ष तैयार हो जाती है यह अनुभव सिद्ध है।

  गर्भाधान की क्रिया का वैज्ञानिक दृष्टिकोण

यह सभी जानते हैं कि गर्भाधान करने के लिए यौन संपर्क स्थापित करना पड़ता है, किंतु पति-पत्नी के प्रत्येक यौन संपर्क के दौरान गर्भाधान संभव नहीं होता है। यौन संपर्क तो बहुत बार होता है, परंतु गर्भाधान कभी-कभी संभव हो पाता है। वैज्ञानिकों के अनुसार पुरुष के वीर्य में स्थित शुक्राणु जब स्त्री के रज में स्थित अण्डाणु में प्रवेश कर जाते हैं, तो गर्भ स्थापन्न हो जाता है। निषेचन की इस जैविक प्रक्रिया को गर्भाधान कहते हैं। यह प्रक्रिया स्त्री के गर्भाशय में होती है। निःसंतान दंपत्तियों (बांझ स्त्री/नपुंसक पुरुष) के लिए निषेचन की यह क्रिया परखनली में कराई जाती है। इससे उत्पन्न भ्रूण को ‘टेस्ट ट्यूब बेबी’ कहते हैं। इसके विकास के लिए बेबी भ्रूण को किसी अन्य स्त्री के गर्भाशय में रख दिया जाता है। जिसे सेरोगेट्स या किराये की कोख कहते हैं।

आयुर्वेद की दृष्टि से गर्भोत्पत्ति का कारण

चरक संहिता के अनुसार – जब स्त्री पुराने रज के निकल जाने के बाद नया रज स्थित होने पर शुद्ध होकर स्नान कर लेती है और उसकी योनि, रज तथा गर्भाशय में कोई दोष नहीं रहता, तब उसे ऋतुमती कहते हैं। ऐसी स्त्री से जब दोष रहित बीज (शुक्राणु) वाला पुरुष यौन क्रिया करता है, तब वीर्य, रज तथा जीव इन तीनों का संयोग होने पर गर्भ उत्पन्न होता है। यह जीव (जीवात्मा) गर्भाशय में प्रवेश करके वीर्य तथा रज के संयोग से स्वयं को गर्भ के रूप में उत्पन्न करता है। ज्योतिष में जीव (गुरु) को गर्भोत्पत्ति का प्रमुख कारक माना है।

वीर्य, रज, जीव और मन का संयोग ही गर्भ है:-

महर्षि आत्रेय मुनि ने कहा है- पुनर्जन्म लेने की इच्छा से जीवात्मा मन के सहित पुरुष के वीर्य में प्रवेश कर जाता है तथा क्रिया काल में वीर्य के साथ स्त्री के रज में प्रवेश कर जाता है। स्त्री के गर्भाशय में वीर्य, रज, जीव और मन के संयोग से ‘गर्भ’ की उत्पत्ति होती है।
पुरुष के वीर्य और स्त्री के रज से मन सहित जीव (जीवात्मा) का संयोग जिस समय होता है उसे गर्भाधान काल कहते हैं। गर्भाधान का संयोग (काल) कब आता है ? इसे ज्योतिष शास्त्र बखूबी बता रहा है।

गर्भ उत्पत्ति की संभावना का योग

जब स्त्री की जन्म राशि से अनुपचय (1, 2, 4, 5, 7, 8, 9, 12) स्थान में गोचरीय चंद्रमा मंगल द्वारा दृष्ट हो, उस समय स्त्री की रज प्रवृत्ति हो तो ऐसा रजो दर्शन गर्भाधान का कारण बन सकता है अर्थात गर्भाधान संभव होता है। क्योंकि यह ‘ओब्यूटरी एम.सी.’ होती है। इस प्रकार के मासिक चक्र में स्त्री के अण्डाशय में अण्डा बनता है तथा 12वें से 16वें दिन के बीच स्त्री के गर्भाशय में आ जाता है। यह वैज्ञानिकों की मान्यता है, हमारी मान्यता के अनुसार माहवारी शुरु होने के 6वें दिन से लेकर 16वें दिन तक कभी भी अण्डोत्सर्ग हो सकता है। यदि छठवें दिन गर्भाधान हो जाता है तो वह श्रेष्ठ कहलाता है। यह ब्रह्माजी का कथन है।
मासिक धर्म प्रारंभ होने से 16 दिनों तक स्त्रियों का स्वाभाविक ऋतुकाल होता है। जिनमें प्रारंभ के 4 दिन निषिद्ध (वर्जित) हैं। इसके पश्चात शेष रात्रियों में गर्भाधान (निषेक) करना चाहिए।

पुरुष की राशि से गर्भाधान के योग:-

गर्भ धारण की इच्छुक स्त्री की योग्यता और उसके अनुकूल समय से काम नहीं बनता है। गर्भाधान हेतु पुरुष की योग्यता व उसके अनुकूल समय का होना भी आवश्यक है।

"शीतज्योतिषि योषितोऽनुपचयस्थाने कुजेनेक्षिते,
जातं गर्भफलप्रदं खलु रजः स्यादन्यथा निष्फलम्।
दृष्टेऽस्मिन् गुरुणा निजोपचयगे कुर्यान्निषेक पुमान,
अत्याज्ये च समूलभे शुभगुणे पर्वादिकालोज्झिते।।"

जातक पारिजात में आचार्य वैद्यनाथ ने लिखा है –   1:- स्त्री की जन्मराशि से अनुपचय स्थानों में चंद्रमा हो तथा मंगल से दृष्ट या संबद्ध हो तब गर्भाधान संभव है, अन्यथा निष्फल होता है।
2:-पुरुष की जन्म राशि से उपचय (3, 6,10,11) स्थानों में चंद्र गोचर हो और उसे संतान कारक गुरु देखे तो पुरुष को गर्भाधान में प्रवृत्त होना चाहिए।
3:-पुरुष की जन्म राशि से 2, 5, 9वें स्थान में जब गुरु गोचर करता है तब वह गर्भाधान करने में सफल होता है। क्योंकि 2रे स्थान का गुरु 6 और 10वें चंद्रमा को तथा 5वें स्थान से 11वें चंद्रमा को और 9वां गुरु 3रे चंद्रमा को देखेगा।
4:-द्वि, पंच, नवम गुरु से गर्भाधान की संभावना का स्थूल आकलन किया जाता है।
5:-पुरुष की जन्म राशि से 3, 6, 10, 11वें स्थान में सूर्य का गोचर हो तो गर्भाधान की संभावना रहती है।

गर्भाधान का शुभ मुहूर्त एवं लग्न शुद्धि

वैद्यनाथ द्वारा कथित उपरोक्त योग गर्भ उत्पत्ति की संभावना के योग हैं। गर्भाधान संस्कार हेतु शुभ या अशुभ मुहूर्त से इसका कोई संबंध नहीं है। गर्भ उत्पत्ति संभावित होने पर ही किसी अच्छे ज्योतिषी से गर्भाधान का मुहूर्त निकलवाना चाहिए। यही हमारी संस्कृति का प्राचीन नियम है।
शुभ मुहूर्त में गर्भाधान संस्कार करने से सुंदर, स्वस्थ, तेजस्वी, गुणवान, बुद्धिमान, प्रतिभाशाली और दीर्घायु संतान का जन्म होता है। इसलिए इस प्रथम संस्कार का महत्व सर्वाधिक है।
गर्भाधान संस्कार हेतु स्त्री (पत्नी) की जन्म राशि से चंद्र बल शुद्धि आवश्यक है।
 :-जन्म राशि से 4, 8, 12 वां गोचरीय चंद्रमा त्याज्य है।
:-आधान लग्न में भी 4, 8, 12वें चंद्रमा को ग्रहण नहीं करना चाहिए।
:-आधात लग्न में या आधान काल में नीच या शत्रु राशि का चंद्रमा भी त्याज्य है।
:-जन्म लग्न से अष्टम राशि का लग्न त्याज्य है।
:-आघात लग्न का सप्तम स्थान शुभ ग्रहों से युक्त या दृष्ट होना चाहिए। ऐसा होने से कामसूत्र में वात्स्यायन द्वारा बताये गये सुंदर आसनों का प्रयोग करते हुए प्रेमपूर्वक यौन संपर्क होता है और गर्भाधान सफल होता है।
:-आघात लग्न में गुरु, शुक्र, सूर्य, बुध में से कोई शुभ ग्रह स्थित हो अथवा इनकी लग्न पर दृष्टि हो तो गर्भाधान सफल होता है एवं गर्भ समुचित वृद्धि को प्राप्त होता है तथा होने वाली संतान गुणवान, बुद्धिमान, विद्यावान, भाग्यवान और दीर्घायु होती है। यदि उक्त ग्रह बलवान हो तो उपरोक्त फल पूर्ण रूप से मिलते हैं।
:-गर्भाधान में सूर्य को शुभ ग्रह माना गया है और विषम राशि व विषम नवांश के बुध को ग्रहण नहीं करना चाहिए।
:-आघात लग्न के 3, 5, 9 भाव में यदि सूर्य हो तो गर्भ पुत्र के रूप में विकसित होता है।
:-गर्भाधान के समय लग्न, सूर्य, चंद्र व गुरु बलवान होकर विषम राशि व विषम नवांश में हो तो पुत्र जन्म होता है। यदि ये सब या इनमें से अधिकांश ग्रह सम राशि व सम नवांश में हो तो पुत्री का जन्म होता है।
:-आधान काल में यदि लग्न व चंद्रमा दोनों शुभ युक्त हों या लग्न व चंद्र से 2, 4, 5, 7, 9, 10 में शुभ ग्रह हों, तथा पाप ग्रह 3, 6, 11 में हो और लग्न या चंद्रमा सूर्य से दृष्ट हो तो गर्भ सकुशल रहता है।
:-गर्भाधान संस्कार हेतु अश्विनी, रोहिणी, मृगशिरा, हस्त, स्वाती, अनुराधा, तीन उत्तरा, धनिष्ठा, रेवती नक्षत्र प्रशस्त है।
:-पुरुष का जन्म नक्षत्र, निधन तारा (जन्म नक्षत्र से 7, 16, 25वां नक्षत्र) वैधृति, व्यतिपात, मृत्यु योग, कृष्ण पक्ष की अष्टमी, चतुर्दशी, अमावस्या, पूर्णिमा व सूर्य संक्रांति काल गर्भाधान हेतु वर्जित है।
:- स्त्री के रजोदर्शन से ग्यारहवीं व तेरहवीं रात्रि में भी गर्भाधान का निषेध है। शेष छठवीं रात्रि से 16वीं रात्रि तक लग्न शुद्धि मिलने पर गर्भाधान करें।

गर्भ का विकास:-

चरक संहिता के अनुसार – आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी इन पंच महाभूतों और इनके गुणों से युक्त हुआ आत्मा गर्भ का रुप ग्रहण करके पहले महिने में अस्पष्ट शरीर वाला होता है। सुश्रुत ने इस अवस्था को ‘कलल’ कहा है। ‘कलल’ भौतिक रूप से रज, वीर्य व अण्डे का संयोग है। गर्भ दूसरे मास में दाना (पिण्ड) हो जाता है।
भगवान धन्वंतरि के अनुसार – तीसरे महिने में नेत्रादि इन्द्रियां व हृदय सहित सभी अंग गर्भ में एक साथ उत्पन्न होते हैं। परंतु उनका रूप सूक्ष्म होता है। आचार्य वराह मिहिर के अनुसार – चौथे मास में हड्डी, पांचवें मास में त्वचा, छठे मास में रोम, सातवें मास में चेतना, आठवें मास में भूख-प्यास की अनुभूति, नवें मास में गर्भस्थ शिशु बाहर आने हेतु छटपटाने लगता है और दशवें मास में पके फल की भांति गर्भ से मुक्त होकर बाहर आ जाता है। अर्थात् गर्भ धारण से दशवें महिने में स्वाभाविक (प्राकृतिक) रूप से प्रसव हो जाना चाहिए।

गर्भ रक्षा

1. शुक्र, 2. मंगल, 3. गुरु, 4. सूर्य, 5. चंद्रमा, 6. शनि, 7. बुध, 8. आघात लग्न का स्वामी, 9 चंद्रमा, 10. सूर्य
ये दस क्रमशः गर्भ मासों के स्वामी (अधिपति) हैं। मासेश जैसी शुभ अशुभ स्थिति में होता है, वैसी ही गर्भस्थ शिशु की स्थिति रहती है।
प्रथम, द्वितीय या तृतीय मास में यदि मासेश पाप पीड़ित हो तो उस ग्रह की बलवता या शुभता प्राप्ति के उपाय करना चाहिए। जिससे गर्भ की रक्षा होती है एवं गर्भपात नहीं होता है।
गर्भवती स्त्री का आहार-विहार तथा आचार-व्यवहार उत्तम होना चाहिए। गर्भवती स्त्री का स्नेहन (मालिश) और स्वेदन (पसीना निकालना) कर्म करने से गर्भ प्राकृतिक रूप से बढ़ता है।
शहद के साथ पुत्रजीवा के आधा तोला चूर्ण को सुबह शाम खाने से गर्भ सुरक्षित रहता है।
गर्भवती स्त्री द्वारा घी, दूध का सेवन करने से गर्भ पुष्ट होता है तथा प्रसव भी आसानी से हो जाता है।
जिस समय पुरुष (पति) की जन्म राशि से उपचय (3, 6, 10, 11) स्थानों में शुक्ल पक्ष का चंद्रमा भ्रमण कर रहा हो तथा गोचरीय चंद्रमा, गोचर के गुरु या शुक्र से दृष्ट हो तथा सम तिथि को स्वविवाहिता स्त्री में गर्भाधान करने से गुणवान व सुयोग्य पुत्र का आगमन होता है।

ऋतुकाल :-

 रजस्राव के प्रथम दिन स्त्री चाण्डाली, दूसरे दिन ब्रह्मघातिनी और तीसरे दिन धोबिन के समान अपवित्र रहती है। इन तीन दिनों में गर्भाधान करने से नरक से आये हुए पापी जीव के शरीर की उत्पत्ति होती है। अतः ऋतुकाल के प्रारंभिक दिनों में गर्भाधान कदापि न करें। मासिक धर्म (ऋतुकाल) के दिनों में स्त्रियों को चाहिए कि वे किसी पुरुष से संपर्क न करें। किसी के पास बैठना और वार्तालाप नहीं करना चाहिए। ऐसा करने से आने वाली संतान पर अशुभ प्रभाव पड़ता है।
वेदांग ज्योतिष में ऋतुकाल की प्रथम चार रात्रियां तथा ग्यारहवीं और तेरहवीं निन्दित है। ऋतुस्राव के प्रथम 4 दिन-रात रोगप्रद होने के कारण गर्भाधान हेतु वर्जित है। ग्यारहवीं रात्रि में गर्भाधान करने से अधर्माचरण करने वाली कन्या उत्पन्न होती है। तेरहवीं रात्रि के गर्भाधान से मूर्ख, पापाचरण करने वाली, अपने माता-पिता को दुःख, शोक और भय प्रदान करने वाली दुष्ट कन्या का जन्म होता है।
कड़वी, खट्टी, तीखी, उष्ण वस्तुओं का सेवन न करके पांच दिन तक मधुर सेवन करें। छठवीं रात्रि में स्नान आदि से शुद्ध होकर गर्भ धारण करना चाहिए।

जीव का गर्भ में प्रवेश

जीव का मनुष्य योनि में प्रवेश: श्रीमद् भगवद्गीता के अनुसार शुभ-अशुभ कर्म (मिश्रित कर्म) करने वाला राजस प्रकृति (प्रवृत्ति) का जीव मनुष्य योनि में जन्म लेता है। अन्य शास्त्रों के अनुसार चैरासी लाख योनियों में जन्म लेने के बाद जीव को मनुष्य योनि (शरीर) की प्राप्ति होती है। नरक लोक में पापी जीव नरक यातना भुगतने के बाद पाप कर्मों का क्षय होने के उपरांत शुद्ध होकर मनुष्य योनि में जन्म लेता है तथा पुण्यवान पुरुष स्वर्ग लोक में अपने पुण्य कर्मों का सुख भोगता है, पुण्य कर्मों के क्षीण हो जाने के बाद जीव धर्मात्मा या धनवान मनुष्यों के यहां जन्म लेता है।

“जन्म प्राप्नोति पुण्यात्मा ग्रहेषूच्चगतेषु च।”

