शुक्रवार, 21 सितंबर 2018

कुंडली मे धन योग :-एक विचार

कुंडली में दूसरे भाव को ही धन भाव कहा गया है। इसके अधिपति की स्थिति संग्रह किए जाने वाले धन के बारे में संकेत देती है। कुंडली का चौथा भाव हमारे सुखमय जीवन जीने का संकेत देता है। पांचवां भाव हमारी उत्पादकता बताता है, छठे भाव से ऋणों और उत्तरदायित्वों को देखा जाएगा। सातवां भाव व्यापार में साझेदारों को देखने के लिए बताया गया है। इसके अलावा ग्यारहवां भाव आय और बारहवां भाव व्यय से संबंधित है। प्राचीन काल से ही जीवन में अर्थ के महत्व को प्रमुखता से स्वीकार किया गया। इसका असर फलित ज्योतिष में भी दिखाई देता है। केवल दूसरा भाव सक्रिय होने पर जातक के पास पैसा होता है, लेकिन आय का निश्चित स्रोत नहीं होता जबकि दूसरे और ग्यारहवें दोनों भावों में मजबूत और सक्रिय होने पर जातक के पास धन भी होता है और उस धन से अधिक धन पैदा करने की ताकत भी। ऐसे जातक को ही सही मायने में अमीर कहेंगे।

यस्यास्ति वित्तं स नरः कुलीनः।
स पण्डितः स श्रुतिमान गुणज्ञः।
स एवं वक्ता स च दर्शनीयः।
सर्वेगुणाः कांचनमाश्रयन्ति।।

नीति का यह श्लोक आज के अर्थ-प्रधान युग का वास्तविक स्वरूप व सामाजिक चित्र प्रस्तुत करता है।

ज्योतिष शास्त्र में जन्म कुंडली में धन योग के लिए द्वितीय भाव, पंचम५ भाव, नवम भाव व एकादश भाव विचारणीय है। पंचम-एकादश धुरी का धन प्राप्ति में विशेष महत्व है। महर्षि पराशर के अनुसार जैसे भगवान विष्णु के अवतरण के समय पर उनकी शक्ति लक्ष्मी उनसे मिलती है तो संसार में उपकार की सृष्टि होती है। उसी प्रकार जब केन्द्रों के स्वामी त्रिकोणों के भावधिपतियों से संबंध बनाते हैं तो बलशाली धन योग बनाते हैं। यदि केन्द्र का स्वामी-त्रिकोण का स्वामी भी है, जिसे ज्योतिषीय भाषा में राजयोग भी कहते हैं। इसके कारक ग्रह यदि थोड़े से भी बलवान हैं तो अपनी और विशेषतया अपनी अंतर्दशा में निश्चित रूप से धन पदवी तथा मान में वृद्धि करने वाले होते हैं। पराशरीय नियम, यह भी है कि त्रिकोणाधिपति सर्वदा धन के संबंध में शुभ फल करता है। चाहे, वह नैसर्गिक पापी ग्रह शनि या मंगल ही क्यों न हो।

यह बात ध्यान रखने योग्य है कि जब धनदायक ग्रह अर्थात् दृष्टि, युति और परिवर्तन द्वारा परस्पर संबंधित हो तो शास्त्रीय भाषा में ये योग महाधन योग के नाम से जाने जाते हैं। लग्नेष, धनेष, एकादशेष, धन कारक ग्रह गुरु तथा सूर्य व चन्द्र अधिष्ठित राशियों के अधिपति सभी ग्रह धन को दर्शाने वाले ग्रह हैं। इनका पारस्परिक संबंध जातक को बहुत धनी बनाता है। नवम भाव, नवमेश भाग्येश, राहु केतु तथा बुध ये सब ग्रह भी शीघ्र अचानक तथा दैवयोग द्वारा फल देते हैं। धन प्राप्ति में लग्न का भी अपना विशेष महत्व होता है। लग्नाधिपति तथा लग्न कारक की दृष्टि के कारण अथवा इनके योग से धन की बढ़ोत्तरी होती है। योग कारक ग्रह (जो कि केन्द्र के साथ-साथ त्रिकोण का भी स्वामी हो) सर्वदा धनदायक ग्रह होता है। यह ग्रह यदि धनाधिपति का शत्रु भी क्यों न हो तो भी जब धनाधिपति से संबंध स्थापित करता है तो धन को बढ़ाता है। जैसे कुंभ लग्न के लिए, यदि लाभ भाव में योग कारक ग्रह ‘शुक्र’ हो और धन भाव में बृहस्पति स्वग्रही हो तो अन्य बुरे योग होते हुए भी जातक धनी होता है, क्योंकि योग कारक ‘शुक्र’ व धनकारक ‘बृहस्पति′ व लाभाधिपति ‘वृह’ का केन्द्रीय प्रभाव है। यद्यपि ये दोनों ग्रह एक दूसरे के शुभ हैं।

दशाओं का प्रभाव:-
धन कमाने या संग्रह करने में जातक की कुंडली में दशा की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। द्वितीय भाव के अधिपति यानी द्वितीयेश की दशा आने पर जातक को अपने परिवार से संपत्ति प्राप्त होती है, पांचवें भाव के अधिपति यानी पंचमेश की दशा में सट्टे या लॉटरी से धन आने के योग बनते हैं। आमतौर पर देखा गया है कि यह दशा बीतने के साथ ही जातक का धन भी समाप्त हो जाता है। ग्यारहवें भाव के अधिपति यानी एकादशेश की दशा शुरू होने के साथ ही जातक की कमाई के कई जरिए खुलते हैं। ग्रह और भाव की स्थिति के अनुरूप फलों में कमी या बढ़ोतरी होती है। छठे भाव की दशा में लोन मिलना और बारहवें भाव की दशा में खर्चों में बढ़ोतरी के संकेत मिलते हैं।

शुक्र की भूमिका:-
किसी व्यक्ति के धनी होने का आकलन उसकी सुख सुविधाओं से किया जाता है। ऐसे में शुक्र की भूमिका उत्तरोत्तर महत्वपूर्ण होती जा रही है। किसी जातक की कुंडली में शुक्र बेहतर स्थिति में होने पर जातक सुविधा संपन्न जीवन जीता है। शुक्र ग्रह का अधिष्ठाता वैसे शुक्राचार्य को माना गया है, जो राक्षसों के गुरु थे, लेकिन उपायों पर दृष्टि डालें तो पता चलता है कि शुक्र का संबंध लक्ष्मी से अधिक है। शुक्र के आधिपत्य में वृषभ और तुला राशियां हैं। इसी के साथ शुक्र मीन राशि में उच्च का होता है। इन तीनों राशियों में शुक्को बेहतर माना गया है। कन्या राशि में शुक्र नीच हो जाता है, इसलिए कन्या का शुक्र अच्छे परिणाम देने वाला नहीं माना जाता।

लग्न के अनुसार पैसे वाले:-
मेष लग्न के जातकों का शुक्र, वृष लग्न के जातकों का बुध, मिथुन लग्न के जातकों का चंद्रमा, कर्क लग्न वाले जातकों का सूर्य, सिंह लग्न वाले जातकों का बुध, कन्या लग्न वाले जातकों का शुक्र, तुला  लग्न वाले जातकों का मंगल, वृश्चिक लग्न वाले जातकों का गुरु, धनु लग्न वाले जातकों का शनि, मकर लग्न वाले जातकों का शनि, कुंभ लग्न वाले जातकों का गुरु और मीन लग्न वाले जातकों का मंगल अच्छी स्थिति में होने पर या इनकी दशा और अंतरदशा आने पर जातक के पास धन का अच्छा संग्रह होता है या पैतृक संपत्ति की प्राप्ति होती है। अगर लग्न से संबंधित ग्रह की स्थिति सुदृढ़ नहीं है तो संबंधित ग्रहों का उपचार कर स्थिति में सुधार कर सकते हैं।

लग्न के अनुसार कमाने वाले:-
कमाई के लिए कुंडली में ग्यारहवां भाव देखना होगा। इससे आने वाले धन और आय-व्यय का अंदाजा लगाया जा सकता है। मेष लग्न वाले जातकों का शनि, वृष लग्न का गुरु, मिथुन लग्न का मंगल, कर्क लग्न का शुक्र, सिंह लग्न का बुध, कन्या लग्न का चंद्रमा, तुला लग्न का सूर्य, वृश्चिक लग्न का बुध, धनु लग्न का शुक्र, मकर लग्न का मंगल, कुंभ लग्न का गुरु और मीन लग्न का शनि अच्छी स्थिति में होने पर जातक अच्छा धन कमाता है। इन ग्रहों की दशा में भी संबंधित लग्न के जातक अच्छी कमाई करते हैं। उन्हें पुराना पैसा मिलता है और पैतृक सम्पत्ति मिलने के भी इन्हें अच्छे अवसर मिलते हैं।

विभिन्न प्रमुख ज्योतिषीय ग्रन्थों वृहत पराशर होरा-शास्त्र, वृहतजातक, जातक तत्व, होरा सार, सारावली, मानसागरी, जातक परिजात आदि विभिन्न-विभिन्न धन योगों का विवरण प्राप्त होता है। परन्तु उनमें मुख्य जो अक्सर जन्मकुंडलियों में पाये जाते हैं तथा फलदायी भी हैं,

जातक को धन इन युतियों मे मिलने का कारण बनता है:
(1) भाग्येश बुध से लाभेश मंगल कार्येश शुक्र सुखेश मंगल पंचमेश शुक्र लगनेश शनि धनेश शनि का गोचर से जन्म के बुध के साथ गोचर हो।

(2)  कार्येश शुक्र का लाभेश मंगल सुखेश मंगल लगनेश शनि पंचमेश शुक्र धनेश शनि से गोचर से जन्म के कार्येश शुक्र के साथ गोचर हो।

(3)  लाभेश मंगल का धनेश शनि लगनेश शनि से गोचर से जन्म के मंगल के साथ युति बने।

(4)  लगनेश शनि का सुखेश मंगल धनेश शनि पंचमेश शुक्र से गोचर से जन्म के शनि के साथ योग बने।

(5) धनेश शनि का सुखेश मंगल पंचमेश शुक्र से योगात्मक रूप जन्म के शनि के साथ बने।

(6) सुखेश मंगल के साथ पंचमेश शुक्र से गोचर से जन्म के मंगल के साथ योगात्मक रूप बने।

(7) अगर भाग्येश और षष्ठेस एक ही ग्रह हो।

(8) मकर लगन की कुंडली मे भाग्येश और षष्ठेश बुध एक ही ग्रह है,यह धन आने का कारण तो बनायेंगे लेकिन अधिकतर मामले मे धनेश,लगनेश,सुखेश,कार्येश के प्रति धन को या तो नौकरी से प्राप्त करवायेंगे या कर्जा से धन देने के लिये अपनी युति को देंगे।

(9) यदि चन्द्रमा से 6, 7, 8 वें भाव में समस्त शुभ ग्रह विद्यमान हों और वे शुभ ग्रह क्रूर राशि में न हों और न ही सूर्य के समीप हों तो ऐसे योग (चन्द्राधियोग) में उत्पन्न होने वाला जातक धन, ऐश्वर्य से युक्त होता है तथा महान बनता है।

(10) अनफा व सुनफा योग जो चन्द्र से द्वितीय, द्वादश भाव में सूर्य को छोड़कर अन्य ग्रहों की स्थिति द्वारा बनते हैं, जातक अपने पुरुषार्थ से धन को प्राप्त करता है। या करने वाला होता है।

(11) एक भी शुभ ग्रह केन्द्रादि शुभ, स्थान में स्थित होकर, उच्च का हो व शुभ ग्रह से युक्त अथवा दृष्ट हो तो धनाढ्य तथा राजपुरुष बना देता है।

(12) पुष्फल योग एक धन और यश देने वाला योग है, जिसमें चन्द्राधिष्ठित, राशि के स्वामी का लग्नेश के साथ होकर केन्द्र में बलवान होना अपेक्षित होता है।

(13) लग्नेश द्वितीय भाव में तथा द्वितीयेश लाभ भाव में हो।

(14) चंद्रमा से तीसरे, छठे, दसवें, ग्यारहवें स्थानों में शुभ ग्रह हों।

(15) पंचम भाव में चंद्र एवं मंगल दोनों हों तथा पंचम भाव पर शुक्र की दृष्टि हो।

(16) चंद्र व मंगल एकसाथ हों, धनेश व लाभेश एकसाथ चतुर्थ भाव में हों तथा चतुर्थेश शुभ स्थान में शुभ दृष्ट हो।

(17) द्वितीय भाव में मंगल तथा गुरु की युति हो।

(18) गज केसरी योग जिसमें बृहस्पति और चन्द्र का केन्द्रीय समन्वय होता है, धन एवं यश देने वाला होता है।

(19) यदि कुंडली में कर्क राशि में बुध और शनि 11वें भाव में हो तो जातक महाधनी होता है। (जा0त0)

(20) जिस जातक की कुंडली में लाभ भाव में बृहस्पति हों और पंचम भाव में सूर्य स्वगृही हों तो जातक की कुंडली में महाधनी योग बनता है।

(21) कर्क राशि का चन्द्र लग्न भाव में बृहस्पति और मंगल के साथ हो तो महाधनी योग बनता है।

(22) धनेश अष्टम भाव मेतथा अष्टमेश धन भाव में हो।

(23) पंचम भाव में बुध हो तथा लाभ भाव में चंद्र-मंगल की युति हो।

(24) गुरु नवमेश होकर अष्टम भाव में हो।

(25) वृश्चिक लग्न कुंडली में नवम भाव में चंद्र व बृहस्पति की युति हो।

(26) मीन लग्न कुंडली में पंचम भाव में गुरु-चंद्र की युति हो।

(27) कुंभ लग्न कुंडली में गुरु व राहु की युति लाभ भाव में हो।

(28) चंद्र, मंगल, शुक्र तीनों मिथुन राशि में दूसरे भाव में हों।

(29) कन्या लग्न कुंडली में दूसरे भाव में शुक्र व केतु हो।

(30) तुला लग्न कुंडली में लग्न में सूर्य-चंद्र तथा नवम में राहु हो।

(31) मीन लग्न कुंडली में ग्यारहवें भाव में मंगल हो।

(32) यदि जन्मकुंडली में स्वराशि का गुरु लग्न भाव में ‘चन्द्रमा’ और ‘मंगल′ के साथ हो तो महाधनी योग होता है।

(33) यदि स्वराशि का ‘षु’ लग्न भाव में चंद्र और सूर्य से युक्त अथवा दृष्ट हो तो महाधनी योग होता है।

(34) यदि कुंडली में लाभेश-धनभाव में और धनेश-लाभ भाव में हो तो जातक को धन लाभ बहुत अधिक कम प्रयास से प्राप्त होता है।

(35) धनेश और लाभेश केन्द्रों में हो तो भी जातक को धन-लाभ होता है।

(36) यदि धनेश लाभ भाव में हो तो जातक धनी होता है।

(37) जन्म लग्न या पंचम भाव में मकर या कुंभ राशि का ‘शनि′ हो और बुध लाभ स्थान में हो तो जातक को सब प्रकार से धन लाभ होता है।

(38) यदि जन्म लग्न में कर्क लग्न हो और लग्न में चंद्र, गुरु तथा मंगल हो तो जातक को अचानक धन लाभ होता है।

(39) धन स्थान का स्वामी धन स्थान में, लाभ स्थान का अधिपति लाभ स्थान, धनेश, लाभेश लाभ स्थान में स्वराशि या मित्र राशि का अथवा उच्च का हो तो जातक धनवान होता है।

(40) यदि जन्मकुंडली में लाभेश और धनेश लग्न में हो तो दोनों मित्र हों तो धन-योग बनता है और यदि लग्न का स्वामी धनेश और लाभेश से युक्त हो तो महाधनी योग बनता है।

(41) यदि धनेश लग्न में और लग्न का स्वामी धन भाव में हो तो बिना प्रयत्न किये जातक धनवान होता है।

(42) धन भाव में ‘गुरु′ शुभ ग्रह से दृष्ट हो तो जातक धनवान होता है।

(43) जब जन्मकुंडली में धन स्थान में ‘शुक्र’ हो, शुभ ग्रह युक्त तथा दृष्ट हो तो जातक धनवान होता है। “जन्मकुंडली में यदि ग्रह नीच राशि में भी स्थित हो तो भी यदि उसकी नीच राशि का स्वामी लग्न में या केन्द्र में स्थित हो अथवा उसकी उच्च राशि का स्वामी यदि लग्न से केन्द्र में स्थित हो तो नीच भंग योग होता है व जातक धनी होता है।”

(44) जब लग्न भाव का स्वामी त्रिकोण में स्थित हो, धन भाव का स्वामी लाभ भाव में हो, तथा धन भाव पर धनेश की दृष्टि हो तो कुंडली में महालक्ष्मी योग बनता है।

(45) यदि भाग्य स्थान का स्वामी अपनी उच्च राशि में या मूल त्रिकोण अथवा स्वराशि में केन्द्र में स्थित हो, तो भी जातक धनी होगा।

(46) ग्यारहवें और बारहवें भाव का अच्छा संबंध होने पर जातक लगातार निवेश के जरिए चल-अचल संपत्तियां खड़ी कर लेता है। पांचवां भाव मजबूत होने पर जातक सट्टा या लॉटरी के जरिए विपुल धन प्राप्त करता है।

 (47) किसी भी जातक के पास किसी समय विशेष में कितना धन हो सकता है, इसके लिए हमें उसका दूसरा भाव, पांचवां भाव, ग्यारहवां और बारहवें भाव के साथ इनके अधिपतियों का अध्ययन करना होगा। इससे जातक की वित्तीय स्थिति का काफी हद तक सही आकलन हो सकता है। इन सभी भावों और भावों के अधिपतियों की स्थिति सुदृढ़ होने पर जातक कई तरीकों से धन कमाता हुआ अमीर बन जाता है।

(48) किसी भी लग्न में पांचवें भाव में चंद्रमा होने पर जातक सट्टा या अचानक पैसा कमाने वाले साधनों से कमाई का प्रयास करता है। चंद्रमा फलदाई हो तो ऐसे जातक अच्छी कमाई कर भी लेते हैं।

(49) कारक ग्रह की दशा में जातक सभी सुख भोगता है और उसे धन संबंधी परेशानियां भी कम आती हैं।

(50) सातवें भाव में चंद्रमा होने पर जातक साझेदार के साथ व्यवसाय करता है लेकिन धोखा खाता है।

(51) छठे भाव का ग्यारहवें भाव से संबंध हो तो, जातक ऋण लेता है और उसी से कमाकर समृद्धि पाता है।

(52) भगवान के प्रकाश यौगिक क्रिया द्वारा और पदजनजपवाद द्वारा जातक के मुख, हथेली, कुंडली आदि का ध्यान रखकर सम्पत्ति, धन, लाभ, निधि आदि का ज्ञान कराना ही ज्योतिष और धन योग है। सम्पत्ति का संबंध भूमि से और धन का संबंध नगदी, सिक्के नोट आदि से है और लाभ का संबंध व्यापार, व्यवसाय, कपड़ा, मकान, वाहन आदि से संबंध है निधि का अर्थ है अनायास धन प्राप्त होना या आकस्मिक धन प्राप्त होना या अचानक पैतृक सम्पत्ति प्राप्त होना।

सर्वप्रथम जन्मकुंडली में धन योग या राजयोग का ज्ञान ग्रहों, राशि, नक्षत्र स्वामी, की क्रूरता सौम्यता स्थान की शुभता/अशुभता और ग्रहों के अधिकार संबंध दशा/अन्तरदशा, होरा, अष्टक वर्ग व गोचर का पारस्परिक संबंध होने से धन योग की शुभता और अशुभता का ज्ञान हो सकता है।

धन का कारक :-
धन का कारक गुरु है, धन प्रदाता सधन प्रदाता स्थान 2, 1, 5, 6, 10, 11। धन योग/ राजयोग के द्वारा धन कैसे प्राप्त होगा और कहां से प्राप्त होगा और किस दिशा में और किसके द्वारा व कितना प्राप्त होगा व किस प्रकार धनयोग अशुभ हो जायेगा व उसका इलाज कैसे होगा। शुभ योग है तो उसे अधिक अशुभता।

कभी-कभी जन्म कुंडली में धन योग होने पर भी उसे धन की प्राप्ति नहीं होती, क्योंकि धन योग को कम करने में (1) प्रेत बाधा, (2) संगत, (3) बुरे कर्म, (4) प्रारब्ध, (5) प्रायश्चित आदि कुछ चीजें तथा शष्टेश, अष्टमेश, द्वादशेष से संबंध द्वितीयेश, चतुर्थेश, पंचमेश, नवमेश, दशमेश, एकादेश, युक्त, दृष्ट, परिवर्तन योग।

