सोमवार, 15 जनवरी 2018

कुंडली से जाने वैधव्य योग

1.  सप्तम भाव व अष्टम भाव का स्वामी दोनों पापी ग्रहों के साथ 6 या 12 वे स्थान में एक साथ बैठे हो तो ऐसी स्त्री विधवा हो जाती है |

2. सप्तम भाव में केतु बैठा हो तथा राहु सूर्य व शनि के साथ मंगल आठवें या 12वें भाव में बैठा हो तो ऐसी स्त्री विधवा हो जाती   हैं |

2.  लग्न एवं सप्तम भाव में पापी ग्रहों तथा तीन ग्रहों पर शुभ ग्रह की दृष्टि या युक्ति ना हो तो ऐसी स्त्री 7 से 10 वर्ष के भीतर विधवा हो जाती है|

3.  सप्तम स्थान में मेष या वृश्चिक राशि हो दो पापी ग्रहों के साथ राहु हो सप्तम स्थान में बैठा हो तो निश्चित रुप से विधवा योग बन जाता है |

4.  चंद्र लग्न पाप कर्तरी योग में हो तथा चंद्र लग्न से सप्तम अष्टम स्थान में पापी ग्रह बैठे हो तो ऐसी स्त्री जल्द ही विधवा बन जाती है|

5.  चंद्रमा के साथ राहु शुक्र के साथ मंगल तथा अष्टम स्थान में पापी ग्रह होने पर स्त्री की कुंडली में विधवा योग बनता है |

6.  सप्तम स्थान में बुध व शनि हो तो ऐसी स्त्री विधवा भी हो जाती है और साथ ही व्यभिचार भी करती है |

7.  यदि लग्न में शनि बैठा हो उससे अष्टम या बारहवें स्थान में राहु केतु सूर्य के साथ मंगल बैठा हो तो ऐसी स्त्री विधवा हो जाती है |

8.  यदि दो या तीन पापी ग्रहों के साथ मंगल सप्तम या अष्टम स्थान में बैठा हो तो ऐसी स्त्री विवाह के बाद शीघ्र ही विधवा हो जाती है |

9.  सप्तम स्थान में वेश्या वृश्चिक राशि मे राहु हो तथा मंगल छठे आठवें या 12वें स्थान में बैठा हो तो ऐसी स्त्री निश्चित रुप से विधवा हो जाती है |

10.  सप्तमेश अष्टम स्थान में हो और अष्टमेश सप्तम स्थान में हो और पापी ग्रहों से युक्त या दृष्ट हो तो ऐसी  स्त्री निश्चित रूप से विधवा हो जाती है |

11.  यदि बुध सप्तम भाव का स्वामी होकर पापी ग्रहों के साथ नीच या शत्रु राशि में यह अस्त होकर अष्टम स्थान में बैठा हो तथा उसे पापी ग्रह देखते हो तो ऐसी स्त्री अपने पति की हत्या कर के परिवार का नाश कर देती है |

12.  मंगल मिथुन या कन्या लग्न का सप्तम स्थान में हो सूर्य, शनि, राहु, केतु ,इन ग्रहों की दृष्टि मंगल के ऊपर हो तो ऐसी स्त्री कम उम्र में ही विधवा हो जाती है।

गुरुवार, 11 जनवरी 2018

पित्र दोष दूर करने का सटीक उपाय

पित्र दोष दूर करने का सटीक उपाय
सूर्य पिता का कारक होता है और कुंडली मे 5,9,10 व लग्न भाव पिता के कारक होते है।पंचम भाव इसलिए कारक होता कि वह नवम भाव से नवम होता है अर्थात पिता के पिता यानी पूर्वज होता है काल पुरुष की कुंडली मे पंचम भाव सिंह राशि का होता है अर्थात पिता का घर और 12 भाव को मोक्ष्य का भाव माना जाता है।अर्थात सिंह से 12 वां भाव मोक्ष्य यानी कर्क राशि होती है।कर्क राशि की रेखा उज्जैन से होकर गुजरती है औऱ वहां सिद्धवट नामक स्थान पर जहां से कर्क रेखा गुजरती है वहां पर पूरी विधि विधान से पित्र शांति का अनुष्ठान करवाए ओर तर्पन दे निश्चित ही लाभ मिलेगा।

जब तक ऊपर सुझाए उपाय नही कर सको तो निम्न उपाय करने चाहिए
1 अमावश्या के दिन पित्रो के नाम पर किसी विद्वान,संत,ब्राह्मण को भोजन कराएं व दान दक्षिणा देकर विदा करें।
2 अमावश्या के दिन से शुरू कर के प्रतिदिन जल रखने के स्थान पर श्याम के समय सुहागिन स्त्री पूरी तरह से सज धज कर साड़ी का पल्लू सर पर रख कर दुल्हन के वेश में होकर एक घी का दीपक अपने पूर्वजों के नाम का जलाए।
3 श्याम के समय रसोईघऱ को पूरी तरह से पवित्र कर के एक ताम्र पात्र में जल भरकर रसोईघर में खाना बनाने के स्थान पर पूर्वजों के नाम से नित्य ढककर रख देना चाहिए और सुबह उठ कर उस पात्र के जल को तुलसी,पीपल,नीम या किसी देव वृक्ष पर अर्पित कर देना चाहिए
4 प्रतिदिन पूर्वजों के नाम की कम से कम 5 आहुतियां देकर हवन करना चाहिए और नियमित पित्रों के नाम से जल अर्पित(तर्पण) करना चाहिए
5 रोज सुबह जल्दी उठकर पितृतुल्य बुजुर्ग या मातृतुल्य स्त्री के चरण स्पर्श कर के उनका आशीर्वाद लेने चाहिए

सोमवार, 8 जनवरी 2018

शनि सूर्य की युति एवं उपाय

सूर्य सुलभ दृष्ट, प्रकाशवान व ज्वलंत ग्रह है। वह जीवनी शक्ति, पिता, सफलता, सत्ता, सोना, लाल कपड़ा, तांबा, ऊर्जा, स्वास्थ्य, आरोग्य, औषधि आदि का कारक है। इसका आंखों की ज्योति, शरीर के मेरूदंड, तथा पाचन क्रिया पर प्रभुत्व है। सूर्य के तेज के कारण अन्य ग्रह- चंद्र, मंगल, शनि, शुक्र, बृहस्पति व बुध उसके पास आने पर अस्त होकर प्रभावहीन हो जाते हैं, परंतु राहु व केतु सूर्य के समीप आने पर उसे ग्रहण लगाते हैं। सूर्य को ग्रहों का राजा माना गया है। वह 24 घंटे में भचक्र में 10 प्रगति कर एक राशि का गोचर 30 दिन में पूरा करता है। सूर्य सिंह राशि का स्वामी है, मेष में उच्च तथा तुला राशि में नीचस्थ होता है। उसकी विंशोत्तरी दशा छः वर्ष की होती है। सूर्य के विपरीत शनि ग्रह प्रकाशहीन, दूरबीन से दृष्ट और ठंडा ग्रह है। वह आलस, दासता, गरीबी, लंबी बीमारी और मृत्यु का मुख्य कारक है। शनि काले तिल, तेल, उड़द, लोहा, कोयला व काले वस्त्र आदि का कारक है। भचक्र में शनि दो राशियों- मकर व कुंभ का स्वामी है। वह तुला राशि में उच्च तथा मेष राशि में नीचस्थ होता है। शनि एक राशि का गोचर ढाई वर्ष में पूरा करता है। वह कुंडली में षष्ठ, अष्टम और द्वादश (त्रिक) भावों का कारक है जो कष्ट, दुःख और हानि दर्शाते हैं। अतः उसे नैसर्गिक पापी ग्रह की संज्ञा दी गई है, परंतु वह तुला, मकर, कुंभ और वृष लग्नों में शुभकारी होता है। बलवान शनि जातक की प्रगति में पूर्ण सहायक होता है। अन्य ग्रहों पर शनि के दुष्प्रभाव से उनके कारकत्व में न्यूनता आती है। सूर्य से अस्त होने पर शनि अधिक कष्टकारी बन जाता है। हृदय को खून ले जाने वाली नाड़ियों के संकुचित होने से जातक हृदय रोग से ग्रस्त होता है। शनि ग्रह के बारे में हिंदू धार्मिक ग्रंथों में अनेक महत्वपूर्ण तथ्य प्राप्त होते हैं। जैसे शनि सूर्य के पुत्र हैं। इनका सूर्य की पत्नी की छाया से जन्म होने के कारण ये कृष्ण वर्ण, कुरूप तथा पिता समान ज्ञानी और बलवान ग्रह हैं। इनकी हानिकारक दृष्टि से बचने के लिए पिता सूर्य द्वारा जन्म के तुरंत बाद ब्रह्मांड में बहुत दूर फेंके जाने के कारण यह प्रकाश रहित और शीतल ग्रह है। कुंडली में अशुभ भाव में स्थित होने पर शनि शीत-जनित और दीर्घकालीन रोग व कष्ट देता है। इनका अपने पिता सूर्य से शत्रुवत व्यवहार है। शनि शिवजी के परम प्रिय शिष्य हैं। शनि के धार्मिक, सात्विक और निष्पक्ष आचरण से प्रसन्न होकर शिवजी ने इन्हें सभी प्राणियों के कर्मफल का निर्णायक बनाया था। विंशोत्तरी दशा में शनि को 19 वर्ष प्राप्त हैं। सप्तम दृष्टि के अतिरिक्त शनि की तीसरी और दसवीं पूर्ण दृष्टि होती है। शनि जिस भाव में स्थित हों उसमें स्थिरता तथा दृष्ट ग्रह व भावों के कार्यकाल को हानि पहुंचाते हंै। शनि कष्टकारी होने पर शिवजी तथा हनुमान जी की आराधना लाभकारी होती है। कुंडली में इन दो विपरीत प्रकृति वाले शक्तिशाली ग्रहों की युति स्वभावतः जातक का जीवन कठिनाईयों से भरा और हताशापूर्ण बनाती है। इस बारे में कुछ मानद ज्योतिष ग्रंथों का मार्गदर्शन इस प्रकार है:- फलदीपिका (अ. 18) के अनुसारः ‘सूर्य व शनि साथ-साथ हो तो जातक धातु के बर्तन निर्माण और व्यापार द्वारा अपना निर्वाह करता है अर्थात् मेहनत से जीवन यापन करता है। सारावली (अ. 15.7) के अनुसार: जातक धातुशिल्पी होता है। यह युति 6, 8, 12 (त्रिक) भावों में होने पर जातक पारिवारिक क्लेशों से घिरा रहता है। पुनश्च, (अ. 31, 22.25) के अनुसार: लग्न में सूर्य-शनि की युति होने पर जातक की माता का चरित्र संदिग्ध होता है। जातक स्वयं दुश्चरित्र, मलिन और दुष्कर्मी होता है। चतुर्थ भाव में धन की कमी, रिश्तेदारों से खराब संबंध और माता का सुख कम प्राप्त होगा। सप्तम भाव में युति से जातक आलसी, मंदबुद्धि, दुर्भागी और नशे का सेवन करता है तथा पति-पत्नी के संबंधों में कटुता रहती है। दशम भाव में युति होने पर जातक विदेश में या स्वदेश में निम्न स्तर की नौकरी से धन कमाता है, और वह भी चोरी चला जाता है जिससे जातक धनहीन और दुःखी रहता है। सूर्य-शनि की युति के फलादेश का अध्ययन दर्शाता है कि शनि के दुष्प्रभाव से युति वाले भाव तथा उससे सप्तम भाव के फलादेश में न्यूनता आती है। यह युति सूर्य के कारकत्व पिता की स्थिति, उनका स्वास्थ्य तथा जातक के अपने कार्यक्षेत्र तथा मान-सम्मान में कमी करती है। जातक के अपने पिता से संबंध अच्छे नहीं रहते। सूर्य के अधिक निर्बल होने पर पिता का साया जल्दी उठ जाता है या जातक अपने पिता से अलग हो जाता है। इसी प्रकार संबंधियों से भी अलगाव होता है। अतः कुछ आचार्य इस युति को ‘विच्छेदकारी योग’ की संज्ञा देते हैं।
सूर्य-शनि युति जनित कष्टों को सहनशील बनाने के लिए आगे दिये गये उपाय लाभदायक सिद्ध हो सकते हैं:- उपाय 1. सूर्य को बल देने के लिए जातक को सूर्योदय से पहले जागकर अपने पिता के चरण स्पर्श कर उनका आशीर्वाद प्राप्त करना चाहिए। पिता की उम्र के व्यक्तियों का आदर करना चाहिए। 2. स्नान के बाद उगते सूर्य को तांबे के बर्तन में जल, थोड़ा गंगाजल, रोली, खांड और लाल फूल डालकर ‘ऊँ’ आदित्याय नमः। ‘ऊँ’ भास्कराय नमः। ‘ऊँ’ सूर्याय नमः का उच्चारण करते हुए धीरे-धीरे सूर्य को अघ्र्य देना चाहिए। ध्यान रखें कि छींटे पैर पर न पड़ें तथा चढ़े हुए जल से अपना तिलक करना चाहिए। उसके बाद एक माला ‘ंऊँ आदित्याय नमः’ मंत्र का जप करना चाहिए। 3. प्रत्येक रविवार को अनार फाड़कर सूर्य को अघ्र्य के बाद भोग अर्पण करते समय सूर्य मंत्र का धीरे-धीरे जप करना चाहिए। कुछ अनार के दाने प्रसादस्वरूप ग्रहण करना चाहिए। साथ ही शनि की शांति के लिए 1. प्रत्येक शनिवार सायंकाल शनिदेव का तैलाभिषेक करके कुछ तेल को मिट्टी के दीपक में डालकर समीपस्थ पीपल के पेड़ की जड़ के पास प्रज्ज्वलित करना चाहिए और ‘ऊँ शं शनैश्चराय नमः’ मंत्र का कुछ समय जप करना चाहिए। 2. उसके बाद मंदिर के सामने बैठे अपाहिज भिखारियों को उड़द दाल-चावल की खिचड़ी या उड़द दाल के बड़े यथाशक्ति बांटना चाहिए। धन का दान नहीं देना चाहिए। 3. अपने नौकरांे और सफाई कर्मचारियों से अच्छा व्यवहार और सामथ्र्य अनुसार कभी-कभी उनकी सहायता करते रहना चाहिए। उपरोक्त उपाय श्रद्धापूर्वक कुछ माह करने से जीवन में सुख-शांति का अनुभव होना आरंभ हो जाएगा।

रविवार, 7 जनवरी 2018

विवाह वर्ष ज्ञात करने की ज्योतिषीय विधि

आयु के जिस वर्ष में गोचरस्थ गुरु लग्न, तृतीय, पंचम, नवम या एकादश भाव में आता है, उस वर्ष शादी होना निश्चित समझना चाहिए। परंतु शनि की दृष्टि सप्तम भाव या लग्न पर नहीं होनी चाहिए। अनुभव में देखा गया है कि लग्न या सप्तम में बृहस्पति की स्थिति होने पर उस वर्ष शादी हुई है।