पुण्यात्मा पुरुष के जन्म के समय अधिकांश ग्रह अपनी उच्च राशि में होते हैं।
एक रात्रि के शुक्र-शोणित योग से कोदो के सदृश्य, पांच रात्रि में बुद्बुद सदृश्य, दस दिन होने पर बदरी फल के समान होता है। तदंतर मांस पिण्डाकार होता हुआ पेशीपिंड अण्डाकार होता है। एक माह में गर्भस्थ भ्रूण पुरुष के हाथ के अंगूठे के अग्रिम पोर के बराबर आकार का हो जाता है।
विरोध परिहार: सबसे पहले तो मैं यह स्पष्ट कर दूं कि गर्भ मासों की गणना गर्भाधान के दिन से करना चाहिए। पूर्व या पश्चात की एम.सी. तिथि – राजो दर्शन के समय से नहीं।
प्रथम माह में मास पिंड में से शिशु के (अर्थात् भ्रूण के) बाहरी मस्तक की रचना हो जाती है। हाथ, पैर आदि अंगों की रचना दूसरे माह में हो जाती है। यह तो स्पष्ट ही है। इसके साथ ही आंख, कान, नाक, मुंह, लिंग और गुदा की रचना भी हो जाती है किंतु इनके छिद्र नहीं खुलते हैं। तीसरा माह पूर्ण होने तक सभी इन्द्रियों के छिद्र खुल जाते हैं। ज्ञानेन्द्रियों की रचना के बाद भी ज्ञान प्राप्ति नहीं होती है।
रूधिर, मेद, मास, मज्जा, हड्डियों व नसों की रचना चौथे माह में हो जाती है। आचार्य वराह मिहिर ने हड्डियों व नसों की चौथे माह में होना तो ठीक बताया है किंतु पांचवें माह में चमड़ी का और छठवें माह में रुधिर व नख (नाखूनों) का निर्माण ठीक नहीं है। क्योंकि इनका निर्माण तो पूर्व में ही हो जाता है। ऐसा गुरुड़ पुराण का मत है।
पांचवें माह में क्षुधा-तृष्णा उत्पन्न होना यह पौराणिक मत ठीक नहीं है क्योंकि गर्भस्थ जीव में चेतना और ज्ञान की प्राप्ति सातवें माह में बताई गई है तो फिर इससे पूर्व क्षुधा व तृष्णा (भूख-प्यास) कैसे उत्पन्न होगी ?
भूख-प्यास, स्वाद और ओज आदि का आठवें माह में उत्पन्न होना। यह आचार्य वराहमिहिर का मत उपयुक्त व सटीक जान पड़ता है।
मासाधिपति के पीड़ित होने पर गर्भपात हो जाता है।-
आचार्य वराहमिहिर के अनुसार –
"मासाधिपतौ निपीड़िते, तत्कालं स्त्रवणं समादिशेत्।"
अतः गर्भ मास के स्वामी ग्रह के पीड़ित होने पर तत्काल गर्भ स्राव/गर्भपात हो जाता है। जिस मास में मासाधिपति बलवान या शुभ दृष्ट हो उस मास में सुखपूर्वक गर्भ की वृद्धि होती है। जब गोचर मान से मंगल, शुक्र या गुरु पाप ग्रह से दृष्ट या युत होते हैं, अथवा अपनी नीच या शत्रु राशि में होते हैं तो क्रमशः प्रथम, द्वितीय या तृतीय मास में गर्भपात हो जाता है। सबसे अधिक गर्भपात मंगल के कारण ही होते हैं क्योंकि मंगल रक्त का कारक है। अतः गर्भावस्था के प्रारंभ में मंगल ग्रह के शांत्यर्थ उपाय करना चाहिए तथा शुक्रादि कोई ग्रह यदि पाप पीड़ित हो तो उस हेतु भी मंत्र जाप व दान आदि करना चाहिए इससे गर्भ सुरक्षित रहता है। यहां हम एक बात देना चाहते हैं कि सूर्य, चंद्रमा गर्भ को पुष्ट करने वाले और प्रसव कारक होते हैं। गर्भ के तीसरे महिने में जब गर्भस्थ शिशु के लिंगादि अंगों की रचना होती है उस समय गर्भवती स्त्री को यदि सूर्य तत्व वाली औषधियां खिलाई जावे तो सूर्य तत्व की अधिकता के कारण गर्भस्थ शिशु पुरूष लिंगी बन जाता है।

गर्भ रक्षा की नवमांस चिकित्सा

प्रयत्नपूर्वक गर्भ की रक्षा करना पति-पत्नी दोनों का संयुक्त दायित्व है। गर्भावस्था में स्त्री को काम, क्रोध, लोभ, मोह से बचना चाहिए। गर्भवती स्त्री को अत्यधिक ऊंचे या नीचे स्थानों पर नहीं जाना चाहिए। गर्भवती स्त्री को कठिन यात्राऐं वर्जित है। गर्भवती स्त्री को कठिन आसन या व्यायाम नहीं करना चाहिए। तीखे, खट्टे, कड़वे अत्याधिक गरम पदार्थों का सेवन करने से या गर्भ पर किसी प्रकार का दबाव पड़ने से गर्भ नष्ट हो जाता है।
लड़ाई, झगड़ा, शोक, कलह और मैथुन/यौन संपर्क से स्त्री को बचना चाहिए। गर्भस्थ शिशु का स्वास्थ्य अच्छा रहे, उसके शरीर का समुचित विकास होता रहे तथा गर्भवती स्त्री शारीरिक रूप से इतनी सक्षम हो कि उचित समय पर सर्वगुण संपन्न, सुखी व स्वस्थ शिशु को सुखपूर्वक जन्म दे सके। इस हेतु ‘चरक संहिता’ में महर्षि चरक ने नवमास चिकित्सा का विधान वर्णित किया है।
प्रथम मास: मासिक धर्म का समय आने पर भी जब ऋतुस्राव न हो तथा गर्भ स्थापना के लक्षण प्रकट होने लगे तब प्रथम मास में गर्भवती स्त्री को सुबह शाम मिश्री मिला हुआ ठंडा दूध पीना चाहिए।
द्वितीय मास: द्वितीय मास में दस ग्राम शतावर के मोटे चूर्ण को 200 ग्राम दूध में 200 ग्राम पानी मिलाकर, दस ग्राम मिश्री डालकर धीमी आग पर उबालंे, जब सारा पानी उड़ जाए और दूध ही शेष बचे तो इसे छानकर गुनगुना होने पर घूंट घूंट करके गर्भवती स्त्री पीएं। यह प्रयोग सुबह और रात को सेाने से आधा घंटा पूर्व करेें।
तृतीय मास: इस मास में गर्म दूध को ठंडा करके एक चम्मच शुद्ध घी और तीन चम्मच शहद घोलकर सुबह शाम पीना चाहिए।
चतुर्थ मास: इस मास में दूध के साथ ताजा मख्खन बीस ग्राम की मात्रा में सुबह शाम सेवन करना चाहिए।
पंचम मास: पांचवें मास में सिर्फ दूध व शुद्ध घी का अपनी पाचन शक्ति के अनुरूप सेवन करें।
छठा मास: इस मास में द्वितीय मास की भांति क्षीर पाक (शतावर साधित दूध) का सेवन करना चाहिए।
सप्तम मास: इस मास में छठे मास का प्रयोग जारी रखें।
आठवां मास: इस मास में दूध -दलिया, घी उबालकर शाम के भोजन में भरपेट खाना चाहिए।
नवम मास: नवें मास में शतावर साधित तेल में रुई का फाहा भिगोकर रोजाना रात को सोते समय योनि के अंदर गहराई में रख लिया करें। एक माह तक यह प्रयोग करने से प्रसव के समय अधिक कष्ट नहीं होगा और सुखपूर्वक प्रसव हो सकेगा।
दसवें माह में जब प्रसव वेदना होने लगे तब वचा (वच) की छाल को एरंड के तेल में घिसकर गर्भवती स्त्री की नाभि के आसपास और नीचे पेडू पर मलें। लगाएं ऐसा करने से सुखपूर्वक नार्मल डिलीवरी होगी।
आधुनिक प्रजनन तकनीक भले ही निःसंतान दंपत्ति के लिए आशा की किरण साबित हुई हो। किंतु ‘डिजाईनर किड्स’ टेस्ट ट्यूब बेबी और सेरोगेसी को समाज के अधिकांश लोग यदि अपनाने लग जाये तो आगे आने वाली पीढ़ी में असंवेदना, संस्कारहीनता और अनैतिकता तथा असामाजिकता निश्चित ही बढ़ जायेगी। इसमें कोई संदेह नहीं है।
कौन नहीं चाहता कि उसके बच्चे तन-मन से सुंदर, स्वस्थ तथा बुद्धि से तेजस्वी हो। किंतु मात्र चाहने से क्या हो ? बोते तो हम नीम की निबोली है फिर हमें आम के मीठे फल कैसे प्राप्त होंगे ? गांव का अनपढ़ किसान भी भलीभांति जानता है कि कौन सी फसल कब बोना चाहिए। प्रत्येक पशु पक्षी भी किसी विशेष ऋतु काल में ही समागम करते हैं। किंतु स्वयं को सर्वश्रेष्ठ प्राणी कहने वाला मनुष्य आज भूल गया है कि उसे गर्भाधान कब करना चाहिए और कब नहीं।
श्रेष्ठ और सर्वगुण संपन्न संतान प्राप्ति का भारतीय मनीषियों के पास एक पूरा जन्म विज्ञान था। उनके पास ऐसे अनेक नुस्खे थे जिससे वे शिशु के जन्म से पूर्व ही उसकी प्रोग्रामिंग कर लेते थे फलतः उन्हें मनोवांछित संतान की प्राप्ति हो जाती थी। अथर्ववेदांग ज्योतिष, मनुस्मृति और व्यास सूत्र में बुद्धिमान और प्रतिभाशाली तथा गुण, कर्म, स्वभाव से अच्छी संतान प्राप्ति के सूत्र दिये हुए हैं। उन्हें हम समीक्षात्मक ढंग से सार रूप में लोक कल्याण हेतु प्रस्तुत कर रहे हैं।
1. जिस दिन स्त्री को रजस्राव (रजोदर्शन) शुरू होता है वह उसके मासिक धर्म का प्रथम दिन/रात कही जाती है। स्त्री के मासिक धर्म के प्रथम दिन से लेकर सोलहवें दिन तक का स्वाभाविक ऋतुकाल माना गया है। ऋतुकाल में ही गर्भाधान करें।
2. ऋतुकाल की प्रथम चार रात्रियां रोगकारक होने के कारण निषिद्ध हैं। इसी तरह ग्यारहवीं और तेरहवीं रात्रि भी निंदित है। अतः इन छः रात्रियों को छोड़कर शेष दस रात्रियों में ही गर्भाधान करें। इन दस रात्रियों में भी यदि कोई पर्व-व्रतादि हो तो भी समागम न करें।
3. उपरोक्त विधि से चयन की गई रात्रियों के अलावा शेष समय पति-पत्नी संयम से रहें। क्योंकि ब्रह्मचारी का वीर्य ही श्रेष्ठ होता है, कामी पुरूषों का नहीं और श्रेष्ठ बीजों से ही श्रेष्ठ फलों की उत्पत्ति होती है।
4. गर्भाधान हेतु ऋषियों ने रात्रि ही महत्वपूर्ण मानी है। अतः रात्रि के द्वितीय प्रहर (10 से 1 बजे) में ही समागम करें। ऐतरेयोपनिषद् के अनुसार- ‘दिन में यौन संपर्क स्थापित से प्राण क्षीण होते हैं’। इसी उपनिषद में प्रदोष काल अर्थात् गोधूली बेला भी यौन संपर्क हेतु निषिद्ध कही गई है।
5. शारीरिक, मानसिक रूप से स्वस्थ तथा निरोगी, बुद्धिमान और श्रेष्ठ संतान चाहने वाली दंपत्ति को चाहिए कि वह गर्भकाल/गर्भावस्था में यौन संपर्क कदापि न करें। अन्यथा होने वाली संतान जीवन भर काम वासना से त्रस्त रहेगी तथा उसे किसी भी प्रकार का शारीरिक मानसिक रोग/विकृति हो सकती है।
6. संस्कारवान और सच्चरित्र संतान की कामना वाली गर्भवती स्त्री को चाहिए वह गर्भावस्था के दौरान काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईष्र्या, द्वेष आदि विकारों का परित्याग कर दे। शुभ आचरण करें और प्रसन्नचित रहें।

किस रात्रि के गर्भ से कैसी संतान होगी ?

चौथी रात्रि में गर्भधारण करने से जो पुत्र पैदा होता है, वह अल्पायु, गुणों से रहित, दुःखी और दरिद्री होता है।
पांचवीं रात्रि के गर्भ से जन्मी कन्या भविष्य में सिर्फ लड़कियां ही पैदा करेगी।
छठवीं रात्रि के गर्भ से उत्पन्न पुत्र मध्यम आयु (32-64 वर्ष) का होगा।
सातवीं रात्रि के गर्भ से उत्पन्न कन्या अल्पायु और बांझ होगी।
आठवीं रात्रि के गर्भ से पैदा पुत्र सौभाग्यशाली और ऐश्वर्यवान होगा।
नौवीं रात्रि के गर्भ से सौभाग्यवती और ऐश्वर्यशालिनी कन्या उत्पन्न होती है।
दसवीं रात्रि के गर्भ से चतुर (प्रवीण) पुत्र का जन्म होता है।
ग्यारहवीं रात्रि के गर्भ से अधर्माचरण करने वाली चरित्रहीन पुत्री पैदा होती है।
बारहवीं रात्रि के गर्भ से पुरूषोत्तम/सर्वोत्तम पुत्र का जन्म होता है।
तेरहवीं रात्रि के गर्भ से मूर्ख, पापाचरण करने वाली, दुःख चिंता और भय देने वाली सर्वदुष्टा पुत्री का जन्म होता है। ऐसी पुत्री वर्णशंकर कोख वाली होती है जो विजातीय विवाह करती है जिससे परंपरागत जाति, कुल, धर्म नष्ट हो जाते हैं।
चैदहवीं रात्रि के गर्भ से जो पुत्र पैदा होता है तो वह पिता के समान धर्मात्मा, कृतज्ञ, स्वयं पर नियंत्रण रखने वाला, तपस्वी और अपनी विद्या बुद्धि से संसार पर शासन करने वाला होता है।
पंद्रहवीं रात्रि के गर्भ से राजकुमारी के समान सुंदर, परम सौभाग्यवती और सुखों को भोगने वाली तथा पतिव्रता कन्या उत्पन्न होती है।
सोलहवीं रात्रि के गर्भ से विद्वान, सत्यभाषी, जितेंद्रिय एवं सबका पालन करने वाला सर्वगुण संपन्न पुत्र जन्म लेता है।

सोमवार, 13 अगस्त 2018

ससुराल की दूरी जानने के सूत्र

ससुराल की दूरी

(१) अपने ही गांव या शहर मे विवाह ;-
 सप्तम भाव मे यदि शुभ ग्रहो चंद्र,बुध,गुरू,शुक्र की राशि या नवांश पडे और सप्तमेश शुभ होकर शुभ नवांश मे पडे तो जातक का विवाह अपने ही गांव या आस पास या अपने ही शहर मे होता है|

(२) ७० से ८० किमी की दूरी के अन्तर्गत विवाह ;-
सप्तम भाव मे यदि वृष,सिंह,वृश्चिक या कुंभ राशि पडे और सप्तमेश शुभ युक्त या शुभ दृष्ट हो तो लगभग ५०मील या ७०-८० किमी दूरी पर विवाह होता है|

(३) १०० या १२५ किमी दूरी पर विवाह ;-
 सप्तम भाव मे यदि मिथुन,कन्या,धनु या मीन राशि पडे और सप्तमेश द्विस्वभाव नवांश मे हो तो जातक का ससुराल १००-१२५किमी की दूरी पर होता है|

(४) १५० या २०० किमी दूरी के अन्तर्गत विवाह ;
सप्तम भाव मे यदि मेष,कर्क,तुला,मकर राशि पडे और सप्तमेश चर नवांश मे हो तो जातक का विवाह १५०-२०० किमी दूरी के अन्तर्गत होता है|

गुरुवार, 9 अगस्त 2018

मृत्यु कुंडली के कुछ विशेष सूत्र


(1)जन्म कुंडली के तरह मृत्यु कुंडली बनाई जाती है जिसमे मृत व्यक्ति का मृत्यु के पशछात की गति देखी जाती है।
(2)मृत्यु कुंडली मे सूर्य और गुरु की स्तिथी महत्वपूर्ण होती है।
(3)मोक्षभाव 4,8,12 भी महत्वपूर्ण होते है।
(4) 4था भाव मृत्यु के पूर्व का समय, 8वा भाव मृत्यु का समय एवम 12वा मृत्यु के बाद  के समय को दर्शाता है।
(5) सूर्य यदि राहु, शनि के साथ हो अथवा 6वे, 12वे भ्रमण कर रहा हो तो इसका मतलब व्यक्ति की आत्मा सही मार्ग से भटक गई है।
(6) 8वे भाव मे सूर्य ,चंद्र हो तो अर्थात मृत्यु के पश्चात स्वर्ग प्राप्ति होगी।
(7) 8वे भाव मे गुरु,बुध,शुक्र भी हो तो देवलोक की प्राप्ति होगी।
(8) 8वे भाव मे मंगल हो तो व्यक्ति पुनः धरती पर आएगा।
(9) 8वे मे शनि,राहु,केतु हो तो व्यक्ति नीच योनि में जन्म लेगा।
(10) शुभ ग्रहों का 4,8,12 से सम्बंध हो तो अगला जन्म सम्पन्न अथवा अच्छे घराने मे होता है।
(11) 12वे भाव मे बृहस्पति ,केतु हो तो मोक्ष मिल जाता है शर्त है शनि की दृष्टि 12वे भाव मे ना हो।
Note- उपर्युक्त जितने भी सूत्र व जानकारी बताई गई है वह सिर्फ मृत्यु के समय ग्रहो की स्तिथि पर बताई गई है इसका जन्मकुंडली से कोई लेना देना नही है।
।।इतिशुभम।।