1. लग्न/लग्नेश 2, 4, 5, 6, 10, 11 के स्वामियों से संबंध हो धनेश का 4, 5, 6, 10, 11, चतुर्थेश का 5, 6, 10, 11, पंचमेश का 6, 10, 11 नवमेश का 10, 11 या 3, 6, 11 में राहु हो।

कन्या राशि में राहु के साथ शनि, मंगल, शुक्र, हो तो अधिक धन प्राप्त होगा।

गुरु/चंद्र त्रिकोण में हो। 10 वें और लग्न बृहस्पति/शुक्र हो।

सू०/चं० पर स्पष्ट दृष्टि हो तथा दूसरे घर में षुक्र हो और सू०/चं० की दृष्टि हो, 2 गुरु हो। सू०/चं० की राशि हो, दूसरे घर में गुरु हो बुध हो दृष्ट हो।

जन्म दिन का हो और चं० स्वांश या मित्र नवांश में हो, गुरु की दृष्टि हो। जन्म राम का हो चंद्र स्वांश मित्र नवांश में हो गुरु पर षुक्र की दृष्टि हो।

निश्चय धन योग:-
लग्न में, स्वगृही सूर्य हो मंगल/शुक्र की दृष्टि या युति हो। लग्न में बुध/गुरु की युति या दृष्टि हो, लग्न में मंगल हो, लग्न में बुध हो, गुरु या शुक्र की युति हो, बुध या मंगल की दृष्टि हो।

लग्न में शुक्र हो या बुध या लग्न में शनि हो मंगल या गुरु दृष्टि हो।

धन नैतिक/अनैतिक कार्य से:-
नवमेश/दशमेश धन प्रदाय है, जिस ग्रह के साथ हो, उसके अनुसार नैतिक या अनैतिक कर्म से धन प्राप्त हो। अनैतिक चोरी, लॉटरी, मटका, जुआ/लग्न या चन्द्र से उपचय भावों में बुध, गुरु, शुक्र या तीनों ग्रह हो तो अधिक धन एक ग्रह हो तो कम।

धन मिलने का समय:-
दूसरे घर में चन्द्र या कोई शुभ ग्रह व द्वितीयेश व लग्नेश हो तो उस समय लाभ कारक ग्रह की दशा/अंतरदशा में धन अवश्य मिलता है।

अवस्था:-
केन्द्र 1, 2, 11 में ग्रह उच्च और मित्र हो तो बाल्यवस्था में धन प्राप्त होगा। धनेश, लाभेश, लग्नेश, केन्द्र व त्रिकोण में हो तो मध्यम अवस्था में धन प्राप्त होगा।

लग्नेश जहां हो उस स्थान का स्वामी लग्नेश में आ जाये तो वृद्धावस्था में धन प्राप्त होगा।

किस दिशा/देश/विदेश :-
चर लग्न हो/लग्नेश चर में हो और शीघ्रगामी ग्रह की दृष्टि हो तो विदेश से धन प्राप्त होगा। स्थिर लग्न/लग्नेश स्थिर राशि में हो और स्थिर ग्रहों की दृष्टि हो तो उसी देश में धन प्राप्त होगा।

किस दिशा:-
दशा नाथ की राशि, लाभेश की दिशा, द्वितीयेश की दिशा में जो बलवान हो, उस दिशा में धन प्राप्त होगा।

किस के द्वारा:-
दशम में सूर्य – पिता

दशम में चन्द्र – माता

दशम में मंगल – शत्रु/भाई

दशम में बुध – मित्र

दशम में गुरु – विद्या

दशम में शुक्र – स्त्री से

दशम में शनि – दासों से

धन संख्या:-
उच्च राशि में सूर्य हो तो – एक हजार

उच्च राशि में चन्द्र हो तो – एक लाख

उच्च राशि में मंगल हो तो – एक शत लाख

उच्च राशि में बुध हो तो – करोड़

उच्च राशि में गुरु हो तो – अरब

उच्च राशि में शुक्र हो तो – खरब

उच्च राशि में शनि हो तो – कम/अल्प

द्वितीयेश गोपुरांश हो और शुक्र पारवंतांश हो तो धन प्राप्त होगा।

उपजीविका:-
दशम में जो ग्रह हो, उसकी प्रकृति के अनुसार दो तीन हो तो उनमें बलवान ग्रह/दशमेश जहां स्थित हो, उस ग्रह को प्रकृति के अनुसार होगी।

वराहमिहिर के अनुसार दशमेश जिसके नवांश में स्थित हो, उस नवांश के अनुसार जीविका, उपजीविका का व्यवसाय से संबंध होता हैं।

तत्काल धन:-
धनेश/दशमेश युक्त हो या संबंध हो।

1, 2, 11 अपने स्वामी से युक्त हो तब।

लग्न में 2, 11 भाव स्वामी हो।

लाभेश पर 2, 4, की दृष्टि हो तथा नवम की भी दृष्टि चं०/मं० लग्नेश में किसी स्थान में हो तो व्यय भाव में शुक्र/शनि/बुध हो तो धन संग्रह करने की आदत रहती है।

शनिवार, 8 सितंबर 2018

आपके जीवन मे किस ग्रह का प्रभाव ज्यादा होगा

अक्सर लोग लग्न कुन्डली, राशि कुन्डली, सूर्य कुन्डली ओर नवमांश कुन्डली से प्रभावशाली ग्रह का निर्धारण करते है ये सही भी है पर कभी कभी ये सही नही भी होता है कारण शुक्ष्म विश्लेषण ना होना ।
अक्सर ज्योतिषी नक्षत्र को नजर अंदाज करते है
उदाहरण के लिये
किसी का तुला लग्न है
शनि उच्च राशि के हो
गुरु उच्च राशि के हो
चन्द्रमा स्वगृही हो
सूर्य उच्च के हो
शुक्र मेश राशि मे
ऐसे मे नवमांश  मे भी ऐसी ही स्थिति हो तो कैसे सबसे प्रभावशाली ग्रह का निर्धारण हो?
यहा पर नक्षत्र की भुमिका अहम होगी । सबसे ज्यादा ग्रह किसी 1 ग्रह के नक्षत्र मे होगे तो उस नक्षत्र का स्वामी ग्रह की जातक का भाग्य विधाता बन जायेगा ।
ऊपर के उदाहरन मे
शनि शुक्र के नक्षत्र पूर्व फाल्गुनी
गुरु शनि के नक्षत्र पुस्य
चन्द्र शनि के नक्षत्र पुस्य
सूर्य शुक्र के नक्षत्र मे
शुक्र शुक्र के नक्षत्र भरनी मे
बाकी ग्रह भी यदि पूर्वाफाल्गुनी , पूर्वाषाढ़ा शुक्र के नक्षत्र मे हो तो तो कहा जायेगा की जातक पर शुक्र का प्रभाव ज्यादा होगा इसलिये जातक को उच्च के गुरु सूर्य शनि जातक पर ज्यादा प्रभाव नहीं डाल पायेंगे ।

नक्षत्र विवरण

१) अश्विनी
नक्षत्र - अश्विनी , नक्षत्र देवता - अश्विनीकुमार , नक्षत्र स्वामी - केतु  ,  नक्षत्र  पूज्य वृक्ष - वत्सनाग  , नक्षत्र ऐच्छिक वृक्ष - अडोसा ( अडूसा ) , नक्षत्र चरणाक्षर - चु, चे, चो, ला ४ चरण मेष राशी में  , नक्षत्र प्राणी- घोडा नक्षत्र तत्व - वायु , नक्षत्र गण- देव ,  नक्षत्र स्वभाव – मृदु.
अश्विनी नक्षत्र में जन्म हुए मनुष्य के गुण:- अलंकार प्रेमी , सुंदर, मनोहर -जिनको देखनेसे मन प्रसन्न हो, समर्थ, और बुद्धिमान होते है !
अश्विनी से जुड़े व्यवसाय:-  प्रेरक प्रशिक्षक, अभियान प्रबंधक,  एथलीट, खेल से संबंधित व्यवसाय, हवाई जहाज/ ऑटो / नाव / घोड़ा दौड़ी , सैन्य, कानून प्रवर्तन, इंजीनियरिंग, जौहरी, चिकित्सा व्यवसाय, फार्मासिस्ट,  सलाहकार , औषधि माहिर, शारीरिक रूप से साहसी क्षेत्र में कला प्रदर्शन , अन्वेषक, शोधकर्ता, और माली !
                                         
२) भरणी
नक्षत्र -भरणी ,  नक्षत्र देवता - यमाद्य पितर, नक्षत्र स्वामी -शुक्र, नक्षत्र आराध्य वृक्ष - आंवला, नक्षत्र ऐच्छिक  वृक्ष- काला कत्था ,  राशी व्याप्ती - ली, लु, ले, लो  ४ चरण मेष राशी में ,  नक्षत्र प्राणी - हाथी ,  नक्षत्र तत्व - अग्नी, नक्षत्र स्वभाव –क्रूर , नक्षत्र गण- मनुष्य . 
भरणी नक्षत्र में पैदा हुए मनुष्य के गुण:- कार्य करनेकी क्षमता रखनेवाले , सत्य का मार्ग अपनानेवाले या सत्य बोलनेवले, निरोगी, चतुर और सुखी !
भरणी नक्षत्र से जुड़े व्यवसाय :- बच्चे से जुडी (शिक्षण, बच्चे की देखभाल, आदि), स्त्री रोग विशेषज्ञ, दाई, प्रजनन विशेषज्ञ, ताबूत बनानेवाला, संपत्ति सलाहकार, हत्या जासूसी, लेखक, अंतिम संस्कार सेवाओं के साथ जुड़े क्षेत्र,  मनोरंजन, मॉडल, विदेशी या यौनकर्मियों से जुड़े , न्यायाधीश, होटल उद्योग, खानपान, पशु चिकित्सक, आग सेनानी, सर्जन, फोटोग्राफर, चरम गोपनीयता, भूभौतिकी, भूकंप और ज्वालामुखी विशेषज्ञों की स्थिति।                                                                           
३) कृतिका
नक्षत्र-  कृतिका , नक्षत्र देवता – अग्नी  , नक्षत्र स्वामी – रवि  , नक्षत्र पूजनीय वृक्ष - गूलर (औदुंबर) ,
नक्षत्र ऐच्छिक  वृक्ष – बहेड़ा , राशी व्याप्ती – अ, १ चरण मेष राशि में . ई, ऊ, ऐ ३ चरण वृषभ राशी में
 नक्षत्र प्राणी- बकरी  ,  नक्षत्र तत्व –अग्नी  , नक्षत्र गण- राक्षस,  नक्षत्र स्वभाव – क्रूर.
कृत्तिका नक्षत्र में जन्म लेनेवालोंके गुण:- अधिकतर भोजन में रूचि रखनेवाले , तेजस्वी और  जीवन में तरक्की के आसमान को छूते है !
कृत्तिका नक्षत्र से जुड़े व्यवसाय :-  प्राधिकारी या प्रबंधन की स्थिति, जनरल, आलोचक, अध्यापक, विश्वविद्यालय व्यवसाय, वकील, तकनीकी व्यवसाय, चाकू या तलवार, तलवारबाजी, आर्चर, लोहार, जौहरी, सर्जन, विस्फोटक या आग से जुड़े व्यवसायों के रूप में तेज वस्तुओं से संबंधित किसी भी क्षेत्र से , आग सेनानी, पुलिस, सेना, खनिक, पुनर्वास विशेषज्ञ, प्रेरक ट्रेनर, मिट्टी के बरतन, आध्यात्मिक शिक्षक, हेयर स्टाइलिस्ट, दर्जी, और अनाथालय के लिए काम करना !
                                         
४ ) रोहिणी
नक्षत्र- रोहिणी , नक्षत्र देवता –ब्रम्हा  , नक्षत्र स्वामी – चंद्र , नक्षत्र पूजनीय वृक्ष -काला जामुन ( जांभळ)     नक्षत्र ऐच्छिक वृक्ष- बेल  , राशी व्याप्ती -  ओ, वा, वि, वू ४ चरण वृषभ राशी में , नक्षत्र प्राणी- सांप , नक्षत्र तत्व- पृथ्वी ,  नक्षत्र गण- मनुष्य  ,  नक्षत्र स्वभाव- मृदु.
रोहिणी नक्षत्र में जन्म लेनेवालोंके गुण:- साफ-सफाई में ध्यान देनेवाले, सच बोलना पसंद करनेवाले, स्थिर बुद्धिवाले, मधुर भाषण करनेवाले और सुन्दर दिखनेवाले ! 
रोहिणी नक्षत्र से जुडी वृत्ति :- कृषि, धान्य प्रसंस्करण, वनस्पति, वैद्य, कलाकार, संगीतकार, मनोरंजन उद्योग, कॉस्मेटिक उद्योग,   जौहरी, रत्न व्यापारी, इंटीरियर डेकोरेटर, बैंकर, परिवहन व्यवसाय, पर्यटन, ऑटोमोबाइल उद्योग, तेल और पेट्रोलियम, वस्त्र उद्योग, शिपिंग उद्योग, पैकेजिंग और वितरण, और किसी भी जलीय उत्पादों और तरल पदार्थ के साथ जुड़ा हुआ पेशा !     

५) मृगशीर्ष
नक्षत्र-  मृगशीर्ष ,  नक्षत्र देवता- चंद्र  , नक्षत्र स्वामी-  मंगळ  , नक्षत्र पूजनीय वृक्ष - काला कत्था , नक्षत्र ऐच्छिक वृक्ष- पीपल  , राशी व्याप्ती - वे, वो, २ चरण वृषभ राशी में , का, की २ चरण मिथुन राशी में ,  नक्षत्र प्राणी – सांप  , नक्षत्र तत्व- वायु  , नक्षत्र गण- देव , नक्षत्र स्वभाव- मृदु.
मृगशीर्ष नक्षत्र वाले मनुष्य के गुण:-  चतुर-चपल, उमंग से भरपूर, धनि, और सुख का भोग लेनेवाले !
मृगशीर्ष नक्षत्र से सम्बंधित कार्य :-  कलाकार के  गायक, संगीतकार, लेखक, कवि, चित्रकार, दार्शनिक, रत्न उद्योग, उत्पाद या सामग्री पृथ्वी से संबंधित, भूमि अभिवृद्धि, सर्वेक्षक, यात्रि, खोजकर्ता, इमारत ठेकेदार, व्यापार मशीनरी या इलेक्ट्रॉनिक्स से संबंधित, पशु चिकित्सक, पालतू जानवरों से संबंधित, फैशन और वस्त्र उद्योग, बिक्री प्रतिनिधि, विज्ञापन प्रसारक, शासन प्रबंध,  ज्योतिषि, शिक्षक की वृत्ति !

६) आर्द्रा
नक्षत्र –आर्द्रा, नक्षत्र देवता - रुद्र (शिव) , नक्षत्र स्वामी – राहु, नक्षत्र आराध्य वृक्ष - पिप्पली ( लम्बी काली मिर्च)
नक्षत्र पर्यायी वृक्ष – चंदन, नक्षत्र चरणाक्षर - कु,ख,ञ,छ. नक्षत्र प्राणी- कुत्ता, नक्षत्र तत्व- जल, नक्षत्र स्वभाव – तीक्ष्ण, नक्षत्र गण- मनुष्य.
जन्म नक्षत्र  फल:- जो अहंकार दिखाता हो, मदत करनेवालोंको भुला देनेवाला, हिंसा प्रेमी, और पाप कर्म करनेवाला !
नक्षत्र से जुडी वृत्ति:- शारीरिक श्रम से जुड़े काम,  इलेक्ट्रॉनिक्स, कंप्यूटर, सॉफ्टवेयर इंजीनियर, बिजली इंजीनियर, ध्वनि तकनीशियन, इलेक्ट्रॉनिक संगीत, वीडियो गेम डेवलपर, विशेष प्रभाव और 3-डी प्रौद्योगिकी, विज्ञान कथा लेखक, भाषाकोविद, चित्रकार , दार्शनिक, भौतिक विज्ञानी, शोधकर्ता, सर्जन, फार्मासिस्ट, परमाणु ऊर्जा उद्योग, मनोचिकित्सक, न्यूरोलॉजिस्ट के साथ काम करता है; जासूसी, बिक्री विशेषज्ञ, विश्लेषक, राजनेता, चोर, शतरंज खिलाड़ी आदि विषयों का ज्ञाता !

७) पुनर्वसु
नक्षत्र- पुनर्वसु, नक्षत्र देवता- अदिती, नक्षत्र स्वामी- गुरू, नक्षत्र आराध्य वृक्ष – बांस, नक्षत्र पर्यायी वृक्ष- बरगद
नक्षत्र चरणाक्षर- के,को,हा, ही, नक्षत्र प्राणी- बिल्ली, नक्षत्र तत्व- वायु,  नक्षत्र स्वभाव- सत्व, नक्षत्र गण- देव.
जन्म नक्षत्र फल:- सुखी, सुशिल, दमनशील, अल्प मेधावी, रोंगो से पीड़ित , अधिक प्यासा, और अल्प संतोषी ( थोड़ा मिलनेसेहि सतुंष्ट होनेवाला) !
नक्षत्र से जुडी वृत्तियाँ:- पर्यटन, यात्रा उद्योग, होटल प्रबंधक , व्यापार उद्योग, निर्माण, वास्तुकला, सिविल इंजीनियर्स, वैज्ञानिक, अध्यापक, लेखक, गूढ़ अध्ययन, दार्शनिक, मंत्रि, इतिहासकार, प्राचीन वस्तु का  व्यापारि, समाचार पत्र उद्योग, मकान मालिक, अंतरिक्ष यात्री, कोरियर, कारीगर, नवीन आविष्कार, तीरंदाजी, इनको अधिक तर अपने हाथों का उपयोग की आवश्यकता होती है !

८) पुष्य
नक्षत्र- पुष्य, नक्षत्र देवता- गुरु, नक्षत्र स्वामी- शनि, नक्षत्र आराध्य वृक्ष- पीपल,नक्षत्र पर्यायी वृक्ष- अंजीर
नक्षत्र चरणाक्षर- हु, हे, हो, डा, नक्षत्र प्राणी- बकरी, नक्षत्र तत्व- अग्नी, नक्षत्र स्वभाव- शुभ, नक्षत्र गण- देव
जन्म नक्षत्र फल:- जिनका मन सदा शांत रहता हो, महाज्ञानी, धनिक, सदा धर्म के मार्ग का अनुसरण करनेवाले और सुन्दर होते है !
नक्षत्र से जुडी वृत्तियाँ:- राजनेता, रईस, खानपान, खाद्य या पेय उद्योग, परिचारिक, डेयरी उद्योग, सलाहकार, मनोवैज्ञानिक, पादरी, पुजारि, पंडित,आध्यात्मिक सलाहकार, दान कार्यकर्ता, शिक्षक, बच्चे की देखभाल पेशेवर, कारीगर, अचल संपत्ति में व्यवसाय, किसान, पानी से संबंधित उद्योग, व्यापार रूढ़िवादी या पारंपरिक धर्मों से संबंधित कार्य में कुशल !