विवाह कब होगा यह जानने की दो विधियां यहां प्रस्तुत हैं। जन्म लग्न कुंडली में सप्तम भाव में स्थित राशि अंक में १० जोड़ दें। योगफल विवाह का वर्ष होगा। सप्तम भाव पर जितने पापी ग्रहों की दृष्टि हो, उनमें प्रत्येक की दृष्टि के लिए 4-4 वर्ष जोड़ योगफल विवाह का वर्ष होगा। जहां तक विवाह की दिशा का प्रश्न है, ज्योतिष के अनुसार गणित करके इसकी जानकारी प्राप्त की जा सकती है। जन्मांग में सप्तम भाव में स्थित राशि के आधार पर शादी की दिशा ज्ञात की जाती है। उक्त भाव में मेष, सिंह या धनु राशि एवं सूर्य और शुक्र ग्रह होने पर पूर्व दिशा, वृष, कन्या या मकर राशि और चंद्र, शनि ग्रह होने पर दक्षिण दिशा, मिथुन, तुला या कुंभ राशि और मंगल, राहु, केतु ग्रह होने पर पश्चिम दिशा, कर्क, वृश्चिक, मीन या राशि और बुध और गुरु ग्रह होने पर उत्तर दिशा की तरफ शादी होगी। अगर जन्म लग्न कुंडली में सप्तम भाव में कोई ग्रह न हो और उस भाव पर अन्य ग्रह की दृष्टि न हो, तो बलवान ग्रह की स्थिति राशि में शादी की दिशा समझनी चाहिए।

एक अन्य नियम के अनुसार शुक्र जन्म लग्न कंुडली में जहां कहीं भी हो, वहां से सप्तम भाव तक गिनें। उस सप्तम भाव की राशि स्वामी की दिशा में शादी होनी चाहिए। जैसे अगर किसी कुंडली में शुक्र नवम भाव में स्थित है, तो उस नवम भाव से सप्तम भाव तक गिनें तो वहां से सप्तम भाव वृश्चिक राशि हुई। इस राशि का स्वामी मंगल हुआ। मंगल ग्रह की दिशा दक्षिण है। अतः शादी दक्षिण दिशा में करनी चाहिए।

शनिवार, 6 जनवरी 2018

कुछ विशेष योग

बहुसन्तान योग 
पंचमेश शनि शुक्र के साथ पाप स्थानगत हो | आठवें भाग में पंचमेश हो | पंचमेश तथा तृतीयेश साथ-साथ हो | पंचमेश के स्थान में तृतीयेश हो | सप्तमेश-तृतीयेश का अन्योंयास्रित योग हो ।

गोद जाने का योग
कर्क या सिंह राशि मे पापग्रह हो | ४ या १०वें स्थान पर पापग्रह हो | चन्द्रमा से चतुर्थ राशि मे पापग्रह हो | सूर्य से ९वें स्थान पर पापग्रह हो | चन्द्रमा या सूर्य शत्रुक्षेत्र मे हो |

जमींदारी योग= 
चौथे घर का मालिक दशम मे तथा दशमेश चतुर्थ मे हो | चतुर्थेश, २ या ११वें स्थान पर हो | चतुर्थेश, दशमेश और चन्द्रमा बलवान हों तथा परस्पर मित्र हों | पंचमेश लग्न मे हो | सप्तमेश, नवमेश तथा एकादशेश लग्न मे हों |

ससुराल से धन-प्राप्ति के योग
सप्तमेश और द्वतीयेश एक साथ हों और उन पर शुक्र की दृष्टि हो | चौथे घर का स्वमी सातवें घर में हो, शुक्र चौथे स्थान पर हो, तो ससुराल से धन मिलता है | सप्तमेश नवमेश शुक्र द्वारा देखे जाते हों | बलवान धनेश सातवें स्थान पर बैठे शुक्र द्वारा देखा जाता हो |

धन-सुख योग 
दिन मे जन्म लेने वाले जातक का चन्द्रमा अपने नवांश मे हो तथा उसे गुरु देखता हो, तो धन-सुख योग होता है | रात मे जन्म हो, चंद्रमा को शुक्र देखता हो, तो धन-प्राप्ति होती है | भाग्य के स्वामी का लाभ के स्वामी के साथ योग हो | चौथे घर का मालिक भाग्येश के साथ बैठा हो | भाग्येश और पंचमेश का योग हो | भाग्येश और द्वितीयेश का योग हो | दशमेश और लाभेश साथ हों | दशमेश और चतुर्थेश २, ४, ५, ९ घर मे साथ बैठे हो | धनेश और पंचमेश का योग हो | लग्न का स्वामी चौथे घर के साथ बैठे हो | लाभेश और चतुर्थेश का योग हो | लाभेश और धनेश का योग हो | लाभेश और लग्नेश का योग हो | लग्नेश और धनेश का योग हो | लग्न का स्वामी पांचवें स्थान के स्वामी के साथ हो |

महालक्ष्मी योग 
धन और एश्वर्य प्रदान करने वाला योग है। यह योग कुण्डली Kundli में तब बनता है जब धन भाव यानी द्वितीय स्थान का स्वामी बृहस्पति एकादश भाव में बैठकर द्वितीय भाव पर दृष्टि डालता है। यह धनकारक योग (Dhan Yoga) माना जाता है।

इसी प्रकार एक महान योग है सरस्वती योग
यह तब बनता है जब शुक्र बृहस्पति और बुध ग्रह एक दूसरे के साथ हों अथवा केन्द्र में बैठकर एक दूसरे से सम्बन्ध बना रहे हों। युति अथवा दृष्टि किसी प्रकार से सम्बन्ध बनने पर यह योग बनता है। यह योग जिस व्यक्ति की कुण्डली में बनता है उस पर विद्या की देवी मां सरस्वती की कृपा रहती है। सरस्वती योग वाले व्यक्ति कला, संगीत, लेखन, एवं विद्या से सम्बन्धित किसी भी क्षेत्र में काफी नाम और धन कमाते हैं।

शुक्रवार, 5 जनवरी 2018

कुंडली में विष योग एवं उपाय

फलदीपिका’ ग्रंथ के अनुसार ‘‘आयु, मृत्यु, भय, दुख, अपमान, रोग, दरिद्रता, दासता, बदनामी, विपत्ति, निन्दित कार्य, नीच लोगों से सहायता, आलस, कर्ज, लोहा, कृषि उपकरण तथा बंधन का विचार शनि ग्रह से होता है। ‘‘अपने अशुभ कारकत्व के कारण शनि ग्रह को पापी तथा अशुभ ग्रह कहा जाता है। परंतु यह पूर्णतया सत्य नहीं है। वृष, तुला, मकर और कुंभ लग्न वाले जातक के लिए शनि ऐश्वर्यप्रद, धनु व मीन लग्न में शुभकारी तथा अन्य लग्नों में वह मिश्रित या अशुभ फल देता है। शनि पूर्वजन्म में किये गये कर्मों का फल इस जन्म में अपनी भाव स्थिति द्वारा देता है। वह 3, 6, 10 तथा 11 भाव में शुभ फल देता है। 1, 2, 5, 7 तथा 9 भाव में अशुभ फलदायक और 4, 8 तथा 12 भाव में अरिष्ट कारक होता है। बलवान शनि शुभ फल तथा निर्बल शनि अशुभ फल देता है। यह 36वें वर्ष से विशेष फलदाई होता है। शनि की विंशोत्तरी दशा 19 वर्ष की होती है। अतः कुंडली में शनि अशुभ स्थित होने पर इसकी दशा में जातक को लंबे समय तक कष्ट भोगना पड़ता है। शनि सब से धीमी गति से गोचर करने वाला ग्रह है। वह एक राशि के गोचर में लगभग ढाई वर्ष का समय लेता है। चंद्रमा से द्वादश, चंद्रमा पर, और चंद्रमा से अगले भाव में शनि का गोचर साढ़े-साती कहलाता है। वृष, तुला, मकर और कुंभ लग्न वालों के अतिरिक्त अन्य लग्नों में प्रायः यह समय कष्टकारी होता है। शनि एक शक्तिशाली ग्रह होने से अपनी युति अथवा दृष्टि द्वारा दूसरे ग्रहों के फलादेश में न्यूनता लाता है। सप्तम दृष्टि के अतिरिक्त उसकी तीसरे व दसवें भाव पर पूर्ण दृष्टि होती है। शनि के विपरीत चंद्रमा एक शुभ परंतु निर्बल ग्रह है। चंद्रमा एक राशि का संक्रमण केवल 2( से 2) दिन में पूरा कर लेता है। चंद्रमा के कारकत्व में मन की स्थिति, माता का सुख, सम्मान, सुख-साधन, मीठे फल, सुगंधित फूल, कृषि, यश, मोती, कांसा, चांदी, चीनी, दूध, कोमल वस्त्र, तरल पदार्थ, स्त्री का सुख, आदि आते हैं। जन्म समय चंद्रमा बलवान, शुभ भावगत, शुभ राशिगत, ऐसी मान्यता है कि शनि और चंद्रमा की युति जातक द्वारा पिछले जन्म में किसी स्त्री को दिये गये कष्ट को दर्शाती है। वह जातक से बदला लेने के लिए इस जन्म में उसकी मां बनती है। माता का शुभत्व प्रबल होने पर वह पुत्र को दुख, दारिद्र्य तथा धन नाश देते हुए दीर्घकाल तक जीवित रहती है। यदि पुत्र का शुभत्व प्रबल हो तो जन्म के बाद माता की मृत्यु हो जाती है अथवा नवजात की शीघ्र मृत्यु हो जाती है। इसकी संभावना 14वें वर्ष तक रहती है। दर्शाती है, जिसका अशुभ प्रभाव मध्य अवस्था तक रहता है। शनि के चंद्रमा से अधिक अंश या अगली राशि में होने पर जातक अपयश का भागी होता है। सभी ज्योतिष ग्रंथों में शनि-चंद्र की युति का फल अशुभ कहा है। ‘‘जातक भरणम्’ ने इसका फल ‘‘परजात, निन्दित, दुराचारी, पुरूषार्थहीन’’ कहा है। ‘बृहद्जातक’ तथा ‘फलदीपिका’ ने इसका फल ‘‘परपुरूष से उत्पन्न, आदि’’ बताया है। अशुभ फलादेश के कारण इस युति को ‘‘विष योग’’ की संज्ञा दी गई है। ‘विष योग’ का अशुभ फल जातक को चंद्रमा और शनि की दशा में उनके बलानुसार अधिक मिलता है। कंटक शनि, अष्टम शनि तथा साढ़ेसाती कष्ट बढ़ाती है। ऐसी मान्यता है कि शनि और चंद्रमा की युति जातक द्वारा पिछले जन्म में किसी स्त्री को दिये गये कष्ट को दर्शाती है। वह जातक से बदला लेने के लिए इस जन्म में उसकी मां बनती है। माता का शुभत्व प्रबल होने पर वह पुत्र को दुख, दारिद्र्य तथा धन नाश देते हुए दीर्घकाल तक जीवित रहती है। यदि पुत्र का शुभत्व प्रबल हो तो जन्म के बाद माता की मृत्यु हो जाती है अथवा नवजात की शीघ्र मृत्यु हो जाती है। इसकी संभावना 14वें वर्ष तक रहती है। कुंडली में जिस भाव में ‘विष योग’ स्थित होता है उस भाव संबंधी कष्ट मिलते हैं। नजदीकी परिवारजन स्वयं दुखी रहकर विश्वासघात करते हैं। जातक को दीर्घकालीन रोग होते हैं और वह आर्थिक तंगी के कारण कर्ज से दबा रहता है। जीवन में सुख नहीं मिलता। जातक के मन में संसार से विरक्ति का भाव जागृत होता है और वह अध्यात्म की ओर अग्रसर होता है। विभिन्न भावों में ‘विष योग’ का फल प्रथम भाव (लग्न) इस योग के कारण माता के बीमार रहने या उसकी मृत्यु से किसी अन्य स्त्री (बुआ अथवा मौसी) द्वारा उसका बचपन में पालन-पोषण होता है। उसे सिर और स्नायु में दर्द रहता है। शरीर रोगी तथा चेहरा निस्तेज रहता है। जातक निरूत्साही, वहमी एवं शंकालु प्रवृत्ति का होता है। आर्थिक संपन्नता नहीं होती। नौकरी में पदोन्नति देरी से होती है। विवाह देर से होता है। दांपत्य जीवन सुखी नहीं रहता। इस प्रकार जीवन में कठिनाइयां भरपूर होती हैं। द्वितीय भाव घर के मुखिया की बीमारी या मृत्यु के कारण बचपन आर्थिक कठिनाई में व्यतीत होता है। पैतृक संपत्ति मिलने में बाधा आती है। जातक की वाणी में कटुता रहती है। वह कंजूस होता है। धन कमाने के लिए उसे कठिन परिश्रम करना पड़ता है। जीवन के उत्तरार्द्ध में आर्थिक स्थिति ठीक रहती है। दांत, गला एवं कान में बीमारी की संभावना रहती है। तृतीय भाव जातक की शिक्षा अपूर्ण रहती है। वह नौकरी से धन कमाता है। भाई-बहनों के साथ संबंध में कटुता आती है। नौकर विश्वासघात करते हैं। यात्रा में विघ्न आते हैं। श्वांस के रोग होने की संभावना रहती है। चतुर्थ भाव माता के सुख में कमी, अथवा माता से विवाद रहता है। जन्म स्थान छोड़ना पड़ता है। मध्यम आयु में आय कुछ ठीक रहती है, परंतु अंतिम समय में फिर से धन की कमी हो जाती है। स्वयं दुखी दरिद्र होकर दीर्घ आयु पाता है। उसके मृत्योपरांत ही उसकी संतान का भाग्योदय होता है। पुरूषों को हृदय रोग तथा महिलाओं को स्तन रोग की संभावना रहती है। पंचम भाव विष योग होने से शिक्षा प्राप्ति में बाधा आती है। वैवाहिक सुख अल्प रहता है। संतान देरी से होती है, या संतान मंदबुद्धि होती है। स्त्री राशि में कन्यायें अधिक होती हैं। संतान से कोई सुख नहीं मिलता। षष्ठ भाव जातक को दीर्घकालीन रोग होते हैं। ननिहाल पक्ष से सहायता नहीं मिलती। व्यवसाय में प्रतिद्धंदी हानि करते हैं। घर में चोरी की संभावना रहती है। सप्तम भाव स्त्री की कुंडली में विष योग होने से पहला विवाह देर से होकर टूटता है, और वह दूसरा विवाह करती है। पुरूष की कुंडली में यह युति विवाह में अधिक विलंब करती है। पत्नी अधिक उम्र की या विधवा होती है। संतान प्राप्ति में बाधा आती है। दांपत्य जीवन में कटुता और विवाद के कारण वैवाहिक सुख नहीं मिलता। साझेदारी के व्यवसाय में घाटा होता है। ससुराल की ओर से कोई सहायता नहीं मिलती। अष्टम भाव दीर्घकालीन शारीरिक कष्ट और गुप्त रोग होते हैं। टांग में चोट अथवा कष्ट होता है। जीवन में कोई विशेष सफलता नहीं मिलती। उम्र लंबी रहती है। अंत समय कष्टकारी होता है। नवम भाव भाग्योदय में रूकावट आती है। कार्यों में विलंब से सफलता मिलती है। यात्रा में हानि होती है। ईश्वर में आस्था कम होती है। कमर व पैर में कष्ट रहता है। जीवन अस्थिर रहता है। भाई-बहन से संबंध अच्छे नहीं रहते। दशम भाव पिता से संबंध अच्छे नहीं रहते। नौकरी में परेशानी तथा व्यवसाय में घाटा होता है। पैतृक संपत्ति मिलने में कठिनाई आती है। आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं रहती। वैवाहिक जीवन भी सुखी नहीं रहता। एकादश भाव बुरे दोस्तों का साथ रहता है। किसी भी कार्य मंे लाभ नहीं मिलता। 1 संतान से सुख नहीं मिलता। जातक का अंतिम समय बुरा गुजरता है। बलवान शनि सुखकारक होता है। द्वादश स्थान जातक निराश रहता है। उसकी बीमारियों के इलाज में अधिक समय लगता है। जातक व्यसनी बनकर धन का नाश करता है। अपने कष्टों के कारण वह कई बार आत्महत्या तक करने की सोचता है। महर्षि पराशर ने दो ग्रहों की एक राशि में युति को सबसे कम बलवान माना है। सबसे बलवान योग ग्रहों के राशि परिवर्तन से बनता है तथा दूसरे नंबर पर ग्रहों का दृष्टि योग होता है। अतः शनि-चंद्र की युति से बना ‘विष योग’ सबसे कम बलवान होता है। इनके राशि परिवर्तन अथवा परस्पर दृष्टि संबंध होने पर ‘विष योग’ संबंधी प्रबल प्रभाव जातक को प्राप्त होते हैं। इसके अतिरिक्त शनि की तीसरी, सातवीं या दसवीं दृष्टि जिस स्थान पर हो और वहां जन्मकुंडली में चंद्रमा स्थित होने पर ‘विष योग’ के समान ही फल जातक को प्राप्त होते हैं।
 उपाय
शिवजी शनिदेव के गुरु हैं और चंद्रमा को अपने सिर पर धारण करते हैं। अतः ‘विषयोग’ के दुष्प्रभाव को कम करने के लिए देवों के देव महादेव शिव की आराधना व उपासना करनी चाहिए। सुबह स्नान करके प्रतिदिन थोड़ा सरसों का तेल व काले तिल के कुछ दाने मिलाकर शिवलिंग का जलाभिषेक करते हुये ‘ऊँ नमः शिवाय’ का उच्चारण करना चाहिए। उसके बाद कम से कम एक माला ‘महामृत्युंजय मंत्र’ का जप करना चाहिए। शनिवार को शनि देव का संध्या समय तेलाभिषेक करने के बाद गरीब, अनाथ एवं वृद्धों को उरद की दाल और चावल से बनी खिचड़ी का दान करना चाहिए। ऐसे व्यक्ति को रात के समय दूध व चावल का उपयोग नहीं करना चाहिए क्योंकि इससे चंद्रमा और निर्बल हो जाता है।