शुक्रवार, 3 अगस्त 2018

कार्यालय से संबंधित वास्तु सलाह

1. आप अपने कार्यालय / आफिस के बाहर खूबसूरत साइनबोर्ड अवश्य ही लगाएं, जो लोगो को अच्छी तरह से दिखाई दे सके। खूबसूरत साइनबोर्ड लगाने से आफिस की प्रसिद्धि बढ़ती है।

2. दुकान , आफिस के मालिक को अपनी कुर्सी सदैव ऊँची रखनी चाहिए। लोहे, ऐल्युमिनियम की कुर्सी पर बैठने से व्यक्ति का कारोबार मंदा पड़ता है। अचानक से हानि का सामना करना पड़ता है।

3. संगरमरमर , लकड़ी की हरे रंग की कुर्सी पर बैठकर व्यापार का कार्य करने से धन लाभ होता है।

4. अगर कुर्सी लोहे या पाइप आदि की हो तो कुर्सी के नीचे लकड़ी का दो-तीन इंच ऊँचा चौकोर ठोस पटरा रखें । सदैव कुर्सी पर लाल , हरे , पीले रंग का आसन अथवा कुशन प्रयोग करें इससे नौकरी में प्रमोशन होता है, धन के नए स्रोत्र बनते है और कार्यक्षेत्र में विस्तार होता है।

5. वास्तु के अनुसार यह ध्यान रहे कि मालिक की कुर्सी आफिस के दरवाजे के ठीक सामने बिलकुल भी ना हो ।

6. मालिक को यथासंभव नैऋत्य, दक्षिण अथवा पश्चिम की दीवार से 2 - 3 इंच की जगह छोड़कर बैठना चाहिए जिससे उसका मुँख ईशान, उत्तर अथवा पूर्व की तरफ रहे ।

7. आफिस के मालिक को अगर केबिन में बैठना हो तो उसे भी नैऋत्य कोण में ही होना चाहिए, केबिन का आकार यथासंभव वर्गाकार या आयताकार होना चाहिए। आफिस के सभी केबिनो के द्वार अंदर की ओर ही खुलने चाहिए ।

8. मालिक की कमर के पीछे कोई खिड़की या दरवाजा नहीं वरन ठोस दीवार होनी चाहिए ।

9. बॉस के पीठ पीछे ऊँची इमारत अथवा बर्फ के ऊँचे पहाड़ का चित्र लगाना चाहिए । इससे बॉस की अपने कर्मचारियों एवं ग्राहकों पर पकड़ मजबूत बनी रहती है ।

10. कभी भी अपने भवन / आफिस / दुकान के सामने जूते चप्पल ना उतारें । मुख्य द्वार के दोनों तरफ धात्री और विधात्री का वास, ऊपर विघ्न विनायक गणपति गणेश जी और नीचे श्री देहली का निवास माना जाता है अत: जूते चप्पल मुख्य द्वार के किनारे किसी अलमारी में ही रखने चाहिए एवं मालिक और कर्मचारियों को अपने व्यापारिक स्थल को प्रणाम करते हुए दाहिना पैर अंदर रखना चाहिए ।

11. अपने कार्यालय का कचरा उसके मुख्य द्वार के सामने नहीं इकट्ठा करें वरन उसे समेट कर कहीं दूर फिकवायें। कूड़ेदान मुख्य द्वार के सामने नहीं होना चाहिए ।

12. व्यापार में आपेक्षित सफलता के लिए बॉस तथा मुख्य अधिकारियों , कर्मचारियों की मेज को चौकोर होना चाहिए। ऑफिस के काम के लिए लोहे या स्टील की जगह लकड़ी की मेज को अच्छा माना जाता हैं। आफिस में अंडाकार या यू(U) के आकार की मेज सही नहीं होती है ।

13. मालिक यदि उत्तर की ओर मुँह करके बैठे तो वह अपना कैश बॉक्स, चैक बुक आदि बायीं ओर रखे और यदि वह अपना मुँह पूर्व की ओर करके बैठे तो अपना कैश बॉक्स, चैक बुक आदि दायीं तरफ रखे लेकिन यह ध्यान रहे कि उसका मुँह उत्तर की तरफ ही खुले जिससे कुबेर जी की दृष्टि उसके ऊपर अवश्य ही पड़े ।

14. आफिस में अकाउंट विभाग को उत्तर या पूर्व दिशा में होना चाहिए, और अकाउंटेंट को उत्तर की तरफ मुँह करके ही बैठना चाहिए।

15. अपनी आफिस के ईशान कोण को खाली एवं बिलकुल साफ रखे। अपना मंदिर भी आप इसी ईशान दिशा अथवा पूर्व दिशा में ही बनायें ।

16. जल की व्यवस्था ईशान, उत्तर अथवा पूर्व दिशा में ही करें ।

17. आफिस के उत्तर दिशा में यदि हो सके तो फिश एक्वेरियम बनायें इससे धन लाभ मिलता है ।

18. यदि ऑफिस में कैंटीन अथवा पैंट्री की सुविधा हो तो उसकी व्यवस्था आग्नेय कोण में करना सर्वोत्तम होगा ।

19. आफिस में मालिक, अधिकारीयों व कर्मचारियों किसी को भी यथासंभव बीम या परछत्ती के नीचे बैठकर कार्य नहीं करना चाहिए लेकिन यदि बीम के नीचे बैठकर कार्य करना मजबूरी हो बीम के दोनों ओर 2 बांसुरी लाल रिबन में बांधकर लगायें ।

20. आफिस के किसी भी कक्ष में कम्प्यूटर, टेलीफोन फैक्स आदि आग्नेय कोण में रखना चाहिए। और टेबल पर रखने पर यह टेबल के आग्नेय कोण में रखने चाहिए।

21. आफिस में कर्मचारियों को भी उत्तर या पूर्व की तरफ ही मुँह करके बैठना चाहिए ।

22. आफिस में कोई भी टेबिल दरवाजे के ठीक सामने टेबल नहीं रखनी चाहिए। इससे कर्मचारीयों को मानसिक तनाव रहता है ।

23. आफिस में टॉयलेट दक्षिण अथवा पश्चिम में होना चाहिए । ध्यान रहे वह आफिस के ईशान, मुख्य द्वार के ठीक सामने अथवा शुरुआत में नहीं होना चाहिए ।

24. आफिस में रिसेप्शन शुरुआत में ही इस जगह हो जिससे रिसेप्सनिष्ट का मुंह उत्तर या पूर्व की तरफ हो लोग उससे शीघ्र ही संतुष्ट हो जायेंगे ।

25. आफिस में किसी भी तरह का भारी फर्नीचर , रिकार्ड, स्टेशनरी व अन्य सामान रखने की अलमारियां कमरो की दक्षिण या पश्चिम दिशा में ही रखनी चाहिए।

मंगलवार, 31 जुलाई 2018

सर्व-ग्रह दोष शांत करने का सबसे आसान उपाय

सर्व-ग्रह दोष शांत करने का सबसे आसान उपाय करके तो देखिऐ ईश्वर के कार्य में सहयोगी बनें पशु पक्षियों को आहार-पानी देकर कुंडली में दूषित ग्रहों के प्रभाव से सहज बचा जा सकता है।
       इस कार्य को करने से  हम प्रभु के कृपा पात्र ही नहीं बनते हैं बल्कि हम ईश्वर का प्रतिनिधी बनकर ईश्वर का कार्य ही करते हैं। सोचिए भूखे-प्यासे को भोजन-पानी देना तो भगवान का ही कार्य है ना और भगवान का कार्य करने वाले को सारी परेशानियों और प्रारब्ध के दोषों से ईश्वर स्वयं रक्षा करता है तथा पाप क्षीण हो जाते हैंं ,पुण्यों की प्राप्ति होती है। पापों के क्षरण होते ही दैहिक ,दैविक , और भौतिक कष्ट समाप्त होने लगते हैं।

   -:लाभ:-
 1-आपके मन में अक्सर भय सा या बेचैनी-सी रहती है।
2-आपके काम ठीक समय पर पूरे नहीं होते या पूरे होते-होते रुकते हैं।
 3-पारिवारिक क्लेश (विवाद) नियमित रूप से चलता रहता है।
4-परिवार में सदैव किसी का स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता है।
5-भरकस परिश्रम करने पर भी धनोपार्जन करना मुश्किल हो रहा है।
6-एक नई परेशानी हल होने से पहले दूसरी तैयार रहती है।
7- कर्ज या खर्च से परेशान है,बचत नहीं हो पा रही।
      तो ‍निश्चिन्त हो कर आपको पशु पक्षियों को दाना-पानी डालना शुरू कर दें  चमत्कार होने लगेगा । आनंद की प्राप्ति होगी और आपके जीवन के सारे कष्ट दूर होने लगेंगे।
      चींटिंयों, चिड़ियों, गिलहरियों, कबूतर, तोता, कौआ और अन्य पक्षियों के झुंड, मछलियाँ और गाय, कुत्तों आदि को नियमित दाना-पानी देने से आपको मानसिक शांति, आरोग्यता और तरक्की प्राप्त होगी।

  ग्रह-बाधा के लिए
           
सूर्य- गेहूं ,घी या पका हुआ भोजन खिलाने से सूर्य की पीड़ा दूर होती है, पित्र-दोष शांत होने लगते हैं।

चंद्र- चावल बाँटने या पानी पिलाने से चंद्र की पीड़ा और मानसिक परेशानियां दूर होकर शांति मिलती है।

मंगल-दोष- लाल गाय को गुड खिलाने से मंगल दोष कम होते हैं भाई , मित्र, और पार्टनर से सहयोग मिलता है।

बुध- मूंग की दाल और हरी घास से बुध ग्रह से होने वाली परेशानियों से निजात पाई जा सकती है। बोद्धिक विकास और है व्यापार में वृद्धि होती है।

गुरू- चने की दाल गाय को खिलाने से गुरु की कृपा प्राप्त होती है वैवाहिक, शिक्षा, संतान के सुख में लाभ मिलता है

शुक्र- पशु पक्षियों को ज्वार खिलाने से शुक्र ग्रह की पीड़ा दूर होती है सौन्दर्य,लग्जरी सुविधा,प्रेम, और कामसुख आदि प्राप्त होते हैं।

शनि- काली उर्द की दाल या उससे सरसों के तेल मिश्रित भोजन कुत्तों को खिलाने से शनि के दोष दूर होते हैं जीवन की रुकावटें दूर होती हैं।

राहु- कुंडली में यदि राहु- की परेशानी हो तो पक्षियों को बाजरा डालना चाहिए या कुत्तों का संरक्षण करना चाहिए। कौओं और कुत्तों को ग्रास देने से शनि, राहु प्रसन्न होते हैं।

केतु- मछलियों को सात प्रकार के अनाज (आटे) की गोलियां खिलाने से केतु सकारात्मक हो जाता है।

         विशेष-लाभ
1- गरीबों को नित्य भोजन बाँटने और मदद देने से धन-धान्य बढ़ता है।
2- प्रत्येक अमावस्या-पूर्णिमा को दरिद्र या विद्वान ब्राह्मण या भानजों को षठरस भोजन कराके दक्षिणा देने से पित्र-दोष, पित्र-श्राप, अनाधिकृत धनोपार्जन का दोष कम हो जाता है तथा समस्त सुख-संपदाओं की प्राप्ती होती है।

     अति-विशेष
जो भी मनुष्य नियमित भोजन से पहले पंच-ग्रास यानि गाय, कुत्ता-बिल्ली, कागा, चींटी, और  मछलियों का भोजन कराता है तो इसी जीवन में "राज-सुख" ,  वैभव , आरोग्य , सम्मान , और स्वर्ग को प्राप्त करता है।
 परन्तु ध्यान रखें ये कार्य एक-दो बार करने से उचित लाभ नहीं मिलता। श्रद्धा-विस्वास से नियमित करते रहने से ही सम्पूर्ण पाप क्षीण होकर पुण्य की वृद्धि होती है और धीरे-धीरे समस्त सुख प्राप्त होने लगते हैं। धैर्यपूर्वक करते रहें फल तो ईश्वर देगा ही।

वैदिक ज्योतिष में पित्रादि-दोष (ऋण) या श्राप की सही पहचान और निदान

"पित्र-श्राप" का सही पता सिर्फ जन्म कुण्डली देखकर ही नहीं लगाया जा सकता है, अपितु कुंंडली ना होने पर इसके अलावा प्रश्न कुंडली, हस्त-रेखा (सामुद्रिक विज्ञान),  अपराविज्ञान और शकुन शास्त्र के माध्यम से भी "पित्र दोष" का सही पता लगाया जा सकता है, परन्तु प्राय ये विधिंयाँ प्रचलन में नहीं है लुप्तप्राय सी हो गयी हैं।
मुख्य रूप से जन्म कुण्डली से ही पित्र दोष का निर्णय किया जाता है।

        चार प्रकार के प्रबल पित्र-दोष :-
           
 सूर्य.... आत्मा एवं पिता का कारक गृह है पित्र पक्ष का विचार सूर्य से होता है।
"चन्द्रमा" मन एवं माता पक्ष का कारक ग्रह है।
मंगल...  हमारे रक्त , जीन्स, परम्परा, पौरुष और बंधुत्व पक्ष का कारक ग्रह है।
 शुक्र.... भी हमारे भोग, ऐश्वर्य और स्त्री पक्ष का कारक ग्रह है।

सूर्य जब राहु- की युति में हो तो ग्रहण योग बनता है, सूर्य का ग्रहण अतः पिता या आत्मा का ग्रहण हुआ यानि पित्र-श्राप या श्रापित आत्मा। और चंद्र केतु की युति, अमावस्या दोष या चंद्र ग्रहण दोष भी एक प्रकार का पित्र दोष ही होता है क्यों कि चंद्र हमारी भोंतिक देह का कारक है।
      चार अत्यंत कष्टकर पित्र-दोष :-
 "सूर्य"- सूर्य राहू सूर्य शनी या सूर्य केतु की युति पित्र दोष का निर्माण करती है।
 "चन्द्र"-अगर राहू, केतुु , शनी या सूर्य की युति में हो तो पित्र दोष (मात्र पक्ष) होता है।
"मंगल"- मंगल भी यदि पूर्णास्त है या इन क्रूर ग्रहों से युक्त है तो भी वंशानुगत पित्र दोष होता है।
"शुक्र" या सप्तम भाव यदि सूर्य, मंगल, शनी या राहु से युक्त हो तो भी स्त्री पक्ष से पित्र श्राप बनता है।

वैसे समस्त ग्रहों के दूषित होने से कुंंडली में विभिन्न प्रकार के अन्य पित्रादि श्राप भी बन सकते हैं....
परंतु अभी हम कुछ प्रमुख पित्र दोषों (श्रापों) को समझते हैं :-