९) आश्लेषा
नक्षत्र- आश्लेषा, नक्षत्र देवता- सांप , नक्षत्र स्वामी - बुध, नक्षत्र आराध्य वृक्ष- नागकेसर ( लाल) , नक्षत्र पर्यायी वृक्ष -उंडी , नक्षत्र चरणाक्षर - डि,डू,डे,डो, नक्षत्र प्राणी- बिल्ली , नक्षत्र तत्व - जल , नक्षत्र स्वभाव- तीक्ष्ण  नक्षत्र गण- राक्षस.                 नक्षत्र जन्मफल:- जिद्दी स्वाभववला, अधिक आशावादी, पापकर्म निरत, और कृतघ्न , मदतगार को भूलनेवला !
विशेष:- इस नक्षत्र में जन्म लेनेवाले मनुष्य की नक्षत्र शांति पूजा करना अनिवार्य है.
नक्षत्र से जुडी वृत्ति - केमिस्ट या रासायनिक इंजीनियर, व्यवसाय जहर या खतरनाक सामग्री, पेट्रोलियम उद्योग, दवा उद्योग, ड्रग डीलर, तंबाकू उद्योग, चोर, गबन, वयस्क मनोरंजन उद्योग, सरीसृप, सपेरा, सर्जन, गुप्त आपरेशन-सर्विस, वकीलों के साथ काम करना, राजनीतिज्ञ सलाहकार, मनोवैज्ञानिक, कृत्रिम निद्रावस्था में लानेवाला, योग प्रशिक्षक, और नीमहकीम।

१०) मघा
नक्षत्र- मघा, नक्षत्र देवता- पितर, नक्षत्र स्वामी- केतु, नक्षत्र आराध्य वृक्ष- बरगद  , नक्षत्र पर्यायी वृक्ष- रिठा
नक्षत्र चरणाक्षर- मा,मि,मू,मे, नक्षत्र प्राणी- चूहा , नक्षत्र तत्व- अग्नी , नक्षत्र स्वभाव- क्रूर , नक्षत्र गण- राक्षस
नक्षत्र जन्मफल :- दो से ज्यादा भाई-बहन के साथ रहनेवाला, धनिक, हर तरह के भोग भोगनेवाला, भगवान और माता-पिता की भक्ति करनेवाला, सदा उत्साह से भरपूर !
नक्षत्र से जुडी वृत्ति:- प्रबंधक, कार्यकारी अधिकारी, अध्यक्ष, प्रशासन, रॉयल्टी, सरकारी अधिकारी, कथा लेखक, नौकरशाह, रईस, वकील, न्यायाधीश, रेफरी, राजनीतिज्ञ, लाइब्रेरियन, वक्ता, इतिहासकार, संग्रहालय में पदवी, एंटीक डीलर, पुरातत्व विद्वान जेनेटिक इंजीनियर, प्राचीन संस्कृति का शोध कर्ता, दस्तावेजीकरण  कलाकार, वक्ता, तांत्रिक !

११) पुर्वा (फाल्गुनी)
नक्षत्र- पुर्वा (फाल्गुनी) , नक्षत्र देवता -  भग ,  नक्षत्र स्वामी – शुक्र, नक्षत्र आराध्य वृक्ष - पलाश (पळस)
नक्षत्र पर्यायी वृक्ष- बेल, नक्षत्र चरणाक्षर - मो,टा,टी,टु,  नक्षत्र प्राणी- चूहा , नक्षत्र तत्व- क्रुर, नक्षत्र स्वभाव - सत्व
नक्षत्र गण- मनुष्य
नक्षत्र जन्मफल:- सदा प्रिय वचन बोलनेवाला, दान-धर्म करनेवाला, आकर्षक व्यक्तित्व , यात्रा प्रेमी और राज सेवक ( उच्च स्थान का सेवक )
नक्षत्र से जुडी वृत्तियाँ:-  कार्यकारी, सरकारी अधिकारी, मनोरंजन, मेकअप कलाकार, मॉडल, फोटोग्राफर, चित्रकार, कला संग्रहालय या गैलरी, संगीतकार, शिक्षक, रत्न व्यापारी, शारीरिक फिटनेस ट्रेनर, इंटीरियर डेकोरेटर, महिला के उत्पादों के साथ काम करते हैं, गुप्त -चिकित्सक, नींद चिकित्सक, जीवविज्ञानी, पर्यटन, कपास और रेशम उद्योग।

१२) उत्तरा (फाल्गुनी)
नक्षत्र- उत्तरा (फाल्गुनी) , नक्षत्र देवता-  अर्यमा , नक्षत्र स्वामी-  रवि, नक्षत्र आराध्य वृक्ष- पिंपरी( प्लक्ष )
नक्षत्र पर्यायी वृक्ष - श्वेत कनेर , नक्षत्र चरणाक्षर -  टे,टो,पा,पी, नक्षत्र प्राणी- गाय , नक्षत्र तत्व – वायु,       
नक्षत्र स्वभाव-  सत्व , नक्षत्र गण- मनुष्य
नक्षत्र जन्मफल:- दिखनेमें सुन्दर, अपनी विद्या से धन कमानेवाला, भोगी, और सुखोंका अनुभोग लेनेवाला !
नक्षत्र से जुडी वृत्ति:- मनोरंजन, संगीतकार, कलाकार, प्रबंधक, नेता, सार्वजनिक आंकड़ा, खेल सुपरस्टार, संगठन के प्रमुख, शिक्षक, उपदेशक, परोपकारि, शादी सलाहकार, संयुक्त राष्ट्र के साथ काम, राजनायक, संस्थापक, बैंकर, लेनदार, सामाजिक कार्यकर्ता, सलाहकार , कमांडर !

१३) हस्त
नक्षत्र- हस्त, नक्षत्र देवता- सुर्य, नक्षत्र स्वामी- चंद्र, नक्षत्र आराध्य वृक्ष- चमेली , नक्षत्र पर्याय वृक्ष- रिठा
नक्षत्र चरणाक्षर- पू,ष,ण,ठ , नक्षत्र प्राणी- भैंस , नक्षत्र तत्व- वायु, नक्षत्र स्वभाव- रज  , नक्षत्र गण- देव
नक्षत्र जन्मफल:- उमंग से भरपूर, धैर्यवान, जो पेय- जल से सम्बंधित वस्तु का प्रेमी, दयावान, और कालांतर से बुद्धि में बदलाव आने से चोरी का मार्ग अपनानेवाला।
नक्षत्र से जुड़े व्यवसाय:-  कारीगर, यांत्रिकी, गहने निर्मात विशेषज्ञ, शारीरिक श्रम, कसरत, सर्कस कलाकार, आविष्कारक, प्रकाशक, प्रिंटिंग उद्योग, कार्ड डीलर, जुआरी, बैंकर, लेखाकार, टाइपिस्ट  क्लीनर, नौकरानी, मालिश, रासायनिक उद्योग, वस्त्र उद्योग, टैरो कार्ड पाठक, ज्योतिषी, नीलामकर्ता, मिट्टी के बरतन कर्ता, इंटीरियर डेकोरेटर, माली, खाद्य उत्पादन, नावी, मूर्तिकार, पेशेवर हास्य अभिनेता, भाषण चिकित्सक, परीक्षण कलाकार, जादूगर और चोरी में माहिर !

१४) चित्रा
नक्षत्र- चित्रा, नक्षत्र देवता- त्वष्टा , नक्षत्र स्वामी- मंगळ, नक्षत्र आराध्य वृक्ष- बेल , नक्षत्र पर्याय वृक्ष- बकूल
नक्षत्र प्राणी- बाघ , नक्षत्र तत्व- वायु,  नक्षत्र स्वभाव- तीक्ष्ण ( तम),  नक्षत्र चरणाक्षर- पे,पो,रा,री,
नक्षत्र गण- राक्षस
नक्षत्र जन्मफल:- अधिक रंग-बेरंगी कपड़े, आभूषण, सजावट के वस्तु पहनना पसंद करनेवाला या पहननेवाला, बड़े तेजस्वी आँखे और सुन्दर दिखनेवाला.
नक्षत्र से जुडी वृत्ति:- आर्किटेक्ट, डिजाइनर, मूर्तिकार, कारीगर, फैशन डिजाइनर, कॉस्मेटिक डिजाइनर, प्लास्टिक सर्जन, फोटोग्राफर, ग्राफिक कलाकार, संगीतकार, प्रसारक, इंटीरियर डिजाइनर, गहने डिजाइनर, फेंग शुई विशेषज्ञ, आविष्कारक, मशीनरी के उत्पादन का व्यापारी, बिल्डर, चित्रकार , पटकथा लेखक, सेट डिजाइनर, कला निर्देशक, थिएटर कलाकार, झांज संगीतकार, औषधि माहिर, विज्ञापन, बहुमुखी प्रतिभाशाली।

१५) स्वाती
नक्षत्र- स्वाती , नक्षत्र देवता- वायु ,  नक्षत्र स्वामी- राहु, नक्षत्र आराध्य वृक्ष- अर्जुन ,  नक्षत्र पर्याय वृक्ष- जरुल
नक्षत्र चरणाक्षर- रू,रे,रो,ता .  नक्षत्र प्राणी- भैंसा ,  नक्षत्र तत्व- अग्नी ,  नक्षत्र स्वभाव- सत्व ,  नक्षत्र गण- देव
नक्षत्र जन्मफल:- दमनशील इंद्रिय निग्रह रखनेवाला मेहनती व्यापारी, कृपा का पात्र धर्म का आचरण करके प्रिय वचन से सब का मन प्रसन्न करनेवाला !
नक्षत्र से जुडी वृत्तियाँ:-  व्यवसाय और व्यापार, खेल, गायक, संगीतकार, हवा उपकरण, अन्वेषक, स्वतंत्र उद्यमी, पायलट,  शोधकर्ता, सेवा व्यवसाय, सॉफ्टवेयर उद्योग, चरम खेल, शिक्षक, राजदूत, वकील, न्यायाधीश, राजनीतिज्ञ, संघ के नेता, राजनयिक परिचारिक, योग प्रशिक्षक, से जुड़े काम में दिलचस्पी रखनेवाले !

१६) विशाखा
नक्षत्र- विशाखा, नक्षत्र देवता- इंद्राग्नी ,  नक्षत्र स्वामी- गुरू , नक्षत्र आराध्य वृक्ष- बबूल ( नागकेशर )       नक्षत्र पर्याय वृक्ष- पारिजात,  नक्षत्र गण- राक्षस,  नक्षत्र प्राणी- बाघ , नक्षत्र चरणाक्षर- ती,तो,ते,तू .   
नक्षत्र तत्व-  वायु,   नक्षत्र स्वभाव- रज.
नक्षत्र जन्मफल:- द्वेषी जो दूसरे पर जलने वाला, लोभी, परन्तु तेजस्वी, बोलने में समर्थ वाग्मी, हरबात पर जघडनेवाला।
नक्षत्र से जुड़े काम और व्यवसाय:- शोधकर्ता, वैज्ञानिक, सैनिक, सैन्य नेता, लेखक, राजनेता, वकील, सार्वजनिक वक्ता, आव्रजन अधिकारि, पुलिस गार्ड, मजदूर, फैशन मॉडल, भाषण (प्रसारक) से जुड़े व्यवसाय, धार्मिक कट्टरपंथि, नर्तक, शराब का व्यापारी आदि विषयोंमें रूचि रखनेवाले हो सकते है !

१७) अनुराधा
नक्षत्र- अनुराधा, नक्षत्र देवता- मित्र , नक्षत्र स्वामी- शनि, नक्षत्र आराध्य वृक्ष- नागकेशर, नक्षत्र पर्याय वृक्ष-  बकुल ( मोलसिरि),  नक्षत्र चरणाक्षर- ना,नि,नू,ने .  नक्षत्र प्राणी- हिरन ,  नक्षत्र तत्व- पृथ्वी ,  नक्षत्र स्वभाव- सत्व ,   नक्षत्र गण- देव
जन्म नक्षत्रफल:-   जो अनुराधा नक्षत्र में जन्म लेता है वह धनवान, विदेश वासी या विदेश से लगाव रहनेवाला, अधिक भूक से बाधित, और सदा घूमनेवाला, प्रयाणप्रिय !
नक्षत्र से जुड़े व्यवसाय :-  कलाकार, संगीतकार, व्यवसाय प्रबंधन, पर्यटन उद्योग, दंत चिकित्सक, आपराधिक वकील, खनन इंजीनियर, वैज्ञानिक, सांख्यिकीविद्, गणितज्ञ, मानसिक माध्यम, ज्योतिषि, जासूस, फोटोग्राफर, सिनेमा, उद्योगपति, सलाहकार, मनोवैज्ञानिक, खोजकर्ता, राजनयिक, विदेशी देशों से जुड़े व्यवसाय समूह की गतिविधि संगठन / संस्था के कार्यकारी.

१८) जेष्ठा
नक्षत्र- जेष्ठा, नक्षत्र देवता- इंद्र, नक्षत्र स्वामी- बुध,  नक्षत्र आराध्य वृक्ष- सांबर ( खजूर) ,  नक्षत्र पर्याय वृक्ष- बेतस, नक्षत्र चरणाक्षर- नो,या,यी,यु .  नक्षत्र प्राणी- हिरन ,  नक्षत्र तत्व- पृथ्वी, नक्षत्र स्वभाव- तम, नक्षत्र गण- राक्षस.
जन्म नक्षत्रफल:-  मित्रों की संख्या कम रहनेवाला , अर्थात कम-कम से मित्रता करनेवाला, सदा आनंद से परिपूर्ण, धर्म मार्ग से चलनेवाला, और गरम मिजाजवाला !
नक्षत्र से जुडी वृत्तियाँ :-  संगीतकार, सैन्य नेता, राजनेता, पुलिस जासूस, इंजीनियर, प्रबंधक, दार्शनिक, बुद्धिजीवी, स्वरोजगार, सरकारी अधिकारि, प्रशासनिक पद, पत्रकार, रेडियो और टीवी कमेंटेटर, टॉक शो होस्ट, अभिनेता,फायरब्रिगेड, माफिया, वन रेंजर, साल्वेशन आर्मी के साथ व्यवसाय, शारीरिक श्रम, एथलीट, हवाई यातायात नियंत्रण, रडार, सर्जन।

१९) मूळ
नक्षत्र- मूळ, नक्षत्र देवता- निॠति (राक्षस),  नक्षत्र स्वामी- केतु, नक्षत्र आराध्य वृक्ष- राळ, नक्षत्र पर्याय वृक्ष- बबूल, नक्षत्र चरणाक्षर- ये,यो,भा,भी .  नक्षत्र प्राणी- कुत्ता ,  नक्षत्र तत्व- जल,  नक्षत्र स्वभाव- तम,  नक्षत्र गण- राक्षस .
जन्म नक्षत्रफल:-  धनवान सम्मानित सुखी मनुष्य, परजन हिंसा से बाधित , स्थिर स्वभाववाला और सुख का अनुभाग लेनेवाला !
नक्षत्र से जुडी वृत्ति :-  व्यापार, बिक्री, डॉक्टर, फार्मासिस्ट, दार्शनिक, सार्वजनिक वक्ता, विवादकर्ता, प्रचारक, लेखक, वकील, राजनेता, आध्यात्मिक शिक्षक, चिकित्सक, औषधि माहिर, दंत चिकित्सक, दवा पुरुष,       मनोचिकित्सक, संन्यासि, पुलिस अधिकारि, जांचकर्ता, सैनिक, आनुवंशिक शोधकर्ता, खगोल विज्ञानी , ताबूत बनानेवाला, रॉक संगीतकार, तांत्रिक अध्ययन, खनन उद्योग, विनाशकारी गतिविधि से सम्बंधित !

२०) पूर्वाषाढा
नक्षत्र- पूर्वाषाढा,  नक्षत्र देवता- जल, नक्षत्र स्वामी- शुक्र, नक्षत्र आराध्य वृक्ष- वेत, नक्षत्र पर्याय वृक्ष- गिलोय
नक्षत्र चरणाक्षर- भू,ध,प,ढ. नक्षत्र प्राणी- वानर,  नक्षत्र तत्व- जल ,  नक्षत्र स्वभाव- रज,  नक्षत्र गण- मनुष्य .
जन्म नक्षत्रफल:-  सुन्दर-सुशिल सदा आनंद में रहनेवाली स्त्री का पति , अर्थात मनचाही पत्नी के साथ रहनेवाला, सम्मानित और अचल स्नेह-दया से परिपूर्ण !
नक्षत्र से जुड़े कार्य:-  नेता, वकील, सार्वजनिक वक्ता, प्रेरक वक्ता, लेखक, अभिनेता, कलाकार, मनोरंजन, कवि, शिक्षक, पर्यटन उद्योग, विदेशी व्यापारि, शिपिंग उद्योग, नौसेना अधिकारी, समुद्री विशेषज्ञ, मत्स्य उद्योग, मनोचिकित्सक, कच्चे माल का उद्योग, पानी और तरल पदार्थ से सम्बंधित  व्यवसाय, रिफाइनर, युद्ध रणनीतिकार, कॉस्ट्यूम डिजाइनर, हेयर स्टाइलिस्ट, वैद्यों के लिए करना !

२१) उत्तराषाढा
नक्षत्र- उत्तराषाढा,  नक्षत्र देवता- विश्वदेव, नक्षत्र स्वामी- रवि, नक्षत्र आराध्य वृक्ष- कटहल,  नक्षत्र पर्याय वृक्ष- कांचन, नक्षत्र चरणाक्षर- भे, भो,जा,जी,   नक्षत्र प्राणी- मुंगुस,  नक्षत्र तत्व- पृथ्वी, नक्षत्र स्वभाव- स्थिर नक्षत्र गण- मनुष्य.
जन्म नक्षत्र फल :-  धार्मिक देवभक्त, विनय गुण से संपन्न,भारी मात्रा में मित्र और अपने लोगोंमे रहनेवाला, कृतज्ञ और सुन्दर दिखनेवाले होते है !
नक्षत्र से जुड़े व्यापार;- बड़ी जिम्मेदारी और नैतिक प्रकृति, से सम्बंधित, वैज्ञानिक, सैन्य कार्यकर्ता, सामाजिक कार्यकर्ता, सरकारी कर्मचारी, प्रचारक, पुजारि, सलाहकार, ज्योतिषि, वकील, न्यायाधीश, मनोवैज्ञानिक, घोड़े का व्यवसाय, खोजकर्ता, पहलवान, एथलीट, शिकारी, मुक्केबाज, व्यापार के अधिकारि के व्यवसाय , प्राधिकरण के आंकड़ों का व्यवसाय, सुरक्षा कर्मि, समग्र चिकित्सक।

२२) श्रवण
नक्षत्र- श्रवण, नक्षत्र देवता- विष्णु, नक्षत्र स्वामी- चंद्र,  नक्षत्र आराध्य वृक्ष- अर्क ,( दूधिया पौधा)  नक्षत्र पर्याय वृक्ष- आम ,  नक्षत्र चरणाक्षर- शी,शू,शे,शो.  नक्षत्र प्राणी- वानर,  नक्षत्र तत्व- पृथ्वी, नक्षत्र स्वभाव- चर,  नक्षत्र गण- देव.
जन्म नक्षत्रफल:-  धनवान हर तरह के आनंद से परिपूर्ण , वेद-शास्त्र का ज्ञाता, बड़े दिलवाला ,अपने परिवार जन के साथ प्रेम से रहनेवाला और प्रसिद्ध व्यक्ति कहलानेवाला !
नक्षत्र से जुड़े कार्य:- शिक्षक, भाषाविद्, भाषण चिकित्सक, भाषा अनुवादक, कथाकार  धार्मिक विद्वान, शिक्षक, नेता, शोधकर्ता, भूविज्ञानी, टेलीफोन ऑपरेटर, प्राचीन परंपरा का शोधकर्ता, हास्य अभिनेता, संगीत उद्योग, समाचार प्रसारक, टॉक शो होस्ट, सलाहकार, मनोचिकित्सकों के संरक्षण, मनोवैज्ञानिक, ज्योतिषि, रेडियो ऑपरेटर, परिवहन, पर्यटन, होटल और रेस्तरां उद्योग, चिकित्सक, समग्र चिकित्सा, दान कार्यकर्ता !

२३) धनिष्ठा
नक्षत्र- धनिष्ठा, नक्षत्र देवता- वसु, नक्षत्र स्वामी- मंगळ, नक्षत्र आराध्य वृक्ष- शमी, नक्षत्र पर्याय वृक्ष- नीम
नक्षत्र चरणाक्षर- गा,गी,गू,गे.  नक्षत्र प्राणी- सिंह,  नक्षत्र तत्व- पृथ्वी, नक्षत्र स्वभाव- शुभ , नक्षत्र गण- राक्षस.
जन्म नक्षत्रफल:- दान-धर्म करनेवाला, शूरता से धन कमानेवाला परंतु लोभी अर्थात  अनुभोग की अपेक्षा करनेवाला, संगीत प्रेमी और धनवान कहलानेवाला होगा !
नक्षत्र से जुडी वृत्ति:-  संगीतकार, नर्तकी, कलाकार, डॉक्टर, सर्जन, रियल एस्टेट एजेंट, संपत्ति प्रबंधन, वैज्ञानिक, शोधकर्ता, भौतिक विज्ञानी, इंजीनियरिंग, खनन, धर्मार्थ कार्यकारी , कवि, मनोरंजन, व्यापार, गीतकार, संगीत वाद्ययंत्र, गायक, मणि डीलर के निर्माता, एथलीट, समूह समन्वयक, ज्योतिषि, समग्र चिकित्सक।

२४) शततारका
नक्षत्र- शततारका, नक्षत्र देवता- वरुण, नक्षत्र स्वामी- राहु, नक्षत्र आराध्य वृक्ष- कदंब, नक्षत्र पर्याय वृक्ष- आपटा
नक्षत्र प्राणी- घोडा, नक्षत्र तत्व- जल, नक्षत्र स्वभाव- चर, नक्षत्र चरणाक्षर- गो,सा,सी,सू.  नक्षत्र गण- राक्षस.
जन्म नक्षत्रफल:-  स्पष्टतासे सामने से बोलनेवाला, अच्छे-बुरे आदत से पीड़ित, अपने धैर्य से शत्रु का संहार करनेवाला अर्थात शत्रु पर विजय प्राप्त करनेवाला और किसीके हाथ नहीं आनेवाला !
नक्षत्र से सम्बंधित व्यवसाय:- चिकित्सक, सर्जन, एक्स-रे तकनीशियन, खगोल विज्ञानी, ज्योतिषि, इंजीनियर, वैमानिकी, अंतरिक्ष इंजीनियर, पायलट, परमाणु विज्ञानि, शोधकर्ता, बिजली, लेखक, सचिव, फिल्म और टेलीविजन, दवा, जड़ी बूटियों का कार्य कर्ता, ड्रग डीलर, अपशिष्ट निपटान, प्लास्टिक और पेट्रोलियम, ऑटोमोबाइल उद्योग, अन्वेषक !