कारको भाव नाशाय

जन्मकुंडली के बारह भाव मानव जीवन के विभिन्न अवयवों को दर्शाते हैं। किसी भाव के फल का विचार करते समय सर्वप्रथम उस भाव और भावेश के बल का आकलन किया जाता है। जिस भाव में उसके स्वामी या शुभ ग्रह की स्थिति हो, या उनकी दृष्टि पड़ती हो, तब वह भाव बलवान होकर शुभ फलदायक होता है। इसके विपरीत स्थिति में वह भाव निर्बल होकर शुभ फल नहीं देता है। जब भाव का स्वामी स्वोच्च, मित्र या स्वराशि में स्थित होकर शुभ भावाधिपतियों से संबंध बनाता है तब वह बलवान होता है और अपने स्वामित्व भाव का उत्तम फल देता है। भावेश का बली होना भाव की शुभता बढ़ाता है। भाव व भावेश के साथ ही उस भाव के ‘नित्य कारक’ ग्रह का भी आंकलन आवश्यक होता है। ‘भाव कारक’, ‘वस्तु कारक’, ‘योग कारक’ व ‘जैमिनी कारक’ सर्वथा भिन्न हैं। महर्षि पाराशर ने प्रत्येक भाव का एक ‘नित्य कारक’ निर्धारित किया था - सूर्यो गुरुः कुजः सोमो गुरुभौमः सितः शनिः। गुरुंचन्द्रसुतो जीवो मन्द´च भावकारकाः।। परंतु कालांतर में रचित ज्योतिष ग्रंथों में वर्णित ‘नित्य भावकारक’ इस प्रकार हैं- प्रथम भाव -सूर्य, द्वितीय भाव-बृहस्पति, तृतीय भाव-मंगल, चतुर्थ भाव - चंद्र व बुध, पंचम भाव -बृहस्पति, षष्ठ भाव -शनि व मंगल, सप्तम भाव - शुक्र, अष्टम भाव - शनि, नवम भाव - सूर्य व बृहस्पति, दशम भाव - सूर्य, बुध, बृहस्पति व शनि, एकादश भाव - बृहस्पति, द्वादश भाव - शनि। फलदीपिका ग्रंथ (15, 25) के अनुसार- तस्मिन भावे कारके भावनाथे वीर्योपेते तस्य भावस्य सौरव्यम्। अर्थात्, ”जब भाव, भावेश और कारक तीनों बलवान हों तब उस भाव का अच्छा फल व्यक्ति को प्राप्त होता है।“ ‘भाव प्रकाश’ ग्रंथ के अनुसार- भवन्ति भावभावेशकारका बलसंयुताः। तदा पूर्ण फलं द्वाभ्याम एकेनाल्प फलं वदेत्।। अर्थात् ” यदि भाव, भाव का स्वामी तथा भाव का कारक तीनों बलवान हों तब उस भाव का पूर्ण फल कहना चाहिए, और यदि तीन में से दो बलवान हों तो आधा फल कहना चाहिए, तथा केवल एक ही बलवान होने पर बहुत थोड़ा फल होता है। ‘जातक पारिजात’ ग्रंथ (अ. 2-51) ने प्रचलित भाव कारकों का विवरण देने के बाद अगले श्लोक (अ. 2-52) में कहा है कि यदि शुक्र, बुध और बृहस्पति लग्न से क्रमशः सप्तम, चतुर्थ और पंचम भाव में हानिप्रद होते हैं तथा शनि अष्टम भाव में शुभ फल करता है। ज्ञातव्य है कि उपरोक्त ग्रह इन भावों के कारक माने गये हैं। परंतु ‘भावार्थ रत्नाकर’ ग्रंथ के रचयिता श्री रामानुजाचार्य ने निम्न श्लोक में सभी कारक ग्रहों को संबंधित भाव में हानिकारक बताया है- सर्वेषु भाव स्थानेषु तत्त्द भावादिकारकः। विद्यते तस्यभावस्य फलमस्वंल्पमुदीरितय्।। अर्थात्, ”सभी कारक ग्रह अपने संबंधित भाव में स्थित होने पर उस भाव के फल को बहुत कम करते हैं।“ उपरोक्त शलोक कालांतर में ”कारको भाव नाशाय“ नामक लोकोक्ति के रूप में प्रचलित हो गया। इसी आधार पर बृहस्पति का पंचम भाव में होना पुत्र अभाव का सूचक, शुक्र की सप्तम भाव में स्थिति वैवाहिक सुख का अभाव सूचक, तथा छोटे भाई के कारक मंगल ग्रह का तृतीय भाव में सिथति छोटे भाई के अभाव का सूचक कहा जाता है। अपवाह स्वरूप केवल शनि ग्रह का अष्टम (आयु) में होना दीर्घायु देता है। ‘कारको भाव नाशाय’ के पीछे जो हेतु है उस पर विचार करने से ज्ञात होता है कि जब किसी भाव का कारक उसी भाव में स्थित होता है तब साझे विषय के दो द्योतक (भाव व कारक) इकट्ठे होंगे और उन पर किसी पापी ग्रह का प्रभाव होने पर उनके साझे तथ्य की हानि होगी। वहीं शनि ग्रह की अष्टम आयु) भाव में स्थिति अपनी धीमी चाल से आयु को बढ़ायेगा। अनुभव में भी आता है कि जब भाव में उसका कारक शत्रु राशि में या अशुभ प्रभावी होने पर ही उस भाव के फल में कमी आती है। परंतु जब कोई ग्रह उस भाव में स्थित हो जिसका वह कारक है और वह स्वराशि अथवा मित्र राशि में स्थित हो वा शुभ दृष्ट हो तब अवश्य ही भाव फल की वृद्धि होती है। जैसे तृतीय भाव में मंगल यदि स्वराशि या मित्र राशि में हो और शुभ दृष्ट हो तो जातक का भाई अवश्य होता है। इसी प्रकार चतुर्थ भाव में चंद्रमा शुभ राशि में शुभ दृष्ट होने पर माता दीर्घजीवी होती है तथा सप्तम भाव में शुभ राशि स्थित व दृष्ट शुक्र वैवाहिक सुख देता है। उपरोक्त तथ्य को दर्शाती कुछ कुंडलियां प्रस्तुत हैं। 1. पुरुष: 14.9.1938, 23.36, झांसी भ्रातृकारक मंगल तृतीय भाव में मित्र सिंह राशि में भावेश सूर्य के साथ है। मंगल अपनी मूल त्रिकोण राशि से पंचम भाव में है। लग्नेश बुध तृतीय भाव में मित्र सूर्य के साथ है। तृतीय भाव स्थित ग्रहों पर बृहस्पति की सप्तम दृष्टि है। जातक के दो छोटे भाई हैं। इसके विपरीत श्री जवाहर लाल नेहरू की कुंडली देखिये। 2. 14.11.1889, 23.03 इलाहाबाद भ्रातृकारक मंगल तृतीय भाव में अपनी शत्रु राशि कन्या में स्थित है। मंगल अपनी मूल त्रिकोण राशि से षष्ठ भाव में स्थित है। उस पर कोई शुभ दृष्टि नहीं है। तृतीयेश बुध पर शनि और राहु की दृष्टि है और वह ‘पापकर्तरी योग में है। सर्वविदित है कि नेहरूजी का छोटा भाई नहीं था। यह स्थिति भाव, भावेश व भाव कारक की अशुभ स्थिति का फल था। 3. स्त्री: 5.5.1963, 16.40, भटिंडा (पंजाब) जातिका की कन्या लग्न है। उसमें पक्षबली एकादशेश चंद्रमा स्थित है। सप्तम भाव में पति कारक स्वक्षेत्री बृहस्पति और कलत्रकारक उच्च शुक्र की युति है तथा उन पर पक्षबली चंद्रमा की दृष्टि है। अतः शनि ग्रह की सप्तम भाव पर दृष्टि विशेष अशुभ न कर पाई। जातिका अति सुंदर और सुशील है, तथा सौभाग्यशाली जीवन व्यतीत कर रही है। इसके विपरीत ब्रिटिश राजकुमारी डायना की कुंडली का अवलोकन कीजिए। 4. 1.7.1961, 17.00, लंदन (यू.के.) कुंडली में कलत्रकारक शुक्र सप्तम भाव में स्वक्षेत्री है जिससे उनका ब्रिटिश राजघराने में विवाह हुआ। परंतु शुक्र पर नीच व वक्री तथा शनि पीड़ित बृहस्पति की दृष्टि है। शुक्र से चतुर्थ केंद्र में मंगल और राहु स्थित हैं। जिससे उनकी कामुकता में वृद्धि हुई और उनके कई व्यक्तियों से तथाकथित संबंध बने और अपने पति से तलाक हुआ। यह सब कलत्रकारक शुक्र पर दुष्प्रभाव के कारण हुआ। 5. श्री लाल बहादुर शास्त्री, पूर्व प्रधानमंत्री 2.10.1904, 11.42, वाराणसी पुत्रकारक बृहस्पति पंचम भाव में मित्र राशि मेष में स्थित है। पंचमेश मंगल पंचम से पंचम (नवम) भाव में अपनी मित्र सिंह राशि में है तथा उस पर बृहस्पति की दृष्टि है। पंचम भाव पर स्वक्षेत्री शुक्र की भी दृष्टि है। सभी जानते हैं कि उनके दो पुत्र थे। 6. पुरुष: 27.5.1967, 14.45, लखनऊ कुंडली में माता का कारक चतुर्थ भाव में स्थित है। चंद्रमा पर मंगल, शनि और राहु की दृष्टि है। परंतु चंद्रमा पक्षबली है तथा शुक्र से दृष्ट है। चंद्रमा का उच्च बृहस्पति से राशि विनिमय है। इस प्रकार चंद्रमा बलवान है। चंद्रमा से अष्टम (आयु) भाव में उच्च बृहस्पति ने भी माता को दीर्घायु बनाया, यद्यपि उनका स्वास्थ्य अच्छा नहीं है। चंद्रमा पर शुभ प्रभाव के कारण ‘कारको भाव नाशाय’ निष्प्रभावी रहा। इस संबंध में आचार्य मंत्रेश्वर के विचार प्रस्तुत हैं। ‘फलदीपिका’ ग्रंथ (15.17) में उन्होंने सर्वमान्य भाव कारको का उल्लेख किया है तथा श्लोक 15-25 में कहा है कि भाव का शुभ फल पाने के लिये भाव, भावेश व भाव कारक को बलवान होना चाहिए। परंतु श्लोक 15.26 में स्वयं का विचार न देते हुए कहा है: धर्मे सूर्यः शीतगुर्बन्धुभावे शौर्य भौमः पंचमे देवमन्त्री। कामे शुक्रश्चाष्टमे भानुपुत्रः कुर्यात्तस्य क्लेशमित्याहुरन्ये।। अर्थात्, ”अन्य आचार्यों का मत है कि नवम भाव में सूर्य, चतुर्थ में चंद्रमा, तृतीय भाव में मंगल, पंचम भाव में बृहस्पति, सप्तम भाव में शुक्र तथा अष्टम भाव में शनि, इन भावों के लिए कष्टकारी होते हैं। श्लोक के अंत में ‘क्लेशभित्याहुरन्ये’ का प्रयोग उनकी ‘कारकोभावनाशाय’ से सहमति नहीं दर्शाता। आचार्य कालिदास ने भी अपने ग्रंथ ‘उत्तरकालामृत’ (अध्याय 4.12) में भाव के शुभ फल प्राप्ति के लिए भाव, भावेश व भावकारक का बलवान होना आवश्यक बताया है। इनके बल आंकलन व आपसी संबंध के बारे में मार्गदर्शन करते हुए उन्होंने कहा हैः भावानां फलकारकाश्च विमुखा नैसर्गिकाश्चाय यद्भावेशान्वितमांशपावपि तथा तद्भावत्कारकौ। यद्यत्कारकराशिगो शुभखगस्त तत्फलध्वंसकस्तत्तत्कारक भावयोगवशतः स्वल्पं फलं कारयेत्।। अर्थात, ”यदि किसी भाव के स्वामी तथा उस भाव के कारक में नैसर्गिक शत्रुता हो, अथवा किसी भाव तथा उसके कारक की उन ग्रहों से शत्रुता हो, जो कि भावेशाधिष्ठित राशि तािा नवांश के स्वामी हैं, तो उस भाव की हानि होती है। इसी प्रकार जिस भाव के कारक की राशि में पाप ग्रह हो, उस भाव के फल की हानि होती है। ऐसे ही जिस भाव तथा उसके कारक से पाप ग्रह की युति हो तब भी उस भाव का फल बहुत अल्प हो जाता है। उदाहरणार्थ नवम् भाव पिता का है तथा सूर्य नवम भाव का कारक है। मिथुन लग्न में नवमेश शनि होता है जो कारक सूर्य का वैरी है। अतः मिथुन लग्न में सूर्य की नवम भाव में स्थिति अशुभ फलदायक होगी। विभिन्न ज्योतिष ग्रंथों पर आधारित उपरोक्त विवचेन यह दर्शाता है कि ‘कारको भाव नाशाय’ पूर्ण सत्य नहीं है। केवल उसके आधार पर फलादेश करना सही नहीं होगा। भाव व भावेश की तरह भाव कारक के बल का शास्त्रोक्त पूर्ण आंकलन करने के उपरांत ही किसी भाव का फलादेश कहना चाहिए।