शनि सूर्य पुत्र है, यह सूर्य का नैसर्गिक शत्रु भी है, अतः शनि की सूर्य पर दर्ष्टि भी पित्र दोष उत्पन करती है। इसी पित्र दोष से जातक आदि-व्याधि-उपाधि तीनो प्रकार की पीड़ाओं से कष्ट उठाता है, उसके प्रत्येक कार्ये में अड़चनें आती रहती हैं, कोई भी कार्य सामान्य रूप से निर्विघ्न सम्पन्न नहीं होते है, दूसरे की दृष्टि में जातक सुखी-सम्पंन दिखाई तो पड़ता है, परन्तु जातक आंतरिक रूप से दुखी होता रहता है, जीवन में अनेक प्रकार के कष्ट उठाता है, कष्ट किस प्रकार के होते है इसका विचार व निर्णय सूर्य राहु की युति अथवा सूर्य शनि की दृष्टि सम्बन्ध या युति जिस भाव में हो उसी पर निर्भर करता है, कुंडली में चतुर्थ भाव नवम भाव, तथा दशम भाव में सूर्य राहु अथवा चन्द्र राहु की युति से जो पित्र दोष उतपन्न होता उसे श्रापित पितृ दोष कहते है, इसी प्रकार पंचम भाव में राहु गुरु की युति से बना गुरु चांडाल योग भी प्रबल पितृ दोष कारक होता होता है, संतान भाव में इस दोष के कारण प्रसव कष्टकारक होते हैं, आठवे या बारहवे भाव में स्थित गुरु प्रेतात्मा से पित्र दोष करता है, यदि इन भावो में राहु बुध की युति में हो तथा सप्तम, अष्टम भाव में राहु और शुक्र की युति में हो तब भी पूर्वजो के दोष से पित्र दोष होता है, यदि राहु शुक्र की युति द्वादश भाव में हो तो पित्र दोष स्त्री जातक से होता है इसका कारण भी स्पष्ट कर दें क्योंकि बारहवाँ भाव भोग एव शैया सुख का स्थान है, अतः इस भावके दूषित होने से स्त्री जातक से दोष (श्राप) होना स्वभाविक है ये अनैतिक संबंधों का कारण भी हो सकता है।
          अन्य श्रापित योग :-
1.यदि कुण्डली में  अष्टमेश राहु के नक्षत्र में तथा राहु अष्टमेश के नक्षत्र में स्थित हो तथा लग्नेश निर्वल एवं पीड़ित हो तो जातक पित्र दोष एव भूत प्रेतादि आदि से शीघ्र प्रभावित होते हैं।
2.यदि जातक का जन्म सूर्य चन्द्र ग्रहण में हो तथा घटित होने वाले ग्रहण का सम्बन्ध जातक के लग्न, षष्ट एव अष्टम भाव से बन रहा हो तो ऐसे जातक पित्र दोष,भूत प्रेत, एव आत्माओं के प्रभाव से पीड़ित रहते हैं।
3.यदि लग्नेश जन्म कुण्डली में अथवा नवमांश कुण्डली में अपनी नीच राशि में स्थित हो तथा राहु , शनि, मंगल के प्रभाव से युक्त हो तो जातक पित्र दोष, प्रेत्माओं का शिकार होता है।
4.यदि जन्म कुण्डली में अष्टमेश पंचम भाव तथा पंचमेश अष्टम भाव में स्थित हो तथा चतुर्थेश षष्ठ भाव में स्थित हो और लग्न या लग्नेश पापकर्तरी (प्रतिबंधक) योग में स्थित हो तो जातक मातृ श्राप एवं अतृप्त मात्र आत्माओं से प्रभावित होता है।
5.यदि चन्द्रमा जन्म कुण्डली अथवा नवमांश कुण्डली में अपनी नीच राशि में स्थित हो या चन्द्र एव लग्नेश का सम्बन्ध क्रूर एव पाप ग्रहो से बन रहा हो तो जातक पित्र दोष, प्रेत-वाधा, एवं
पित्रात्माओं से प्रभावित होता है।
6.यदि कुंडली में शनि एव चन्द्रमा की युति हो अथवा चन्द्रमा शनि के नक्षत्र में, अथवा शनि चन्द्रमा के नक्षत्र में स्थित हो तो जातक पित्र दोष,  एव अतृप्त आत्माओं से शीघ्र प्रभावित होता है।
7.यदि लग्नेश जन्म कुंडली में अपनी शत्रु राशि में निर्बल आव दूषित होकर स्थित हो तथा क्रूर एव पाप ग्रहो से युक्त हो तथा शुभ ग्रहो की दृष्टि लग्न भाव एव लग्नेश पर नहीं पड़ रही हो, तो जातक प्रेतात्माओं, एव पित्र दोष से पीड़ित होता है।
8.यदि जातक का जन्म कृष्ण पक्ष की अष्टमी से शुक्ल पक्ष की सप्तमी के मध्य हुआ हो और चन्द्रमा अस्त, निर्बल, एव दूषित हो, अथवा चन्द्रमा पक्षबल में निर्बल हो, तथा राहु शनि से युक्त नक्षत्र परिवर्तन योग बना रहा हो तो श्राप के कारण जातक अदृश्य रूप से मानसिक बाधाऔं का शिकार होता है।
9.यदि कुंडली में चन्द्रमा राहु के नक्षत्र में स्थित हो तथा अन्य क्रूर एव पाप ग्रहो का प्रभाव चन्द्रमा, लग्नेश, एव लग्न भाव पर हो तो जातक अतृप्त आत्माओं से प्रभावित होता है।
10.यदि कुंडली में गुरु का सम्बन्ध राहु से हो तथा लग्नेश एव लग्न भाव पापकर्तरी योग में हो तो जातक को अतृप्त आत्माए अधिक परेशान करती है ।
11.यदि बुध एव राहु में नक्षत्रीय परिवर्तन हो तथा लग्नेश निर्बल होकर अष्टम भाव में स्थित हो साथ ही लग्न एव लग्नेश पर क्रूर एव पाप ग्रहो का प्रभाव हो तो जातक अतृप्त आत्माओं से परेशान रहता है और मनोरोगी बन जाता है।
12.यदि कुंडली में अष्टमेश लग्न में स्थित हो (मेष लग्न को छोडकर अन्य लग्नों में) तथा लग्न भाव तथा लग्नेश पर अन्य क्रूर तथा पाप ग्रहो का प्रभाव हो तो जातक अतृपत आत्माओं का शिकार होता है।
13. यदि जन्म कुण्डली में राहु जिस राशि में स्थित हो उसका स्वामी निर्बल एव पीड़ित होकर अष्टम भाव में स्थित हो तथा लग्न एव लग्नेश पापकर्तरी योग में स्थित हो तो जातक ऊपरी हवा, प्रेत बाधित और आत्माओं से परेशान रहता है ।
         
 सिर्फ इतना ही नहीं और भी दूषित ग्रहों से पित्र-ऋण (श्राप) दोष भी बनते हैं जो जीवन में बहुत ही अवरोध पैदा करके नाना भाँति के कष्ट देते हैं :-
   जैसे:-
 पित्र दोष(श्राप) के कारण व प्रकार
     1- "सूर्य" से पिता, चाचा, ताऊ, दादा, परदादा, नाना, मामा, मौसा या समतुल्य पैत्रिक (पित्रपुरुस) ऋण (श्राप)।
    2-"चंद्र" से मात्र, मात्रपक्ष या मात्रतुल्य स्त्रियों के ऋण (श्राप)।
     3-"मंगल" से भाई, मित्र, स्नेही या इनके समान पित्रों का ऋण (श्राप)।
    4-"बुध" से बहन-भांजी बुआ, साली, ननद या समतुल्य का ऋण (श्राप)।
    5-"गुरू" से गुरुदेव, ब्राह्मण, महात्मा, ज्ञानीजन, शिक्षक, विद्वान, पंडित या कुल पूज्य पुरुस आदि का  ऋण (श्राप)।
     6-"शुक्र" से पत्नी, प्रेमिका अथवा शैया सुख देने वाली अन्य स्त्रियों का ऋण (श्राप)।
     7-"शनि" से सेवक, कर्मचारी, मातहत, वेटर, मजदूर, मिस्त्री, चांडाल (डोम), भिकारी, या दीन-दुखियों का ऋण (श्राप)।
    8-"राहु-केतु" से प्राकृतिक, पर्यावरण, सामाजिक, क्षेत्रपाल, देश, मात्रभूमी, सरकारी अधिकारी, कर चोरी, जाने-अन्जाने की गई हिंसा, जीवहत्या या अनैतिक व्यवहार व व्यापार के अभिश्राप (ऋण)।

 हस्त-रेखा से भी:-
भिन्न-भिन्न ग्रह पर्वतों के योग एवं पर्वतों पर पाऐ जाने वाले चिन्ह जैसे:- क्रोस, जाल, द्वीप, वलय, भंग, दाग (तिलादि), झाँई, या अन्य अशुभ चिन्हों से भी सभी प्रकार के पित्रादि दोषों (श्रापों) को सहजता से जाना जा सकता है। बस थोडे से अभ्यास की जरूरत होती है ये सब देखने के लिऐ।

पितृ दोष (श्राप) भी भांति भांति के पाऐ जाते हैं, इन्ही पित्रादि दोषो के कारण जातक को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, और शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, पारिवारिक, अकस्मात दुर्घटनाओं से परेशान रहता है, और शनै-शनै जातक का जीवन नर्क बनता जाता है, एवं कई बार तो दिखने में सम्पंन व्यक्ती भी आंतरिक तौर से पीडित होकर मृतकों जैसा जीवन जीने पर मजबूर हो सकता है और दोष की सही जानकारी ना होने पर श्रापमुक्ती के लिऐ दर-दर भटकता रहता है व तमाम तंत्र, मंत्र, रत्न , व्रत, जाप या उपाय करके भी पीडित रहता है अन्ततः वैदिक तंत्र-ज्योतिषादि को ही ढ़ोंग मान बैठता है।
        तब जाचक करें क्या:-
   एक बात ध्यान दें कि मोत के अलावा हर बीमारी का इलाज भी है हर एक श्राप, दोष, दुर्भाग्य, और पाप का प्रायश्चित कर्म-विधान व उसको करने का सही स्थान और मुहुर्त भी हमारे वैदिक शास्त्रों में बताया है एवं अत्यंत फलदायी भी होता है ये अकाट्य सत्य है वर्तमान कर्मों से ... भविष्य का लेख भी बदल सकता है।
अतः जिस तरह पित्रादि-दोष (श्राप) या ऋण कई प्रकार के होते हैं.....   उसी तरह इनके निदान (प्रायश्चित कर्म-विधान) भी देश, काल, परिस्थितियों के आधीन होकर विभिन्न तरीके से ही कराना उचित होता है।
      इसलिऐ सर्वप्रथम जाचक को... इस विषय के विषेशज्ञ व तत्वज्ञ ज्योतिषाचार्य से उचित दक्षिणा देकर सही परामर्श लेना चाहिये और तत्पश्चात उसके द्वारा बताऐ गये "स्थान व मुहुर्त" में ..... पूर्ण श्रद्धा और समर्पण भाव से इन श्रापों (दोषों) का प्रायश्चित कर्म-विधान करवाना चाहिऐ.... तथा आचार्यों द्वारा बताऐ गये नियम-संयमों का पूर्ण विस्वास से पालन करना चाहिऐ.... फिर आप देखेंगे ये दोष भी आपकी उन्नति में मील के पत्थर बन जाऐंगे।

कैसा होगा आपकी भावी पत्नी का स्वरूप


विवाह योग्य हर पुरुष को यह जानने की जिज्ञासा होती है कि उसकी होने वाली पत्नी देखने में कैसी होगी ।ज्योतिष् शास्त्र कुंडली के माध्यम से ही इसकी पूर्व सूचना दे सकता है तो जानते हैं आपकी भावी पत्नी कैसी होगी।

1 सप्तमेश  के 6वें 8वें व 12वें भाव में स्थित होकर अशुभ ग्रहों से दृष्ट होने पर पत्नी सुन्दर नही होगी ।

2 सप्तमेश एवं शुक्र के सम राशि में होने पर पत्नी सभी स्त्रियोचित गुणों से युक्त होती है।

3 सप्तमेश शुक्र के नवांश में सम राशि में होने से पत्नी सुंदर होती है।

4 यदि सप्तमेश एवं शुक्र विषम राशि व नवांश में हों तो पत्नी के स्वभाव एवं आचरण में पुरुषोचित गुण देखने को मिलेंगे।

5 सूर्य एवं चंद्र के अतिरिक्त सभी ग्रह दो राशियों के स्वामी होते हैं।यदि सप्तम भाव का स्वामी एवं कलत्र कारक शुक्र चंद्र बुध अथवा शुक्र की राशियों में हों तो पत्नी स्वभाव एवं आचरण में पुरुषोचित गुणों से युक्त होगी ।

6 यदि सप्तमेश एवं शुक्र पुरुष ग्रह की राशियों में उसमें से भी विषम राशियों में तो पत्नी में पुरुषोचित गुणों की अधिकता होगी।

7 यदि सप्तमेश एवं शुक्र जन्मचक्र एवं नवमांश में सम राशियों में हो तो पत्नी सुंदर होगी।सप्तमेश के स्त्री ग्रह होने पर सुंदरता में और वृद्धि होगी ।

8 सप्तमेश यदि सम राशि एवं सम नवांश मे स्थित है उसका संबंध यदि स्त्री ग्रह से हो तो पत्नी ने अत्यधिक सुंदर होगी।

9 यदि सप्तमेश एवं शुक्र शुभ स्थान में हों अथवा सप्तम भाव में स्त्री ग्रह हो एवं किसी भी अशुभ ग्रह से दृष्ट न हो तो पत्नी अप्रतिम सुंदरी होगी।

10 पति के मामले में पति कारक गुरु एवं सम की जगह विषम राशि नवांश व विषम स्थान पर विचार किया जाएगा।

सोमवार, 25 जून 2018

प्रसासनिक अधिकारी या सिविल सर्विसिस में सफलता के ज्योतिष योग

प्रत्येक उच्च शिक्षित व्यक्ति एक अच्छे पद को पाने का इच्छुक होता है।।
 परंतु जन्मकुंडली में बनी भिन्न–भिन्न ग्रहस्थितियों के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति की रुचि या इच्छा अलग अलग क्षेत्रों में अपना करियर बनाने की होती है। जहाँ कुछ तकनीकी क्षेत्रों से जुड़ते हैं, कुछ रचनात्मक कार्यों से तो प्रशासनिक  कार्यों से।

“ज्योतिषीय दृष्टि में “मंगल” और “सूर्य” को प्रशासनिक  पद या प्रशासनिक  अधिकारों और कार्यों का कारक माना गया है इसके अतिरिक्त बृहस्पति की यहाँ सहायक भूमिका होती है। मंगल को हिम्मत, शक्ति, पराक्रम, उत्साह, रणनीति, स्पर्धा और कानून व्यवस्था, पुलिस और नियमव्यवस्था  का कारक माना गया है  अतः एक प्रशासनिक  अधिकारी में जिन गुणों का उपस्थित होना आवश्यक है वह सब मंगल के अन्तर्गत आते हैं इसी प्रकार सूर्य को सरकार, सरकारी कार्य, प्रसासन और प्रशासनिक  कार्यों का कारक माना गया है और सूर्य ही व्यक्ति को सरकारी कार्य से जोड़ने में अपनी अहम भूमिका निभाता है इसके अलावा बृहस्पति व्यक्ति को ज्ञान के साथ साथ परिस्थिति और व्यवस्था को मैनेज करने की प्रतिभा देता है अतः निष्कर्षतः मंगल व्यक्ति में व्यक्ति में पराक्रम, उत्साह, बल और  निर्भयता को देकर आईपीएस जैसे पुलिस अधिकारी बनने में सहायक होता है तो वहीँ बृहस्पति की अच्छी स्थिति व्यक्ति में आईएएस, जैसे प्रशासनिक  अधिकारी बनने की प्रतिभा देता है तथा  सूर्य व्यक्ति को सरकार और प्रसासन से जोड़ने का कार्य करता है इसके अलावा आईपीएस और आईएएस दोनों ही क्षेत्रों में शिक्षा बौद्धिक क्षमता और कॉम्पटीशन की बड़ी अहम भूमिका होती है इसलिए यहाँ बुद्धि कारक बुध, ज्ञान और शिक्षा कारक बृहस्पति तथा कॉम्पटीशन के कारक छटे भाव का भी अच्छी स्थिति में होना आवश्यक है, बलवान बुध और बृहस्पति  व्यक्ति को अच्छी बौद्धिक क्षमता देते हैं तो कुंडली के छटे भाव का बली होना व्यक्ति में कॉम्पटीशन की क्षमता देकर सिविल सर्विसिस में आगे बढ़ने का मार्ग प्रसस्त करता है, आईपीएस के लिए मंगल, सूर्य और बृहस्पति में से भी मंगल की अधिक भूमिका होती है तथा आईएएस के लिए सूर्य और बृहस्पति की अधिक भूमिका होती है।  जिन लोगो की कुंडली में पंचम भाव, बुध और छटा भाव बलि होते हैं उन्हें सिविल सर्विसिस की परीक्षाओं या कॉम्पटीशन में जल्दी सफलता मिलती है और इन घटकों के कमजोर होने पर संघर्ष और विलम्ब का सामना करना पड़ता है।