२५) पुर्वाभाद्रपदा
नक्षत्र- पुर्वाभाद्रपदा, नक्षत्र देवता- अजैक चरण, नक्षत्र स्वामी- गुरू, नक्षत्र आराध्य वृक्ष- आम , नक्षत्र पर्याय वृक्ष- हिरडा,  नक्षत्र चरणाक्षर- से,सो,दा,दी.  नक्षत्र प्राणी- सिंह, नक्षत्र तत्व- अग्नी, नक्षत्र स्वभाव- सत्व           नक्षत्र गण- मनुष्य.
जन्म नक्षत्रफल:- दुःख से चिंतित रहनेवाला, स्त्रीवश, धनिक, दान देने में समर्थ कहलानेवाला और दान-धर्म करनेवाला कहलाएगा !
नक्षत्र से जुडी वृत्तियां:- व्यापार, प्रशासन, संख्याकोविद ,ज्योतिषी, पुजारी, तपस्वी, ताबूत निर्माताओं, कब्रिस्तान के रखवाले, सर्जन, चिकित्सक, मनोचिकित्सक, कट्टरपंथि, कण, हॉरर या रहस्य कहानिकार, हथियार निर्माता, काला जादू, चमड़ा उद्योग के लेखक, हत्या जासूस, धातु उद्योग, आग, विषाक्त पदार्थों का व्यवसाय।

२६) उत्तराभाद्रपदा
नक्षत्र- उत्तराभाद्रपदा,  नक्षत्र देवता- अहिर्बुधन्य, नक्षत्र स्वामी- शनि, नक्षत्र आराध्य वृक्ष- नीम
नक्षत्र पर्याय वृक्ष- आमला ,  नक्षत्र चरणाक्षर-,  नक्षत्र प्राणी- गाय, नक्षत्र तत्व- जल, नक्षत्र गण-  मनुष्य,  नक्षत्र स्वभाव- रज .
जन्म नक्षत्रफल:-  जिनका जन्म इस नक्षत्र में होता है वह व्यक्ति अधिक बोलनेवाले,सुखी, शत्रुपर विजय प्राप्त करनेवाले होंगे तथा धर्म पर निष्ठा रखकर  अपने पुत्र ,परिवार के साथ आनंद से रहेंगे !
नक्षत्र से जुड़े व्यवसाय:-  दार्शनिक, लेखक, शिक्षक, धर्मार्थ कार्य, आयात या निर्यात काम, पर्यटन उद्योग, धार्मिक कार्य, ज्योतिषि, योग और ध्यान के विशेषज्ञ, परामर्शदाता, चिकित्सक, आरोग्य, तांत्रिक व्यवसायी, साधु, संगीतकार, रात का चौकीदार, इतिहासकार, पुस्तकालय, विरासत पर रहने वाले लोगों के साथ रहना इत्यादि !

२७) रेवती
नक्षत्र- रेवती, नक्षत्र देवता- पूषा, नक्षत्र स्वामी- बुध, नक्षत्र आराध्य वृक्ष- मोह ( मधुक ), नक्षत्र पर्याय वृक्ष- जेष्ठमध या इमली ,  नक्षत्र चरणाक्षर- दे,दो,चा,चि, नक्षत्र प्राणी- हाथी ,  नक्षत्र तत्व- जल नक्षत्र स्वभाव- मृदु  नक्षत्र गण- देव
जन्म नक्षत्रफल:-  सदा साफ सुतरा रहना पसंद करनेवाले, धैर्य और शौर्यता को प्रदर्शन करनेवाले धनि बनेंगे इनका शरीर भी मजबूत होगा !
नक्षत्र से जुडी वृत्तियाँ:-  धर्मार्थ कार्य, शहरी योजनाकार, सरकारी कर्मचारि, मनोविज्ञान, रहस्यमय या धार्मिक कार्य, कृत्रिम निद्रावस्था में लानेवाला, ट्रैवल एजेंट, विमान परिचारिका, पत्रकार, संपादक, प्रकाशक, अभिनेता, हास्य कलाकार, राजनेता, चित्रकार, संगीतकार, मनोरंजन, भाषाविद्, जादूगर,सड़क योजनाकार, ज्योतिषि, प्रबंधक, रत्न डीलर, शिपिंग उद्योग, अनाथालय या पालक की देखभाल, ड्राइविंग व्यवसाय, हवाई यातायात नियंत्रण, यातायात पुलिस, प्रकाश घर के काम से सम्बंधित हो सकते है।

सोमवार, 3 सितंबर 2018

जन्म कुंडली की डिटेल के बिना जन्म कुंडली बनाने की विधि


गुमीय साधन गणित..द्वारा।।

माना कि ये थोडा कठिन है परन्तु इस विधा से किसी भी मनुष्य की जन्म कुंंडली ... बिना जन्म डिटेल के भी बनाई जा सकती है बस कुछ दिन अभ्यास जरूर कर लेना चाहिये ताकि ... पूर्णं रूपेण समझ में आ जाऐ।।

      जानें कैसे....

कभी कभी किसी कारणवश जन्म तारीख और दिन माह वार आदि का पता नही होता है, कितनी ही कोशिशि की जावे लेकिन जन्म तारीख का पता नही चल पाता है, जातक को सिवाय भटकने के और कुछ नही प्राप्त होता है, किसी ज्योतिषी से अगर अपनी जन्म तारीख निकलवायी भी जावे तो वह क्या कहेगा, इसका भी पता नही होता है, इस कारण के निवारण के लिये आपको कहीं और जाने की जरूरत नही है, किसी भी दिन उजाले में बैठकर एक सूक्षम दर्शी सीसा लेकर बैठ जावें, और अपने दोनो हाथों बताये गये नियमों के अनुसार देखना चालू कर दें, साथ में एक पेन या पैंसिल और कागज भी रख लें, तो देखें कि किस प्रकार से अपना हाथ जन्म तारीख को बताता है।
अपनी वर्तमान की आयु का निर्धारण करें
हथेली मे चार उंगली और एक अगूंठा होता है, अंगूठे के नीचे शुक्र पर्वत, फ़िर पहली उंगली तर्जनी उंगली की तरफ़ जाने पर अंगूठे और तर्जनी के बीच की जगह को मंगल पर्वत, तर्जनी के नीचे को गुरु पर्वत और बीच वाली उंगली के नीचे जिसे मध्यमा कहते है, शनि पर्वत, और बीच वाली उंगले के बाद वाली रिंग फ़िंगर या अनामिका के नीचे सूर्य पर्वत, अनामिका के बाद सबसे छोटी उंगली को कनिष्ठा कहते हैं, इसके नीचे बुध पर्वत का स्थान दिया गया है, इन्ही पांच पर्वतों का आयु निर्धारण के लिये मुख्य स्थान माना जाता है, उंगलियों की जड से जो रेखायें ऊपर की ओर जाती है, जो रेखायें खडी होती है, उनके द्वारा ही आयु निर्धारण किया जाता है, गुरु पर्वत से तर्जनी उंगली की जड से ऊपर की ओर जाने वाली रेखायें जो कटी नही हों, बीचवाली उंगली के नीचे से जो शनि पर्वत कहलाता है, से ऊपर की ओर जाने वाली रेखायें, की गिनती करनी है,ध्यान रहे कि कोई रेखा कटी नही होनी चाहिये,शनि पर्वत के नीचे वाली रेखाओं को ढाई से और बृहस्पति पर्वत के नीचे से निकलने वाली रेखाओं को डेढ से, गुणा करें,फ़िर मंगल पर्वत के नीचे से ऊपर की ओर जाने वाली रेखाओं को जोड लें, इनका योगफ़ल ही वर्तमान उम्र होगी।

अपने जन्म का महिना और सूर्य राशि को पता करने का नियम।

अपने दोनो हाथों की तर्जनी उंगलियों के तीसरे पोर और दूसरे पोर में लम्बवत रेखाओं को २३ से गुणा करने पर जो संख्या आये, उसमें १२ का भाग देने पर जो संख्या शेष बचती है,वही जातक का जन्म का महिना और उसकी राशि होती है, महिना और राशि का पता करने के लिये इस प्रकार का वैदिक नियम अपनाया जा सकता है:-
१-बैशाख-मेष राशि
२.ज्येष्ठ-वृष राशि
३.आषाढ-मिथुन राशि
४.श्रावण-कर्क राशि
५.भाद्रपद-सिंह राशि
६.अश्विन-कन्या राशि
७.कार्तिक-तुला राशि
८.अगहन-वृश्चिक राशि
९.पौष-धनु राशि
१०.माघ-मकर राशि
११.फ़ाल्गुन-कुम्भ राशि
१२.चैत्र-मीन राशि
इस प्रकार से अगर भाग देने के बाद शेष १ बचता है तो बैसाख मास और मेष राशि मानी जाती है,और २ शेष बचने पर ज्येष्ठ मास और वृष राशि मानी जाती है।
हाथ में राशि का स्पष्ट निशान भी पाया जाता है। प्रकृति ने अपने द्वारा संसार के सभी प्राणियों की पहिचान के लिये अलग अलग नियम प्रतिपादित किये है,जिस प्रकार से जानवरों में अपनी अपनी प्रकृति के अनुसार उम्र की पहिचान की जाती है,उसी प्रकार मनुष्य के शरीर में दाहिने या बायें हाथ की अनामिका उंगली के नीचे के पोर में सूर्य पर्वत पर राशि का स्पष्ट निशान पाया जाता है। उस राशि के चिन्ह के अनुसार महिने का उपरोक्त तरीके से पता किया जा सकता है।

पक्ष और दिन का तथा रात के बारे में ज्ञान करना।।

वैदिक रीति के अनुसार एक माह के दो पक्ष होते है,किसी भी हिन्दू माह के शुरुआत में कृष्ण पक्ष शुरु होता है,और बीच से शुक्ल पक्ष शुरु होता है,व्यक्ति के जन्म के पक्ष को जानने के लिये दोनों हाथों के अंगूठों के बीच के अंगूठे के विभाजित करने वाली रेखा को देखिये,दाहिने हाथ के अंगूठे के बीच की रेखा को देखने पर अगर वह दो रेखायें एक जौ का निशान बनाती है, तो जन्म शुक्ल पक्ष का जानना चाहिये। और जन्म दिन का माना जाता है, इसी प्रकार अगर दाहिने हाथ में केवल एक ही रेखा हो, और बायें हाथ में अगर जौ का निशान हो तो जन्म शुक्ल पक्ष का और रात का जन्म होता है,अगर दाहिने और बायें दोनो हाथों के अंगूठों में ही जौ का निशान हो तो जन्म कृष्ण पक्ष रात का मानना चाहिये,।
साधारणत: दाहिने हाथ में जौ का निशान शुक्ल पक्ष और बायें हाथ में जौ का निशान कृष्ण पक्ष का जन्म बताता है।

जन्म तारीख की गणना।

मध्यमा उंगली के दूसरे पोर में तथा तीसरे पोर में जितनी भी लम्बी रेखायें हों,उन सबको मिलाकर जोड लें,और उस जोड में ३२ और मिला लें,फ़िर ५ का गुणा कर लें,और गुणनफ़ल में १५ का भाग देने जो संख्या शेष बचे वही जन्म तारीख होती है। दूसरा नियम है कि अंगूठे के नीचे शुक्र क्षेत्र कहा जाता है,इस क्षेत्र में खडी रेखाओं को गुना जाता है,जो रेखायें आडी रेखाओं के द्वारा काटी गयीं हो,उनको नही गिनना चाहिये,इन्हे ६ से गुणा करने पर और १५ से भाग देने पर शेष मिली संख्या ही तिथि का ज्ञान करवाती है,यदि शून्य बचता है तो वह पूर्णमासी का भान करवाती है,१५ की संख्या के बाद की संख्या को कृष्ण पक्ष की तिथि मानी जाती है।

जन्म वार का पता करना।

अनामिका के दूसरे तथा तीसरे पोर में जितनी लम्बी रेखायें हों,उनको ५१७ से जोडकर ५ से गुणा करने के बाद ७ का भाग दिया जाता है,और जो संख्या शेष बचती है वही वार की संख्या होती है। १ से रविवार २ से सोमवार तीन से मंगलवार और ४ से बुधवार इसी प्रकार शनिवार तक गिनते जाते है।

जन्म समय और लगन की गणना।

सूर्य पर्वत पर तथा अनामिका के पहले पोर पर,गुरु पर्वत पर तथा मध्यमा के प्रथम पोर पर जितनी खडी रेखायें होती है,उन्हे गिनकर उस संख्या में ८११ जोडकर १२४ से गुणा करने के बाद ६० से भाग दिया जाता है,भागफ़ल जन्म समय घंटे और मिनट का होता है,योगफ़ल अगर २४ से अधिक का है,तो २४ से फ़िर भाग दिया जाता है। इस तरह घंटे-मि.  आदि जन्मादि काल प्राप्त हो जाता है...
 अब इन सभी से सहज और पूर्ण जन्म कुंंडली तैयार करके,  जाचक का सटीक फलित भी किया जा सकता है।
            लेखक- पं. कृपाराम उपाध्याय,भोपाल

सोमवार, 20 अगस्त 2018

संतान बाधा योग

हर स्त्री-पुरुष की यह कामना होती है कि उन्हें एक योग्य संतान उत्पन हो जिससे उनका वंश चले और वह उम्र के आखरी पड़ाव में उनका सहारा बने। नीचे दिए गए ग्रह योग जो संतान बाधक योग हैं,  यदि किसी की कुंडली में मौजूद हो तो उन्हें अवश्य सचेत हो जाना चाहिए और समय रहते उचित उपाय के जरिये उन प्रतिकूल ग्रहों को अनुकूल बनाना चाहिए जिनके वजह यह बाधक योग उत्पन्न हुए हैं।

1:- लग्न से, चंद्र से तथा गुरु से पंचम स्थान पाप ग्रह से यक्त हो और वहाँ कोई शुभ ग्रह न बैठा हो न ही शुभ ग्रह की दृष्टि हो।

2:- लग्न, चंद्र तथा गुरु से पंचम स्थान का स्वामी छठे, आठवें या बारहवें भाव में बैठा हो।

3:- यदि पंचमेश पाप ग्रह होते हुए पंचम में हो तो पुत्र होवे किन्तु शुभ ग्रह पंचमेश होकर पंचम में बैठ जाये और साथ में कोई पाप ग्रह हो तो वह पाप ग्रह संतान बाधक बनेगा।

4:- यदि पंचम भाव में वृष, सिंह, कन्या या वृश्चिक राशि हो और पंचम भाव में सूर्य, आठवें भाव में शनि तथा लग्न में मंगल  स्थित हो तो संतान होने में दिक्कत होती है एवं विलंब होता है।

5:- लग्न में दो या दो से अधिक पाप ग्रह हों तथा गुरु से पांचवें स्थान पर भी पाप ग्रह हो तथा ग्यारहवें भाव में चन्द्रमा हो तो भी संतान होने में विलंब होता है।

6:- प्रथम, पंचम, अष्टम एवं द्वादस । इन चारो भावों में अशुभ ग्रह हो तो वंश वृद्धि में दिक्कत होती है।

7:- चतुर्थ भाव में अशुभ ग्रह, सातवें में शुक्र तथा दसवें में चन्द्रमा हो तो भी वंश वृद्धि के लिए बाधक है।

8:- पंचम भाव में चंद्रमा तथा लग्न, अष्टम तथा द्वादश भाव में पाप ग्रह हो तो भी वंश नहीं चलता।

9:- पंचम में गुरु, सातवें भाव में बुध- शुक्र तथा चतुर्थ भाव में क्रूर ग्रह होना संतान बाधक है।

10:- लग्न में पाप ग्रह, लग्नेश पंचम में, पंचमेश तृतीय भाव में हो तथा चन्द्रमा चौथे भाव में हो तो पुत्र संतान नहीं होता।

11:- पंचम भाव में मिथुन, कन्या, मकर या कुंभ राशि हो। शनि वहां बैठा हो या शनि की दृष्टि पांचवे भाव पर हो तो पुत्र संतान प्राप्ति में समस्या होती है।

12:- षष्ठेश, अष्टमेश या द्वादशेश पंचम भाव में हो या पंचमेश 6-8-12 भाव में बैठा हो या पंचमेश नीच राशि में हो या अस्त हो तो संतान बाधायोग उत्पन्न होता है।

13:- पंचम में गुरु यदि धनु राशि का हो तो बड़ी परेशानी के बाद संतान की प्राप्ति होती है।

14:- पंचम भाव में गुरु कर्क या कुंभ राशि का हो और गुरु पर कोई शुभ दृष्टि नहीं हो तो प्रायः पुत्र का आभाव ही रहता है।

15:- तृतीयेश यदि 1-3-5-9 भाव में बिना किसी शुभ योग के हो तो संतान होने में रूकावट पैदा करते हैं।

16:- लग्नेश, पंचमेश, सप्तमेश एवं गुरु सब के सब दुर्बल हों तो जातक संतानहीन होता है।

17:- पंचम भाव में पाप ग्रह, पंचमेश नीच राशि में बिना किसी शुभ दृष्टि के तो जातक संतानहीन होता है।

18:-  सभी पाप ग्रह यदि चतुर्थ में बैठ जाएँ तो संतान नहीं होता।

19:- चंद्रमा और गुरु दोनों लग्न में हो तथा मंगल और शनि दोनों की दृष्टि लग्न पर हो तो पुत्र संतान नहीं होता ।

20:- गुरु दो पाप ग्रहों से घिरा हो और पंचमेश निर्बल हो तथा शुभ ग्रह की दृष्टि या स्थिति न हो तो जातक को संतान होने में दिक्कत होता है।

21:- दशम में चंद्र, सप्तम में राहु तथा चतुर्थ में पाप ग्रह हो तथा लग्नेश बुध के साथ हो तो जातक को पुत्र नहीं होता ।

22:- पंचम,अष्टम, द्वादश तीनो स्थान में पाप ग्रह बैठे हों तो जातक को पुत्र नहीं होता।

23:- बुध एवं शुक्र सप्तम में, गुरु पंचम में तथा चतुर्थ भाव में पाप ग्रह हो एवं चंद्र से अष्टम भाव में भी पाप ग्रह हो तो जातक के लड़का नहीं होता।

24:- चंद्र पंचम हो एवं सभी पाप ग्रह 1-7-12 या 1-8-12 भाव में हो तो संतान नहीं होता ।

25:- पंचम भाव में तीन या अधिक पाप ग्रह बैठे हों और उनपर कोई शुभ दृष्टि नहीं हो तथा पंचम भाव पाप राशिगत हो तो संतान नहीं होता।

26:- 1-7-12 भाव में पाप ग्रह शत्रु राशि में हों तो पुत्र होने में दिक्कत होती है ।

27:- लग्न में मंगल, अष्टम में शनि, पंचम में सूर्य हो तो यत्न करने पर ही पुत्र प्राप्ति होती है।

28:- पंचम में केतु हो और किसी शुभ गृह की दृष्टि न हो तो संतान होने में परेशानी होती है।

29:- पति-पत्नी दोनों के जन्मकालीन शनि तुला राशिगत हो तो संतान प्राप्ति में समस्या होती है।