बुधवार, 3 जनवरी 2018

पितृ दोष के लक्षण

१ घर में पितृ दोष होगा तो घर के बच्चे की शिक्षा , दिमाग , बाल ,व्यवहार पर अच्छा प्रभाव नहीं पड़ता ।
२ जिन जातकों को पितृ दोष होता है उनके लिए इस दिन का बहुत महत्व है , बहुत से कारण होते है की हमारे अपने पितरों से सम्बन्ध अच्छे नहीं हो पाते , कारण , आपके जीवन में रुकावटें , परेशानियाँ और क्या नहीं होता । इसीलिए इस दिन की गयी पूजा आपको लाभ पंहुचा सकती है ।
३ पितृ दोष कही न कही अनेको दोषों को उत्पन्न करने वाला होता है जैसे की वंश न बढ़ने का दोष , असफलता मिलने का दोष , बाधा दोष और भी बहुत कुछ । तो इन दिनों में की गयी पूजा और तर्पण अगर विधि विधान और मन लगाकर किया जाए तो अच्छे फल देने वाली सिद्ध होती है ।
४ बालो पर सबसे पहले प्रभाव पड़ता है , जैसे की , समय से पहले बालों का सफ़ेद हो जाना , सिर के बीच के हिस्से से बालों का कम होना , हर कार्य में नाकामी हाथ लगाना , घर में हमेशा कलह रहना ,बीमारी घर के सदस्यों को चाहे छोटी हो या बड़ी घेरे रखती है , यह सब लक्षण पितृ दोष घर में है इसको बताते है । और अगर घर में पितृ दोष है तो किसी भी सदस्य को सफलता आसानी से हाथ नहीं लगती ।
५ पितृ दोष कुंडली में है अगर , तो कुंडली के अच्छे गृह उतना अच्छा फल जितना उन्हें देना चाहिए ।
६ घर के सभी लोग आपस में झगड़ते है , घर के बच्चों के विवाह देरी से होते है , और काफी दिक्कतों का सामना भी करना पड़ता है विवाह करने में , घर में धन ना के बराबर रुकेगा अगर पितृ दोष हावी है तो ,बीमारी या फिर क़र्ज़ देने में धन चला जायेगा जुडा हुआ धन , पुरानी चीजे ठीक कराने में धन निकल जायेगा पर रकेगा नहीं ।

७ परिवार की मान और प्रतिष्ठा में गिरावट आती है , पितृ दोष के कारण घर में पेड़-पौधे या फिर जानवर नहीं पनप पाते । घर में शाम आते आते अजीब सा सूनापन हो जायेगा जैसे की उदासी भरा माहौल, घर का कोई हिसा बनते बनते रह जायेगा या फिर बने हुए हिस्से में टूट-फुट होगी , उस हिस्से में दरारे आ जाती है ।
८ घर का मुखिया बीमार रहता है , रसोई घर के अस - पास वाली दीवारों में दरार आ जाते है । जिस घर में पितृ दोष हावी होता है उस घर से कभी भी मेहमान संतुष्ट होकर नहीं जायेंगे चाहे आप कुछ भी क्यूँ न कर ले या फिर कितनी ही खातिरदारी कर ले , मेहमान हमेशा नुक्स निकाल कर रख देंगे यानी की मोटे तौर पर आपकी इज्ज़त नहीं करेंगे ।
९ घर में चीजे और साधन होते हुए भी घर के लोग खुश नहीं रहते । जब पैसे की जरुरत पड़ती है तो पैसा मिल नहीं पाता । ऐसे घर के बच्चों को उनकी नौकरी या फिर कारोबार में स्थायित्व लम्बे समय बाद ही हो पाता है , बच्चा तेज़ होते हुए भी कुछ जल्दी से हासिल नहीं कर पायेगा ऐसी परिस्थितियाँ हो जायेंगी ।
१० जिस घर में पितृ दोष होता है उस घर में भाई-बहन में मन-मुटाव रहता ही रहता है , कभी कभी तो परिस्थितियाँ ऐसी हो जाती है की कोई एक दूसरे की शकल तक देखना पसंद नहीं करता । पति-पानी में बिना बात के झगडा होना भी ऐसे घर में स्वाभाविक है जिस घर में पितृ दोष हो ।
११ ऐसे घर के लोग जब एक दूसरे के साथ रहेंगे तो हमेशा कलेश करके रखेंगे परन्तु जैसे ही एक दुसरे से दूर जायेंगे तो प्रेम से बात करेंगे ।
१२ घर में स्त्रियों के साथ दुराचार करना , उन्हें नीचा दिखाना , उनका सम्मान न करने से शुक्र गृह बहुत बुरा फल देता है जिसका असर आने वाली चार पीड़ियों तक रहता है । तो शुक्र गृह भी पित्र दोष लगाता है कुंडली में ।

१३ जिस घर में जानवरों के साथ बुरा सुलूक किया जाता है उस घर में पितृ दोष आना स्वाभाविक है । और जो जानवरों के साथ बुरा सुलूक करते है वह ही नहीं अपितु उनका पूरा परिवार और उनकी संतान पर पितृ दोष के बुरे प्रभाव के हिस्सेदार जाने-अनजाने में बन जाते है ।
१४ जिस घर में विनम्र रहने वाले व्यक्ति का अपमान होता है वह घर पितृ दोष से पीड़ित होगा , साथ में जो लोग कमजोर व्यक्ति का अपमान करेंगे वह भी पितृ दोष से प्रभावित होंगे ।
१५ जमीन हथियाने से , हत्या करने से पित्र दोष लगेगा ।
१६ जो लोग समाज-विरॊधि काम काम करेंगे उनका बृहस्पति खराब होकर उनकी कई पीड़ियों तक पितृ दोष देता रहता है ।
१७ बुजुर्गों का अपमान जहा हुआ वह समझिये पितृ दोष आया ही आया ।
१८ सीड़ियों के निचे रसोई या फिर सामान इक्कठा करने का स्टोर बनाने से पितृ दोष लगता है ।
१९ मित्र या प्रेमी को धोखा देने से पितृ दोष लगता है , शेर-मुखी घर में रहने वाले लोगो को पितृ दोष के दुष्प्रभाव झेलने पड़ते है । {शेर-मुखी ऐसा घर होता है जो शुरू शुरू में चौड़ा होता है परन्तु जैसे जैसे आप घर के अंदर जाते जायेंगे वह पतला होता चला जाता है ।

किन-किन ग्रहों की कौन सी दृष्टि होती है

सूर्य:- अपने बैठे हुए स्थान से सातवें स्थान को देखता है।

चन्द्र:- अपने बैठे हुए स्थान से सातवें स्थान को देखता है।

मंगल:- अपने बैठे हुए स्थान से चौथे, सातवें और आठवें स्थान को देखता है।

बुध:- अपने बैठे हुए स्थान से सातवें स्थान को देखता है।

गुरु:- अपने बैठे हुए स्थान से पांचवे, सातवें और नौवे स्थान को देखता है।

शुक्र:- अपने बैठे हुए स्थान से सातवें स्थान को देखता है।

शनि:- अपने बैठे हुए स्थान से तीसरे, सातवें और दसवें स्थान को देखता है।

*राहु और केतु की दृष्टि:-*

राहु और केतु को छाया ग्रह कहते हैं इनकी दृष्टि को लेकर हर ज्योतिषियों के अपने-अपने मत हैं कोई कहता है कि राहु और केतु अपने स्थान से पांचवे, सातवे और नौवे स्थान को देखता है तो कोई कहता है कि केवल सातवें स्थान को देखता है तो कोई कहता है कि राहु की दृष्टि होती है किंतु केतु की नही।

अतः सामान्य तौर पर राहु और केतु जहाँ बैठते हैं वहां के फल में कमी लाते हैं और सातवें भाव के फल में कमी लाते हैं किंतु इनका पूर्ण प्रभाव इनके बैठे हुए स्थान से पांचवे और नौवे भाव पर न पड़ने से उन भावों का फल पूर्णतया नष्ट नही होता अतः उन भावों के मिले-जुले फल मिलते रहते हैं।

सोमवार, 1 जनवरी 2018

शापितदोष ओर उसका शांति विधान

 शापितदोष ओर उसका शांति विधान

- श्रापित दोष का मतलब हुआ किसी व्यक्ति को श्राप मिला हुआ होना... श्रापित दोष तब होता है, जब किसी की कुंडली के एक ही स्थान पर शनि और राहु दोनों उपस्थित होते हैं... यह व्यक्ति द्वारा पूर्व में किए पापों का नतीजा होता है.... जो अब सामने आता है.. ये एक पूर्व का कुछ कर्म बताता है जो अभी तक किया जाना बाकि है..
अगर किसी की कुंडली में श्रापित दोष हो तो उसे अच्छा फल नहीं मिलता है.. भले ही उसकी कुंडली में अच्छे ग्रहों का समूह मौजूद हो.. लेकिन प्राचीन ज्योतिषशास्त्रों के अनुसार जब राहु और केतु शनि के साथ आ जाएं...या उसकी युति प्रति युति हो तो इस स्थिति को श्रापित योग कहा जाता है... जिसे अच्छा और बुरा दोनों फल में माना जाता है... ऐसी स्थिति जिसकी कुंडली में होती है.... उस व्यक्ति के पास अपार धन तो होता है... पर जब तक उस दोष से मुक्ति नही पायी जाती तब तक जातक उसके अशुभ फलो के प्रभाव में जीना पड़ता है.. कितना भी अच्छा आचरण उसे अच्छा फल के बजाये विपरीत फल भी दे सकता है.. और उससे उल्टा धर्मं के विपरीत कर्म कभी कभी अच्छा फल दे जाता है.. तब ये बात कुछ अजीब लगती है.. ऐसा ही कुछ मंगल के साथ राहु या केतु की युति से भी होता है.

शापित दोष शान्ति विधान पद्धति

शापित दोष शांति विधान कैसे हो..? ऐसा सवाल हर एक का होता है.. क्योंकि विधि विधान करना मेरा काम है और मैं हर धार्मिक विधान करता हु.. ओर एक बात हर किसीका काम का तंरिक अलग अलग होता है.. तो आज मैं अपने गुरुदेव का बताया तंरिका आपके सामने रखता हूं..

- पहेले तो ये जान ले शापित दोष किस ग्रहो की युति से होता है और ये क्यों आती है.. शापित दोष जब कुंडली मे शनि राहु या केतु से युति प्रतियुति करता है तब होती है.. मान्यता के अनुसार ये परिवार में कोई पुराना अप-मृत्यु बताती है.. मतलब एक प्रकार का पितृदोष है.. पर इसका शांति कुछ इस प्रकार से होता है...

- सब से पहले इसमे नवग्रहों के जाप होता है.. ये जाप भी चारगुना करने का विधान है.. कुछ परिस्थिति में एक गुना भी होता है.. सब ग्रहो के जाप के बाद उसका दशांश होम होता है.. फिर तर्पन मार्जन आदि के बाद पूर्णाहुति के साथ ये कार्य सम्पन होता है.. अब इसके पूरे होते ही जो जातक है उसे श्राप से मुक्ति मिली तो उसे पितृ कार्य करने का अधिकार मिला.. दूसरे दिन पितृ कार्य करके पितृ की शांति के लिए श्राद्ध होता है.. जिसका नाम है "नारायणबलि श्राद्ध".. इस श्राद्ध से समस्त पितृ की शांति की जाती है.. ओर उसका आर्शीवाद प्राप्त किया जाता है.. अब दो अपसव्य कार्य के बाद १०वे दिन भगवान महारुद्र की पूजा षोडषोपचार या त्रिशोपचार.. अलग अलग काम्य पदार्थो से अभिषेक करके की जाती है.. ओर उसके बाद ब्रह्मभोजन दान आदि आदि से इसकी समाप्ति होती है....

- अब कुछ विस्तार से जाने तो ये विधान १० दिन का होता है.. इसकी सुरुआत मंगल या शनि से करना चाहिए.. जैसे मैं मंगल से काम की सुरुआत करता हु.. मंगलवार को प्रातः में सब से पहले स्थापन किया जाता है.. स्थापन में पंचदेव के पाँच.. प्रधान राहु केतु शनि के तीन.. सर्वतोभद्र ओर पितृ का स्थापन ऐसे १० स्थापन होते है.. उसके बाद पंचांग कार्य से नाम गोत्र के साथ पूजा के बाद मंगल के जाप किये जाते है.. अब आगे पोस्ट में बताया है वैसे हर एक ग्रह के जाप की संख्या अलग अलग बताई गई है.. वैसे मंगल का ४गुना के हिसाब से ४०००० जाप होते है ५ ब्राह्मणों के साथ.. जाप सॅमको खत्म होने के बाद उत्तर पूजन होता है और मंगल का काम मंगलवार शाम को खत्म होता है.. इस तरह दूसरे दिन राहु केतु ओर बुध का जाप.. जैसे मंगल का किया उसी पध्धति से.. गुरुवार को गुरु का.. शुक्रवार शुक्र का.. शनिवार शनि का.. रविवार सूर्य का.. ओर सोमवार चंद्र का जाप किये जाते है.. अब सब जाप कर्म खत्म होने के बाद जाप की शुद्धि के लिए दशांश होम तर्पन मार्जन पूर्णाहुतु के साथ ८ दिन का काम पूरा होता है.. फिर ९वे दिन पितृ श्राद्ध.. ओर १० वे दिन महादेव की पूजा के साथ १० दिन का श्रापित दोष विधान सम्पन्न होता है.. इस विधान का बहोत बड़ा फल मिलते मैन देखा है.. पर इस विधान को सात्विक भाव से करना चहोये.. ज्यादा विस्तार से समजना मुश्किल है.. आशा करता हु ये माहिती आपके लिए उपयोगी सिद्ध होगी ।

पूर्वजन्म के दोष कही आपकी परेशानी का कारण तो नही

मनुष्य की मृत्यु के समय जो कुंडली बनती है, उसे पुण्य चक्र कहते हैं. इससे मनुष्य के अगले जन्म की जानकारी होती है। मृत्यु के बाद उसका अगला जन्म कब और कहां होगा, इसका अनुमान लगाया जा सकता है।

जातक-पारिजात में मृत्युपरांत गति के बारे में बताया गया है. यदि मरण काल में लग्न में गुरु हो तो जातक की गति देवलोक में, सूर्य या मंगल हो तो मृत्युलोक, चंद्रमा या शुक्र हो तो पितृलोक और बुध या शनि हो तो नरक लोक में जाता है. यदि बारहवें स्थान में शुभ ग्रह हो, द्वादशेश बलवान होकर शुभ ग्रह से दृष्टि होने पर मोक्ष प्राप्ति का योग होता है. यदि बारहवें भाव में शनि, राहु या केतु की युति अष्टमेश के साथ हो, तो जातक को नरक की प्राप्ति होती है. जन्म कुंडली में गुरु और केतु का संबंध द्वादश भाव से होने पर मोक्ष की प्राप्ति होती है।
पत्रिाका में गुरु, शनि और राहू की स्थिति आत्माओं का सम्बन्ध पूर्व कर्म के कर्मो से प्राप्त फल या प्रभाव बतलाती है :-
1. गुरु यदि लग्न में हो तो पूर्वजों की आत्मा का आशीर्र्वाद या दोष दर्शाता है। अकेले में या पूजा करते वक्त उनकी उपस्थिति का आभास होता है। ऐसे व्यक्ति कों अमावस्या के दिन दूध का दान करना चाहिए।