कुछ विशेष योग –

1 यदि मंगल स्व या उच्च राशि (मेष, वृश्चिक, मकर) में शुभ स्थान में हो तो आईपीएस में सफलता देता है।
2 मंगल बली होकर दशम भाव में स्थित हो या मंगल की दशम भाव पर दृष्टि हो तो आईपीएस का योग बनता है।
3 मंगल यदि बली होकर शनि से पाचवे या नवे भाव में हो तो भी आईपीएस में जाने का योग बनता है।
4 सूर्य स्व उच्च राशि (सिंह, मेष) में होकर शुभ स्थानों में हो तो उच्च प्रशासनिक सेवा से जोड़ता है।
5 सूर्य का दशम भाव में होना या दशम भाव को देखना भी प्रसासन से जोड़ता है।
6 यदि सूर्य मंगल का योग मेष राशि में हो तो आईपीएस अधिकारी बनने में सफलता मिलती है।
7 सूर्य और बृहस्पति का योग हो और मंगल शुभ भाव में बली होने पर भी आईएएस में सफलता देता है।
8 बृहस्पति यदि स्व उच्च राशि (धनु, मीन,कर्क) में होकर केंद्र त्रिकोण में हो और सूर्य भी शुभ स्थिति में हो तो आईएएस में सफलता दिलाता है।
9 सूर्य और बृहस्पति का योग लग्न में होना भी आईएएस के क्षेत्र की सफलता देता है।
10 कुंडली में बुधादित्य योग शुभ स्थान में बनना मेष,मिथुन, सिंह और कन्या राशि में बनना भी सिविल सर्विसिस के कॉम्पटीशन में सफलता दिलाता है।

विशेष – जैसा की हमने यहाँ स्पष्ठ किया के मंगल, बृहस्पति और सूर्य को सिविल सर्विसिस के लिए मुख्य कारक ग्रह माना गया है पर बिना सूर्य के अच्छी स्थिति में हुए सरकारी सेवा का योग नहीं बनता अतः सिविल सर्विस में जाने के लिए मंगल और सूर्य दोनों ही अच्छी स्थिति में होने चाहियें इसके अतिरिक्त किस व्यक्ति को इस क्षेत्र में कितनी जल्दी या किस स्तर की सफलता मिलेगी यह किसी भी व्यक्ति की अपनी कुंडली पर निर्भर करता है क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति की कुंडली में ग्रहस्थिति भिन्न होती है, उदाहरण के लिए यदि किसी व्यक्ति की कुंडली में पंचम भाव बुध और बृहस्पति कमजोर होने से उसकी शिक्षा ही अच्छी नहीं रही तो फिर मंगल बलवान होने पर भी वह सिविल सर्विस में सफल कैसे हो सकता है क्योंकि अच्छी शिक्षा के बिना तो इस क्षेत्र में आगे बढ़ना संभव ही नहीं है इसी प्रकार दो अलग अलग व्यक्तियों की कुंडली में आजीविका का स्तर भी भिन्न भिन्न होने पर कोण किस स्तर तक उन्नति करेगा यह व्यक्ति की व्यक्तिगत कुंडली की क्षमता पर निर्भर करता है। मंगल की प्रधानता विशेषकर आईपीएस की और तथा बृहस्पति की प्रधानता आईएएस की और सफलता दिलाती है पर सूर्य की यहाँ बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका है जो दोनों ही क्षेत्रों में महत्वपूर्ण है जिन लोगो की कुंडली में सूर्य नीच राशि में हो राहु से पीड़ित हो या अन्य प्रकार कमजोर हो ऐसे व्यक्तियों को सिविल सर्विसिस में आसानी से सफलता नहीं मिलती इसी प्रकार कुंडली का छटा भाव भी यदि पीड़ित हो तो व्यक्ति बहुत बार कॉम्पटीशन में सफल ना होने के कारण इस क्षेत्र में आगे नहीं बढ़ पाता अतः सूर्य और छटे भाव का बली होना भी सिविल सर्विसिस के लिए बहुत आवश्यक है।
यदि आप बारम्बार इन परीक्षाओं में असफल हो रहे है तो कि योग्य ज्योतिषाचार्य से परामर्श लेकर कुछ उपाय करने पर सफल भी हो सकते हैं।।

गुरुवार, 7 जून 2018

जन्म पत्री मृतक की है या जीवित की, ज्ञात करने की विधि

जन्म पत्री मृतक की है या जीवित की, अर्थात कुंडली देख कर ये ज्ञात करना कि जातक जिन्दा है या मर चूका :

इसमें जन्म लग्न, अष्टम स्थान की राशि और प्रश्न लग्न इन तीनो की संख्या को जोड़ कर जन्मकुंडली के अष्टमेश की राशि संख्या से गुणा कर के लग्नेश की राशि संख्या से भाग देने पर विषम अंक - 1,3,5,7,9,11 शेष रहे तो जीवित की और सम अंक - 2,4,6,8,10,12 शेष रहे तो मृतक की जन्म पत्रिका होती है।

उदहारण : प्रश्न लग्न तुला, जन्म लग्न मीन और अष्टमेश की राशि 9, लग्नेश की राशि 5

7 (प्रश्न लग्न) + 12 (जन्म लग्न) + 7 ( अष्टम स्थान की राशि ) = 26 × 9 ( अष्टमेश की राशि ) = 234 ÷ 5 ( लग्नेश की राशि ) = 46 लब्ध 4 शेष ।

अतएव मृतक की जन्म पत्रिका है ।

नोट : ये विधि श्री नेमीचंद शास्त्री जी द्वारा लिखी हुई पुस्तक " भारतीय ज्योतिष" में बताई गई है ।

सोमवार, 4 जून 2018

लग्नेश के नवांश से मृत्यु और रोग का अनुमान

1- मेष नवांश हो तो
ज्वर,ताप जठराग्नि तथा पित्तदोष से मृत्यु हो।
2- वृष नवांश हो तो
दमा,शूल त्रिदोषादि, ऐपेंडिसाइटिस से मृत्यु हो।
3- मिथुन नवांश हो तो सिर वेदना।
4- कर्क नवांश हो तो
वात रोग व उन्माद से मृत्यु हो।
5- सिंह नवांश हो तो
विस्फोटकादि, घाव, विष, शस्त्राघात और ज्वर से मृत्यु।
6- कन्या नवांश हो तो
गुह्य रोग, जठराग्नि विकार से मृत्यु हो।
7- तुला नवांश में  हो तो
शोक, बुद्धि दोष, चतुष्पद के आघात से मृत्यु हो।
8- वृश्चिक नवांश में
पत्थर अथवा शस्त्र चोट से, पाण्डु ग्रहणी वेग से।
9- धनु नवांश में
गठिया, विष शस्त्राघात से मृत्यु हो।
10- मकर नवांश में
व्याघ्र, शेर,पशुओं से घात, शूल, अरुचि रोग से मृत्यु।
11- कुंभ नवांश में
स्त्री से विष पान श्वांस तथा ज्वर से मृत्यु हो।
12- मीन नवांश में
जल से तथा संग्रहणी रोग से मृत्यु हो सकती है।

गुरुवार, 31 मई 2018

ज्योतिष और मानसिक रोग ( कारण और निवारण)

मानसिक बीमारी होने के बहुत से कारण होते हैं, इन कारणों का ज्योतिषीय आधार क्या है, इसकी जानकारी के लिये कुंडली के उन योगों का अध्ययन करेंगे जिनके आधार पर मानसिक बिमारियों का पता चलता है।
मानसिक बीमारी में चंद्रमा, बुध, चतुर्थ भाव व पंचम भाव का आंकलन किया जाता है। चंद्रमा मन है, बुध से बुद्धि देखी जाती है और चतुर्थ भाव भी मन है तथा पंचम भाव से बुद्धि देखी जाती है। जब व्यक्ति भावुकता में बहकर मानसिक संतुलन खोता है तब उसमें पंचम भाव व चंद्रमा की भूमिका अहम मानी जाती है। सेजोफ्रेनिया बीमारी में चतुर्थ भाव की भूमिका मुख्य मानी जाती है। शनि व चंद्रमा की युति भी मानसिक शांति के लिए शुभ नहीं मानी जाती है। मानसिक परेशानी में चंद्रमा पीड़ित होना चाहिए।

1- जन्म कुंडली में चंद्रमा अगर राहु के साथ है तब व्यक्ति को मानसिक बीमारी होने की संभावना बनती है क्योकि राहु मन को भ्रमित रखता है और चंद्रमा मन है. मन के घोड़े बहुत ज्यादा दौड़ते हैं. व्यक्ति बहुत ज्यादा हवाई किले बनाता है।

2- यदि जन्म कुंडली में बुध, केतु और चतुर्थ भाव का संबंध बन रहा है और यह तीनों अत्यधिक पीड़ित हैं तब व्यक्ति में अत्यधिक जिदपन हो सकती है और वह सेजोफ्रेनिया का शिकार हो सकता है. इसके लिए बहुत से लोगों ने बुध व चतुर्थ भाव पर अधिक जोर दिया है।

3- जन्म कुंडली में गुरु लग्न में स्थित हो और मंगल सप्तम भाव में स्थित हो या मंगल लग्न में और सप्तम में गुरु स्थित हो तब मानसिक आघात लगने की संभावना बनती है।

4- जन्म कुंडली में शनि लग्न में और मंगल पंचम भाव या सप्तम भाव या नवम भाव में स्थित हो तब मानसिक रोग होने की संभावना बनती है।

5- कृष्ण पक्ष का बलहीन चंद्रमा हो और वह शनि के साथ 12वें भाव में स्थित हो तब मानसिक रोग की संभावना बनती है. शनि व चंद्र की युति में व्यक्ति मानसिक तनाव ज्यादा रखता है।

6- जन्म कुंडली में शनि लग्न में स्थित हो, सूर्य 12वें भाव में हो, मंगल व चंद्रमा त्रिकोण भाव में स्थित हो तब मानसिक रोग होने की संभावना बनती है।

7- जन्म कुंडली में मांदी सप्तम भाव में स्थित हो और अशुभ ग्रह से पीड़ित हो रही हो।

8- राहु व चंद्रमा लग्न में स्थित हो और अशुभ ग्रह त्रिकोण में स्थित हों तब भी मानसिक रोग की संभावना बनती है।

9- मंगल चतुर्थ भाव में शनि से दृष्ट हो या शनि चतुर्थ भाव में राहु/केतु अक्ष पर स्थित हो तब भी मानसिक रोग होने की संभावना बनती है।

10- जन्म कुंडली में शनि व मंगल की युति छठे भाव या आठवें भाव में हो रही हो।

11- जन्म कुंडली में बुध पाप ग्रह के साथ तीसरे भाव में हो या छठे भाव में हो या आठवें भाव में हो या बारहवें भाव में स्थित हो तब भी मानसिक रोग होने की संभावना बनती है।

12- यदि चंद्रमा की युति केतु व शनि के साथ हो रही हो तब यह अत्यधिक अशुभ माना गया है और अगर यह अंशात्मक रुप से नजदीक हैं तब मानसिक रोग होने की संभावना अधिक बनती है।

13- जन्म कुंडली में शनि और मंगल दोनो ही चंद्रमा या बुध से केन्द्र में स्थित हों तब मानसिक रोग होने की संभावना बनती है।

मिरगी होने के जन्म कुंडली में लक्षणइसके लिए चंद्र तथा बुध की स्थिति मुख्य रुप से देखी जाती है. साथ ही अन्य ग्रहों की स्थिति भी देखी जाती है।

1- शनि व मंगल जन्म कुंडली में छठे या आठवें भाव में स्थित हो तब व्यक्ति को मिरगी संबंधित बीमारी का सामना करना पड़ सकता है।

2- कुंडली में शनि व चंद्रमा की युति हो और यह दोनो मंगल से दृष्ट हो।

3- जन्म कुंडली में राहु व चंद्रमा आठवें भाव में स्थित हों।


मानसिक रुप से कमजोर बच्चे अथवा मंदबुद्धि बच्चे

जन्म के समय लग्न अशुभ प्रभाव में हो विशेष रुप से शनि का संबंध बन रहा हो. यह संबंध युति, दृष्टि व स्थिति किसी भी रुप से बन सकता है।

1- शनि पंचम से लग्नेश को देख रहा हो तब व्यक्ति जन्म से ही मानसिक रुप से कमजोर हो सकता है।

2- जन्म के समय बच्चे की कुण्डली में शनि व राहु पंचम भाव में स्थित हो, बुध बारहवें भाव में स्थित हो और पंचमेश पीड़ित अवस्था में हो तब बच्चा जन्म से ही मानसिक रुप से कमजोर हो सकता है।

3- पंचम भाव, पंचमेश, चंद्रमा व बुध सभी पाप ग्रहों के प्रभाव में हो तब भी बच्चा जन्म से ही मानसिक रुप से कमजोर हो सकता है।

4- जन्म के समय चंद्रमा लग्न में स्थित हो और शनि व मंगल से दृष्ट हो तब भी व्यक्ति मानसिक रुप से कमजोर हो सकता है।

5- पंचम भाव का राहु भी व्यक्ति की बुद्धि को भ्रष्ट करने का काम करता है, बुद्धि अच्छी नहीं रहती है।

मेरे विचार से  मानसिक बीमारियों  के निवारण हेतु  बुध को  बल प्रदान करना सर्वथा उपयुक्त होगा । ऐसे व्यक्ति को पन्ना रत्न की अंगूठी चाँदी  में बनवाकर दाहिने हाथ की कनिष्ठा अंगुली में  धारण करना चाहिए । कुछ विशेष परिस्थितिओं  में गले में भी धारण किया जा सकता है । पन्ना का भष्म  आदि भी खिलाना लाभप्रद होगा । प्रज्ञा मन्त्र का अनुष्ठान एवं अपामार्ग की लता से हवन भी  कराना चाहिए।