मंगलवार, 14 अगस्त 2018

ज्योतिष में गर्भाधान काल

ज्योतिष में गर्भाधान काल
पुरुष के वीर्य और स्त्री के रज से मन सहित जीव (जीवात्मा) का संयोग जिस समय होता है उसे गर्भाधान काल कहते हैं। गर्भाधान का संयोग (काल) कब आता है ? इसे ज्योतिष शास्त्र बखूबी बता रहा है। चरक संहिता के अनुसार – आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी इन पंच महाभूतों और इनके गुणों से युक्त हुआ आत्मा गर्भ का रुप ग्रहण करके पहले महीने में अस्पष्ट शरीर वाला होता है। सुश्रुत ने इस अवस्था को ‘कलल’ कहा है। ‘कलल’ भौतिक रूप से रज, वीर्य व अण्डे का संयोग है।
शुक्ल पक्ष की दशमी से कृष्ण पक्ष की पंचमी तक चंद्रमा को शास्त्रकारों ने पूर्णबली माना है। शुक्ल पक्ष के चंद्रमा की कलाऐं जैसे-जैसे बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे स्त्री-पुरुषों के मन में प्रसन्नता और काम-वासना बढ़ती है। जब गोचरीय चंद्रमा का शुक्र अथवा गुरु से दृष्टि या युति संबंध होता है, तब इस फल की वृद्धि होती है।

सफल प्रेम की डेटिंग का समय

जिस समय आपकी राशि से गोचर का चंद्रमा चौथा, आठवां बारहवां न हो। रश्मियुक्त हो। शुक्र अथवा गुरु से दृष्ट या युत हो। उस समय प्रेमी या प्रेमिका से आपकी मुलाकात (डेटिंग) सफल होती है और आपकी मनोकामना पूर्ण होती है। इस मुहूर्त में आपकी पत्नी भी सहवास के लिए सहर्ष तैयार हो जाती है यह अनुभव सिद्ध है।

  गर्भाधान की क्रिया का वैज्ञानिक दृष्टिकोण

यह सभी जानते हैं कि गर्भाधान करने के लिए यौन संपर्क स्थापित करना पड़ता है, किंतु पति-पत्नी के प्रत्येक यौन संपर्क के दौरान गर्भाधान संभव नहीं होता है। यौन संपर्क तो बहुत बार होता है, परंतु गर्भाधान कभी-कभी संभव हो पाता है। वैज्ञानिकों के अनुसार पुरुष के वीर्य में स्थित शुक्राणु जब स्त्री के रज में स्थित अण्डाणु में प्रवेश कर जाते हैं, तो गर्भ स्थापन्न हो जाता है। निषेचन की इस जैविक प्रक्रिया को गर्भाधान कहते हैं। यह प्रक्रिया स्त्री के गर्भाशय में होती है। निःसंतान दंपत्तियों (बांझ स्त्री/नपुंसक पुरुष) के लिए निषेचन की यह क्रिया परखनली में कराई जाती है। इससे उत्पन्न भ्रूण को ‘टेस्ट ट्यूब बेबी’ कहते हैं। इसके विकास के लिए बेबी भ्रूण को किसी अन्य स्त्री के गर्भाशय में रख दिया जाता है। जिसे सेरोगेट्स या किराये की कोख कहते हैं।

आयुर्वेद की दृष्टि से गर्भोत्पत्ति का कारण

चरक संहिता के अनुसार – जब स्त्री पुराने रज के निकल जाने के बाद नया रज स्थित होने पर शुद्ध होकर स्नान कर लेती है और उसकी योनि, रज तथा गर्भाशय में कोई दोष नहीं रहता, तब उसे ऋतुमती कहते हैं। ऐसी स्त्री से जब दोष रहित बीज (शुक्राणु) वाला पुरुष यौन क्रिया करता है, तब वीर्य, रज तथा जीव इन तीनों का संयोग होने पर गर्भ उत्पन्न होता है। यह जीव (जीवात्मा) गर्भाशय में प्रवेश करके वीर्य तथा रज के संयोग से स्वयं को गर्भ के रूप में उत्पन्न करता है। ज्योतिष में जीव (गुरु) को गर्भोत्पत्ति का प्रमुख कारक माना है।

वीर्य, रज, जीव और मन का संयोग ही गर्भ है:-

महर्षि आत्रेय मुनि ने कहा है- पुनर्जन्म लेने की इच्छा से जीवात्मा मन के सहित पुरुष के वीर्य में प्रवेश कर जाता है तथा क्रिया काल में वीर्य के साथ स्त्री के रज में प्रवेश कर जाता है। स्त्री के गर्भाशय में वीर्य, रज, जीव और मन के संयोग से ‘गर्भ’ की उत्पत्ति होती है।
पुरुष के वीर्य और स्त्री के रज से मन सहित जीव (जीवात्मा) का संयोग जिस समय होता है उसे गर्भाधान काल कहते हैं। गर्भाधान का संयोग (काल) कब आता है ? इसे ज्योतिष शास्त्र बखूबी बता रहा है।

गर्भ उत्पत्ति की संभावना का योग

जब स्त्री की जन्म राशि से अनुपचय (1, 2, 4, 5, 7, 8, 9, 12) स्थान में गोचरीय चंद्रमा मंगल द्वारा दृष्ट हो, उस समय स्त्री की रज प्रवृत्ति हो तो ऐसा रजो दर्शन गर्भाधान का कारण बन सकता है अर्थात गर्भाधान संभव होता है। क्योंकि यह ‘ओब्यूटरी एम.सी.’ होती है। इस प्रकार के मासिक चक्र में स्त्री के अण्डाशय में अण्डा बनता है तथा 12वें से 16वें दिन के बीच स्त्री के गर्भाशय में आ जाता है। यह वैज्ञानिकों की मान्यता है, हमारी मान्यता के अनुसार माहवारी शुरु होने के 6वें दिन से लेकर 16वें दिन तक कभी भी अण्डोत्सर्ग हो सकता है। यदि छठवें दिन गर्भाधान हो जाता है तो वह श्रेष्ठ कहलाता है। यह ब्रह्माजी का कथन है।
मासिक धर्म प्रारंभ होने से 16 दिनों तक स्त्रियों का स्वाभाविक ऋतुकाल होता है। जिनमें प्रारंभ के 4 दिन निषिद्ध (वर्जित) हैं। इसके पश्चात शेष रात्रियों में गर्भाधान (निषेक) करना चाहिए।

पुरुष की राशि से गर्भाधान के योग:-

गर्भ धारण की इच्छुक स्त्री की योग्यता और उसके अनुकूल समय से काम नहीं बनता है। गर्भाधान हेतु पुरुष की योग्यता व उसके अनुकूल समय का होना भी आवश्यक है।

"शीतज्योतिषि योषितोऽनुपचयस्थाने कुजेनेक्षिते,
जातं गर्भफलप्रदं खलु रजः स्यादन्यथा निष्फलम्।
दृष्टेऽस्मिन् गुरुणा निजोपचयगे कुर्यान्निषेक पुमान,
अत्याज्ये च समूलभे शुभगुणे पर्वादिकालोज्झिते।।"

जातक पारिजात में आचार्य वैद्यनाथ ने लिखा है –   1:- स्त्री की जन्मराशि से अनुपचय स्थानों में चंद्रमा हो तथा मंगल से दृष्ट या संबद्ध हो तब गर्भाधान संभव है, अन्यथा निष्फल होता है।
2:-पुरुष की जन्म राशि से उपचय (3, 6,10,11) स्थानों में चंद्र गोचर हो और उसे संतान कारक गुरु देखे तो पुरुष को गर्भाधान में प्रवृत्त होना चाहिए।
3:-पुरुष की जन्म राशि से 2, 5, 9वें स्थान में जब गुरु गोचर करता है तब वह गर्भाधान करने में सफल होता है। क्योंकि 2रे स्थान का गुरु 6 और 10वें चंद्रमा को तथा 5वें स्थान से 11वें चंद्रमा को और 9वां गुरु 3रे चंद्रमा को देखेगा।
4:-द्वि, पंच, नवम गुरु से गर्भाधान की संभावना का स्थूल आकलन किया जाता है।
5:-पुरुष की जन्म राशि से 3, 6, 10, 11वें स्थान में सूर्य का गोचर हो तो गर्भाधान की संभावना रहती है।

गर्भाधान का शुभ मुहूर्त एवं लग्न शुद्धि

वैद्यनाथ द्वारा कथित उपरोक्त योग गर्भ उत्पत्ति की संभावना के योग हैं। गर्भाधान संस्कार हेतु शुभ या अशुभ मुहूर्त से इसका कोई संबंध नहीं है। गर्भ उत्पत्ति संभावित होने पर ही किसी अच्छे ज्योतिषी से गर्भाधान का मुहूर्त निकलवाना चाहिए। यही हमारी संस्कृति का प्राचीन नियम है।
शुभ मुहूर्त में गर्भाधान संस्कार करने से सुंदर, स्वस्थ, तेजस्वी, गुणवान, बुद्धिमान, प्रतिभाशाली और दीर्घायु संतान का जन्म होता है। इसलिए इस प्रथम संस्कार का महत्व सर्वाधिक है।
गर्भाधान संस्कार हेतु स्त्री (पत्नी) की जन्म राशि से चंद्र बल शुद्धि आवश्यक है।
 :-जन्म राशि से 4, 8, 12 वां गोचरीय चंद्रमा त्याज्य है।
:-आधान लग्न में भी 4, 8, 12वें चंद्रमा को ग्रहण नहीं करना चाहिए।
:-आधात लग्न में या आधान काल में नीच या शत्रु राशि का चंद्रमा भी त्याज्य है।
:-जन्म लग्न से अष्टम राशि का लग्न त्याज्य है।
:-आघात लग्न का सप्तम स्थान शुभ ग्रहों से युक्त या दृष्ट होना चाहिए। ऐसा होने से कामसूत्र में वात्स्यायन द्वारा बताये गये सुंदर आसनों का प्रयोग करते हुए प्रेमपूर्वक यौन संपर्क होता है और गर्भाधान सफल होता है।
:-आघात लग्न में गुरु, शुक्र, सूर्य, बुध में से कोई शुभ ग्रह स्थित हो अथवा इनकी लग्न पर दृष्टि हो तो गर्भाधान सफल होता है एवं गर्भ समुचित वृद्धि को प्राप्त होता है तथा होने वाली संतान गुणवान, बुद्धिमान, विद्यावान, भाग्यवान और दीर्घायु होती है। यदि उक्त ग्रह बलवान हो तो उपरोक्त फल पूर्ण रूप से मिलते हैं।
:-गर्भाधान में सूर्य को शुभ ग्रह माना गया है और विषम राशि व विषम नवांश के बुध को ग्रहण नहीं करना चाहिए।
:-आघात लग्न के 3, 5, 9 भाव में यदि सूर्य हो तो गर्भ पुत्र के रूप में विकसित होता है।
:-गर्भाधान के समय लग्न, सूर्य, चंद्र व गुरु बलवान होकर विषम राशि व विषम नवांश में हो तो पुत्र जन्म होता है। यदि ये सब या इनमें से अधिकांश ग्रह सम राशि व सम नवांश में हो तो पुत्री का जन्म होता है।
:-आधान काल में यदि लग्न व चंद्रमा दोनों शुभ युक्त हों या लग्न व चंद्र से 2, 4, 5, 7, 9, 10 में शुभ ग्रह हों, तथा पाप ग्रह 3, 6, 11 में हो और लग्न या चंद्रमा सूर्य से दृष्ट हो तो गर्भ सकुशल रहता है।
:-गर्भाधान संस्कार हेतु अश्विनी, रोहिणी, मृगशिरा, हस्त, स्वाती, अनुराधा, तीन उत्तरा, धनिष्ठा, रेवती नक्षत्र प्रशस्त है।
:-पुरुष का जन्म नक्षत्र, निधन तारा (जन्म नक्षत्र से 7, 16, 25वां नक्षत्र) वैधृति, व्यतिपात, मृत्यु योग, कृष्ण पक्ष की अष्टमी, चतुर्दशी, अमावस्या, पूर्णिमा व सूर्य संक्रांति काल गर्भाधान हेतु वर्जित है।
:- स्त्री के रजोदर्शन से ग्यारहवीं व तेरहवीं रात्रि में भी गर्भाधान का निषेध है। शेष छठवीं रात्रि से 16वीं रात्रि तक लग्न शुद्धि मिलने पर गर्भाधान करें।

गर्भ का विकास:-

चरक संहिता के अनुसार – आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी इन पंच महाभूतों और इनके गुणों से युक्त हुआ आत्मा गर्भ का रुप ग्रहण करके पहले महिने में अस्पष्ट शरीर वाला होता है। सुश्रुत ने इस अवस्था को ‘कलल’ कहा है। ‘कलल’ भौतिक रूप से रज, वीर्य व अण्डे का संयोग है। गर्भ दूसरे मास में दाना (पिण्ड) हो जाता है।
भगवान धन्वंतरि के अनुसार – तीसरे महिने में नेत्रादि इन्द्रियां व हृदय सहित सभी अंग गर्भ में एक साथ उत्पन्न होते हैं। परंतु उनका रूप सूक्ष्म होता है। आचार्य वराह मिहिर के अनुसार – चौथे मास में हड्डी, पांचवें मास में त्वचा, छठे मास में रोम, सातवें मास में चेतना, आठवें मास में भूख-प्यास की अनुभूति, नवें मास में गर्भस्थ शिशु बाहर आने हेतु छटपटाने लगता है और दशवें मास में पके फल की भांति गर्भ से मुक्त होकर बाहर आ जाता है। अर्थात् गर्भ धारण से दशवें महिने में स्वाभाविक (प्राकृतिक) रूप से प्रसव हो जाना चाहिए।

गर्भ रक्षा

1. शुक्र, 2. मंगल, 3. गुरु, 4. सूर्य, 5. चंद्रमा, 6. शनि, 7. बुध, 8. आघात लग्न का स्वामी, 9 चंद्रमा, 10. सूर्य
ये दस क्रमशः गर्भ मासों के स्वामी (अधिपति) हैं। मासेश जैसी शुभ अशुभ स्थिति में होता है, वैसी ही गर्भस्थ शिशु की स्थिति रहती है।
प्रथम, द्वितीय या तृतीय मास में यदि मासेश पाप पीड़ित हो तो उस ग्रह की बलवता या शुभता प्राप्ति के उपाय करना चाहिए। जिससे गर्भ की रक्षा होती है एवं गर्भपात नहीं होता है।
गर्भवती स्त्री का आहार-विहार तथा आचार-व्यवहार उत्तम होना चाहिए। गर्भवती स्त्री का स्नेहन (मालिश) और स्वेदन (पसीना निकालना) कर्म करने से गर्भ प्राकृतिक रूप से बढ़ता है।
शहद के साथ पुत्रजीवा के आधा तोला चूर्ण को सुबह शाम खाने से गर्भ सुरक्षित रहता है।
गर्भवती स्त्री द्वारा घी, दूध का सेवन करने से गर्भ पुष्ट होता है तथा प्रसव भी आसानी से हो जाता है।
जिस समय पुरुष (पति) की जन्म राशि से उपचय (3, 6, 10, 11) स्थानों में शुक्ल पक्ष का चंद्रमा भ्रमण कर रहा हो तथा गोचरीय चंद्रमा, गोचर के गुरु या शुक्र से दृष्ट हो तथा सम तिथि को स्वविवाहिता स्त्री में गर्भाधान करने से गुणवान व सुयोग्य पुत्र का आगमन होता है।

ऋतुकाल :-

 रजस्राव के प्रथम दिन स्त्री चाण्डाली, दूसरे दिन ब्रह्मघातिनी और तीसरे दिन धोबिन के समान अपवित्र रहती है। इन तीन दिनों में गर्भाधान करने से नरक से आये हुए पापी जीव के शरीर की उत्पत्ति होती है। अतः ऋतुकाल के प्रारंभिक दिनों में गर्भाधान कदापि न करें। मासिक धर्म (ऋतुकाल) के दिनों में स्त्रियों को चाहिए कि वे किसी पुरुष से संपर्क न करें। किसी के पास बैठना और वार्तालाप नहीं करना चाहिए। ऐसा करने से आने वाली संतान पर अशुभ प्रभाव पड़ता है।
वेदांग ज्योतिष में ऋतुकाल की प्रथम चार रात्रियां तथा ग्यारहवीं और तेरहवीं निन्दित है। ऋतुस्राव के प्रथम 4 दिन-रात रोगप्रद होने के कारण गर्भाधान हेतु वर्जित है। ग्यारहवीं रात्रि में गर्भाधान करने से अधर्माचरण करने वाली कन्या उत्पन्न होती है। तेरहवीं रात्रि के गर्भाधान से मूर्ख, पापाचरण करने वाली, अपने माता-पिता को दुःख, शोक और भय प्रदान करने वाली दुष्ट कन्या का जन्म होता है।
कड़वी, खट्टी, तीखी, उष्ण वस्तुओं का सेवन न करके पांच दिन तक मधुर सेवन करें। छठवीं रात्रि में स्नान आदि से शुद्ध होकर गर्भ धारण करना चाहिए।

जीव का गर्भ में प्रवेश

जीव का मनुष्य योनि में प्रवेश: श्रीमद् भगवद्गीता के अनुसार शुभ-अशुभ कर्म (मिश्रित कर्म) करने वाला राजस प्रकृति (प्रवृत्ति) का जीव मनुष्य योनि में जन्म लेता है। अन्य शास्त्रों के अनुसार चैरासी लाख योनियों में जन्म लेने के बाद जीव को मनुष्य योनि (शरीर) की प्राप्ति होती है। नरक लोक में पापी जीव नरक यातना भुगतने के बाद पाप कर्मों का क्षय होने के उपरांत शुद्ध होकर मनुष्य योनि में जन्म लेता है तथा पुण्यवान पुरुष स्वर्ग लोक में अपने पुण्य कर्मों का सुख भोगता है, पुण्य कर्मों के क्षीण हो जाने के बाद जीव धर्मात्मा या धनवान मनुष्यों के यहां जन्म लेता है।

“जन्म प्राप्नोति पुण्यात्मा ग्रहेषूच्चगतेषु च।”

पुण्यात्मा पुरुष के जन्म के समय अधिकांश ग्रह अपनी उच्च राशि में होते हैं।
एक रात्रि के शुक्र-शोणित योग से कोदो के सदृश्य, पांच रात्रि में बुद्बुद सदृश्य, दस दिन होने पर बदरी फल के समान होता है। तदंतर मांस पिण्डाकार होता हुआ पेशीपिंड अण्डाकार होता है। एक माह में गर्भस्थ भ्रूण पुरुष के हाथ के अंगूठे के अग्रिम पोर के बराबर आकार का हो जाता है।
विरोध परिहार: सबसे पहले तो मैं यह स्पष्ट कर दूं कि गर्भ मासों की गणना गर्भाधान के दिन से करना चाहिए। पूर्व या पश्चात की एम.सी. तिथि – राजो दर्शन के समय से नहीं।
प्रथम माह में मास पिंड में से शिशु के (अर्थात् भ्रूण के) बाहरी मस्तक की रचना हो जाती है। हाथ, पैर आदि अंगों की रचना दूसरे माह में हो जाती है। यह तो स्पष्ट ही है। इसके साथ ही आंख, कान, नाक, मुंह, लिंग और गुदा की रचना भी हो जाती है किंतु इनके छिद्र नहीं खुलते हैं। तीसरा माह पूर्ण होने तक सभी इन्द्रियों के छिद्र खुल जाते हैं। ज्ञानेन्द्रियों की रचना के बाद भी ज्ञान प्राप्ति नहीं होती है।
रूधिर, मेद, मास, मज्जा, हड्डियों व नसों की रचना चौथे माह में हो जाती है। आचार्य वराह मिहिर ने हड्डियों व नसों की चौथे माह में होना तो ठीक बताया है किंतु पांचवें माह में चमड़ी का और छठवें माह में रुधिर व नख (नाखूनों) का निर्माण ठीक नहीं है। क्योंकि इनका निर्माण तो पूर्व में ही हो जाता है। ऐसा गुरुड़ पुराण का मत है।
पांचवें माह में क्षुधा-तृष्णा उत्पन्न होना यह पौराणिक मत ठीक नहीं है क्योंकि गर्भस्थ जीव में चेतना और ज्ञान की प्राप्ति सातवें माह में बताई गई है तो फिर इससे पूर्व क्षुधा व तृष्णा (भूख-प्यास) कैसे उत्पन्न होगी ?
भूख-प्यास, स्वाद और ओज आदि का आठवें माह में उत्पन्न होना। यह आचार्य वराहमिहिर का मत उपयुक्त व सटीक जान पड़ता है।
मासाधिपति के पीड़ित होने पर गर्भपात हो जाता है।-
आचार्य वराहमिहिर के अनुसार –
"मासाधिपतौ निपीड़िते, तत्कालं स्त्रवणं समादिशेत्।"
अतः गर्भ मास के स्वामी ग्रह के पीड़ित होने पर तत्काल गर्भ स्राव/गर्भपात हो जाता है। जिस मास में मासाधिपति बलवान या शुभ दृष्ट हो उस मास में सुखपूर्वक गर्भ की वृद्धि होती है। जब गोचर मान से मंगल, शुक्र या गुरु पाप ग्रह से दृष्ट या युत होते हैं, अथवा अपनी नीच या शत्रु राशि में होते हैं तो क्रमशः प्रथम, द्वितीय या तृतीय मास में गर्भपात हो जाता है। सबसे अधिक गर्भपात मंगल के कारण ही होते हैं क्योंकि मंगल रक्त का कारक है। अतः गर्भावस्था के प्रारंभ में मंगल ग्रह के शांत्यर्थ उपाय करना चाहिए तथा शुक्रादि कोई ग्रह यदि पाप पीड़ित हो तो उस हेतु भी मंत्र जाप व दान आदि करना चाहिए इससे गर्भ सुरक्षित रहता है। यहां हम एक बात देना चाहते हैं कि सूर्य, चंद्रमा गर्भ को पुष्ट करने वाले और प्रसव कारक होते हैं। गर्भ के तीसरे महिने में जब गर्भस्थ शिशु के लिंगादि अंगों की रचना होती है उस समय गर्भवती स्त्री को यदि सूर्य तत्व वाली औषधियां खिलाई जावे तो सूर्य तत्व की अधिकता के कारण गर्भस्थ शिशु पुरूष लिंगी बन जाता है।