2. दूसरे अथवा आठवें स्थान का गुरु दर्शाता है कि व्यक्ति पूर्व जन्म में सन्त या सन्त प्रकृति का या और कुछ अतृप्त इच्छाएं पूर्ण न होने से उसे फिर से जन्म लेना पड़ा। ऐसे व्यक्ति पर अदृश्य प्रेत आत्माओं के आशीर्वाद रहते है। अच्छे कर्म करने तथा धार्मिक प्रवृति से समस्त इच्छाएं पूर्व होती हैं। ऐसे व्यक्ति सम्पन्न घर में जन्म लेते है। उत्तरार्ध में धार्मिक प्रवृत्ति से पूर्ण जीवन बिताते हैं। उनका जीवन साधारण परंतु सुखमय रहता है और अन्त में मौत को प्राप्त करते है।
3. गुरु तृतीय स्थान पर हो तो यह माना जाता है कि पूर्वजों में कोई स्त्री सती हुई है और उसके आशीर्वाद से सुखमय जीवन व्यतीत होता है किन्तु शापित होने पर शारीरिक, आर्थिक और मानसिक परेशानियों से जीवन यापन होता है। कुल देवी या मॉ भगवती की आराधना करने से ऐसे लोग लाभान्वित होते हैं।
4. गुरु चौथे स्थान पर होने पर जातक ने पूर्वजों में से वापस आकर जन्म लिया है। पूर्वजों के आशीर्वाद से जीवन आनंदमय होता है। शापित होने पर ऐसे जातक परेशानियों से ग्रस्त पाये जाते हैं। इन्हें हमेशा भय बना रहता है। ऐसे व्यक्ति को वर्ष में एक बार पूर्वजों के स्थान पर जाकर पूजा अर्चना करनी चाहिए और अपने मंगलमय जीवन की कामना करना चाहिए।
5. गुरु नवें स्थान पर होने पर बुजुर्गों का साया हमेशा मदद करता रहता हैं। ऐसा व्यक्ति माया का त्यागी और सन्त समान विचारों से ओतप्रोत रहता है। ज्यों-ज्यों उम्र बढ़ती जाती है वह बली, ज्ञानी बनता जाएगा। ऐसे व्यक्ति की बददुआ भी नेक असर देती है।
6. गुरु का दसवें स्थान पर होने पर व्यक्ति पूर्व जन्म के संस्कार से सन्त प्रवृत्ति, धार्मिक विचार, भगवान पर अटूट श्रळा रखता है। दसवें, नवें या ग्यारहवें स्थान पर शनि या राहु भी है, तो ऐसा व्यक्ति धार्मिक स्थल, या न्यास का पदाधिकारी होता है या बड़ा सन्त। दुष्टध्प्रवृत्ति के कारण बेइमानी, झूठ, और भ्रष्ट तरीके से आर्थिक उन्नति करता है किन्तु अन्त में भगवान के प्रति समर्पित हो जाता हैं ।
7. ग्यारहवें स्थान पर गुरु बतलाता है कि व्यक्ति पूर्व जन्म में तंत्रा मंत्रा गुप्त विद्याओं का जानकार या कुछ गलत कार्य करने से दूषित प्रेत आत्माएं परिवारिक सुख में व्यवधान पैदा करती है। मानसिक अशान्ति हमेशा रहती है। राहू की युति से विशेष परेशानियों का सामना करना पड़ता है। ऐसे व्यक्ति को मां काली की आराधना करना चाहिए और संयम से जीवन यापन करना चाहिए।
8. बारहवें स्थान पर गुरु, गुरु के साथ राहु या शनि का योग पूर्वजन्म में इस व्यक्ति द्वारा धार्मिक स्थान या मंदिर तोडने का दोष बतलाता है और उसे इस जन्म में पूर्ण करना पडता है। ऐसे व्यक्ति को अच्छी आत्माएं उदृश्यरुप से साथ देती है। इन्हें धार्मिक प्रवृत्ति से लाभ होता है। गलत खान-पान से तकलीफों का सामना करना पड़ता है।

अब शनि का पूर्वजों से सम्बन्ध

1. शनि का लग्न या प्रथम स्थान पर होना दर्शाता है कि यह व्यक्ति पूर्वजन्मों में अच्छा वैद्य या पुरानी वस्तुओं जड़ी-बुटी, गूढ़विद्याओं का जानकार रहा होगा। ऐसे व्यक्ति को अच्छी अदृश्य आत्माएं सहायता करती है। इनका बचपन बीमारी या आर्थिक परेशानीपूर्ण रहता है। ये ऐसे मकान में निवास करते हैं, जहां पर प्रेत आत्माओं का निवास रहता हैं। उनकी पूजा अर्चना करने से लाभ मिता हैं।
2. शनि दूसरे स्थान पर हो तो माना जाता है। कि ऐसा व्यक्ति पूर्व जन्म में किसी व्यक्ति को अकारण सताने या कष्ट देने से उनकी बददुआ के कारण आर्थिक, शारीरिक परिवारिक परेशानियां भोगता है। राहु का सम्बन्ध होने पर निद्रारोग, डऱावने स्वप्न आते हैं या किसी प्रेत आत्मा की छाया उदृश्य रुप से प्रत्येक कार्य में रुकावट डालती है। ऐसे व्यक्ति मानसिक रुप से परेशान रहते हैं।
3. शनि या राहु तीसरे या छठे स्थान पर हो तो अदृश्य आत्माएं भविष्य में घटने वाली घटनाओं का पूर्वाभास करवाने में मदद करती है। ऐसे व्यक्ति जमीन संबंधी कार्य, घर जमीन के नीचे क्या है, ऐसे कार्य में ज्ञान प्राप्त करते हैं। ये लोग कभी-कभी अकारण भय से पीडि़त पाये जाते हैं।
4. चौथे स्थान पर शनि या राहु पूर्वजों का सर्पयोनी में होना दर्शाता है। सर्प की आकृति या सर्प से डर लगता है। इन्हें जानवर या सर्प की सेवा करने से लाभ होता है। पेट सम्बन्धी बीमारी के इलाज से सफलता मिलती है।
5. पॉचवें स्थान पर शनि या राहु की उपस्थिति पूर्व जन्म में किसी को घातक हथियार से तकलीफ पहुचाने के कारण मानी जाती है। इन्हें सन्तान संबंधी कष्ट उठाने पड़ते हैं। पेट की बीमारी, संतान देर से होना इत्यादि परेशानियॉ रहती हैं।
6. सातवें स्थान पर शनि या राहू होने पर पूर्व जन्म संबंधी दोष के कारण ऑख, शारीरिक कष्ट, परिवारिक सुख में कमी महसूस करते हैं । धार्मिक प्रवृत्ति और अपने इष्ट की पूजा करने से लाभ होता है।
7. आठवें स्थान पर शनि या राहु दर्शाता है कि पूर्व जन्म में किसी व्यक्ति पर तंत्रा-मंत्रा का गलत उपयोग करने से अकारण भय से ग्रसित रहता हैं। इन्हें सर्प चोर मुर्दों से भय बना रहता हैं। इन्हें दूध का दान करने से लाभ होता है
8. नवें स्थान पर शनि पूर्व जन्म में दूसरे व्यक्तियों की उन्नति में बाधा पहुचाने का दोष दर्शाता है। अतरू ऐसे व्यक्ति नौकरी में विशेष उन्नति नहीं कर पाते हैं।
9. शनि का बारहवें स्थान पर होना सर्प के आशीर्वाद या दोष के कारण आर्थिक लाभ या नुकसान होता है। ऐसे व्यक्ति ने सर्पाकार चांदी की अंगुठी धारण करनी चाहिए ऐसे लोग सर्प की पूजा करने से लाभान्वित होते हैं। भगवान शंकर पर दूध पानी चढ़ाने से भी लाभ मिलता है।
10. जन्म पत्रिका के किसी भी घर में राहु और शनि की युति है ऐसा व्यक्ति बाहर की हवाओं से पीडि़त रहता है। इनके शरीर में हमेंशा भारीपन रहता है, पूजा अर्चना के वक्त अबासी आना आलसी प्रवृत्ती, क्रोधी होने से दोष पाया जाते हैं।
कुंडली के पंचम भाव के स्वामी ग्रह से जातक के पूर्वजन्म के निवास का पता चलता है.
पूर्नजन्म में जातक की दिशा : जन्म कुंडली के पंचम भाव में स्थित राशि के अनुसार जातक के पूर्वजन्म की दिशा का ज्ञान होता है।
पूर्नजन्म में जातक की जाति : जन्म कुंडली में पंचमेश ग्रह की जो जाति है, वही पूर्व जन्म में जातक की जाति होती है।

राशि के अनुसार पौधारोपण

अपनी राशि के अनुसार पौधारोपण करें और जीवन में खुशियों की बाहर लाएं

मेष राशि _ मनी प्लांट ,रातरानी, अशोक .

वृषभ _ दूर्वा, तुलसी ,अमरुद,

मिथुन _ चंपा ,केला, तुलसी,

कर्क _ अशोक, चांदनी ,गुलाब,

सिंह _   तुलसी, रातरानी

कन्या _ तुलसी ,मनी प्लांट ,अमरबेल

तुला _ दूर्वा, तुलसी ,चांदनी, गुलाब या अमरुद

वृश्चिक _ मीठी नीम ,अमरबेल, केला, अशोक

धनु _ केला ,तुलसी ,नाग चंपा ,

मकर _ तुलसी ,गेंदा ,मोगरा ,मरवा,

 कुंभ  _ रातरानी,  गिलोय, तुलसी या दूर्वा

मीन _  केला ,तुलसी, अशोक , मीठा नीम ,अमरुद ,

  इन पौधों को अपनी अपनी राशि के अनुसार लगाये और जीवन में खुशियों की बाहर लाएं.

नीच राशि विचार

ज्योतिष में अट्ठाइस नक्षत्र, बारहराशियां, नौ ग्रह और बारह भावजन्मकुंडली निर्माण का आधार होते हैंतथा इन्हीं घटकों के विश्लेषण से किसीभी जातक के जीवन की स्थिति औरजीवन में घटने वाली घटनाओं कोनिश्चित किया जाता है पर ज्योतिष केआधार इन सभी घटकों में भी नव ग्रहोंकी ही महत्वपूर्ण भूमिका होती है हमारीजन्मकुंडली में स्थित प्रत्येक ग्रह कीअपनी अलग विशेष भूमिका होती हैप्रत्येक ग्रह हमारे जीवन के भिन्न भिन्नपक्षों को नियंत्रित करता है। हमारीकुंडली में स्थित प्रत्येक ग्रह वास्तव में दोप्रकार से अपनी भूमिका निभाता है एकतो ग्रह के जो नैसर्गिक गुण तत्व हैं उसरूप में और दूसरा भावेश के रूप मेंकुंडली में स्थित कोई भी ग्रह जितनाबली और अच्छी स्थिति में होगा उतनाही अच्छा परिणाम देगा और उस ग्रह सेनियंत्रित होने वाली चीजें जीवन मेंअच्छी मात्रा में प्राप्त होंगी और जबकोई ग्रह पीड़ित या कमजोर स्थिति मेंहो तो उस ग्रह से नियंत्रित होने वालीचीजों में संघर्ष उत्पन्न होता है और उसग्रह से नियंत्रित होने वाले पदार्थों कीजीवन में कमी रहती है। नीच राशिकिसी भी ग्रह की वह स्थिति होती हैजिसमे ग्रह सबसे कमजोर स्थिति मेंहोता है इसलिए नीच राशि में बैठे ग्रहको नकारात्मक परिणाम देने वाला मानागया है।

नकारात्मक दृष्टिकोण – यदि कुंडलीमें कोई ग्रह नीचस्थ हो अर्थात अपनीनीच राशि में स्थित हो तो ऐसे में वहबहुत कमजोर स्थिति में होता है जिससेउस नीचस्थ ग्रह से नियंत्रित होने वालीवस्तुएं या पदार्थ जीवन में बहुत संघर्षके बाद और कम मात्रा में प्राप्त होती हैं, कुंडली में कोई भी ग्रह नीच राशि में होनेपर उसके नैसर्गिक कारक तत्वों में तोसंघर्ष उत्पन्न होता ही है साथ ही नीचस्थग्रह जिस भाव का स्वामी है उस भाव सेनियंत्रित होने वाली चीजों में भी संघर्षउत्पन्न होता है उदाहरण के लिए यदिमेष लग्न की कुंडली में सूर्य अपनी नीचराशि तुला में हो तो सूर्य नीच राशि मेंहोने से ऐसे में व्यक्ति को प्रसिद्धि प्रतिष्ठायश और पिता के सुख में तो कमी होगीही क्योंकि ये सब सूर्य के नैसर्गिककारक तत्व हैं साथ ही सूर्य यहाँ पँचमभाव का स्वामी है अतः नीचस्थ सूर्य केकारण शिक्षा और संतान से जुडीसमस्याएं भी जीवन में रहेंगी। इन सबके अलावा यहाँ एक बात औरमहत्वपूर्ण है नीच राशि में बैठा ग्रह स्वयंतो कमजोर होता ही है पर जिस भाव मेंहोता है उस भाव को भी बहुत पीड़ितकर देता है और उस भाव से सम्बंधितपदार्थों में संघर्ष उत्पन्न करता है ऊपरवाले उदाहरण के अनुसार मेष लग्न कीकुंडली में सूर्य सप्तम भाव में तुला राशिमें नीचस्थ होगा तो इससे कुंडली कासप्तम भाव भी पीड़ित हो जायेगाजिससे व्यक्ति के वैवाहिक जीवन मेंउतार चढ़ाव और संघर्ष उपस्थित होगा।

सकारात्मक दृष्टिकोण – कुण्डली मेंकिसी भी ग्रह का नीच राशि में होनानिश्चित ही एक संघर्ष उत्पन्न करने वालायोग होता है और नीच राशि में स्थितग्रह से सम्बंधित कारक तत्वों की अल्पमात्रा में प्राप्ति होती है पर नीचस्थ ग्रहके कुछ सकारात्मक पहलू भी होते हैं।जब कुंडली में कोई भी ग्रह अपनी नीचराशि में होता है तो जिस भाव में नीचस्थग्रह स्थित होता है उसके सामने वालेभाव अर्थात अपने से सातवे भाव कोउच्च दृष्टि से देखता है क्योंकि किसी भीग्रह की नीच और उच्च राशि परस्परसमसप्तक (आमने सामने) होती हैंजिससे जब कोई ग्रह नीच राशि में होताहै तो सामने वाले भाव पर उस नीचस्थग्रह की उच्च दृष्टि पड़ती है जिससे वहभाव बहुत बली और मजबूत हो जाता हैऔर भाव के कारक तत्वों में वृद्धि होतीहै उदाहरण के लिए मकर लग्न कीकुंडली में शनि चतुर्थ भाव में अपनीनीच राशि मेष में हो तो वह दशम भावको उच्च दृष्टि (तुला राशि) से देखेगाजिससे दशम भाव बली होजायेगा औरकरियर में उन्नतिदायक होगा अतः नीचराशि में बैठा ग्रह अपने सामने वाले भावको बली कर देता है। इसके आलावायदि कुंडली में कोई ग्रह नीच राशि में होऔर ऐसे में उस नीचस्थ ग्रह की नीचराशि का स्वामी या उच्चनाथ (उस राशिमें उच्च होने वाला ग्रह) दोनों में से कोईभी यदि लगन से केंद्र (1,4,7,10 भाव) में हो तो उस ग्रह का नीच भंग होजाताहै जिससे नीचस्थ ग्रह के नकारात्मकपरिणाम में कुछ हद तक कमी आ जातीहै नीच भंग होने की इस स्थिति कोनीचभंग राजयोग भी कहते हैं। इसकेअतिरिक्त यदि लग्न कुंडली में कोई ग्रहनीच राशि में हो पर नवांश कुंडली में वहग्रह स्व राशि या अपनी उच्च राशि में होतो भी नीच राशि में होने के नकारात्मकमें काफी कमी आजाती है अर्थात नवांशकुंडली में उच्च या स्व राशि में होने सेनीचस्थ ग्रह को सकारात्मक बल मिलजाता है और उससे उत्पन्न संघर्ष में कमीआती है। 