कालसर्प दोष भंग करने के लिए दैनिक छोटे उपाय

1 108 राहु यंत्रों को जल में प्रवाहित करें।
2 सवा महीने जौ के दाने पक्षियों को खिलाएं।
3 शुभ मुहूर्त में मुख्य द्वार पर अष्टधातु या चांदी का स्वस्तिक लगाएं और उसके दोनों ओर धातु निर्मित नाग.।
4 अमावस्या के दिन पितरों को शान्त कराने हेतु दान आदि करें तथा कालसर्प योग शान्ति पाठ कराये।
5 शुभ मुहूर्त में नागपाश यंत्रा अभिमंत्रित कर धारण करें और शयन कक्ष में बेडशीट व पर्दे लाल रंग के प्रयोग में लायें।
6. हनुमान चालीसा का 108 बार पाठ करें और मंगलवार के दिन हनुमान पर सिंदूर, चमेली का तेल व बताशा चढ़ाएं।.
7 शनिवार को पीपल पर शिवलिंग चढ़ाये व मंत्र जाप करें (ग्यारह शनिवार )
8 सवा महीने देवदारु, सरसों तथा लोहवान - इन तीनों को जल में उबालकर उस जल से स्नान करें।
9 काल सर्प दोष निवारण यंत्रा घर में स्थापित करके उसकी नित्य प्रति पूजा करें ।
10 सोमवार को शिव मंदिर में चांदी के नाग की पूजा करें, पितरों का स्मरण करें तथा श्रध्दापूर्वक बहते पानी में नागदेवता का विसर्जन करें।
11 श्रावण मास में 30 दिनों तक महादेव का अभिषेक करें।
12 प्रत्येक सोमवार को दही से भगवान शंकर पर - हर हर महादेव' कहते हुए अभिषेक करें। हर रोज श्रावण के महिने में करें।
13. सरल उपाय- कालसर्प योग वाला युवा श्रावण मास में प्रतिदिन रूद्र-अभिषेक कराए एवं महामृत्युंजय मंत्र की एक माला रोज करें।
14 यदि रोजगार में तकलीफ आ रही है अथवा रोजगार प्राप्त नहीं हो रहा है तो पलाश के फूल गोमूत्र में डूबाकर उसको बारीक करें। फिर छाँव में रखकर सुखाएँ। उसका चूर्ण बनाकर चंदन के पावडर में मिलाकर शिवलिंग पर त्रिपुण्ड बनाएँ। 41 दिन दिन में नौकरी अवश्य मिलेगी।.
15 शिवलिंग पर प्रतिदिन मीठा दूध उसी में भाँग डाल दें, फिर चढ़ाएँ इससे गुस्सा शांत होता है, साथ ही सफलता तेजी से मिलने लगती है।
16 किसी शुभ मुहूर्त में ओउम् नम: शिवाय' की 21 माला जाप करने के उपरांत शिवलिंग का गाय के दूध से अभिषेक करें और शिव को प्रिय बेलपत्रा आदि श्रध्दापूर्वक अर्पित करें। साथ ही तांबे का बना सर्प शिवलिंग पर समर्पित करें।
17 शत्रु से भय है तो चाँदी के अथवा ताँबे के सर्प बनाकर उनकी आँखों में सुरमा लगा दें, फिर शिवलिंग पर चढ़ा दें, भय दूर होगा व शत्रु का नाश होगा।
18 यदि पति-पत्नी या प्रेमी-प्रेमिका में क्लेश हो रहा हो, आपसी प्रेम की कमी हो रही हो तो भगवान श्रीकृष्ण की मूर्ति या बालकृष्ण की मूर्ति जिसके सिर पर मोरपंखी मुकुट धारण हो घर में स्थापित करें एवं प्रतिदिन उनका पूजन करें एवं ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय नम: शिवाय का यथाशक्ति जाप करे। कालसर्प योग की शांति होगी।
19 किसी शुभ मुहूर्त में मसूर की दाल तीन बार गरीबों को दान करें।
20 किसी शुभ मुहूर्त में सूखे नारियल के फल को बहते जल में तीन बार प्रवाहित करें तथा किसी शुभ मुहूर्त में शनिवार के दिन बहते पानी में तीन बार कोयला भी प्रवाहित करें
21 मंगलवार एवं शनिवार को रामचरितमानस के सुंदरकाण्ड का 108 बार पाठ श्रध्दापूर्वक करें।
22 महामृत्युंजय कवच का नित्य पाठ करें और श्रावण महीने के हर सोमवार का व्रत रखते हुए शिव का रुद्राभिषेक करें।
23 मंगलवार एवं शनिवार को रामचरितमानस के सुंदरकाण्ड का 108 बार पाठ श्रध्दापूर्वक करें।
24 86 शनिवार का व्रत करें और राहु,केतु व शनि के साथ हनुमान की आराधना करें। शनिवार को श्री शनिदेव का तैलाभिषेक करें
25 नव नाग स्तोत्रा का एक वर्ष तक प्रतिदिन पाठ करें।
26 प्रत्येक बुधवार को काले वस्त्रों में उड़द या मूंग एक मुट्ठी डालकर, राहु का मंत्रा जप कर भिक्षाटन करने वाले को दे दें। यदि दान लेने वाला कोई नहीं मिले तो बहते पानी में उस अन्न हो प्रवाहित करें। 72 बुधवार तक करने से अवश्य लाभ मिलता है।
27 कालसर्प योग हो और जीवन में लगातार गंभीर बाधा आ रही हो तब किसी विद्वान ब्राह्मण से राहु और केतु के मंत्रों का जप कराया जाना चाहिए और उनकी सलाह से राहु और केतु की वस्तुओं का दान या तुलादान करना चाहिए।)-
28 शिव के ही अंश बटुक भैरव की आराधना से भी इस दोष से बचाव हो सकता है।
29 प्रथम पूज्य शिव पुत्र श्री गणेश को विघ्रहर्ता कहा जाता है। इसलिए कालसर्प दोष से मुक्ति के लिए गणेश पूजा भी करनी चाहिए।
30-पुराणों में बताया गया है कि भगवान श्री कृष्ण ने कालिय नाग का मद चूर किया था। इसलिए इस दोष शांति के लिए श्री कृष्ण की आराधना भी श्रेष्ठ है।
31विद्यार्थीजन सरस्वती जी के बीज मंत्रों का एक वर्ष तक जाप करें और विधिवत उपासना करें।
32 एक वर्ष तक गणपति अथर्वशीर्ष का नित्य पाठ करें
33 नागपंचमी के दिन दूध-जलेबी का दान करें।
34 लाल रंग के कपडे की छोटी थैली में खांड या सौंठ भरकर अपने पास रखें
35 चांदी का ठोस हाथी घर में रखें।
36 रसोईघर में ही भोजन करें।
37 प्रत्येक शनिवार जलेबी का दान करें।
38 किसी शुभ मुहूर्त में मसूर की दाल तीन बार गरीबों को दान करें।
39 सवा महीने जौ के दाने पक्षियों को खिलाने के बाद ही कोई काम प्रारंभ करें।
40 काल सर्प दोष निवारण यंत्रा घर में स्थापित करके उसकी नित्य प्रति पूजा करें और भोजनालय में ही बैठकर भोजन करें अन्य कमरों में नहीं।
41 किसी शुभ मुहूर्त में नागपाश यंत्रा अभिमंत्रित कर धारण करें और शयन कक्ष में बेडशीट व पर्दे लाल रंग के प्रयोग में लायें।
42 काले और सफेद तील बहते जल में प्रवाह करें। किसी भी मंदिर में केले का दान करें।
43 शुभ मुहूर्त में मुख्य द्वार पर अष्टधातु या चांदी का स्वस्तिक लगाएं और उसके दोनों ओर धातु निर्मित नाग चिपका दें तथा एक बार देवदारु, सरसों तथा लोहवान इन तीनों को उबाल कर स्नान करें।
44 सोने की चेन पहनें।
45 सरस्वती का पूजन नीले पुष्पों से करें।
46 कन्या तथा बहन को उपहार देते रहें।
47 किसी शुभ मुहूर्त में ओउम् नम: शिवाय' की 11 माला जाप करने के उपरांत शिवलिंग का गाय के दूध से अभिषेक करें और शिव को प्रिय बेलपत्रा आदि सामग्रियां श्रध्दापूर्वक अर्पित करें। साथ ही तांबे का बना सर्प विधिवत पूजन के उपरांत शिवलिंग पर समर्पित करें।
48 हनुमान चालीसा का 108 बार पाठ करें और मंगलवार के दिन हनुमान जी की प्रतिमा पर लाल वस्त्रा सहित सिंदूर, चमेली का तेल व बताशा चढ़ाएं।
49 अपने गले में सोमवार, मंगलवार और शनिवार के दिन लाल धागे में 8 मुखी 2 दानें रुद्राक्ष, 9 मुखी 2 दानें रुद्राक्ष और 12 मुखी 3 दानें रुद्राक्ष धारण करें। कष्टों से अवश्य छुटकारा मिलेगा।

बुधवार, 30 मई 2018

चोरी गया सामान ज्ञात करना

कोई भी सामान खोना/चोरी होना आज
के समय मे सामान्य बात है। अंक विद्या में गुम हुई वस्तु के बारे में प्रश्र किया जाए तो उसका जवाब बहुत हद तक सच साबित होता है।

जैसे
सर्व प्रथम आप 1 से 108 के बीच का एक अंक मन मे सोचे।
और उस अंक को 9 से भाग दें। शेष जो अंक आये तो आगे लिखे अनुसार उसका
उत्तर होगा।

 शेष अंक 1 ( सूर्य का अंक है )
पूर्व में मिलने की आशा है।

शेष अंक 2 ( चंद्र का अंक है )
वस्तु किसी स्त्री के पास होने की
आशा है पर वापस नहीं मिलेगी।

शेष अंक 3 ( गुरु का अंक है )
वस्तु वापिस मिल जायेगी। मित्रों और परिवार के लोगों से पूछें।

शेष अंक 4 ( राहु का अंक है )
ढूढ़ने का प्रयास व्यर्थ है। वस्तु आप की
लापरवाही से खोई है।

शेष अंक 5 ( बुध का अंक है )
आप धैर्य रखें वस्तु वापस मिलने की आशा है।

शेष अंक 6 ( शुक्र का अंक है )
वस्तु आप किसी को देकर भूल गए हैं।
घर के दक्षिण पूर्व या रसोई घर में ढूंढने की कोशिश करें।

शेष अंक 7 ( केतु का अंक है )
चिंता न करें खोई वस्तु मिल जायेगी।

शेष अंक 8 ( शनि का अंक है )
खोई वस्तु मिलने की आशा नहीं है। वस्तु को भूल जाएँ तो अच्छा है।

शेष अंक 9 या 0 ( मंगल का अंक है )
यदि खोई वस्तु आज मिल गई तो ठीक अन्यथा मिलने की कोई आशा नहीं है।

उदाहरण :- के लिए अगर प्रश्नकर्ता ने 83 अंक कहा है तो 83 को 9 से भाग दें
83÷9 = 2
शेष आया 2 जो चंन्द्र का अंक है।

वस्तु किसी स्त्री के पास है पर वापस प्राप्त नही होगीl खोये सामान की जानकारी मिलेगी अथवा नहीं मिलेगी? इसके लिए सभी नक्षत्रों को चार बराबर भागों में बाँट दिया गया है. एक भाग में सात नक्षत्र आते हैं. उन्हें अंध, मंद, मध्य तथा सुलोचन नाम दिया गया है. इन नक्षत्रों के अनुसार चोरी की वस्तु का दिशा ज्ञान तथा फल ज्ञान के विषय में जो जानकारी प्राप्त होती है वह एकदम सटीक होती है.

 नक्षत्रों का लोचन ज्ञान

अंध लोचन नक्षत्र :-
रेवती, रोहिणी, पुष्य, उत्तराफाल्गुनी, विशाखा, पूर्वाषाढा़, धनिष्ठा.

मंद लोचन नक्षत्र :-
अश्विनी, मृगशिरा, आश्लेषा, हस्त, अनुराधा, उत्तराषाढा़, शतभिषा.

मध्य लोचन नक्षत्र:-
भरणी, आर्द्रा, मघा, चित्रा, ज्येष्ठा, अभिजित, पूर्वाभाद्रपद.

  सुलोचन नक्षत्र नक्षत्र :-
कृतिका, पुनर्वसु, पूर्वाफाल्गुनी, स्वाति, मूल, श्रवण, उत्तराभाद्रपद.

यदि वस्तु अंध लोचन में खोई है तो वह पूर्व दिशा में शीघ्र मिल जाती है.

 यदि वस्तु मंद लोचन में गुम हुई है तो वह दक्षिण दिशा में होती है और गुम होने के 3-4 दिन बाद कष्ट से मिलती है.

यदि वस्तु मध्य लोचन में खोई है तो वह पश्चिम दिशा की ओर होती है और एक गुम होने के एक माह बाद उस वस्तु की जानकारी मिलती है. ढा़ई माह बाद उस वस्तु के मिलने की संभावना बनती है.

यदि वस्तु सुलोचन नक्षत्र में गुम हुई है तो वह उत्तर दिशा की ओर होती है. वस्तु की ना तो मिलती है।

  गुम वस्तु की प्राप्ति हेतु दिव्य मंत्र

जीवन में भूलना, गुमना, चले जाना, बलात ले लेना अथवा लेने के बाद कोई भी वस्तु वापस नहीं मिलना ऐसी घटनाएं स्वाभाविक रूप से घटि‍त होती रहती है।
यदि आप का कोई भी सामान खो गया है या मिल नही रहा तो अपने पूजाघर मे एक देशी घी का दीपक लगाकर पूर्व अथवा उत्तर दिशा की ओर मुंह करके बैठें। अपनी गुम वस्तु की कामना को उच्चारण कर भगवान विष्‍णु के सुदर्शन चक्रधारी रूप का ध्यान करें इस मंत्र का विश्वासपूर्वक जप 1008 बार करें।इससे गुम हुई वस्तु एवं अपना फसा धन प्राप्ति होने की सम्भावना प्रबल हो जाती है।

मंत्र :- ॐ ह्रीं कार्तविर्यार्जुनो नाम राजा बाहु सहस्त्रवान।
यस्य स्मरेण मात्रेण ह्रतं नष्‍टं च लभ्यते।

रविवार, 13 मई 2018

ग्रहों की दृष्टियाँ

 ग्रहों की दृष्टि कौन-कौन सी है क्या सभी ग्रह अपने स्थान से सप्तम स्थान को और गुरु सप्तम के अलावा पंचम और नवम, मंगल चतुर्थ व अष्टम, शनि तृतीय व दशम को स्थान को देखते हैं अन्य किसी स्थान को नही?

चलिए चर्चा करते हैं कि कौन ग्रह अपने स्थान से किन-किन भावों को व कितनी दृष्टि से देखते हैं:-

ग्रहों की दृष्टियाँ:-

सभी ग्रह अपने स्थान से (स्थित भाव स्थान से) तृतीय व दशम स्थान पर एक पाद मतलब चतुर्थांश मतलब २५% की दृष्टि से देखते हैं इसी प्रकार सभी ग्रह नवम व पंचम स्थान को द्विपाद अर्थात आधी दृष्टि मतलब ५०% दृष्टि से, चतुर्थ व अष्टम स्थान को त्रिपाद अर्थात तीन चौथाई मतलब ७५% दृष्टि से एवं सप्तम स्थान को पूर्ण दृष्टि मतलब १००% अर्थात संपूर्ण दृष्टि से देखते हैं।

यह पाद वृद्धिक्रम से दृष्टि ग्रह दृष्टिफल को भी क्रमशः चतुर्थांश फल, अर्द्ध फल, तीन चौथाई व पूर्ण फल प्रदान करते हैं अर्थात ३-१० स्थान में ग्रह दृष्टि से १/४ फल, ५-९ स्थान में १/२ फल, ४-८ स्थान में ३/४ फल व ७ स्थान में ग्रह पूर्ण दृष्टि से पूर्ण फल प्राप्त होता है।

विशेष दृष्टि:-

शनि अपने स्थान से ३, १० स्थान पर पूर्ण दृष्टि करता है, गुरु अपने स्थान से ५, ९ स्थान पर पूर्ण दृष्टि करता है, मंगल अपने स्थान से ४, ८ स्थान पर पूर्ण दृष्टि करता है और सूर्य, चंद्र, बुध व शुक्र अपने स्थान से कलत्र स्थान (७ स्थान) पर पूर्ण दृष्टि करते हैं।

लग्नानुसार भाग्योदय वर्ष

कुंडली में बारह भाव होते हैं और ये 12 राशियों (मेष, वृष, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुंभ और मीन) का प्रतिनिधित्व करते हैं। कुंडली का प्रथम भाव यानी कुंडली के केंद्र स्थान में पहला घर जिस राशि का होता है, उसी राशि के अनुसार कुंडली का लग्न निर्धारित होता है। लग्न के आधार पर कुंडलियां बारह प्रकार की होती हैं।

अपनी कुंडली का पहला भाव यानी लग्न देखिए और यहां जानिए किस-किस उम्र में आपका भाग्योदय हो सकता है...       
                                                                         मेष लग्न की कुंडली:
जिन लोगों की कुंडली मेष लग्न की है, सामान्यत: उनका भाग्योदय 16 वर्ष की आयु में या 22 वर्ष की आयु, 28 वर्ष की आयु, 32 वर्ष की आयु या 36 वर्ष की आयु में हो सकता है।

वृष लग्न की कुंडली:
जिन लोगों की कुंडली वृष लग्न की है, उनका भाग्योदय 25 वर्ष की आयु, 28 वर्ष की आयु, 36 वर्ष की आयु या 42 वर्ष की आयु में भाग्योदय हो सकता है।

मिथुन लग्न की कुंडली:
मिथुन लग्न की कुंडली वाले लोगों का भाग्योदय करने वाली आयु है 22 वर्ष, 32 वर्ष, 35 वर्ष, 36 वर्ष या 42 वर्ष। इन वर्षों में मिथुन राशि के लोगों का भाग्योदय हो सकता है।

कर्क लग्न की कुंडली:
जिन लोगों की कुंडली कर्क लग्न की है, उनका भाग्योदय 16 वर्ष की आयु, 22 वर्ष की आयु, 24 वर्ष की आयु, 25 वर्ष की आयु, 28 वर्ष की आयु या 32 वर्ष की आयु में हो सकता है।

सिंह लग्न की कुंडली:
जिन लोगों की कुंडली सिंह लग्न की है, उनका भाग्योदय 16 वर्ष की आयु में, 22 वर्ष की आयु में, 24 वर्ष की आयु में, 26 वर्ष की आयु में, 28 वर्ष की आयु में या 32 वर्ष की आयु में हो सकता है।

कन्या लग्न की कुंडली:
कन्या लग्न की कुंडली वाले लोगों का भाग्योदय इन आयु वर्ष में हो सकता है- 16 वर्ष, 22 वर्ष, 25 वर्ष, 32 वर्ष, 33 वर्ष, 35 वर्ष या 36 वर्ष।

तुला लग्न की कुंडली:
जिन लोगों की कुंडली तुला लग्न की है, उनके भाग्य का उदय 24 वर्ष की आयु में हो सकता है। यदि 24 वर्ष की आयु में भाग्योदय न हो तो इसके बाद 25 वर्ष की आयु में, 32 वर्ष की आयु में, 33 वर्ष की आयु में या 35 वर्ष की आयु में भाग्योदय हो सकता है।

वृश्चिक लग्न की कुंडली:
वृश्चिक लग्न की कुंडली वाले लोगों का भाग्योदय 22 वर्ष की आयु में, 24 वर्ष की आयु में, 28 वर्ष की आयु में या 32 वर्ष की आयु में हो सकता है।

धनु लग्न की कुंडली:
जिन लोगों की कुंडली धनु लग्न की है, उनका भाग्योदय 16 वर्ष की आयु में, 22 वर्ष की आयु में या 32 वर्ष की आयु में हो सकता है।

मकर लग्न की कुंडली:
मकर लग्न की कुंडली वाले लोगों का भाग्योदय 25 वर्ष की आयु में या 33 वर्ष की आयु में या 35 वर्ष की आयु में या 36 वर्ष की आयु में हो सकता है।

कुंभ लग्न की कुंडली:
जिन लोगों की कुंडली कुंभ लग्न की है, उनका भाग्योदय 25 वर्ष की आयु में, 28 वर्ष की आयु में, 36 वर्ष की आयु में या 42 वर्ष की आयु में हो सकता है।

मीन लग्न की कुंडली:
मीन लग्न की कुंडली वाले लोगों का भाग्योदय 16 वर्ष की आयु में, 22 वर्ष की आयु में, 28 वर्ष की आयु में या 33 वर्ष की आयु में हो सकता है।

शुक्रवार, 4 मई 2018

फलित में जन्मांग के इतर षोडश वर्ग की महत्वता

 आज भौतिक व संघर्ष युग में ज्योतिष सबसे तेज से व्यवहार में आने वाला विषय है, प्रतिदिन ज्योतिषी भी बढ़ते जा रहे हैं, कुछ सूत्रों को पढ़कर व  जानकार ही कोई भी ज्योतिषी बन बैठता है, वह लोग मात्र जन्मांग कुण्डली का विश्लेषण करके ही फलित कर देते हैं, लेकिन जानकारी अभ्यास के अभाव में शेष षोडश वर्ग का विवेचन नहीं कर पाते हैं, आज इस अपने इस लेख मे सभी सोलह प्रकार की कुंडलियों को परिभाषित किया गया है कि षोडश वर्ग कि कोनसी कुण्डली से क्या देखा जाता है?