गर्भ रक्षा की नवमांस चिकित्सा

प्रयत्नपूर्वक गर्भ की रक्षा करना पति-पत्नी दोनों का संयुक्त दायित्व है। गर्भावस्था में स्त्री को काम, क्रोध, लोभ, मोह से बचना चाहिए। गर्भवती स्त्री को अत्यधिक ऊंचे या नीचे स्थानों पर नहीं जाना चाहिए। गर्भवती स्त्री को कठिन यात्राऐं वर्जित है। गर्भवती स्त्री को कठिन आसन या व्यायाम नहीं करना चाहिए। तीखे, खट्टे, कड़वे अत्याधिक गरम पदार्थों का सेवन करने से या गर्भ पर किसी प्रकार का दबाव पड़ने से गर्भ नष्ट हो जाता है।
लड़ाई, झगड़ा, शोक, कलह और मैथुन/यौन संपर्क से स्त्री को बचना चाहिए। गर्भस्थ शिशु का स्वास्थ्य अच्छा रहे, उसके शरीर का समुचित विकास होता रहे तथा गर्भवती स्त्री शारीरिक रूप से इतनी सक्षम हो कि उचित समय पर सर्वगुण संपन्न, सुखी व स्वस्थ शिशु को सुखपूर्वक जन्म दे सके। इस हेतु ‘चरक संहिता’ में महर्षि चरक ने नवमास चिकित्सा का विधान वर्णित किया है।
प्रथम मास: मासिक धर्म का समय आने पर भी जब ऋतुस्राव न हो तथा गर्भ स्थापना के लक्षण प्रकट होने लगे तब प्रथम मास में गर्भवती स्त्री को सुबह शाम मिश्री मिला हुआ ठंडा दूध पीना चाहिए।
द्वितीय मास: द्वितीय मास में दस ग्राम शतावर के मोटे चूर्ण को 200 ग्राम दूध में 200 ग्राम पानी मिलाकर, दस ग्राम मिश्री डालकर धीमी आग पर उबालंे, जब सारा पानी उड़ जाए और दूध ही शेष बचे तो इसे छानकर गुनगुना होने पर घूंट घूंट करके गर्भवती स्त्री पीएं। यह प्रयोग सुबह और रात को सेाने से आधा घंटा पूर्व करेें।
तृतीय मास: इस मास में गर्म दूध को ठंडा करके एक चम्मच शुद्ध घी और तीन चम्मच शहद घोलकर सुबह शाम पीना चाहिए।
चतुर्थ मास: इस मास में दूध के साथ ताजा मख्खन बीस ग्राम की मात्रा में सुबह शाम सेवन करना चाहिए।
पंचम मास: पांचवें मास में सिर्फ दूध व शुद्ध घी का अपनी पाचन शक्ति के अनुरूप सेवन करें।
छठा मास: इस मास में द्वितीय मास की भांति क्षीर पाक (शतावर साधित दूध) का सेवन करना चाहिए।
सप्तम मास: इस मास में छठे मास का प्रयोग जारी रखें।
आठवां मास: इस मास में दूध -दलिया, घी उबालकर शाम के भोजन में भरपेट खाना चाहिए।
नवम मास: नवें मास में शतावर साधित तेल में रुई का फाहा भिगोकर रोजाना रात को सोते समय योनि के अंदर गहराई में रख लिया करें। एक माह तक यह प्रयोग करने से प्रसव के समय अधिक कष्ट नहीं होगा और सुखपूर्वक प्रसव हो सकेगा।
दसवें माह में जब प्रसव वेदना होने लगे तब वचा (वच) की छाल को एरंड के तेल में घिसकर गर्भवती स्त्री की नाभि के आसपास और नीचे पेडू पर मलें। लगाएं ऐसा करने से सुखपूर्वक नार्मल डिलीवरी होगी।
आधुनिक प्रजनन तकनीक भले ही निःसंतान दंपत्ति के लिए आशा की किरण साबित हुई हो। किंतु ‘डिजाईनर किड्स’ टेस्ट ट्यूब बेबी और सेरोगेसी को समाज के अधिकांश लोग यदि अपनाने लग जाये तो आगे आने वाली पीढ़ी में असंवेदना, संस्कारहीनता और अनैतिकता तथा असामाजिकता निश्चित ही बढ़ जायेगी। इसमें कोई संदेह नहीं है।
कौन नहीं चाहता कि उसके बच्चे तन-मन से सुंदर, स्वस्थ तथा बुद्धि से तेजस्वी हो। किंतु मात्र चाहने से क्या हो ? बोते तो हम नीम की निबोली है फिर हमें आम के मीठे फल कैसे प्राप्त होंगे ? गांव का अनपढ़ किसान भी भलीभांति जानता है कि कौन सी फसल कब बोना चाहिए। प्रत्येक पशु पक्षी भी किसी विशेष ऋतु काल में ही समागम करते हैं। किंतु स्वयं को सर्वश्रेष्ठ प्राणी कहने वाला मनुष्य आज भूल गया है कि उसे गर्भाधान कब करना चाहिए और कब नहीं।
श्रेष्ठ और सर्वगुण संपन्न संतान प्राप्ति का भारतीय मनीषियों के पास एक पूरा जन्म विज्ञान था। उनके पास ऐसे अनेक नुस्खे थे जिससे वे शिशु के जन्म से पूर्व ही उसकी प्रोग्रामिंग कर लेते थे फलतः उन्हें मनोवांछित संतान की प्राप्ति हो जाती थी। अथर्ववेदांग ज्योतिष, मनुस्मृति और व्यास सूत्र में बुद्धिमान और प्रतिभाशाली तथा गुण, कर्म, स्वभाव से अच्छी संतान प्राप्ति के सूत्र दिये हुए हैं। उन्हें हम समीक्षात्मक ढंग से सार रूप में लोक कल्याण हेतु प्रस्तुत कर रहे हैं।
1. जिस दिन स्त्री को रजस्राव (रजोदर्शन) शुरू होता है वह उसके मासिक धर्म का प्रथम दिन/रात कही जाती है। स्त्री के मासिक धर्म के प्रथम दिन से लेकर सोलहवें दिन तक का स्वाभाविक ऋतुकाल माना गया है। ऋतुकाल में ही गर्भाधान करें।
2. ऋतुकाल की प्रथम चार रात्रियां रोगकारक होने के कारण निषिद्ध हैं। इसी तरह ग्यारहवीं और तेरहवीं रात्रि भी निंदित है। अतः इन छः रात्रियों को छोड़कर शेष दस रात्रियों में ही गर्भाधान करें। इन दस रात्रियों में भी यदि कोई पर्व-व्रतादि हो तो भी समागम न करें।
3. उपरोक्त विधि से चयन की गई रात्रियों के अलावा शेष समय पति-पत्नी संयम से रहें। क्योंकि ब्रह्मचारी का वीर्य ही श्रेष्ठ होता है, कामी पुरूषों का नहीं और श्रेष्ठ बीजों से ही श्रेष्ठ फलों की उत्पत्ति होती है।
4. गर्भाधान हेतु ऋषियों ने रात्रि ही महत्वपूर्ण मानी है। अतः रात्रि के द्वितीय प्रहर (10 से 1 बजे) में ही समागम करें। ऐतरेयोपनिषद् के अनुसार- ‘दिन में यौन संपर्क स्थापित से प्राण क्षीण होते हैं’। इसी उपनिषद में प्रदोष काल अर्थात् गोधूली बेला भी यौन संपर्क हेतु निषिद्ध कही गई है।
5. शारीरिक, मानसिक रूप से स्वस्थ तथा निरोगी, बुद्धिमान और श्रेष्ठ संतान चाहने वाली दंपत्ति को चाहिए कि वह गर्भकाल/गर्भावस्था में यौन संपर्क कदापि न करें। अन्यथा होने वाली संतान जीवन भर काम वासना से त्रस्त रहेगी तथा उसे किसी भी प्रकार का शारीरिक मानसिक रोग/विकृति हो सकती है।
6. संस्कारवान और सच्चरित्र संतान की कामना वाली गर्भवती स्त्री को चाहिए वह गर्भावस्था के दौरान काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईष्र्या, द्वेष आदि विकारों का परित्याग कर दे। शुभ आचरण करें और प्रसन्नचित रहें।

किस रात्रि के गर्भ से कैसी संतान होगी ?

चौथी रात्रि में गर्भधारण करने से जो पुत्र पैदा होता है, वह अल्पायु, गुणों से रहित, दुःखी और दरिद्री होता है।
पांचवीं रात्रि के गर्भ से जन्मी कन्या भविष्य में सिर्फ लड़कियां ही पैदा करेगी।
छठवीं रात्रि के गर्भ से उत्पन्न पुत्र मध्यम आयु (32-64 वर्ष) का होगा।
सातवीं रात्रि के गर्भ से उत्पन्न कन्या अल्पायु और बांझ होगी।
आठवीं रात्रि के गर्भ से पैदा पुत्र सौभाग्यशाली और ऐश्वर्यवान होगा।
नौवीं रात्रि के गर्भ से सौभाग्यवती और ऐश्वर्यशालिनी कन्या उत्पन्न होती है।
दसवीं रात्रि के गर्भ से चतुर (प्रवीण) पुत्र का जन्म होता है।
ग्यारहवीं रात्रि के गर्भ से अधर्माचरण करने वाली चरित्रहीन पुत्री पैदा होती है।
बारहवीं रात्रि के गर्भ से पुरूषोत्तम/सर्वोत्तम पुत्र का जन्म होता है।
तेरहवीं रात्रि के गर्भ से मूर्ख, पापाचरण करने वाली, दुःख चिंता और भय देने वाली सर्वदुष्टा पुत्री का जन्म होता है। ऐसी पुत्री वर्णशंकर कोख वाली होती है जो विजातीय विवाह करती है जिससे परंपरागत जाति, कुल, धर्म नष्ट हो जाते हैं।
चैदहवीं रात्रि के गर्भ से जो पुत्र पैदा होता है तो वह पिता के समान धर्मात्मा, कृतज्ञ, स्वयं पर नियंत्रण रखने वाला, तपस्वी और अपनी विद्या बुद्धि से संसार पर शासन करने वाला होता है।
पंद्रहवीं रात्रि के गर्भ से राजकुमारी के समान सुंदर, परम सौभाग्यवती और सुखों को भोगने वाली तथा पतिव्रता कन्या उत्पन्न होती है।
सोलहवीं रात्रि के गर्भ से विद्वान, सत्यभाषी, जितेंद्रिय एवं सबका पालन करने वाला सर्वगुण संपन्न पुत्र जन्म लेता है।

सोमवार, 13 अगस्त 2018

ससुराल की दूरी जानने के सूत्र

ससुराल की दूरी

(१) अपने ही गांव या शहर मे विवाह ;-
 सप्तम भाव मे यदि शुभ ग्रहो चंद्र,बुध,गुरू,शुक्र की राशि या नवांश पडे और सप्तमेश शुभ होकर शुभ नवांश मे पडे तो जातक का विवाह अपने ही गांव या आस पास या अपने ही शहर मे होता है|

(२) ७० से ८० किमी की दूरी के अन्तर्गत विवाह ;-
सप्तम भाव मे यदि वृष,सिंह,वृश्चिक या कुंभ राशि पडे और सप्तमेश शुभ युक्त या शुभ दृष्ट हो तो लगभग ५०मील या ७०-८० किमी दूरी पर विवाह होता है|

(३) १०० या १२५ किमी दूरी पर विवाह ;-
 सप्तम भाव मे यदि मिथुन,कन्या,धनु या मीन राशि पडे और सप्तमेश द्विस्वभाव नवांश मे हो तो जातक का ससुराल १००-१२५किमी की दूरी पर होता है|

(४) १५० या २०० किमी दूरी के अन्तर्गत विवाह ;
सप्तम भाव मे यदि मेष,कर्क,तुला,मकर राशि पडे और सप्तमेश चर नवांश मे हो तो जातक का विवाह १५०-२०० किमी दूरी के अन्तर्गत होता है|

गुरुवार, 9 अगस्त 2018

मृत्यु कुंडली के कुछ विशेष सूत्र


(1)जन्म कुंडली के तरह मृत्यु कुंडली बनाई जाती है जिसमे मृत व्यक्ति का मृत्यु के पशछात की गति देखी जाती है।
(2)मृत्यु कुंडली मे सूर्य और गुरु की स्तिथी महत्वपूर्ण होती है।
(3)मोक्षभाव 4,8,12 भी महत्वपूर्ण होते है।
(4) 4था भाव मृत्यु के पूर्व का समय, 8वा भाव मृत्यु का समय एवम 12वा मृत्यु के बाद  के समय को दर्शाता है।
(5) सूर्य यदि राहु, शनि के साथ हो अथवा 6वे, 12वे भ्रमण कर रहा हो तो इसका मतलब व्यक्ति की आत्मा सही मार्ग से भटक गई है।
(6) 8वे भाव मे सूर्य ,चंद्र हो तो अर्थात मृत्यु के पश्चात स्वर्ग प्राप्ति होगी।
(7) 8वे भाव मे गुरु,बुध,शुक्र भी हो तो देवलोक की प्राप्ति होगी।
(8) 8वे भाव मे मंगल हो तो व्यक्ति पुनः धरती पर आएगा।
(9) 8वे मे शनि,राहु,केतु हो तो व्यक्ति नीच योनि में जन्म लेगा।
(10) शुभ ग्रहों का 4,8,12 से सम्बंध हो तो अगला जन्म सम्पन्न अथवा अच्छे घराने मे होता है।
(11) 12वे भाव मे बृहस्पति ,केतु हो तो मोक्ष मिल जाता है शर्त है शनि की दृष्टि 12वे भाव मे ना हो।
Note- उपर्युक्त जितने भी सूत्र व जानकारी बताई गई है वह सिर्फ मृत्यु के समय ग्रहो की स्तिथि पर बताई गई है इसका जन्मकुंडली से कोई लेना देना नही है।
।।इतिशुभम।।

शुक्रवार, 3 अगस्त 2018

कार्यालय से संबंधित वास्तु सलाह

1. आप अपने कार्यालय / आफिस के बाहर खूबसूरत साइनबोर्ड अवश्य ही लगाएं, जो लोगो को अच्छी तरह से दिखाई दे सके। खूबसूरत साइनबोर्ड लगाने से आफिस की प्रसिद्धि बढ़ती है।

2. दुकान , आफिस के मालिक को अपनी कुर्सी सदैव ऊँची रखनी चाहिए। लोहे, ऐल्युमिनियम की कुर्सी पर बैठने से व्यक्ति का कारोबार मंदा पड़ता है। अचानक से हानि का सामना करना पड़ता है।

3. संगरमरमर , लकड़ी की हरे रंग की कुर्सी पर बैठकर व्यापार का कार्य करने से धन लाभ होता है।

4. अगर कुर्सी लोहे या पाइप आदि की हो तो कुर्सी के नीचे लकड़ी का दो-तीन इंच ऊँचा चौकोर ठोस पटरा रखें । सदैव कुर्सी पर लाल , हरे , पीले रंग का आसन अथवा कुशन प्रयोग करें इससे नौकरी में प्रमोशन होता है, धन के नए स्रोत्र बनते है और कार्यक्षेत्र में विस्तार होता है।

5. वास्तु के अनुसार यह ध्यान रहे कि मालिक की कुर्सी आफिस के दरवाजे के ठीक सामने बिलकुल भी ना हो ।

6. मालिक को यथासंभव नैऋत्य, दक्षिण अथवा पश्चिम की दीवार से 2 - 3 इंच की जगह छोड़कर बैठना चाहिए जिससे उसका मुँख ईशान, उत्तर अथवा पूर्व की तरफ रहे ।

7. आफिस के मालिक को अगर केबिन में बैठना हो तो उसे भी नैऋत्य कोण में ही होना चाहिए, केबिन का आकार यथासंभव वर्गाकार या आयताकार होना चाहिए। आफिस के सभी केबिनो के द्वार अंदर की ओर ही खुलने चाहिए ।

8. मालिक की कमर के पीछे कोई खिड़की या दरवाजा नहीं वरन ठोस दीवार होनी चाहिए ।

9. बॉस के पीठ पीछे ऊँची इमारत अथवा बर्फ के ऊँचे पहाड़ का चित्र लगाना चाहिए । इससे बॉस की अपने कर्मचारियों एवं ग्राहकों पर पकड़ मजबूत बनी रहती है ।

10. कभी भी अपने भवन / आफिस / दुकान के सामने जूते चप्पल ना उतारें । मुख्य द्वार के दोनों तरफ धात्री और विधात्री का वास, ऊपर विघ्न विनायक गणपति गणेश जी और नीचे श्री देहली का निवास माना जाता है अत: जूते चप्पल मुख्य द्वार के किनारे किसी अलमारी में ही रखने चाहिए एवं मालिक और कर्मचारियों को अपने व्यापारिक स्थल को प्रणाम करते हुए दाहिना पैर अंदर रखना चाहिए ।

11. अपने कार्यालय का कचरा उसके मुख्य द्वार के सामने नहीं इकट्ठा करें वरन उसे समेट कर कहीं दूर फिकवायें। कूड़ेदान मुख्य द्वार के सामने नहीं होना चाहिए ।

12. व्यापार में आपेक्षित सफलता के लिए बॉस तथा मुख्य अधिकारियों , कर्मचारियों की मेज को चौकोर होना चाहिए। ऑफिस के काम के लिए लोहे या स्टील की जगह लकड़ी की मेज को अच्छा माना जाता हैं। आफिस में अंडाकार या यू(U) के आकार की मेज सही नहीं होती है ।

13. मालिक यदि उत्तर की ओर मुँह करके बैठे तो वह अपना कैश बॉक्स, चैक बुक आदि बायीं ओर रखे और यदि वह अपना मुँह पूर्व की ओर करके बैठे तो अपना कैश बॉक्स, चैक बुक आदि दायीं तरफ रखे लेकिन यह ध्यान रहे कि उसका मुँह उत्तर की तरफ ही खुले जिससे कुबेर जी की दृष्टि उसके ऊपर अवश्य ही पड़े ।

14. आफिस में अकाउंट विभाग को उत्तर या पूर्व दिशा में होना चाहिए, और अकाउंटेंट को उत्तर की तरफ मुँह करके ही बैठना चाहिए।

15. अपनी आफिस के ईशान कोण को खाली एवं बिलकुल साफ रखे। अपना मंदिर भी आप इसी ईशान दिशा अथवा पूर्व दिशा में ही बनायें ।

16. जल की व्यवस्था ईशान, उत्तर अथवा पूर्व दिशा में ही करें ।

17. आफिस के उत्तर दिशा में यदि हो सके तो फिश एक्वेरियम बनायें इससे धन लाभ मिलता है ।