वक्री ग्रह

1- सारावली मे कहा गया है कि शुभ ग्रह
वक्री हो तो अधिकार और शक्ति को बढाते है तथा
अशुभ ग्रह वक्री होकर चिन्ता  व्यथा बेकार
की यात्रा देते है
2- वैद्यनाथ के जातकपारिजात मे लिखा है कि यदि कोई शुभ ग्रह
होकर शुभ स्थान पर है तो उसकी शुभता
बढती है और अशुभ अनिस्ट भावो मे
वक्री होकर अशुभता बढाता है|
3- उत्तरकालामृत मे कहा है कि वक्री ग्रह
अपनी उच्चराशि जैसा फल देते है और जो ग्रह
नीच का हो तो उच्च का फल देता है और उच्च ग्रह
नीच का फल देता है
4- फलदीपीका मे कहा गया है कि यदि
ग्रह नीच राशि या नीच नवांश मे हो और
अस्त ना हो वक्री है तो महान बली
समझा जाता है और यदि उच्च का होकर मित्र के घर का,अपने
घर का या वर्गोत्तम भी हो और अस्त हो तो ग्रह
अमावस के चंद्र जैसा अशुभ फल देता है
5- होरासार मे कहा गया है कि गुरू वक्री होकर
मकर राशि को छोडकर सभी मे पूरा बली
होता है यदि कोई भी ग्रह वक्री है तो
वह उच्च का फल देता है और अपनी दशा मे धन
यश मान सम्मान प्रतिष्ठा देता है
6- ज्योतिषतत्वप्रकाश मे कहा गया है कि क्रूर ग्रह
वक्री होने पर अति क्रूर और सौम्य ग्रह
वक्री होने पर अति सौम्य फल देते है
7- आरम्भसिद्धि मे कहा गया है कि मंगल वक्री
हो तो 15दिन  बुध 10दिन  गुरू 1मास शुक्र 10दिन और शनि
5 महिना तक पिछली राशि का फल देता है जिसमे वे
स्थित होते है उसके बाद ही उस राशि का फल देते
है जिसमे वे है
8 प्रश्नप्रकाश  मे कहा गया है कि मंगल बुध शु्क्र
वक्री होकर पिछली राशि का फल देते है
और गुरू शनि उसी राशि का फल देते है जिसमे वे स्थित
है

निष्कर्ष
जब कोई ग्रह वक्री होकर किसी राशि के
उन्ही अंशो पर आगे पीछे भ्रमण करता
है तो उस स्थान को अत्यधिक प्रभावित करता है नीच
का ग्रह उच्च का फल देत है और उच्च का ग्रह
नीच का फल देता है ग्रह जिस भाव मे शुभ फल देने
वाला है वहां वक्री होने से वह उस स्थान के फल का
विस्तार करता है और वक्री ग्रह उस स्थान का फल
खराब करता है और कम करता है *जैसे* कर्क लग्न के जातक
की कुंडली मे मंगल दशम मे
वक्री है तो दशम को अधिक बल देगा और व्यवसाय
की उन्नती करेगा और यदि मंगल आठवें
घर मे अशुभ है तो अष्टम के अशुभ फल बढा देगा यह विचार
भी सही है कि मंगल बुध शुक्र
वक्री होकर पिछली राशि का फल देते है
गुरू शनि उसी राशि का जिसमे वे है

नक्षत्र से स्वभाव निर्धारण

नक्षत्र संख्या में 27 हैं और एक राशि ढाई नक्षत्र से बनती है। नक्षत्र भी जातक का स्वभाव निर्धारित करते हैं।
1. अश्विनी : बौद्धिक प्रगल्भता, संचालन शक्ति, चंचलता व चपलता इस जातक की विशेषता होती है।
2. भरणी : स्वार्थी वृत्ति, स्वकेंद्रित होना व स्वतंत्र निर्णय लेने में समर्थ न होना इस नक्षत्र के जातकों में दिखाई देता है।
3. कृतिका : अति साहस, आक्रामकता, स्वकेंद्रित, व अहंकारी होना इस नक्षत्र के जातकों का स्वभाव है। इन्हें शस्त्र, अग्नि और वाहन से भय होता है।
4. रोहिणी : प्रसन्न भाव, कलाप्रियता, मन की स्वच्छता व उच्च अभिरुचि इस नक्षत्र की विशेषता है।
5. मृगराशि : बु्द्धिवादी व भोगवादी का समन्वय, तीव्र बुद्धि होने पर भी उसका उपयोग सही स्थान पर न होना इस नक्षत्र की विशेषता है।
6. आर्द्रा : ये जातक गुस्सैल होते हैं। निर्णय लेते समय द्विधा मन:स्थिति होती है, संशयी स्वभाव भी होता है।
7. पुनर्वसु : आदर्शवादी, सहयोग करने वाले व शांत स्वभाव के व्यक्ति होते हैं। आध्यात्म में गहरी रुचि होती है।
8. अश्लेषा : जिद्दी व एक हद तक अविचारी भी होते हैं। सहज विश्वास नहीं करते व 'आ बैल मुझे मार' की तर्ज पर स्वयं संकट बुला लेते हैं।
9. मघा : स्वाभिमानी, स्वावलंबी, उच्च महत्वाकांक्षी व सहज नेतृत्व के गुण इन जातकों का स्वभाव होता है।
10. पूर्वा : श्रद्धालु, कलाप्रिय, रसिक वृत्ति व शौकीन होते हैं।
11. उत्तरा : ये संतुलित स्वभाव वाले होते हैं। व्यवहारशील व अत्यंत परिश्रमी होते हैं।
12. हस्त : कल्पनाशील, संवेदनशील, सुखी, समाधानी व सन्मार्गी व्यक्ति इस नक्षत्र में जन्म लेते हैं।
13. चित्रा : लिखने-पढ़ने में रुचि, शौकीन मिजाजी, भिन्न लिंगी व्यक्तियों का आकर्षण इन जातकों में झलकता है।
14. स्वाति : समतोल प्रकृति, मन पर नियंत्रण, समाधानी वृत्ति व दुख सहने व पचाने की क्षमता इनका स्वभाव है।
15. विशाखा : स्वार्थी, जिद्दी, हेकड़ीखोर व्यक्ति होते हैं। हर तरह से अपना काम निकलवाने में माहिर होते हैं।
16. अनुराधा : कुटुंबवत्सल, श्रृंगार प्रिय, मधुरवाणी, सन्मार्गी, शौकीन होना इन जातकों का स्वभाव है।
17. ज्येष्ठा : स्वभाव निर्मल, खुशमिजाज मगर शत्रुता को न भूलने वाले, छिपकर वार करने वाले होते हैं।
18. मूल : प्रारंभिक जीवन कष्टकर, परिवार से दुखी, राजकारण में यश, कलाप्रेमी-कलाकार होते हैं।
19. पूर्वाषाढ़ा : शांत, धीमी गति वाले, समाधानी व ऐश्वर्य प्रिय व्यक्ति इस नक्षत्र में जन्म लेते हैं।
20. उत्तराषाढ़ा : विनयशील, बुद्धिमान, आध्यात्म में रूचि वाले होते हैं। सबको साथ लेकर चलते हैं।
21. श्रवण : सन्मार्गी, श्रद्धालु, परोपकारी, कतृत्ववान होना इन जातकों का स्वभाव है।
22. धनिष्ठा : गुस्सैल, कटुभाषी व असंयमी होते हैं। हर वक्त अहंकार आड़े आता है।
23. शततारका : रसिक मिजाज, व्यसनाधीनता व कामवासना की ओर अधिक झुकाव होता है। समयानुसार आचरण नहीं करते।
24. पुष्य : सन्मर्गी, दानप्रिय, बुद्धिमान व दानी होते हैं। समाज में पहचान बनाते हैं।
25. पूर्व भाद्रपदा : बुद्धिमान, जोड़-तोड़ में निपुण, संशोधक वृत्ति, समय के साथ चलने में कुशल होते हैं।
26. उत्तरा भाद्रपदा : मोहक चेहरा, बातचीत में कुशल, चंचल व दूसरों को प्रभावित करने की शक्ति रखते हैं।
27. रेवती : सत्यवादी, निरपेक्ष, विवेकवान होते हैं। सतत जन कल्याण करने का ध्यास इनमें होता है।

बुधवार, 27 दिसंबर 2017

कुन्डली में एकादश भाव

कुन्डली में एकादश भाव
11 हाउस की भूमिका

एकादश स्थान ही वह स्थान है जिससे मनुष्य को जीवन में प्राप्त होने वाले सभी प्रकार के लाभ ज्ञात हो सकते हैं इसलिए इसे लाभ स्थान भी कहा जाता है एकादश भाव दशम स्थान(कर्म) से द्वितीय है  अतः कर्मों से प्राप्त होने वाले लाभ या आय एकादश भाव से देखे जाते हैं मनुष्य को प्राप्त होने वाली प्राप्तियों के संबंध में एकादश भाव सर्वाधिक महत्वपूर्ण भाव है
 ये निज प्रयास या निजकर्मों द्वारा अर्जित व्यक्ति की उपलब्धियों की सूचना देता है यह भाव एक उपचय स्थान भी है  इस भाव को  दिशा के रुप में  आग्नेय स्थान भी कहते (South-East) है
भाव के रूप में एकादश स्थान को शुभ माना गया है  यह हमारे जीवन में वृद्धि का सूचक है वैसे भी हिन्दू धर्म में 11 के अंक को शुभ व पवित्र माना जाता है यही कारण है कि इस भाव में सभी ग्रह शुभ फलदायी माने गए हैं मगर छठे भाव(रोग, शत्रु, चोट) से छठा होने के कारण के कारण इस भाव का स्वामी शारीरिक कष्ट भी प्रदान कर सकता है इस भाव से आय, लाभ, वृद्धि, प्राप्ति, इच्छाओं की पूर्ति, बड़े भाई-बहन, पुत्रवधू या दामाद, चाचा, बुआ, मित्र, कामवासना, विशिष्ट सम्मान, कान, जांघ व कामवासना आदि का विचार किया जाता है
एकादश भाव चर लग्नों(1, 4, 7, 10) के लिए एक बाधक भाव भी माना जाता है। एकादश भाव में क्रूर(पाप) ग्रह विशेष शुभ फलदायी माने जाते हैं।

एकादश भाव से निम्नलिखित विषयों का विचार किया जाता है-
आय या लाभ- एकादश भाव व्यक्ति को मिलने वाले लाभ या उसकी आय का सूचक है इस भाव में जिस भाव का स्वामी आकर बैठता है, उस भाव से प्राप्त होने वाली वस्तु की प्राप्ति व्यक्ति को होती है-
यदि इस भाव में सूर्य हो तो व्यक्ति को राज्य व मान-सम्मान की प्राप्ति होती है|
यदि इस भाव में चन्द्र हो तो व्यक्ति को तरल पदार्थ, समुद्र यात्रा , कृषि से  जल के काम आदि से लाभ होता है

यदि मंगल इस भाव में हो तो व्यक्ति को साहस, निडरता, , भूमि, अग्नि संबंधी कार्यों से लाभ मिलता है
यदि बुध इस भाव में हो तो व्यक्ति को शिक्षण, लेखन व वाणी के द्वारा लाभ मिलता है
यदि गुरु इस भाव में हो तो व्यक्ति को ज्ञान, साहित्य व धार्मिक गतिविधियों से लाभ प्राप्त होता है
यदि शुक्र इस भाव में हो तो व्यक्ति को नाटक, नृत्य, संगीत, कला, सिनेमा, आभूषण आदि से लाभ मिलता है
यदि शनि इस भाव में हो तो व्यक्ति को श्रम, कारखाने, कृषि, राजनीति व गूढ़ विद्याओं से लाभ मिलता है
यदि, राहु-केतु इस भाव में हो तो सट्टे, लॉटरी, शेयर बाजार, तंत्र-मंत्र, गूढ़ ज्ञान आदि से लाभ मिलता है

2. प्राप्ति- एकादश भाव का संबंध प्राप्ति से है इसलिए किसी भी प्रकार की प्राप्ति का विचार इस भाव से किया जाता है

3. कीर्ति- दशम स्थान कर्म है और एकादश भाव दशम(कर्म) से द्वितीय(आय) है इसलिए यह व्यक्ति को मिलने वाली कीर्ति, यश व मान-सम्मान का प्रतीक है

4. (वृद्धिदायक)    एकादश भाव बहुलता से भी संबंधित है। जिस भाव का स्वामी एकादश भाव में हो तो वह भाव तथा उसके स्वामी से संबंधित कारकत्वों में वृद्धि होती है, जैसे यदि पंचम भाव का स्वामी एकादश में हो तो मनुष्य की कई संताने होती हैं  इसी प्रकार द्वितीय भाव का स्वामी एकादश स्थान में हो तो मनुष्य के पास काफी रूपया-पैसा होता है

5. ज्येष्ठ बड़े भाई-बहन– एकादश स्थान से बड़े भाई-बहन का विचार भी किया जाता है। इस भाव पर शुभ या अशुभ ग्रहों का जैसा भी प्रभाव हो वैसे ही संबंध व्यक्ति के अपने बड़े भाई-बहन से होते हैं

6. शारीरिक कष्ट– एकादश भाव छठे भाव से छठा होने के कारण रोग को भी सूचित करता है। एकादश भाव के स्वामी की दशा-अंतर्दशा में मनुष्य को शारीरिक कष्ट हो सकता है

7. मित्र– मित्रों का विचार भी एकादश भाव से किया जाता है व्यक्ति के मित्र किस प्रकार के होंगे तथा उनसे उनके   संबंध कैसे रहेंगे आदि की जानकारी भी इसी भाव से प्राप्त होती है

8. बाधक स्थान– मेष, कर्क, तुला व मकर लग्नों इन्हें चर लग्न भी कहते हैं। के लिए एकादश भाव का स्वामी बाधकाधिपति होता है। अतः इन चर लग्नों में एकादशेश की दशा-अंतर्दशा में मनुष्य को बाधाओं व व्यवधानों का सामना करना पड़ सकता है
9. कामवासना– तृतीय, सप्तम तथा एकादश स्थान काम त्रिकोण माने जाते हैं अतः मनुष्य की कामवासना का विचार भी इस भाव से किया जाता है।