1. लग्न कुंडली (डी-1) जन्म के समय पूर्व क्षितिज में उदित राशि को लग्न मानकर बनायी गयी कुंडली को लग्न/जन्म कुंडली कहते हैं।जन्म के समय चन्द्र द्वारा गृहीत राशि को लग्न मान कर बनायी गयी कुंडली को राशि कुंडली कहते हैं। वर्गों के लिये लग्न कुंडली ही आधार होती है। फल प्राप्ति के लिये जन्मकुंडली में योग होना आवश्यक है। वर्ग कुंडली का महत्व या तो उस फल की पुष्टि करना, नकारना या उसके स्वरूप को कम या अधिक करना होता है।

2. होरा (डी-2) उपयोग: होरा कुंडली का अध्ययन मुख्यतः जातक की आर्थिक समृद्धि को जांचने के लिये किया जाता है। द्वितीय भाव के अन्य कारक तत्वों के लिये भी इसे देखा जा सकता है।आर्थिक समृद्धि से तात्पर्य स्वयं अर्जित किये हुए धन से लेना चाहिये न कि परिवार से प्राप्त किये हुए होरा के स्वामी: सूर्य की होरा का स्वामित्व देवों (स्व प्रयास से ही धन प्राप्ति होगी) का और चन्द्र की होरा का स्वामित्व पितृ/पूर्वजों (मेहनत की अपेक्षा फल अधिक क्योंकि पूर्वजों का आशीर्वाद होता है) का होता है। कुछ मुख्य नियम – होरा कुंडली में पुरुष ग्रहों (सूर्य, गुरु, मंगल) का सूर्य की होरा में होना समृद्धि के लिये शुभ होता है। स्त्री ग्रहों (चन्द्र, शुक्र) और शनि का फल चन्द्र होरा में शुभ होता है। बुध, दोनों होरा में शुभ होते हैं। – सूर्य की होरा में स्थित आत्मकारक (सर्वाधिक भोगांश वाला ग्रह) उन्नति के लिये शुभ माना जाता है।

3. द्रेष्काण (डी-3) उपयोगः द्रेष्काण कुंडली का अध्ययन मुख्यतः जातक के छोटे भाई-बहन का होना/न होना, उनसे संबंधित सुख-दुःख, जातक का स्वभाव और रुचियों के लिये किया जाता है। तृतीय भाव के अन्य कारक तत्वों के लिये भी इसे देखा जा सकता है। 22 वें द्रेष्काण की गणना जातक की मृत्यु के स्वरूप को जानने के लिये की जाती है। द्रेष्काण के स्वामी: प्रथम द्रेष्काण के स्वामी नारद, द्वितीय के अगस्त्य और तृतीय के दुर्वासा ऋषि। द्रेष्काण स्वामी अपने स्वभावानुसार फल देते हैं। कुछ मुख्य नियम: – द्रेष्काण कुंडली में जन्मकुंडली के तृतीयेश और कारक मंगल का सुस्थित होना बहन-भाइयों से अच्छे संबंध दर्शाता है। – द्रेष्काण कुंडली का बली लग्न/ लग्नेश भाई-बहन का होना सुनिश्चित करता है। – द्रेष्काण कुंडली के तृतीय/ तृतीयेश का निरीक्षण भी सहोदरों के होने या न होने में भूमिका निभाता है। – द्रेष्काण कुंडली के एकादश/एकादशेश का निरीक्षण बड़े भाई-बहनों के लिये किया जाता है।

4. चतुर्थांश (डी-4) उपयोग: चतुर्थांश कुंडली का अध्ययन जातक की चल-अचल सम्पत्ति, वाहन, चरित्र, माता-सुख, स्कूली शिक्षा आदि के लिये किया जाता है। मंगल सम्पति का, बुध शिक्षा का, चन्द्र माता का और शुक्र वाहन के कारक हैं। चतुर्थांश के स्वामीः प्रत्येक भाग के क्रमशः स्वामी हैं: सनक (अपने अनुसार चलना जैसे एक पागल/ सनकी व्यक्ति), सानन्द (सफलता या असफलता खुशी-खुशी स्वीकार करने वाला), सनत (हिम्मत न हारने वाला) और सनातन (हर परिस्थिति में प्रसन्न)। कुछ मुख्य नियम: – चतुर्थांश कुंडली के लग्न/लग्नेश अगर बली हों तो जातक के सुखों में स्थायित्व बना रहता है। लग्न पर गुरु (धन का कारक) की दृष्टि आर्थिक तौर पर शुभ होती है। – चतुर्थांश कुंडली में लग्नेश और चतुर्थेश की परस्पर शुभ स्थिति माता से सम्बन्ध का स्तर दर्शाती है । – चतुर्थ भाव और शुक्र बली हो तो जातक को वाहन आदि सुखों की प्राप्ति होती है। – चतुर्थ भाव और मंगल बली हो तो जातक को सम्पत्ति (चर एवं अचल) आदि सुखों की प्राप्ति होती है। – चतुर्थ भाव के साथ चन्द्र भी पीड़ित हो तो जातक का चरित्र अच्छा नहीं होता और जातक धूर्त होता है।

5. सप्तमांश (डी-7) उपयोग: यह वर्ग, जन्मकुंडली के पंचम भाव से सम्बंधित प्रजनन/ संतति सम्बंधित फलों के सूक्ष्म रूप को दर्शाता है। इससे पंचम भाव में अन्य कारक तत्वों (उच्च शिक्षा डी 24 से देखते हैं), मनन/ मन्त्र, जीवन-साथी की समृद्धि, सृजनात्मकता आदि भी देख सकते हैं। सप्तमांश के स्वामी: विषम राशियों में स्थित ग्रहों के सप्तमांशों का स्वभाव क्रमशः क्षार (खट्टा/कठोर खनिज), क्षीर (खीर), दधि (दही, किसी भी प्रकार का आकार लेने में सक्षम पर खट्टा भी), इक्षुरस (गन्ने की भांति सीधा/कठोर परन्तु बहुत मिठास भी), मद्य (शराब) और शुद्ध जल। सम राशि में यह क्रम विपरीत होता है, अर्थात पहले सप्तमांश में स्थित ग्रह का स्वभाव शुद्ध जल के समान, दूसरे का मद्य/नशा के समान आदि। कुछ मुख्य नियम: – सप्तमांश कुंडली का बली लग्न/ लग्नेश संतति उत्पत्ति सुनिश्चित करते हैं। – सप्तमांश कुंडली में पंचम/पंचमेश एवं कारक गुरु की शुभ स्थिति संतति उत्पत्ति की पुष्टि करते हैं। – जन्मकुंडली के लग्नेश की सप्तमांश कुंडली में शुभ स्थिति संतान से अच्छे संबंधों की ओर इशारा करती है। – पुत्र सहम की जन्म एवं सप्तमांश कुंडली में स्थिति भी संतान के साथ संबंधों की गुणवत्ता को दर्शाती है। – बीज/क्षेत्र स्फुट से प्रजनन एवं उत्पत्ति की क्षमता का आकलन होता है।

6. नवांश (डी-9) उपयोग: नवांश कुंडली का प्रयोग जन्मकुंडली के पूरक के रूप में किया जाता है। मुख्य रूप से नवांश को विवाह के होने/न होने, वैवाहिक जीवन की गुणवत्ता और जीवन साथी का चरित्र आदि को जानने के लिये किया जाता है। नवमांश के स्वामी: चर राशि में देव, मनुष्य, राक्षस, स्थिर में मनुष्य, राक्षस, देव तथा द्विस्वभाव में राक्षस, देव, मनुष्य नवांश भाव के अधिपति होते हैं। अर्थात, राशि के नौ हिस्से होने से यह आवृत्ति तीन-तीन बार होगी। कुछ मुख्य नियम: – जन्मकुंडली और नवांश कुंडली के लग्नेश के अच्छे संबंध जातक और उसके जीवन साथी के बीच परस्पर सहयोग, सुखमय संबंध और समन्वय दर्शाते हैं। – अगर जन्मकुंडली का सप्तमेश और नवांश कुंडली लग्न दोनों बली हों तो वैवाहिक जीवन सुखमय होता है। नवांश में सप्तम/सप्तमेश का निरीक्षण इसकी पुष्टि या मात्रा को कम/ज्यादा करता है। – नवांश में राजा सूर्य और रानी चन्द्र का एक दूसरे से अधिकतम दूरी यानी सम-सप्तक होने को वैवाहिक सुखों की दृष्टि से शुभ नहीं माना जाता है, जैसे आपसी विचारों में तालमेल की कमी, परस्पर सहयोग की कमी या परस्पर वैमनस्य का भाव आदि। – जन्मकुंडली के सप्तम, सप्तमेश और कारक शुक्र (पुरुष)/गुरु (स्त्री) की शुभ स्थिति विवाह होने की संभावनाओं को दर्शाती है। नवांश का बली लग्न विवाह होने की पुष्टि या मात्रा को कम/ज्यादा करता है। अधिकतर नवांश का बली लग्न विवाह को सुनिश्चित करता है। – जन्मकुंडली के लग्नेश एवं सप्तमेश की नवांश में शुभ स्थिति विवाह के होने, सामान्य उम्र में होने एवं विवाह पश्चात सुखी संबंधों का संकेत देती है। इन दोनों की स्थिति जन्म एवं नवांश कुंडली में परस्पर 6/8 या 2/12 होना अशुभ होता है। – गुरु का सप्तम/सप्तमेश से सम्बन्ध शीघ्र या विलम्ब से विवाह की प्रवृत्ति देता है। अर्थात, सामान्य उम्र में विवाह नहीं होता क्योंकि गुरु अंतिम सत्य की ओर प्रवृत्त करता है। – त्रिंशांश लग्न पर पीड़ा भी विवाह में विलम्ब कारक होती है।

7. दशमांश (डी-10) उपयोग: दशमांश कुंडली का अध्ययन जीवन वृत्ति एवं आजीविका से सम्बंधित उपलब्धियों (सफलता, उन्नति, असफलता, बाधा आदि) के लिये किया जाता है। इसके अध्ययन से जातक के व्यवसाय की दिशा भी इंगित होती है। दशमांशों के स्वामी: विषम राशियों में क्रम (प्रथम से दशम दशमांश तक) से इन्द्र, अग्नि, यम, राक्षस, वरुण, वायु, कुबेर, ईशान, ब्रह्मा और अनंत स्वामी है। सम राशि में विपरीत क्रम है अर्थात प्रथम दशमांश में स्वामी अनंत, द्वितीय के ब्रह्मा आदि। ग्रह अपने दशमांश स्वामी के स्वभावानुसार भी फल देगा। कुछ मुख्य नियम: – दशमांश कुंडली में लग्न/लग्नेश का सुस्थित, बली या शुभ प्रभाव में होने से जातक की सक्षमता का ज्ञान होता है। अर्थात, आजीविका में समस्याओं से सामना करने की क्षमता। – दशमांश कुंडली का दशम/दशमेश के बली होने पर आजीविका बिना बाधा/कठिनाइयों के सुचारु रूप से चलती रहती है। पीड़ा के अनुरूप ही मात्रा कम या अधिक होती है। – दशमांश कुंडली में कारक सूर्य का प्रसिद्धि, शनि का नौकरी, बुध का व्यवसाय और चन्द्र का मानसिक सबलता के लिए निरीक्षण करना चाहिये।

8. द्वादशांश (डी-12) उपयोग: जन्मकुंडली का द्वादश भाव पूर्व जन्म और आगामी जन्म की कड़ी के रूप में भी देखा जाता है क्योंकि यह मोक्ष का कारक और जन्मकुंडली का आखिरी भाव है। सामान्यतः द्वादशांश कुंडली का प्रयोग माता-पिता की प्रतिष्ठा (जैसे, सामाजिक और आर्थिक स्तर) एवं उनसे सम्बंधित सुख-दुःख का अध्ययन करने के लिये किया जाता है। द्वादशांशों के स्वामी: प्रथम चार द्वादशांशों के स्वामी क्रमशः गणेश, अश्विनी कुमार, यम और सर्प हैं और इसी कर्म की आवृत्ति आगे होती रहती है। कुछ मुख्य नियम: – पिता के कारक सूर्य और माता के कारक चन्द्र हैं। अतः इस वर्ग कुंडली में इनकी स्थिति का आकलन आवश्यक है। – इसके अतिरिक्त इस वर्ग कुंडली के लग्न और लग्नेश की स्थिति का विश्लेषण माता-पिता की सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति ज्ञात करने के लिये करते हैं। इसके अतिरिक्त वर्ग कुंडली में निर्मित धन एवं राज योग भी सामाजिक एवं आर्थिक स्तर की पुष्टि करते हैं। – पिता की आयु के लिये नवम से अष्टम (चतुर्थ) और माता की आयु के लिये चतुर्थ से अष्टम (एकादश) का विश्लेषण भी किया जाता है।

9. षोडशांश (डी-16) उपयोग: सामान्यतः इस वर्ग कुंडली का अध्ययन वाहन सुख, जीवन की सामान्य खुशियां, विलासिता आदि के लिये किया जाता है। खुशियों से तात्पर्य चल-सुख से है जबकि डी-4 से स्थिर सुख देखा जाता है। चन्द्र की सोलह कलाओं की तरह राशि के सोलह हिस्से होते हैं। चन्द्र से सम्बन्ध होने के कारणवश इस वर्ग कुंडली से जातक की मानसिक सहनशीलता भी देखते हैं। कुछ मुख्य नियम: चं. – डी-16 वर्ग कुंडली में राजयोग एवं धनयोग अत्यधिक खुशियाँ एवं ऐश्वर्य देते हैं। – बली शुक्र (सांसारिक सुखों का कारक) समस्त सांसारिक विलासिता (वस्त्र, वाहन, स्त्री सुख आदि) देता हैपरन्तु अशुभ राशि में होने से कुछ हानि जैसे चोरी, वाहन दुर्घटना आदि भी हो सकती है। – बली/शुभ गुरु मानसिक संतुष्टि प्रदान करता है जिससे सुख की अनुभूति स्वतः ही होने लगती है।

10 विंशांश (डी-20) उपयोग: सामान्यतः इस वर्ग कुंडली का अध्ययन उन खुशियों को देखने के लिये किया जाता है जो आध्यात्मिकता एवं धार्मिक झुकाव या उनसे सम्बंधित क्रिया-कलापों से प्राप्त होती है। कुछ मुख्य नियम: प्रत्येक जीव में परमात्मा का ही अंश विद्यमान होता है परन्तु उसकी मात्रा अलग-अलग हो सकती है। मोक्ष प्राप्ति की ओर अग्रसर बने रहने के लिये आध्यात्मिक एवं धार्मिक उन्नति निरन्तर बनी रहनी आवश्यक है। डी-20 में निम्न तथ्यों पर ध्यान देना चाहिये। – डी-20 में शुभ एवं अशुभ योगों को देखें। जितने अधिक शुभ योग, उतनी ही अधिक आध्यात्मिकता एवं धार्मिकता की उन्नति। – डी-20 में लग्न/लग्नेश, पंचम/ पंचमेश और नवम/नवमेश का विश्लेषण करना चाहिये। – अगर विंशांश कुंडली का लग्न, जन्म कुंडली के लग्न से 6, 8, 12 की राशि है तो आध्यात्मिकता एवं धार्मिकता की उन्नति में बाधाएं होंगी। – सूर्य एवं शनि का बली होना शुभ संकेत है। – बली शुक्र होने पर यौन-जीवन पर नियंत्रण होता है जो उन्नति की लिये आवश्यक है।