18. यदि ऑफिस में कैंटीन अथवा पैंट्री की सुविधा हो तो उसकी व्यवस्था आग्नेय कोण में करना सर्वोत्तम होगा ।

19. आफिस में मालिक, अधिकारीयों व कर्मचारियों किसी को भी यथासंभव बीम या परछत्ती के नीचे बैठकर कार्य नहीं करना चाहिए लेकिन यदि बीम के नीचे बैठकर कार्य करना मजबूरी हो बीम के दोनों ओर 2 बांसुरी लाल रिबन में बांधकर लगायें ।

20. आफिस के किसी भी कक्ष में कम्प्यूटर, टेलीफोन फैक्स आदि आग्नेय कोण में रखना चाहिए। और टेबल पर रखने पर यह टेबल के आग्नेय कोण में रखने चाहिए।

21. आफिस में कर्मचारियों को भी उत्तर या पूर्व की तरफ ही मुँह करके बैठना चाहिए ।

22. आफिस में कोई भी टेबिल दरवाजे के ठीक सामने टेबल नहीं रखनी चाहिए। इससे कर्मचारीयों को मानसिक तनाव रहता है ।

23. आफिस में टॉयलेट दक्षिण अथवा पश्चिम में होना चाहिए । ध्यान रहे वह आफिस के ईशान, मुख्य द्वार के ठीक सामने अथवा शुरुआत में नहीं होना चाहिए ।

24. आफिस में रिसेप्शन शुरुआत में ही इस जगह हो जिससे रिसेप्सनिष्ट का मुंह उत्तर या पूर्व की तरफ हो लोग उससे शीघ्र ही संतुष्ट हो जायेंगे ।

25. आफिस में किसी भी तरह का भारी फर्नीचर , रिकार्ड, स्टेशनरी व अन्य सामान रखने की अलमारियां कमरो की दक्षिण या पश्चिम दिशा में ही रखनी चाहिए।

मंगलवार, 31 जुलाई 2018

सर्व-ग्रह दोष शांत करने का सबसे आसान उपाय

सर्व-ग्रह दोष शांत करने का सबसे आसान उपाय करके तो देखिऐ ईश्वर के कार्य में सहयोगी बनें पशु पक्षियों को आहार-पानी देकर कुंडली में दूषित ग्रहों के प्रभाव से सहज बचा जा सकता है।
       इस कार्य को करने से  हम प्रभु के कृपा पात्र ही नहीं बनते हैं बल्कि हम ईश्वर का प्रतिनिधी बनकर ईश्वर का कार्य ही करते हैं। सोचिए भूखे-प्यासे को भोजन-पानी देना तो भगवान का ही कार्य है ना और भगवान का कार्य करने वाले को सारी परेशानियों और प्रारब्ध के दोषों से ईश्वर स्वयं रक्षा करता है तथा पाप क्षीण हो जाते हैंं ,पुण्यों की प्राप्ति होती है। पापों के क्षरण होते ही दैहिक ,दैविक , और भौतिक कष्ट समाप्त होने लगते हैं।

   -:लाभ:-
 1-आपके मन में अक्सर भय सा या बेचैनी-सी रहती है।
2-आपके काम ठीक समय पर पूरे नहीं होते या पूरे होते-होते रुकते हैं।
 3-पारिवारिक क्लेश (विवाद) नियमित रूप से चलता रहता है।
4-परिवार में सदैव किसी का स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता है।
5-भरकस परिश्रम करने पर भी धनोपार्जन करना मुश्किल हो रहा है।
6-एक नई परेशानी हल होने से पहले दूसरी तैयार रहती है।
7- कर्ज या खर्च से परेशान है,बचत नहीं हो पा रही।
      तो ‍निश्चिन्त हो कर आपको पशु पक्षियों को दाना-पानी डालना शुरू कर दें  चमत्कार होने लगेगा । आनंद की प्राप्ति होगी और आपके जीवन के सारे कष्ट दूर होने लगेंगे।
      चींटिंयों, चिड़ियों, गिलहरियों, कबूतर, तोता, कौआ और अन्य पक्षियों के झुंड, मछलियाँ और गाय, कुत्तों आदि को नियमित दाना-पानी देने से आपको मानसिक शांति, आरोग्यता और तरक्की प्राप्त होगी।

  ग्रह-बाधा के लिए
           
सूर्य- गेहूं ,घी या पका हुआ भोजन खिलाने से सूर्य की पीड़ा दूर होती है, पित्र-दोष शांत होने लगते हैं।

चंद्र- चावल बाँटने या पानी पिलाने से चंद्र की पीड़ा और मानसिक परेशानियां दूर होकर शांति मिलती है।

मंगल-दोष- लाल गाय को गुड खिलाने से मंगल दोष कम होते हैं भाई , मित्र, और पार्टनर से सहयोग मिलता है।

बुध- मूंग की दाल और हरी घास से बुध ग्रह से होने वाली परेशानियों से निजात पाई जा सकती है। बोद्धिक विकास और है व्यापार में वृद्धि होती है।

गुरू- चने की दाल गाय को खिलाने से गुरु की कृपा प्राप्त होती है वैवाहिक, शिक्षा, संतान के सुख में लाभ मिलता है

शुक्र- पशु पक्षियों को ज्वार खिलाने से शुक्र ग्रह की पीड़ा दूर होती है सौन्दर्य,लग्जरी सुविधा,प्रेम, और कामसुख आदि प्राप्त होते हैं।

शनि- काली उर्द की दाल या उससे सरसों के तेल मिश्रित भोजन कुत्तों को खिलाने से शनि के दोष दूर होते हैं जीवन की रुकावटें दूर होती हैं।

राहु- कुंडली में यदि राहु- की परेशानी हो तो पक्षियों को बाजरा डालना चाहिए या कुत्तों का संरक्षण करना चाहिए। कौओं और कुत्तों को ग्रास देने से शनि, राहु प्रसन्न होते हैं।

केतु- मछलियों को सात प्रकार के अनाज (आटे) की गोलियां खिलाने से केतु सकारात्मक हो जाता है।

         विशेष-लाभ
1- गरीबों को नित्य भोजन बाँटने और मदद देने से धन-धान्य बढ़ता है।
2- प्रत्येक अमावस्या-पूर्णिमा को दरिद्र या विद्वान ब्राह्मण या भानजों को षठरस भोजन कराके दक्षिणा देने से पित्र-दोष, पित्र-श्राप, अनाधिकृत धनोपार्जन का दोष कम हो जाता है तथा समस्त सुख-संपदाओं की प्राप्ती होती है।

     अति-विशेष
जो भी मनुष्य नियमित भोजन से पहले पंच-ग्रास यानि गाय, कुत्ता-बिल्ली, कागा, चींटी, और  मछलियों का भोजन कराता है तो इसी जीवन में "राज-सुख" ,  वैभव , आरोग्य , सम्मान , और स्वर्ग को प्राप्त करता है।
 परन्तु ध्यान रखें ये कार्य एक-दो बार करने से उचित लाभ नहीं मिलता। श्रद्धा-विस्वास से नियमित करते रहने से ही सम्पूर्ण पाप क्षीण होकर पुण्य की वृद्धि होती है और धीरे-धीरे समस्त सुख प्राप्त होने लगते हैं। धैर्यपूर्वक करते रहें फल तो ईश्वर देगा ही।

वैदिक ज्योतिष में पित्रादि-दोष (ऋण) या श्राप की सही पहचान और निदान

"पित्र-श्राप" का सही पता सिर्फ जन्म कुण्डली देखकर ही नहीं लगाया जा सकता है, अपितु कुंंडली ना होने पर इसके अलावा प्रश्न कुंडली, हस्त-रेखा (सामुद्रिक विज्ञान),  अपराविज्ञान और शकुन शास्त्र के माध्यम से भी "पित्र दोष" का सही पता लगाया जा सकता है, परन्तु प्राय ये विधिंयाँ प्रचलन में नहीं है लुप्तप्राय सी हो गयी हैं।
मुख्य रूप से जन्म कुण्डली से ही पित्र दोष का निर्णय किया जाता है।

        चार प्रकार के प्रबल पित्र-दोष :-
           
 सूर्य.... आत्मा एवं पिता का कारक गृह है पित्र पक्ष का विचार सूर्य से होता है।
"चन्द्रमा" मन एवं माता पक्ष का कारक ग्रह है।
मंगल...  हमारे रक्त , जीन्स, परम्परा, पौरुष और बंधुत्व पक्ष का कारक ग्रह है।
 शुक्र.... भी हमारे भोग, ऐश्वर्य और स्त्री पक्ष का कारक ग्रह है।

सूर्य जब राहु- की युति में हो तो ग्रहण योग बनता है, सूर्य का ग्रहण अतः पिता या आत्मा का ग्रहण हुआ यानि पित्र-श्राप या श्रापित आत्मा। और चंद्र केतु की युति, अमावस्या दोष या चंद्र ग्रहण दोष भी एक प्रकार का पित्र दोष ही होता है क्यों कि चंद्र हमारी भोंतिक देह का कारक है।
      चार अत्यंत कष्टकर पित्र-दोष :-
 "सूर्य"- सूर्य राहू सूर्य शनी या सूर्य केतु की युति पित्र दोष का निर्माण करती है।
 "चन्द्र"-अगर राहू, केतुु , शनी या सूर्य की युति में हो तो पित्र दोष (मात्र पक्ष) होता है।
"मंगल"- मंगल भी यदि पूर्णास्त है या इन क्रूर ग्रहों से युक्त है तो भी वंशानुगत पित्र दोष होता है।
"शुक्र" या सप्तम भाव यदि सूर्य, मंगल, शनी या राहु से युक्त हो तो भी स्त्री पक्ष से पित्र श्राप बनता है।

वैसे समस्त ग्रहों के दूषित होने से कुंंडली में विभिन्न प्रकार के अन्य पित्रादि श्राप भी बन सकते हैं....
परंतु अभी हम कुछ प्रमुख पित्र दोषों (श्रापों) को समझते हैं :-

शनि सूर्य पुत्र है, यह सूर्य का नैसर्गिक शत्रु भी है, अतः शनि की सूर्य पर दर्ष्टि भी पित्र दोष उत्पन करती है। इसी पित्र दोष से जातक आदि-व्याधि-उपाधि तीनो प्रकार की पीड़ाओं से कष्ट उठाता है, उसके प्रत्येक कार्ये में अड़चनें आती रहती हैं, कोई भी कार्य सामान्य रूप से निर्विघ्न सम्पन्न नहीं होते है, दूसरे की दृष्टि में जातक सुखी-सम्पंन दिखाई तो पड़ता है, परन्तु जातक आंतरिक रूप से दुखी होता रहता है, जीवन में अनेक प्रकार के कष्ट उठाता है, कष्ट किस प्रकार के होते है इसका विचार व निर्णय सूर्य राहु की युति अथवा सूर्य शनि की दृष्टि सम्बन्ध या युति जिस भाव में हो उसी पर निर्भर करता है, कुंडली में चतुर्थ भाव नवम भाव, तथा दशम भाव में सूर्य राहु अथवा चन्द्र राहु की युति से जो पित्र दोष उतपन्न होता उसे श्रापित पितृ दोष कहते है, इसी प्रकार पंचम भाव में राहु गुरु की युति से बना गुरु चांडाल योग भी प्रबल पितृ दोष कारक होता होता है, संतान भाव में इस दोष के कारण प्रसव कष्टकारक होते हैं, आठवे या बारहवे भाव में स्थित गुरु प्रेतात्मा से पित्र दोष करता है, यदि इन भावो में राहु बुध की युति में हो तथा सप्तम, अष्टम भाव में राहु और शुक्र की युति में हो तब भी पूर्वजो के दोष से पित्र दोष होता है, यदि राहु शुक्र की युति द्वादश भाव में हो तो पित्र दोष स्त्री जातक से होता है इसका कारण भी स्पष्ट कर दें क्योंकि बारहवाँ भाव भोग एव शैया सुख का स्थान है, अतः इस भावके दूषित होने से स्त्री जातक से दोष (श्राप) होना स्वभाविक है ये अनैतिक संबंधों का कारण भी हो सकता है।
          अन्य श्रापित योग :-
1.यदि कुण्डली में  अष्टमेश राहु के नक्षत्र में तथा राहु अष्टमेश के नक्षत्र में स्थित हो तथा लग्नेश निर्वल एवं पीड़ित हो तो जातक पित्र दोष एव भूत प्रेतादि आदि से शीघ्र प्रभावित होते हैं।
2.यदि जातक का जन्म सूर्य चन्द्र ग्रहण में हो तथा घटित होने वाले ग्रहण का सम्बन्ध जातक के लग्न, षष्ट एव अष्टम भाव से बन रहा हो तो ऐसे जातक पित्र दोष,भूत प्रेत, एव आत्माओं के प्रभाव से पीड़ित रहते हैं।
3.यदि लग्नेश जन्म कुण्डली में अथवा नवमांश कुण्डली में अपनी नीच राशि में स्थित हो तथा राहु , शनि, मंगल के प्रभाव से युक्त हो तो जातक पित्र दोष, प्रेत्माओं का शिकार होता है।
4.यदि जन्म कुण्डली में अष्टमेश पंचम भाव तथा पंचमेश अष्टम भाव में स्थित हो तथा चतुर्थेश षष्ठ भाव में स्थित हो और लग्न या लग्नेश पापकर्तरी (प्रतिबंधक) योग में स्थित हो तो जातक मातृ श्राप एवं अतृप्त मात्र आत्माओं से प्रभावित होता है।
5.यदि चन्द्रमा जन्म कुण्डली अथवा नवमांश कुण्डली में अपनी नीच राशि में स्थित हो या चन्द्र एव लग्नेश का सम्बन्ध क्रूर एव पाप ग्रहो से बन रहा हो तो जातक पित्र दोष, प्रेत-वाधा, एवं
पित्रात्माओं से प्रभावित होता है।
6.यदि कुंडली में शनि एव चन्द्रमा की युति हो अथवा चन्द्रमा शनि के नक्षत्र में, अथवा शनि चन्द्रमा के नक्षत्र में स्थित हो तो जातक पित्र दोष,  एव अतृप्त आत्माओं से शीघ्र प्रभावित होता है।
7.यदि लग्नेश जन्म कुंडली में अपनी शत्रु राशि में निर्बल आव दूषित होकर स्थित हो तथा क्रूर एव पाप ग्रहो से युक्त हो तथा शुभ ग्रहो की दृष्टि लग्न भाव एव लग्नेश पर नहीं पड़ रही हो, तो जातक प्रेतात्माओं, एव पित्र दोष से पीड़ित होता है।
8.यदि जातक का जन्म कृष्ण पक्ष की अष्टमी से शुक्ल पक्ष की सप्तमी के मध्य हुआ हो और चन्द्रमा अस्त, निर्बल, एव दूषित हो, अथवा चन्द्रमा पक्षबल में निर्बल हो, तथा राहु शनि से युक्त नक्षत्र परिवर्तन योग बना रहा हो तो श्राप के कारण जातक अदृश्य रूप से मानसिक बाधाऔं का शिकार होता है।
9.यदि कुंडली में चन्द्रमा राहु के नक्षत्र में स्थित हो तथा अन्य क्रूर एव पाप ग्रहो का प्रभाव चन्द्रमा, लग्नेश, एव लग्न भाव पर हो तो जातक अतृप्त आत्माओं से प्रभावित होता है।
10.यदि कुंडली में गुरु का सम्बन्ध राहु से हो तथा लग्नेश एव लग्न भाव पापकर्तरी योग में हो तो जातक को अतृप्त आत्माए अधिक परेशान करती है ।
11.यदि बुध एव राहु में नक्षत्रीय परिवर्तन हो तथा लग्नेश निर्बल होकर अष्टम भाव में स्थित हो साथ ही लग्न एव लग्नेश पर क्रूर एव पाप ग्रहो का प्रभाव हो तो जातक अतृप्त आत्माओं से परेशान रहता है और मनोरोगी बन जाता है।
12.यदि कुंडली में अष्टमेश लग्न में स्थित हो (मेष लग्न को छोडकर अन्य लग्नों में) तथा लग्न भाव तथा लग्नेश पर अन्य क्रूर तथा पाप ग्रहो का प्रभाव हो तो जातक अतृपत आत्माओं का शिकार होता है।
13. यदि जन्म कुण्डली में राहु जिस राशि में स्थित हो उसका स्वामी निर्बल एव पीड़ित होकर अष्टम भाव में स्थित हो तथा लग्न एव लग्नेश पापकर्तरी योग में स्थित हो तो जातक ऊपरी हवा, प्रेत बाधित और आत्माओं से परेशान रहता है ।
         
 सिर्फ इतना ही नहीं और भी दूषित ग्रहों से पित्र-ऋण (श्राप) दोष भी बनते हैं जो जीवन में बहुत ही अवरोध पैदा करके नाना भाँति के कष्ट देते हैं :-
   जैसे:-
 पित्र दोष(श्राप) के कारण व प्रकार
     1- "सूर्य" से पिता, चाचा, ताऊ, दादा, परदादा, नाना, मामा, मौसा या समतुल्य पैत्रिक (पित्रपुरुस) ऋण (श्राप)।
    2-"चंद्र" से मात्र, मात्रपक्ष या मात्रतुल्य स्त्रियों के ऋण (श्राप)।
     3-"मंगल" से भाई, मित्र, स्नेही या इनके समान पित्रों का ऋण (श्राप)।
    4-"बुध" से बहन-भांजी बुआ, साली, ननद या समतुल्य का ऋण (श्राप)।
    5-"गुरू" से गुरुदेव, ब्राह्मण, महात्मा, ज्ञानीजन, शिक्षक, विद्वान, पंडित या कुल पूज्य पुरुस आदि का  ऋण (श्राप)।
     6-"शुक्र" से पत्नी, प्रेमिका अथवा शैया सुख देने वाली अन्य स्त्रियों का ऋण (श्राप)।
     7-"शनि" से सेवक, कर्मचारी, मातहत, वेटर, मजदूर, मिस्त्री, चांडाल (डोम), भिकारी, या दीन-दुखियों का ऋण (श्राप)।
    8-"राहु-केतु" से प्राकृतिक, पर्यावरण, सामाजिक, क्षेत्रपाल, देश, मात्रभूमी, सरकारी अधिकारी, कर चोरी, जाने-अन्जाने की गई हिंसा, जीवहत्या या अनैतिक व्यवहार व व्यापार के अभिश्राप (ऋण)।

 हस्त-रेखा से भी:-
भिन्न-भिन्न ग्रह पर्वतों के योग एवं पर्वतों पर पाऐ जाने वाले चिन्ह जैसे:- क्रोस, जाल, द्वीप, वलय, भंग, दाग (तिलादि), झाँई, या अन्य अशुभ चिन्हों से भी सभी प्रकार के पित्रादि दोषों (श्रापों) को सहजता से जाना जा सकता है। बस थोडे से अभ्यास की जरूरत होती है ये सब देखने के लिऐ।

पितृ दोष (श्राप) भी भांति भांति के पाऐ जाते हैं, इन्ही पित्रादि दोषो के कारण जातक को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, और शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, पारिवारिक, अकस्मात दुर्घटनाओं से परेशान रहता है, और शनै-शनै जातक का जीवन नर्क बनता जाता है, एवं कई बार तो दिखने में सम्पंन व्यक्ती भी आंतरिक तौर से पीडित होकर मृतकों जैसा जीवन जीने पर मजबूर हो सकता है और दोष की सही जानकारी ना होने पर श्रापमुक्ती के लिऐ दर-दर भटकता रहता है व तमाम तंत्र, मंत्र, रत्न , व्रत, जाप या उपाय करके भी पीडित रहता है अन्ततः वैदिक तंत्र-ज्योतिषादि को ही ढ़ोंग मान बैठता है।
        तब जाचक करें क्या:-
   एक बात ध्यान दें कि मोत के अलावा हर बीमारी का इलाज भी है हर एक श्राप, दोष, दुर्भाग्य, और पाप का प्रायश्चित कर्म-विधान व उसको करने का सही स्थान और मुहुर्त भी हमारे वैदिक शास्त्रों में बताया है एवं अत्यंत फलदायी भी होता है ये अकाट्य सत्य है वर्तमान कर्मों से ... भविष्य का लेख भी बदल सकता है।
अतः जिस तरह पित्रादि-दोष (श्राप) या ऋण कई प्रकार के होते हैं.....   उसी तरह इनके निदान (प्रायश्चित कर्म-विधान) भी देश, काल, परिस्थितियों के आधीन होकर विभिन्न तरीके से ही कराना उचित होता है।
      इसलिऐ सर्वप्रथम जाचक को... इस विषय के विषेशज्ञ व तत्वज्ञ ज्योतिषाचार्य से उचित दक्षिणा देकर सही परामर्श लेना चाहिये और तत्पश्चात उसके द्वारा बताऐ गये "स्थान व मुहुर्त" में ..... पूर्ण श्रद्धा और समर्पण भाव से इन श्रापों (दोषों) का प्रायश्चित कर्म-विधान करवाना चाहिऐ.... तथा आचार्यों द्वारा बताऐ गये नियम-संयमों का पूर्ण विस्वास से पालन करना चाहिऐ.... फिर आप देखेंगे ये दोष भी आपकी उन्नति में मील के पत्थर बन जाऐंगे।