10. आर्थिक स्थिति– द्वितीय भाव के साथ-साथ एकादश स्थान का भी मनुष्य की आर्थिक स्थिति से घनिष्ठ संबंध है। जब भी किसी जन्मकुंडली में द्वितीय भाव के साथ-साथ एकादश भाव मजबूत स्थिति में होता है तो व्यक्ति धनवान, यशस्वी तथा अनेक प्रकार की भौतिक सुख- सुविधाओं को भोगने वाला होता है।

11. शारीरिक अंग– एकादश भाव मनुष्य की बाई भुजा, बांया कान तथा पैरों की पिंडलियों को दर्शाता है। जब भी इस भाव पर तथा इसके स्वामी पर पाप ग्रहों का प्रभाव होता है तो मनुष्य के बांये कान, बाई भुजा व पैर की पिंडलियों में कष्ट होता है।
अगर कुण्डली में ग्रहों का सम्बन्ध 11 हाउस से वंचित हो या 9,10,11 भाव कमज़ोर  हो
तब जीवन में भाग्य,कर्म ओर लाभ का साथ ना मिलने पर जीवन में संघर्षता बढ़ जाती है पर ये भाव मज़बूत हो तब जीवन में मिलने वाली सुख सुविधाएँ में बढ़ोत्तरी होती है ।

जन्म कुंडली नहीं है तो करें ये महाउपाय

जन्म कुंडली नहीं है तो करें ये महाउपाय :-
आपका बुरा समय चल रहा हो तो आपको किसी विद्वान ज्योतिषी की सहायता लेनी पड़ेगी ! कुछ लोगों की जन्म कुंडली या जन्म विवरण सही नहीं होता । ऐसी दशा में कैसे पता लगाया जाए कि आप पर किस ग्रह का प्रभाव चल रहा है ! कुछ लक्षण ऐसे होते हैं जिनका सीधा सम्बन्ध किसी ख़ास योग या ग्रह से होता है।
जैसे कि :--
1. अगर आपको अचानक धन हानि होने लगे ! आपके पैसे खो जाएँ, बरकत न रहे, दमा या सांस की बीमारी हो जाए, त्वचा सम्बन्धी रोग उत्पन्न हों, कर्ज उतर न पाए, किसी कागजात पर गलत दस्तखत से नुक्सान हो तो आप पर बुध ग्रह का कुप्रभाव चल रहा है !
इसके लिए बुधवार को गाय को हरा चारा व 50 ग्राम चने की दाल व गुड़ , इसी दिन खिलाएं । व अभिमंत्रित किया हुआ पन्ना रत्न चांदी में धारण करें।

2.जब , बुजुर्ग लोग आपसे बार बार नाराज होते हैं, जोड़ों मैं तकलीफ है, शरीर मैं जकरण या आपका मोटापा बढ़ रहा है, नींद कम है, पढने लिखने में परेशानी है किसी ब्रह्मण से वाद विवाद हो जाए अथवा पीलिया हो जाए तो समझ लेना चाहिए की गुरु का अशुभ प्रभाव आप पर पढ़ रहा है ! अगर सोना गुम हो जाए पीलिया हो जाए या पुत्र पर संकट आ जाए तो निस्संदेह आप पर गुरु का अशुभ प्रभाव चल रहा है !
ऐसी स्थिति में केसर या हल्दी का तिलक वीरवार से शुरू करके 43 दिन तक रोज लगायें, सामान्य अशुभता दूर हो जाएगी किन्तु गंभीर परिस्थितियों में जैसे अगर नौकरी चली जाए या पुत्र पर संकट, सोना चोरी या गम हो जाए तो बृहस्पति के बीज मन्त्रों का जाप करें या करवाएं ! तुरंत मदद मिलेगी ! मंत्र का प्रभाव तुरंत शुरू हो जाता है ! व अभिमंत्रित किया हुआ पुखराज रत्न चांदी या सोने में धारण करें।
3. अगर आपको वहम हो जाए, जरा जरा सी बात पर मन घबरा जाए, आत्मविश्वास मैं कमी आ जाए, सभी मित्रों पर से विशवास उठ जाए, ब्लड प्रेशर की बीमारी हो जाए, जुकाम ठीक न हो या बार बार होने लगे, आपकी माता की तबियत खराब रहने लगे ! अकारण ही भय सताने लगे और किसी एक जगह पर आप टिक कर ना बैठ सकें, छोटी छोटी बात पर आपको क्रोध आने लगे तो समझ लें की आपका चन्द्रमा आपके विपरीत चल रहा है ! इसके लिए हर सोमवार का व्रत रखें और दूध या खीर का दान करें ! अभिमंत्रित किया हुआ सफेद मोती व टाइगर या नीलमणि रत्न धारण करें।
4.अगर आपकी स्त्रियों से नहीं बनती, किसी स्त्री से धोखा या मान हानि हो जाए, किसी शुभ काम को करते वक्त कुछ न कुछ अशुभ होने लगे, आपका रूप पहले जैसा सुन्दर न रहे ! लोग आपसे कतराने लगें ! वाहन को नुक्सान हो जाए ! नीच स्त्रियों से दोस्ती, ससुराल पक्ष से अलगाव तथा शूगर हो जाए तो आपका शुक्र बुरा प्रभाव दे रहा है !
आप महालक्ष्मी की पूजा करें, चीनी, चावल तथा चांदी शुक्रवार को किसी ब्राह्मण की पत्नी को भेंट करें, बड़ी बहन को वस्त्र दें, 21 ग्राम का चांदी का बिना जोड़ का कड़ा शुक्रवार को धारण करें ! अगर किसी के विवाह में देरी या बाधाएं आ रही हों तो जिस दिन रिश्ता देखने जाना हो उस दिन 57 आटे की गोलियां किसी नदी मैं प्रवाहित करके जाएँ ! इन में से किसी भी उपाय को करने से आपका शुक्र शुभ प्रभाव देने लगेगा ! किसी सुहागन को सुहाग का सामन देने से भी शुक्र का शुभ प्रभाव होने लगता है ! ध्यान रहे, शुक्रवार को राहुकाल में कोई भी उपाय न करें ! पुखराज व पन्ना दोनों रत्न धारण करें।
5. अगर आपके मकान मैं दरार आ जाए ! घर में प्रकाश की मात्रा कम हो जाए ! जोड़ों में दर्द रहने लगे विशेषकर घुटनों और पैरों में या किसी एक टांग पर चोट, रंग काला हो जाए, जेल जाने का डर सताने लगे, सपनों मैं मुर्दे या शमशान घाट दिखाई दे, गठिया की शिकायत हो जाए, परिवार का कोई वरिष्ठ सदस्य गंभीर रूप से बीमार या मृत्यु को प्राप्त हो जाए तो आप पर शनि का कुप्रभाव है जिसके निवारण के लिए शनिवार को सरसों का तेल लोहे के कटोरे में डाल कर अपना मुँह उसमे देख कर , उसी तेल में गुलगुले बना कर कुत्तो को खीलायें व बचा तेल आटे में मिलाकर भैंस को खीलायें। ऐसा हर शनिवार करें ! बीमारी की अवस्था में किसी गरीब, बीमार व्यक्ति को दवाई दिलवाएं ! नीलम रत्न धारण करें। व धर में काले घोड़े की नाल लगाएं।
6.अगर आपके बाल झड जाएँ और आपकी हड्डियों के जोड़ों मैं कड़क कड़क की आवाज आने लगे, पिता से झगडा हो जाए, मुकदमा या कोर्ट केस मैं फंस जाएँ, आपकी आत्मा दुखी हो जाए, आलसी प्रवृत्ति हो जाये तो आपको समझ लेना चाहिए की सूर्य व केतु का अशुभ प्रभाव आप पर हो रहा है !
ऐसी दशा मैं सबसे अच्छा उपाय है की हर सुबह सूर्य को मीठा डालकर अर्ध्य दें ! पिता से सम्बन्ध सुधरने की कोशिश करें ! पिता को उपहार दें। व गोमेद व लहसुनिया रत्न धारण करें।
7. आपको खून की कमी हो जाए, बार बार दुर्घटना होने लगे या चोट लगने लगे, सर मैं चोट, आग से जलना, नौकरी मैं शत्रु पैदा हो जाएँ या ये पता न चल सके की कौन आपका नुक्सान करने की चेष्टा कर रहा है, व्यर्थ का लड़ाई झगडा हो, पुलिस केस, जीवन साथी के प्रति अलगाव नफरत या शक पैदा हो जाए, आपरेशन की नौबत आ जाए, कर्ज ऐसा लगने लगे की आसानी से ख़त्म नहीं होगा तो आप पर मंगल ग्रह क्रुद्ध हैं ! ऐसे में आप , हनुमान जी की यथासंभव उपासना शुरू कर दें ! हनुमान जी से तिलक लेकर माथे पर प्रतिदिन लगायें, अति गंभीर परिस्थितियों मैं रक्त दान करें तो जो रक्त आपका आपरेशन, चोट या दुर्घटना आदि के कारण निकलना है, नहीं होगा ! व मूंगा त्रिकोण व कला मोती रत्न धारण करें। ओर घर में एक मुखी रूद्राक्ष सिंदूर में मिला कर रखें ।

शनिवार को घर मे नही लानी चाहिए निम्नलिखित दस चीजें।

शनिवार को घर मे नही लानी चाहिए निम्नलिखित दस चीजें।

यूं तो किसी भी वस्तु के उपयोग या क्रय करने का समय उसकी आवश्यकता पर ही निर्भर करता है, परंतु ज्योतिष शास्त्र में भी इसके कुछ नियम बताए गए हैं। इस कड़ी में जानिए ऐसी कौनसी वस्तुएं हैं जो शनिवार को घर नहीं लानी चाहिए या इस दिन इन्हें नहीं खरीदना चाहिए।

1.लोहे का सामान

भारतीय समाज में यह परंपरा लंबे समय से चली आ रही है कि शनिवार को लोहे का बना सामान नहीं खरीदना चाहिए। ऐसा माना जाता है कि शनिवार को लोहे का सामान क्रय करने से शनि देव कुपित होते हैं।

इस दिन लोहे से बनी चीजों के दान का विशेष महत्व है। लोहे का सामान दान करने से शनि देव की कोप दृष्टि निर्मल होती है और घाटे में चल रहा व्यापार मुनाफा देने लगता है। इसके अतिरिक्त शनि देव यंत्रों से होने वाली दुर्घटना से भी बचाते हैं।

2.यह चीज लाती है रोग

इस दिन तेल खरीदने से भी बचना चाहिए। हालांकि तेल का दान किया जा सकता है। काले श्वान को सरसों के तेल से बना हलुआ खिलाने से शनि की दशा टलती है। ज्योतिष के अनुसार, शनिवार को सरसों या किसी भी पदार्थ का तेल खरीदने से वह रोगकारी होता है।

3.इससे आता है कर्ज

नमक हमारे भोजन का सबसे अहम हिस्सा है। अगर नमक खरीदना है तो बेहतर होगा शनिवार के बजाय किसी और दिन ही खरीदें। शनिवार को नमक खरीदने से यह उस घर पर कर्ज लाता है। साथ ही रोगकारी भी होता है।

4.कैंची लाती है रिश्तों में तनाव

कैंची ऐसी चीज है जो कपड़े, कागज आदि काटने में सबसे ज्यादा इस्तेमाल की जाती है। पुराने समय से ही कपड़े के कारोबारी, टेलर आदि शनिवार को नई कैंची नहीं खरीदते।

इसके पीछे यह मान्यता है कि इस दिन खरीदी गई कैंची रिश्तों में तनाव लाती है। इसलिए अगर आपको कैंची खरीदनी है तो किसी अन्य दिन खरीदें।

5.काले तिल बनते हैं बाधा

सर्दियों में काले तिल शरीर को पुष्ट करते हैं। ये शीत से मुकाबला करने के लिए शरीर की गर्मी को बरकरार रखते हैं। पूजन में भी इनका उपयोग किया जाता है। शनि देव की दशा टालने के लिए काले तिल का दान और पीपल के वृक्ष पर भी काले तिल चढ़ाने का नियम है, लेकिन शनिवार को काले तिल कभी न खरीदें। कहा जाता है कि इस दिन काले तिल खरीदने से कार्यों में बाधा आती है।

6.काले जूते लाते हैं असफलता

शरीर के लिए जितने जरूरी वस्त्र हैं, उतने ही जूते भी। खासतौर से काले रंग के जूते पसंद करने वालों की तादाद आज भी काफी है। अगर आपको काले रंग के जूते खरीदने हैं तो शनिवार को न खरीदें। मान्यता है कि शनिवार को खरीदे गए काले जूते पहनने वाले को कार्य में असफलता दिलाते हैं।

7.परिवार पर कष्ट

रसोई के लिए ईंधन, माचिस, केरोसीन आदि ज्वलनशील पदार्थ आवश्यक माने जाते हैं। भारतीय संस्कृति में अग्नि को देवता माना गया है और ईंधन की पवित्रता पर विशेष जोर दिया गया है लेकिन शनिवार को ईंधन खरीदना वर्जित है। कहा जाता है कि शनिवार को घर लाया गया ईंधन परिवार को कष्ट पहुंचाता है।

8.झाड़ू लाती है दरिद्रता

झाड़ू घर के विकारों को बुहार कर उसे निर्मल बनाती है। इससे घर में सकारात्मक ऊर्जा का आगमन होता है। झाड़ू खरीदने के लिए शनिवार को उपयुक्त नहीं माना जाता। शनिवार को झाड़ू घर लाने से दरिद्रता का आगमन होता है।

9.अनाज पीसने की चक्की

इसी प्रकार अनाज पीसने के लिए चक्की भी शनिवार को नहीं खरीदनी चाहिए। माना जाता है कि यह परिवार में तनाव लाती है और इसके आटे से बना भोजन रोगकारी होता है।

10.स्याही दिलाती है अपयश

विद्या मनुष्य को यश और प्रसिद्धि दिलाती है और उसे अभिव्यक्त करने का सबसे बड़ा माध्यम है कलम। कलम की ऊर्जा है स्याही। कागज, कलम और दवात आदि खरीदने के लिए सबसे श्रेष्ठ दिन गुरुवार है। शनिवार को स्याही न खरीदें। यह मनुष्य को अपयश का भागी बनाती है।

ग्रहों की अवस्थाएं

राशि, अंशों, भावों तथा पारस्परिक सम्बन्धों के अनुसार ग्रहों की भिन्न-भिन्न प्रकार से अवस्थाएं मानी गयी हैं। ग्रह अपनी अवस्थानुसार ही फल देते हैं। ग्रहों की अवस्था का वर्गीकरण निम्नानुसार है:-

१. अंशों के आधार पर अवस्था

अंशों के आधार पर ग्रहों को पांच आयुवर्गों में बांटा गया है। विषम राशियों में बढ़ते हुए अंशों में बालक से मृत तथा सम राशियों में घटते हुए अंशों में बालक से मृत के क्रम में ग्रहों की आयु मानी गयी है।

क)  ग्रह विषम राशियों में ६° तक बालक, ६° से १२° तक कुमार, १२° से १८° तक युवा, १८° से २४° तक वृद्ध तथा २४° से ३०° तक मृत अवस्था में रहता है।