11. चतुर्विंशांश (डी-24) उपयोग: सामान्यतः इस वर्ग कुंडली का अध्ययन शैक्षिक प्राप्तियों एवं ज्ञान से सम्बंधित फलों (सफलता, असफलता, बाधा आदि) के लिये किया जाता है। कुछ मुख्य नियम: – शिक्षा के लिये जन्म कुंडली में 4ए 4स्ए 5ए 5स् के अध्ययन के साथ-साथ इनकी स्थिति का डी 24 में भी अध्ययन आवश्यक है। दशानाथों का आकलन भी दोनों कुंडलियों में करना चाहिये। – डी 24 का बली लग्न/लग्नेश शिक्षा के सुचारु रूप से चलने को इंगित करता है। – सबसे बली ग्रह शिक्षा की दिशा भी इंगित करता है। – शिक्षा के कारक बुध और गुरु का भी जन्म एवं वर्ग कुंडली में आकलन करना चाहिये।

12. सप्तविंशांश (डी-27) उपयोग: इस वर्ग कुंडली को नक्षत्रांश भी कहते हैं क्योंकि इसके भी 27 भाग होते हैं। इस वर्ग कुंडली का अध्ययन जातक की शारीरिक एवं मानसिक शक्ति को देखने के लिये किया जाता है। शारीरिक शक्ति से तात्पर्य है, रोग प्रतिरोधक क्षमता का और मानसिक शक्ति से तात्पर्य है, मानसिक सबलता या सहनशीलता। नक्षत्रों के स्वामी ही (अश्विनी कुमार, यम, अग्नि आदि) सप्तविंशांश के स्वामी होते हैं। ?कुछ मुख्य नियम: – प्रत्येक ग्रह अपने कारक तत्वों के आधार पर फल देता है। सूर्यः सामान्य स्वास्थ्य, पेट, हड्डी, दाहिनी आँख आदि। चन्द्र: रक्त सम्बंधित, बायीं आँख, मानसिक विकार आदि। मंगल: रक्तचाप, दुर्घटना, सर्जरी, हड्डी की मज्जा आदि। बुध: त्वचा सम्बंधित, वाणी, स्नायु तंत्र आदि। गुरु: मधुमेह, मोटापा आदि। शुक्र: यौन विकार आदि। शनि वायु संबंधित, कैंसर, नसें, पेट के रोग आदि। राहु/केतु: विष, कीटाणु सम्बंधित, छाले आदि। – वर्ग कुंडली में पीड़ित ग्रह सम्बंधित शारीरिक एवं मानसिक अवसाद देते हैं।

13. त्रिंशांश (डी-30) उपयोग: इस वर्ग कुंडली का अध्ययन जीवन की दुर्घटनाएं, बाधाएं, असफलता, दुर्भाग्य आदि के अध्ययन के लिये किया जाता है। इस वर्ग का अध्ययन जातक के नैतिक आचरण को देखने के लिये भी किया जाता है। इस वर्ग कुंडली में लग्न पर पीड़ा होने पर विवाह में देरी भी हो सकती है। कुछ मुख्य नियम: – इस वर्ग कुंडली में सूर्य और चन्द्र का विश्लेषण नहीं होता। – बाकी ग्रह अपनी भाव स्थिति एवं कारकत्वों के अनुसार बाधाओं (पीड़ित होने पर) को इंगित करते हैं। मंगल: क्रोध / गुस्सा / आक्रामकता), बुध: ईष्र्या, गुरुः अहंकार, शुक्र: कामुकता, शनिः नशा/लत, राहुः लोभ/लालच, केतुः गलत सोच आदि। – बली लग्न और लग्नेश बाधा रहित जीवन देते हैं। – चतुर्थ भाव पीड़ित होने पर नैतिक चरित्र में कमी होती है। – अपने ही त्रिशांश में स्थित ग्रह अपने कारकत्वों में वृद्धि करते हैं। – त्रिंशांश लग्न पर पीड़ा विवाह में विलम्ब कारक होती है।

14. खवेदांश (डी-40) उपयोग: इस वर्ग कुंडली का अध्ययन शुभाशुभ फलों की मात्रा ज्ञात करने के लिये किया जाता है। उपरोक्त त्रिंशांश वर्णन में जातक के अशुभ फलों का अध्ययन था और खवेदांश में शुभ फलों का अध्ययन होता है। खवेदांशों के स्वामी: विष्णु, चन्द्र, मरीचि, त्वष्टा, धाता, शिव, रवि, यम, यक्ष, गन्धर्व, काल व वरुण ये बारी-बारी से खवेदांश के अधिपति होते हैं। कुछ मुख्य नियम: – लग्न और लग्नेश के बली होने पर शुभ घटनाएं अधिक होती हैं। – त्रिकोण के स्वामी भी सुस्थित एवं शुभ प्रभाव में हो तो शुभ फल अध् िाक होते हैं। – शुभ फलों के लिये सूर्य एवं चंद्रमा का भी सुस्थित होना आवश्यक है। उपरोक्त उदाहरण में, वर्ग कुंडली का लग्न नवमेश गुरु से दृष्ट है-शुभ, राहु/केतु के अक्ष में-अशुभ, लग्नेश मंगल एकादश में शुभ। अर्थात, शुभ फलों की अधिकता। पंचमेश सूर्य दिग्बली होकर दशम में होकर अति शुभ है परन्तु शत्रु राशि में होने से उन्नति तो देगा परन्तु शिखर की नहीं। नवमेश गुरु नवम भाव में स्वराशि एवं मित्र राशिस्थ होकर बली है। अर्थात, त्रिकोणेशों की स्थिति अच्छी है जो शुभ फलों की मात्रा में वृद्धि दर्शाती है।

15. अक्षवेदांश (डी-45) उपयोग: इस वर्ग कुंडली का अध्ययन जातक के चरित्र, व्यवहार, आचरण एवं सामान्य शुभाशुभ प्रभावों के अध्ययन के लिये किया जाता है। अक्षवेदांशों के स्वामी: चर राशियों में क्रमशः ब्रह्मा, महेश, विष्णु, स्थिर राशियों में महेश, विष्णु, ब्रह्मा एवं द्विस्वभाव राशियों में विष्णु, ब्रह्मा, महेश अधिदेव होते हैं। कुछ मुख्य नियम: – सूर्य, आत्मा का प्रतिनिधित्व करते हैं। शुभ राशि एवं शुभ प्रभाव युक्त सूर्य सात्विक आत्मा के गुण दर्शायेगा और अशुभ सूर्य उससे विपरीत। – चन्द्र, मन का कारक होने से मानसिक नैतिकता या अनैतिकता प्रदर्शित करते हैं। – लग्नेश, तृतीयेश, षष्ठेश एवं नवमेश का शुभ राशि में होना जातक की सोच में शुद्धता एवं पवित्रता दर्शाता है।

16 षष्ठ्यांश (डी-60) पाराशर जी ने इस वर्ग कुंडली को जन्मकुंडली एवं नवांश कुंडली से भी अधिक महत्व दिया है, परन्तु इसके प्रयोग का
अधिक प्रचलन नहीं है क्योंकि इसके लिये जन्म समय का बिल्कुल सही होना आवश्यक होता है। लगभग 2 मिनट के अंतर से षष्ठ्यांश कुंडली बदल जाती है। उपयोग: इस वर्ग कुंडली का अध्ययन जन्मकुंडली की भांति सभी पहलुओं पर विचार के लिये किया जा सकता है। षष्ठ्यांशों के स्वामी: एक राशि में कुल साठ षष्ठ्यांश होते हैं। पाराशर जी ने विषम राशियों में घोर, राक्षस, देव, कुबेर आदि क्रम से तीस और सम राशियों इन्दुरेखा, भ्रमण, पयोधि आदि क्रम से तीस अधिपति वर्णित किये हैं। ये सभी अधिपति नाम तुल्य शुभाशुभ फल देने वाले होते हैं। कुछ मुख्य नियम: – इस वर्ग में बनने वाले योगों का अध्ययन भी करना चाहिये। – किसी भी परिणाम के पूर्वानुमान के लिये तीनों अर्थात जन्म, नवांश एवं षष्ठ्यांश कुंडली देखकर ही फलित करना चाहिये।  एक अच्छा ज्योतिषी, जो मानव सेवा को अपना धर्म मानता है, सदैव वर्ग अध्ययन के बाद ही फलित करता है जिससे ऋषियों द्वारा दिये गये ज्ञान का नियमों सहित उपयोग हो और फलित की सटीकता रहे और ज्योतिषी का धर्म पूर्ण हो।

अष्टम भाव:-एक विचार

अष्टम भाव आयु भाव है इस भाव को त्रिक भाव, पणफर भाव और बाधक भाव के नाम से जाना जाता है | आयु का निर्धारण करने के लिए इस भाव को विशेष महत्ता दी जाती है | इस भाव से जिन विषयों का विचार किया जाता है | उन विषयों में व्यक्ति को मिलने वाला अपमान, पदच्युति, शोक, ऋण, मृत्यु इसके कारण है | इस भाव से व्यक्ति के जीवन में आने वाली रुकावटें देखी जाती है | आयु भाव होने के कारण इस भाव से व्यक्ति के दीर्घायु और अल्पायु का विचार किया जाता है।

अष्टम भाव आयु को दर्शाता है यह भाव क्रिया भाव भी है | इसे रंध्र अर्थात छिद्र भी कहते हैं क्योंकि यहाँ जो भी कुछ प्रवेश करता है वह रहस्यमय हो जाता है | जो वस्तु रहस्यमय होती है वह परेशानी व चिंता का कारण स्वत: ही बन जाती है | बली अष्टम भाव लम्बी आयु को दर्शाता है. साधारणत: अष्टम भाव में कोई ग्रह नही हो तो अच्छा रहता है | यदि कोई भी ग्रह आठवें भाव में बैठ जाये चाहे वह शुभ हो या अशुभ कुछ न कुछ बुरे फल तो अवश्य ही देता है।

ग्रह कैसे फल देगा यह तो ग्रह के बल के आधार पर ही निर्भर करता है. इस अवस्था में अगर किसी ग्रह को आठवें भाव में देखा जाए तो वह उस भाव का स्वामी ही है | कोई भी ग्रह आठवें भाव में बैठता है तो अपने शुभ स्वभाव को खो देता है. ऎसे में शनि को अपवाद रूप में आठवें भाव में शुभ माना गया है | क्योंकि वह आयु प्रदान करने में सहायक बनता है | अष्टमेश आठवें भाव की रक्षा करता है | अष्टमेश की मजबूती का निर्धारण उस पर पड़ने वाली दृष्टियों अथवा संबंधों के द्वारा होती है।

कुछ अन्य तथ्यों द्वारा देखा जाए तो अष्टमेश अचानक आने वाले प्रभाव दिखाता है | यह भाव जीवन में आने वाली रूकावटों से रूबरू कराता है. जहां – जहां अष्टमेश का प्रभाव पड़ता है उससे संबंधित अवरोध जीवन में दिखाई पड़ते हैं | अष्टमेश जिस भाव में स्थित होता है उस भाव के फल अचानक दिखाई देते हैं और वह अचानक से मिलने वाले फलों को प्रदान करता है।

व्यक्ति अपने जीवन में जो उपहार देता है, उन सभी की व्याख्या यह भाव करता है | इस भाव से व्यक्ति के द्वारा कमाई, गुप्त धन-सम्पत्ति, विदेश यात्रा, रहस्यवाद, स्त्रियों के लिए मांगल्यस्थान, दुर्घटनाएं, देरी खिन्नता, निराशा, हानि, रुकावटें, तीव्र, मानसिक चिन्ता, दुष्टता, गूढ विज्ञान, गुप्त सम्बन्ध, रहस्य का भाव देखा जा सकता है।

अष्टम भाव का कारक ग्रह शनि है. आयु के लिए इस भाव से शनि का विचार किया जाता है | अष्टम भाव से स्थूल रुप में मुख्य रुप में आयु का विचार किया जाता है | अष्टम भाव सूक्ष्म रुप में जीवन के क्षेत्र की बाधाएं देखी जाती है | अष्टमेश व नवमेश का परिवर्तन योग बन रहा हों, तो व्यक्ति पिता की पैतृक संपति प्राप्त करता है | अष्टमेश व दशमेश आपस में परिवर्तन योग बना रहा हों, तो व्यक्ति को कार्यों में बाधा, धोखा प्राप्त हो सकता है | उसे जीवन में उतार-चढ़ाव का सामना करना पड़ता है।

सशक्त शुक्र अष्टम भाव में भी अच्छा फल प्रदान करता है। शुक्र अकेला अथवा शुभ ग्रहों के साथ शुभ योग बनाता है। स्त्री जातक में शुक्र की अष्टम स्थिति गर्भपात को सूचक। आठवें भाव का शुक्र जातक को विदेश यात्रायें जरूर करवाता है,और अक्सर पहले से माता या पिता के द्वारा सम्पन्न किये गये जीवन साथी वाले रिस्ते दर किनार कर दिये जाते है,और अपनी मर्जी से अन्य रिस्ते बनाकर माता पिता के लिये एक नई मुसीबत हमेशा के लिये खड़ी कर दी जाती है।

जातक का स्वभाव तुनक मिजाज होता है । पुरुष वर्ग कामुकता की तरफ़ मन लगाने के कारण अक्सर उसके अन्दर जीवन रक्षक तत्वों की कमी हो जाती है,और वह रोगी बन जाता है,लेकिन रोग के चलते यह शुक्र जवानी के अन्दर किये गये कामों का फ़ल जरूर भुगतने के लिये जिन्दा रखता है,और किसी न किसी प्रकार के असाध्य रोग जैसे तपेदिक या सांस की बीमारी देता है,और शक्तिहीन बनाकर बिस्तर पर पड़ा रखता है। इस प्रकार के पुरुष वर्ग स्त्रियों पर अपना धन बरबाद करते है,और स्त्री वर्ग आभूषणो और मनोरंजन के साधनों तथा महंगे आवासों में अपना धन व्यय करती है।

अष्टम भाव अचानक प्राप्ति का है इसके अंदर ज्योतिषी विद्याएं गुप्त विद्याएं अनुसंधान समाधि छुपा खजाना अध्यात्मिक चेतना प्राशक्तियों की प्राप्ति योग की ऊंची साधना मोक् पैतृक संपत्ति विरासत अचानक आर्थिक लाभ अष्टम भाव के सकारात्मक पक्ष है और लंबी बीमारी मृत्यु का कारण तथा दांपत्य जीवन अष्टम भाव के नकारात्मक पक्ष है |

आठवें भाव में शुक्र होने के कारण जातक देखने में सुंदर होते है। निडर और प्रसन्नचित्त शारीरिक,आर्थिक अथवा स्त्रीविषय सुखों में से कम से कम कोई एक सुख पर्याप्त मात्रा में इन्हे मिलता है।


विदेश यात्रा अवसर मिलते रहेंगे।

नौकर चाकर और सवारी का भी पूर्ण सुख मिलता रहेगा।

शुक्र कभी धन का सुख तो कभी ऋण का दुःख भी देता है।

एेसे जातक को २५ वर्ष के बाद विवाह करना चाहिए।

जातक यहाँ ऋणी रहेगा ही रहेगा

जीवन साथी या पुत्र को लेकर चिंताएं भी रह सकती है।

कमाई भी उतनी ही होगी, जितना कर्ज होगा।

अष्टम् भाव के कारकत्व…

1. आयु
2. पाप कर्म ( पिछले जनम के )
3. अचानक/घटना
4. संकट
5. चोरी
6. रुकावटे/ अड़चने/विघ्न
7. परेशानिया
8. दुःख
9. गुप्त शत्रु
10. पूर्ण विनाश
11. दुर्भाग्य
12. शत्रुता
13. षड़यंत्र
14. अकाल मृत्यु
15. मृत्यु का कारन
16. स्पाउस का मारक स्थान
17. स्पाउस का धन
18. सार्वजनिक निंदा
19. छुपे हुए अफेयर्स
20. पैंत्रिक सम्पति
21. गढ़ा धन
22. अचानक प्राप्ति
23. अचानक घाटा/ loss
24. नवम से द्वादश भाव
25. स्पाउस की वाण
26. शिप द्वारा विदेश यात्रा
27. समाधी
28. रिसर्च
29. खदान और सुरंग
30. अध्यात्म
31. मोक्ष त्रिकोण का 2 कोण 5 ऑफ़ 4h
32. संतान की हैप्पीनेस (4 ऑफ़ 5) 3 ऑफ़ 6
33. दूसरा ट्रिक भाव… 6,8,124
34. भाग्य की हानि
35. एक जीवन चक्र का अंत
36. माता की शीक्षा
37. आकस्मिक परिवर्तन
38. दुर्घटना
39. असाध्य रोग
40. अंडर दि टेबल इनकम
41. उनेर्नेद मनी फ्रॉम लिगेसी /इन्शुरन्स /दोव्री
42. आय का कर्म स्थान
43. कर्म का आय स्थान
44. गिफ्ट
45. छोटे भाई की नौकरी
46. बड़े भाई का भौतिक सुख
47. बड़े भाई की सर्विस (प्रोफेशन)
48. तंत्र एवम् रहस्यमयी गुप्त विद्याये
49.सास का लाभ स्थान
50.ससुराल का धन

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