कैसा होगा आपकी भावी पत्नी का स्वरूप


विवाह योग्य हर पुरुष को यह जानने की जिज्ञासा होती है कि उसकी होने वाली पत्नी देखने में कैसी होगी ।ज्योतिष् शास्त्र कुंडली के माध्यम से ही इसकी पूर्व सूचना दे सकता है तो जानते हैं आपकी भावी पत्नी कैसी होगी।

1 सप्तमेश  के 6वें 8वें व 12वें भाव में स्थित होकर अशुभ ग्रहों से दृष्ट होने पर पत्नी सुन्दर नही होगी ।

2 सप्तमेश एवं शुक्र के सम राशि में होने पर पत्नी सभी स्त्रियोचित गुणों से युक्त होती है।

3 सप्तमेश शुक्र के नवांश में सम राशि में होने से पत्नी सुंदर होती है।

4 यदि सप्तमेश एवं शुक्र विषम राशि व नवांश में हों तो पत्नी के स्वभाव एवं आचरण में पुरुषोचित गुण देखने को मिलेंगे।

5 सूर्य एवं चंद्र के अतिरिक्त सभी ग्रह दो राशियों के स्वामी होते हैं।यदि सप्तम भाव का स्वामी एवं कलत्र कारक शुक्र चंद्र बुध अथवा शुक्र की राशियों में हों तो पत्नी स्वभाव एवं आचरण में पुरुषोचित गुणों से युक्त होगी ।

6 यदि सप्तमेश एवं शुक्र पुरुष ग्रह की राशियों में उसमें से भी विषम राशियों में तो पत्नी में पुरुषोचित गुणों की अधिकता होगी।

7 यदि सप्तमेश एवं शुक्र जन्मचक्र एवं नवमांश में सम राशियों में हो तो पत्नी सुंदर होगी।सप्तमेश के स्त्री ग्रह होने पर सुंदरता में और वृद्धि होगी ।

8 सप्तमेश यदि सम राशि एवं सम नवांश मे स्थित है उसका संबंध यदि स्त्री ग्रह से हो तो पत्नी ने अत्यधिक सुंदर होगी।

9 यदि सप्तमेश एवं शुक्र शुभ स्थान में हों अथवा सप्तम भाव में स्त्री ग्रह हो एवं किसी भी अशुभ ग्रह से दृष्ट न हो तो पत्नी अप्रतिम सुंदरी होगी।

10 पति के मामले में पति कारक गुरु एवं सम की जगह विषम राशि नवांश व विषम स्थान पर विचार किया जाएगा।

सोमवार, 25 जून 2018

प्रसासनिक अधिकारी या सिविल सर्विसिस में सफलता के ज्योतिष योग

प्रत्येक उच्च शिक्षित व्यक्ति एक अच्छे पद को पाने का इच्छुक होता है।।
 परंतु जन्मकुंडली में बनी भिन्न–भिन्न ग्रहस्थितियों के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति की रुचि या इच्छा अलग अलग क्षेत्रों में अपना करियर बनाने की होती है। जहाँ कुछ तकनीकी क्षेत्रों से जुड़ते हैं, कुछ रचनात्मक कार्यों से तो प्रशासनिक  कार्यों से।

“ज्योतिषीय दृष्टि में “मंगल” और “सूर्य” को प्रशासनिक  पद या प्रशासनिक  अधिकारों और कार्यों का कारक माना गया है इसके अतिरिक्त बृहस्पति की यहाँ सहायक भूमिका होती है। मंगल को हिम्मत, शक्ति, पराक्रम, उत्साह, रणनीति, स्पर्धा और कानून व्यवस्था, पुलिस और नियमव्यवस्था  का कारक माना गया है  अतः एक प्रशासनिक  अधिकारी में जिन गुणों का उपस्थित होना आवश्यक है वह सब मंगल के अन्तर्गत आते हैं इसी प्रकार सूर्य को सरकार, सरकारी कार्य, प्रसासन और प्रशासनिक  कार्यों का कारक माना गया है और सूर्य ही व्यक्ति को सरकारी कार्य से जोड़ने में अपनी अहम भूमिका निभाता है इसके अलावा बृहस्पति व्यक्ति को ज्ञान के साथ साथ परिस्थिति और व्यवस्था को मैनेज करने की प्रतिभा देता है अतः निष्कर्षतः मंगल व्यक्ति में व्यक्ति में पराक्रम, उत्साह, बल और  निर्भयता को देकर आईपीएस जैसे पुलिस अधिकारी बनने में सहायक होता है तो वहीँ बृहस्पति की अच्छी स्थिति व्यक्ति में आईएएस, जैसे प्रशासनिक  अधिकारी बनने की प्रतिभा देता है तथा  सूर्य व्यक्ति को सरकार और प्रसासन से जोड़ने का कार्य करता है इसके अलावा आईपीएस और आईएएस दोनों ही क्षेत्रों में शिक्षा बौद्धिक क्षमता और कॉम्पटीशन की बड़ी अहम भूमिका होती है इसलिए यहाँ बुद्धि कारक बुध, ज्ञान और शिक्षा कारक बृहस्पति तथा कॉम्पटीशन के कारक छटे भाव का भी अच्छी स्थिति में होना आवश्यक है, बलवान बुध और बृहस्पति  व्यक्ति को अच्छी बौद्धिक क्षमता देते हैं तो कुंडली के छटे भाव का बली होना व्यक्ति में कॉम्पटीशन की क्षमता देकर सिविल सर्विसिस में आगे बढ़ने का मार्ग प्रसस्त करता है, आईपीएस के लिए मंगल, सूर्य और बृहस्पति में से भी मंगल की अधिक भूमिका होती है तथा आईएएस के लिए सूर्य और बृहस्पति की अधिक भूमिका होती है।  जिन लोगो की कुंडली में पंचम भाव, बुध और छटा भाव बलि होते हैं उन्हें सिविल सर्विसिस की परीक्षाओं या कॉम्पटीशन में जल्दी सफलता मिलती है और इन घटकों के कमजोर होने पर संघर्ष और विलम्ब का सामना करना पड़ता है।

कुछ विशेष योग –

1 यदि मंगल स्व या उच्च राशि (मेष, वृश्चिक, मकर) में शुभ स्थान में हो तो आईपीएस में सफलता देता है।
2 मंगल बली होकर दशम भाव में स्थित हो या मंगल की दशम भाव पर दृष्टि हो तो आईपीएस का योग बनता है।
3 मंगल यदि बली होकर शनि से पाचवे या नवे भाव में हो तो भी आईपीएस में जाने का योग बनता है।
4 सूर्य स्व उच्च राशि (सिंह, मेष) में होकर शुभ स्थानों में हो तो उच्च प्रशासनिक सेवा से जोड़ता है।
5 सूर्य का दशम भाव में होना या दशम भाव को देखना भी प्रसासन से जोड़ता है।
6 यदि सूर्य मंगल का योग मेष राशि में हो तो आईपीएस अधिकारी बनने में सफलता मिलती है।
7 सूर्य और बृहस्पति का योग हो और मंगल शुभ भाव में बली होने पर भी आईएएस में सफलता देता है।
8 बृहस्पति यदि स्व उच्च राशि (धनु, मीन,कर्क) में होकर केंद्र त्रिकोण में हो और सूर्य भी शुभ स्थिति में हो तो आईएएस में सफलता दिलाता है।
9 सूर्य और बृहस्पति का योग लग्न में होना भी आईएएस के क्षेत्र की सफलता देता है।
10 कुंडली में बुधादित्य योग शुभ स्थान में बनना मेष,मिथुन, सिंह और कन्या राशि में बनना भी सिविल सर्विसिस के कॉम्पटीशन में सफलता दिलाता है।

विशेष – जैसा की हमने यहाँ स्पष्ठ किया के मंगल, बृहस्पति और सूर्य को सिविल सर्विसिस के लिए मुख्य कारक ग्रह माना गया है पर बिना सूर्य के अच्छी स्थिति में हुए सरकारी सेवा का योग नहीं बनता अतः सिविल सर्विस में जाने के लिए मंगल और सूर्य दोनों ही अच्छी स्थिति में होने चाहियें इसके अतिरिक्त किस व्यक्ति को इस क्षेत्र में कितनी जल्दी या किस स्तर की सफलता मिलेगी यह किसी भी व्यक्ति की अपनी कुंडली पर निर्भर करता है क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति की कुंडली में ग्रहस्थिति भिन्न होती है, उदाहरण के लिए यदि किसी व्यक्ति की कुंडली में पंचम भाव बुध और बृहस्पति कमजोर होने से उसकी शिक्षा ही अच्छी नहीं रही तो फिर मंगल बलवान होने पर भी वह सिविल सर्विस में सफल कैसे हो सकता है क्योंकि अच्छी शिक्षा के बिना तो इस क्षेत्र में आगे बढ़ना संभव ही नहीं है इसी प्रकार दो अलग अलग व्यक्तियों की कुंडली में आजीविका का स्तर भी भिन्न भिन्न होने पर कोण किस स्तर तक उन्नति करेगा यह व्यक्ति की व्यक्तिगत कुंडली की क्षमता पर निर्भर करता है। मंगल की प्रधानता विशेषकर आईपीएस की और तथा बृहस्पति की प्रधानता आईएएस की और सफलता दिलाती है पर सूर्य की यहाँ बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका है जो दोनों ही क्षेत्रों में महत्वपूर्ण है जिन लोगो की कुंडली में सूर्य नीच राशि में हो राहु से पीड़ित हो या अन्य प्रकार कमजोर हो ऐसे व्यक्तियों को सिविल सर्विसिस में आसानी से सफलता नहीं मिलती इसी प्रकार कुंडली का छटा भाव भी यदि पीड़ित हो तो व्यक्ति बहुत बार कॉम्पटीशन में सफल ना होने के कारण इस क्षेत्र में आगे नहीं बढ़ पाता अतः सूर्य और छटे भाव का बली होना भी सिविल सर्विसिस के लिए बहुत आवश्यक है।
यदि आप बारम्बार इन परीक्षाओं में असफल हो रहे है तो कि योग्य ज्योतिषाचार्य से परामर्श लेकर कुछ उपाय करने पर सफल भी हो सकते हैं।।

गुरुवार, 7 जून 2018

जन्म पत्री मृतक की है या जीवित की, ज्ञात करने की विधि

जन्म पत्री मृतक की है या जीवित की, अर्थात कुंडली देख कर ये ज्ञात करना कि जातक जिन्दा है या मर चूका :

इसमें जन्म लग्न, अष्टम स्थान की राशि और प्रश्न लग्न इन तीनो की संख्या को जोड़ कर जन्मकुंडली के अष्टमेश की राशि संख्या से गुणा कर के लग्नेश की राशि संख्या से भाग देने पर विषम अंक - 1,3,5,7,9,11 शेष रहे तो जीवित की और सम अंक - 2,4,6,8,10,12 शेष रहे तो मृतक की जन्म पत्रिका होती है।

उदहारण : प्रश्न लग्न तुला, जन्म लग्न मीन और अष्टमेश की राशि 9, लग्नेश की राशि 5

7 (प्रश्न लग्न) + 12 (जन्म लग्न) + 7 ( अष्टम स्थान की राशि ) = 26 × 9 ( अष्टमेश की राशि ) = 234 ÷ 5 ( लग्नेश की राशि ) = 46 लब्ध 4 शेष ।

अतएव मृतक की जन्म पत्रिका है ।

नोट : ये विधि श्री नेमीचंद शास्त्री जी द्वारा लिखी हुई पुस्तक " भारतीय ज्योतिष" में बताई गई है ।

सोमवार, 4 जून 2018

लग्नेश के नवांश से मृत्यु और रोग का अनुमान

1- मेष नवांश हो तो
ज्वर,ताप जठराग्नि तथा पित्तदोष से मृत्यु हो।
2- वृष नवांश हो तो
दमा,शूल त्रिदोषादि, ऐपेंडिसाइटिस से मृत्यु हो।
3- मिथुन नवांश हो तो सिर वेदना।
4- कर्क नवांश हो तो
वात रोग व उन्माद से मृत्यु हो।
5- सिंह नवांश हो तो
विस्फोटकादि, घाव, विष, शस्त्राघात और ज्वर से मृत्यु।
6- कन्या नवांश हो तो
गुह्य रोग, जठराग्नि विकार से मृत्यु हो।
7- तुला नवांश में  हो तो
शोक, बुद्धि दोष, चतुष्पद के आघात से मृत्यु हो।
8- वृश्चिक नवांश में
पत्थर अथवा शस्त्र चोट से, पाण्डु ग्रहणी वेग से।
9- धनु नवांश में
गठिया, विष शस्त्राघात से मृत्यु हो।
10- मकर नवांश में
व्याघ्र, शेर,पशुओं से घात, शूल, अरुचि रोग से मृत्यु।
11- कुंभ नवांश में
स्त्री से विष पान श्वांस तथा ज्वर से मृत्यु हो।
12- मीन नवांश में
जल से तथा संग्रहणी रोग से मृत्यु हो सकती है।

गुरुवार, 31 मई 2018

ज्योतिष और मानसिक रोग ( कारण और निवारण)

मानसिक बीमारी होने के बहुत से कारण होते हैं, इन कारणों का ज्योतिषीय आधार क्या है, इसकी जानकारी के लिये कुंडली के उन योगों का अध्ययन करेंगे जिनके आधार पर मानसिक बिमारियों का पता चलता है।
मानसिक बीमारी में चंद्रमा, बुध, चतुर्थ भाव व पंचम भाव का आंकलन किया जाता है। चंद्रमा मन है, बुध से बुद्धि देखी जाती है और चतुर्थ भाव भी मन है तथा पंचम भाव से बुद्धि देखी जाती है। जब व्यक्ति भावुकता में बहकर मानसिक संतुलन खोता है तब उसमें पंचम भाव व चंद्रमा की भूमिका अहम मानी जाती है। सेजोफ्रेनिया बीमारी में चतुर्थ भाव की भूमिका मुख्य मानी जाती है। शनि व चंद्रमा की युति भी मानसिक शांति के लिए शुभ नहीं मानी जाती है। मानसिक परेशानी में चंद्रमा पीड़ित होना चाहिए।

1- जन्म कुंडली में चंद्रमा अगर राहु के साथ है तब व्यक्ति को मानसिक बीमारी होने की संभावना बनती है क्योकि राहु मन को भ्रमित रखता है और चंद्रमा मन है. मन के घोड़े बहुत ज्यादा दौड़ते हैं. व्यक्ति बहुत ज्यादा हवाई किले बनाता है।

2- यदि जन्म कुंडली में बुध, केतु और चतुर्थ भाव का संबंध बन रहा है और यह तीनों अत्यधिक पीड़ित हैं तब व्यक्ति में अत्यधिक जिदपन हो सकती है और वह सेजोफ्रेनिया का शिकार हो सकता है. इसके लिए बहुत से लोगों ने बुध व चतुर्थ भाव पर अधिक जोर दिया है।

3- जन्म कुंडली में गुरु लग्न में स्थित हो और मंगल सप्तम भाव में स्थित हो या मंगल लग्न में और सप्तम में गुरु स्थित हो तब मानसिक आघात लगने की संभावना बनती है।

4- जन्म कुंडली में शनि लग्न में और मंगल पंचम भाव या सप्तम भाव या नवम भाव में स्थित हो तब मानसिक रोग होने की संभावना बनती है।

5- कृष्ण पक्ष का बलहीन चंद्रमा हो और वह शनि के साथ 12वें भाव में स्थित हो तब मानसिक रोग की संभावना बनती है. शनि व चंद्र की युति में व्यक्ति मानसिक तनाव ज्यादा रखता है।

6- जन्म कुंडली में शनि लग्न में स्थित हो, सूर्य 12वें भाव में हो, मंगल व चंद्रमा त्रिकोण भाव में स्थित हो तब मानसिक रोग होने की संभावना बनती है।

7- जन्म कुंडली में मांदी सप्तम भाव में स्थित हो और अशुभ ग्रह से पीड़ित हो रही हो।

8- राहु व चंद्रमा लग्न में स्थित हो और अशुभ ग्रह त्रिकोण में स्थित हों तब भी मानसिक रोग की संभावना बनती है।

9- मंगल चतुर्थ भाव में शनि से दृष्ट हो या शनि चतुर्थ भाव में राहु/केतु अक्ष पर स्थित हो तब भी मानसिक रोग होने की संभावना बनती है।

10- जन्म कुंडली में शनि व मंगल की युति छठे भाव या आठवें भाव में हो रही हो।

11- जन्म कुंडली में बुध पाप ग्रह के साथ तीसरे भाव में हो या छठे भाव में हो या आठवें भाव में हो या बारहवें भाव में स्थित हो तब भी मानसिक रोग होने की संभावना बनती है।

12- यदि चंद्रमा की युति केतु व शनि के साथ हो रही हो तब यह अत्यधिक अशुभ माना गया है और अगर यह अंशात्मक रुप से नजदीक हैं तब मानसिक रोग होने की संभावना अधिक बनती है।

13- जन्म कुंडली में शनि और मंगल दोनो ही चंद्रमा या बुध से केन्द्र में स्थित हों तब मानसिक रोग होने की संभावना बनती है।

मिरगी होने के जन्म कुंडली में लक्षणइसके लिए चंद्र तथा बुध की स्थिति मुख्य रुप से देखी जाती है. साथ ही अन्य ग्रहों की स्थिति भी देखी जाती है।

1- शनि व मंगल जन्म कुंडली में छठे या आठवें भाव में स्थित हो तब व्यक्ति को मिरगी संबंधित बीमारी का सामना करना पड़ सकता है।

2- कुंडली में शनि व चंद्रमा की युति हो और यह दोनो मंगल से दृष्ट हो।

3- जन्म कुंडली में राहु व चंद्रमा आठवें भाव में स्थित हों।


मानसिक रुप से कमजोर बच्चे अथवा मंदबुद्धि बच्चे

जन्म के समय लग्न अशुभ प्रभाव में हो विशेष रुप से शनि का संबंध बन रहा हो. यह संबंध युति, दृष्टि व स्थिति किसी भी रुप से बन सकता है।

1- शनि पंचम से लग्नेश को देख रहा हो तब व्यक्ति जन्म से ही मानसिक रुप से कमजोर हो सकता है।

2- जन्म के समय बच्चे की कुण्डली में शनि व राहु पंचम भाव में स्थित हो, बुध बारहवें भाव में स्थित हो और पंचमेश पीड़ित अवस्था में हो तब बच्चा जन्म से ही मानसिक रुप से कमजोर हो सकता है।

3- पंचम भाव, पंचमेश, चंद्रमा व बुध सभी पाप ग्रहों के प्रभाव में हो तब भी बच्चा जन्म से ही मानसिक रुप से कमजोर हो सकता है।

4- जन्म के समय चंद्रमा लग्न में स्थित हो और शनि व मंगल से दृष्ट हो तब भी व्यक्ति मानसिक रुप से कमजोर हो सकता है।

5- पंचम भाव का राहु भी व्यक्ति की बुद्धि को भ्रष्ट करने का काम करता है, बुद्धि अच्छी नहीं रहती है।

मेरे विचार से  मानसिक बीमारियों  के निवारण हेतु  बुध को  बल प्रदान करना सर्वथा उपयुक्त होगा । ऐसे व्यक्ति को पन्ना रत्न की अंगूठी चाँदी  में बनवाकर दाहिने हाथ की कनिष्ठा अंगुली में  धारण करना चाहिए । कुछ विशेष परिस्थितिओं  में गले में भी धारण किया जा सकता है । पन्ना का भष्म  आदि भी खिलाना लाभप्रद होगा । प्रज्ञा मन्त्र का अनुष्ठान एवं अपामार्ग की लता से हवन भी  कराना चाहिए।

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