ख) ग्रह सम राशियों में ३०° से २४° तक बालक, २४° से १८° तक कुमार, १८° से १२° तक युवा, १२° से ६° तक वृद्ध तथा ६° से नीचे मृत अवस्था में होता है।

बाल्यावस्था में ग्रह का फल कम, कुमारावस्था में आधा, युवावस्था में पूर्ण, वृद्धावस्था में कम तथा मृतावस्था में नगण्य रहता है।

२. चैतन्यता के आधार पर अवस्था

क)  विषम राशि में ग्रह १०° तक जागृत, १०° से २०° तक स्वप्न तथा २०° से ३०° तक सुषुप्तावस्था में रहते हैं।

ख)  सम राशि में ग्रह १०° तक सुषुप्त, १०° से २०° तक स्वप्न तथा २०° से ३०° तक जागृत अवस्था में रहता है।

ग्रह की जागृत अवस्था कार्यसिद्धि करती है, स्वप्नावस्था मध्यम फल देती है तथा सुषुप्तावस्था निष्फल होती है।

३. दीप्ति के अनुसार अवस्था

क)  दीप्त - उच्च राशिस्थ ग्रह दीप्त कहलाता है। जिसका फल कार्यसिद्धि है।

ख ) स्वस्थ - स्वगृही ग्रह स्वस्थ होता है, जिसका फल लक्ष्मी व कीर्ति प्राप्ति है।

ग) मुदित - मित्रक्षेत्री ग्रह मुदित होता है, जो आनन्द देता है।

घ) दीन - नीच राशिस्थ ग्रह दीन होता है, जो कष्टदायक होता है।

ड़ ) सुप्त - शत्रुक्षेत्री ग्रह सुप्त होता है, जिसका फल शत्रु से भय होता है।

च) निपीड़ित - जो ग्रह किसी अन्य ग्रह से अंशो में पराजित हो जाये उसे निपीड़ित कहते हैं, यानि एक ग्रह की गति तीव्र हो तथा वह किसी दूसरे ग्रह से कम अंशों पर उसी राशि में हो, परन्तु गति वाला ग्रह उस ग्रह के बराबर अंशों में आगे आकर बढ़ जाए तो पीछे रहने वाला ग्रह पराजित अथवा निपीड़ित ग्रह कहलाता है, जिसका फल धनहानि है।

छ) हीन - नीच अंशोन्मुखी ग्रह हीन कहलाता है, जिसका फल धनहानि है।

ज) सुवीर्य - उच्च अंशोन्मुखी ग्रह सुवीर्य कहलाता है, जो सम्पत्ति वृद्धि करता है।

झ) मुषित - अस्त होने वाले ग्रह को मुषित कहते हैं, जिसका फल कार्यनाश है।

ञ) अधिवीर्य - शुभ वर्ग में अच्छी कांति वाले ग्रह को अधिवीर्य कहते हैं, जिसका फल कार्यसिद्धि है।

४. क्षेत्र, युति तथा दृष्टि के आधार पर अवस्था

क) लज्जित - पंचम स्थान में राहु-केतु के साथ अथवा सूर्य, शनि या मंगल के साथ अन्य ग्रह लज्जित होता है।

ख ) गर्वित - उच्च राशि या मूल त्रिकोण का ग्रह गर्वित होता है।

ग) क्षुधित - शत्रु के घर में, शत्रु से युक्त अथवा दृष्ट अथवा शनि से दृष्ट ग्रह क्षुधित होता है।

घ) तृषित - जल राशि (कर्क, वृश्चिक, मीन) में शत्रु से दृष्ट, परन्तु शुभ ग्रह से दृष्ट न हो तो ग्रह तृषित कहलाता है।

ड़ ) मुदित - मित्र के घर में, मित्र से युक्त, अथवा दृष्ट अथवा गुरु से युक्त ग्रह मुदित कहलाता है।

च) क्षोभित - सूर्य से युक्त, पाप या शत्रु से दृष्ट ग्रह क्षोभित कहलाता है।

फल -

क) जिस भाव में क्षुधित या क्षोभित ग्रह हों उस भाव की हानि करते हैं।

ख) गर्वित या मुदित ग्रह भाव की वृद्धि करते हैं।

ग) यदि कर्म स्थान में क्षोभित, क्षुधित, तृषित अथवा लज्जित ग्रह हों तो जातक दरिद्र तथा दुःखी होता है।

घ) पंचम स्थान में लज्जित ग्रह संतान नष्ट करता है।

ड़) सप्तम स्थान में क्षोभित, क्षुधित अथवा तृषित ग्रह पत्नी का नाश करता है।

कुल मिला कर गर्वित व मुदित ग्रह एक प्रकार से सुख देते हैं, जबकि लज्जित, क्षुधित, तृषित एवं क्षोभित ग्रह कष्ट देने वाले होते हैं।

५. सूर्य से दूरी के अनुसार अवस्था

क) अस्तंगत - सूर्य से युक्त ग्रह (राहु केतु को छोड़कर) अस्त कहलाते हैं। चंद्रमा सूर्य से १२°, मंगल १०°, वक्री बुध १२°, मार्गी बुध १४°, गुरु ११°,  वक्री शुक्र ८°, मार्गी शुक्र १०° तथा शनि १५° की दूरी तक सूर्य की प्रखर किरणों के कारण अस्तंगत होते हैं। ऐसे ग्रहों को मुषित कहते हैं।

ख ) उदयी - सूर्य से उपरोक्त अंशों से अधिक दूर हो जाने पर ग्रह उदय हो जाते हैं।

पूर्वोदयी -  जो ग्रह सूर्य से धीमा हो तथा सूर्य से अंशों में कम हो उसका उदय पूर्व में होता है।

पश्चिमोदयी - जो ग्रह सूर्य की अपेक्षा तीव्र हों तथा सूर्य से अधिक अंशों पर हो, उसका उदय पश्चिम से होता है।

पूर्वास्त - जो ग्रह सूर्य की अपेक्षा तीव्र हों और सूर्य से कम अंशों में हों, उसका अस्त पूर्व में होता है।

पश्चिमास्त - जो ग्रह सूर्य की अपेक्षा धीमा हो और सूर्य से अधिक अंशों में हों, उस ग्रह का अस्त पश्चिम में होता है।

६. गति के अनुसार अवस्था -

क) सूर्य तथा चंद्रमा सदैव मार्गी रहते हैं। मेष से वृषभ, मिथुन आदि के क्रम में चलने वाले।

ख) राहु और केतु सदैव वक्री रहते हैं। मिथुन से वृषभ आदि के क्रम में चलने वाले।

ग) शेष ग्रह मंगल, बुध, गुरु व शनि सामान्यतः मार्गी होते हैं पर बीच-बीच में वक्री भी हो जाते हैं।

घ) इन ग्रहों की गति  मार्गी से वक्री तथा मार्गी से वक्री होते समय अति मंद हो जाती है।

ड़) यह ग्रह वक्री होने के कुछ दिन पहले व कुछ दिन बाद तक स्थिर दिखाई पड़ते हैं।

वास्तव में कोई ग्रह वक्री या स्थिर नहीं होता  है। पृथ्वी तथा उस ग्रह की पारस्परिक गतियां तथा सूर्य के संदर्भ में उस ग्रह की सापेक्ष स्थिति के सम्मिलित प्रभाव में ऐसा लगता है मानो कोई ग्रह ठहर गया हो या उल्टा चलने लग गया हो।

७, सूर्य से भावों की दूरी के अनुसार अवस्था -

क ) सूर्य से दूसरे स्थान पर ग्रहों की गति तीव्र हो जाती है।

ख ) सूर्य से तीसरे स्थान पर सम तथा चौथे स्थान पर गति मंद हो जाती है।

ग)  सूर्य से पांचवे व छठे स्थान पर ग्रह वक्री हो जाता है।

घ)  सूर्य से सातवें व आठवें स्थान पर ग्रह अतिवक्री हो जाता है।

ड़ ) सूर्य से नवें व दसवें स्थान पर ग्रह मार्गी हो जाता है।

च)  सूर्य से ग्यारहवें व बारहवें स्थान पर ग्रह पुनः तीव्र हो जाता है।

क्रूर ग्रह वक्री  होने पर अधिक क्रूर फल देते हैं, परन्तु सौम्य ग्रह वक्री होने पर अति शुभ फल देते हैं।

शनिवार, 23 दिसंबर 2017

विदेश यात्रा योग

कुण्डली में 3,7,8,9 आैर 12वाँ भाव विदेश यात्रा को दर्शाता है, 8 वाँ भाव मुख्य रूप से देश से बाहर कराने का काम करता है क्योकि यह 12वें से 9वाँ भाव होता है 12वाँ भाव वातावरण मे पूर्ण परिवर्तन लाता है इसलिए यह विदेश यात्रा या विदेश से सम्बन्धित भाव है शनि और राहु विदेश यात्रा के कारक ग्रह हैं अधिकतर ग्रहों का चर राशियों मे होना भी विदेश यात्रा के संकेत होते हैं, --------यदि :
1. चंद्रमा पीडित हो
2. सूर्य लग्न में
3. बुध 8वें भाव में
4. शनि 12वें
5. लग्नेश 12वें
6. दशमेश व दशमेश का नवांश दोनों चर राशि में
7. षष्टेष बारहवें भाव में
8. राहु पहले या सातवें या बारहवें भाव में
9. सूर्य गुरू और राहु बारहवें में
10. सप्तमेस नवें भाव मे हो तो विदेश यात्रा के योग बनते हैं
माता के घर से बारवां भाव अर्थात तीसरा भाव, में चन्द्र, मंगल व राहु हो
शरीर भाव से बारहवां भाव में चन्द्र, मंगल व राहु होतो
कर्म भाव या पिता भाव से बारहवां भाव अर्थात नवां भाव में चन्द्र , मंगल व राहु हो
भाग्य भवन से बारहवा भाव अर्थात अष्टम भाव में चन्द्र , मंगल व राहु होतो विदेश में रहकर धनार्जन योग बनाता है
इन्ही भावों से तीसरा भाव छोटी यात्रा, होती है विदेश रहना नही होता
राहु बारहवे भाव में तो निश्चित ही विदेश योग बनाएगा ही
अगर जातक कुंडली में यह योग न हो पत्नी की या बालक की कुंडली में यह योग होतो उनके वजह से विदेश जाना पड़ता है
कर्क जल तत्व अवंम तुला वायु तत्व राशि चंद्र और शुक्र जलतत्व के ग्रह हैं कर्क या तुला राशि शुक्र या चंद्र जब व्ययभाव से जुड़े हो तब जातक के लिए परदेश यात्रा की सम्भावना बहुत बढ़ जाती है लग्नेश व्यय भाव में हो या व्ययेश लग्न में तब भी विदेश में बसना होता हैलग्नेश व् पराक्रमेश युति में हो या दोनों परिवर्तन में हो तब विदेश यात्रा निचित होती है
राहु और शनि वायुतत्व के ग्रह है इनका विदेश के साथ सबंध है ये ग्रह जब 12 भाव से सबंध बनाते है तब जातक को विदेश जाने की इच्छा पैदा होती है
विदेश यात्रा के लिए 3।7।8।9।12 ये भाव महत्व पूर्ण है
3 भाव से छोटी यात्रा
7 भाव से व्यवसाय व् नोकरी के लिए
4 भाव विदेश यात्रा के लिए इन डायरेक्ट रोल अदा करता है चतुर्थ भाव बलवान होगा तो जातक अपने वतन में ही सूंदर भवन का सुख देगा
चर राशि कर्क उसका स्वामी चंद्रमा अति शीघ्र ग्रह है और जल तत्व पर अधिपत्य है इसीलिए वो अति महत्व पूर्ण रोल अदा करता है बलवान 9 भाव व् बलवान लग्न जातक को विदेश में धन एवम् कीर्ति दिलाते है
और ऐसे ग्रह खिलाडी गायक में ज्यादा देखने मिलता है भाग्येश व्ययेश का सबंध परदेश से धन प्राप्ति बलवान चतुर्थेश की असर जब व्ययभाव पर होती है तब जातक अपनी जिंदगी का ज्यादातर समय परदेश में व्यतीत करता है
कर्क वृचिक मीन जल तत्व की राशि है
विदेश यात्रा के लिए समुद्रपार जाना ही पड़ता है इसीलिए विदेश यात्रा में जलतत्व की राशियो का बहुत महत्व है
लग्न व् लग्नेश चतुर्थ भाव व् चतुर्थेश के बिच शुभ सबंध विदेश से धन व् कीर्ति तो दिलाते है किन्तु स्थाई रूप से बसना तो तो वतन में ही होता है
राहु 12 भाव मे हो तो विदेश यात्रा का योग बनाता है
लगनेश 12 वे भाव मे केतु के साथ हो तो भी महादशा व अन्तरदशा मे विदेश का योग बनता है
जन्म कुंडली में यदि उच्च के सूर्य की दशा चल रही हो तब व्यक्ति के विदेश जाने के योग बनते हैं
यदि उच्च के चंद्रमा या उच्च के ही मंगल की भी दशा चल रही हो तब भी व्यक्ति विदेश यात्रा करता है
उच्च के बृहस्पति की दशा में भी व्यक्ति की विदेश यात्रा होती है
यदि मंगल बली होकर लग्न में स्थित है या सूर्य से संबंधित है तब मंगल की दशा में भी विदेश यात्रा होने की संभावना बनती है
कुंडली में यदि नीच के बुध की दशा चल रही है तब भी विदेश यात्रा हो सकती है
बृहस्पति की दशा चल रही हो और वह सातवें या बारहवें भाव में चर राशि में स्थित हो
शुक्र की दशा चल रही हो और वह एक पाप ग्रह के साथ सप्तम भाव में स्थित हो
शनि की दशा चल रही हो और शनि बारहवें भाव में या उच्च नवांश में स्थित हो
राहु की दशा कुंडली में चल रही हो और राहु कुंडली में तीसरे, सातवें, नवम या दशम भाव में स्थित हो
जन्म कुंडली में सूर्य की महादशा में केतु की अन्तर्दशा चल रही हो तब भी विदेश जाने की संभावना बनती है
यदि केतु की महादशा में सूर्य की अन्तर्दशा चल रही हो और कुंडली में सूर्य, केतु से छठे, आठवें या बारहवें भाव में स्थित हो
केतु की महादशा में चंद्रमा की अन्तर्दशा चल रही हो और केतु से चंद्रमा केन्द्र/त्रिकोण या ग्यारहवें भाव में स्थित हो
कुंडली में शुक्र की महादशा में बृहस्पति की अन्तर्दशा चल रही हो तब भी विदेश यात्रा की संभावना बनती है
कुंडली में राहु की महादशा में सूर्य की अन्तर्दशा चल रही हो और राहु से सूर्य केन्द्र/त्रिकोण या ग्यारहवें भाव का स्वामी हो
शनि की महादशा में बृहस्पति की अन्तर्दशा चल रही हो और शनि से बृहस्पति केन्द्र/त्रिकोण या दूसरे या ग्यारहवें भाव का स्वामी हो
बुध की महादशा में शनि की अन्तर्दशा चल रही हो और बुध से शनि छठे, आठवें, या बारहवें भाव में स्थित हो

नोट : - यह फल, मुख्यता लग्न लागू है - यह एक सामान्य फल आपकी रूचि को ध्यान में रखकर पोस्ट किया जता है। प्रत्येक व्यक्ति के लग्न, ग्रह-स्थिति और महा/अन्तरदशा के अनुसार फल अलग-2 होता है

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