मंगलवार, 26 सितंबर 2017

कुंडली के विशेष योग -चन्द्र+मंगल योग

जिस जातक की कुंडली में चन्द्र +मंगल की युति होतो ,  उस कुंडली में इस योग का निर्माण होता है।
परिणाम - यह योग विशेष धनदायक होता है।  अतः इस योग में जन्म लेने वाला जातक धनवान , स्वस्थ, प्रसन्नचित्त , तथा विख्यात होता है। 
शर्ते -यह योग निम्न शर्तें पूर्ण करने पर ही फलित होगा , अन्यथा जातक शराबी, स्त्रियों के व्यापार आदि से धन कमाने वाला होगा।
      १. जिस लग्न में चन्द्र, मंगल कारक हो.
      २. चन्द्र+मंगल की युति शुभ भावों में अर्थात प्रथम भाव , द्वितीय भाव , चतुर्थ, भाव , पंचम भाव, सप्तम भाव, नवम भाव , दशम भाव अथवा ग्यारवे भाव में होतो यह योग पूर्ण रूप से घटित होगा , अन्यथा नहीं। 
विशेष -इन ग्रहों के बलवान होने पर ही यह फल पूर्ण रूप से घटित होगा , अन्यथा कुछ मात्रा में फल जरूर मिलेगा।
नोट -अन्य ग्रहों की युति से फल बदल जायेगे।

कालपुरुष

कालपुरुष की परिकल्पना भारतीय ज्योतिष में मिलती है जिसमें समस्त राशिचक्र को मनुष्य के शरीर के समतुल्य वर्णित किया जाता है।

सारावली ग्रंथ में कहा गया है कि :

शीर्षास्यबाहुह्रदयं जठरं कटिबस्तिमेहनोरुयुगम। जानू जंघे चरणौ कालस्यागांनि राशयोअजाद्या: ॥[1]
१२ राशियां के रूप में कालपुरुष के शरीर के अवयव इस प्रकार से हैं:

मेष - मस्तक,
वृष - मुख,
मिथुन - हाथ,
कर्क - हृदय,
सिंह - पेट,
कन्या - कमर,
तुला - नाभि से जननांग तक,
वृश्चिक - जननांग,
धनु - जांघ,
मकर - घुटना,
कुंभ - पिण्डली,
मीन - पैर.

सोमवार, 25 सितंबर 2017

पितृ दोष कारण व निवारण

अध्यात्म से रिश्ता
कथित तौर पर मॉडर्न होती आजकल की जनरेशन का अध्यात्म से रिश्ता टूटता जा रहा है जिसके चलते वे सभी घटनाओं और परिस्थितियों को विज्ञान के आधार पर जांचने और परखने लगे हैं। वैसे तो इस बात में कुछ गलत भी नहीं है क्योंकि ऐसा कर वे रूढ़ हो चुकी मानसिकता से किनारा करते जा रहे हैं परंतु कभी-कभार कुछ घटनाएं और हालात ऐसे होते हैं जिनका जवाब चाह कर भी विज्ञान नहीं दे पाता।

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ज्योतिष विद्या
ये घटनाएं सीधे तौर पर ज्योतिष विद्या से जुड़ी है, जो अपने आप में एक विज्ञान होने के बावजूद युवापीढ़ी के लिए एक अंधविश्वास सा ही रह गया है। खैर आज हम आपको ज्योतिष विद्या में दर्ज पितृ दोष के विषय में बताने जा रहे हैं, जो किसी भी व्यक्ति की कुंडली को प्रभावित कर सकता है।

पूर्वज की मृत्यु
जब परिवार के किसी पूर्वज की मृत्यु के पश्चात उसका भली प्रकार से अंतिम संस्कार संपन्न ना किया जाए, या जीवित अवस्था में उनकी कोई इच्छा अधूरी रह गई हो तो उनकी आत्मा अपने घर और आगामी पीढ़ी के लोगों के बीच ही भटकती रहती है। मृत पूर्वजों की अतृप्त आत्मा ही परिवार के लोगों को कष्ट देकर अपनी इच्छा पूरी करने के लिए दबाव डालती है और यह कष्ट पितृदोष के रूप में जातक की कुंडली में झलकता है।

पितृदोष
पितृ दोष के कारण व्यक्ति को बहुत से कष्ट उठाने पड़ सकते हैं, जिनमें विवाह ना हो पाने की समस्या, विवाहित जीवन में कलह रहना, परीक्षा में बार-बार असफल होना, नशे का आदि हो जाना, नौकरी का ना लगना या छूट जाना, गर्भपात या गर्भधारण की समस्या, बच्चे की अकाल मृत्यु हो जाना या फिर मंदबुद्धि बच्चे का जन्म होना, निर्णय ना ले पाना, अत्याधिक क्रोधी होना।

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सूर्य और मंगल
ज्योतिष विद्या में सूर्य को पिता का और मंगल को रक्त का कारक माना गया है। जब किसी व्यक्ति की कुंडली में ये दो महत्वपूर्ण ग्रह पाप भाव में होते हैं तो व्यक्ति का जीवन पितृदोष के चक्र में फंस जाता है।

श्राद्ध कर्म
हिन्दू शास्त्रों में यह कहा गया है कि मृत्यु के पश्चात पुत्र द्वारा किया गया श्राद्ध कर्म की मृतक को वैतरणी पार करवाता है। ऐसे में यह माना गया है कि जिस व्यक्ति का अपना पुत्र ना हो तो उसकी आत्मा कभी मुक्त नहीं हो पाती। इसी वजह से आज भी लोग पुत्र प्राप्ति की कामना रखते हैं।

पुत्र का ना होना
हालांकि पुत्र के ना होने की हालत में आजकल पुत्री के हाथ से अंतिम संस्कार किया जाने लगा है लेकिन यह शास्त्रों के अनुकूल नहीं कहा जा सकता। इसलिए जिन लोगों का अंतिम संस्कार अपने पुत्र के हाथ से नहीं होता उनकी आत्मा भटकती रहती है और आगामी पीढ़ी के लोगों को भी पुत्र प्राप्ति में बाधा उत्पन्न करती है।
ज्योतिषीय कारण
पितृदोष के बहुत से ज्योतिषीय कारण भी हैं, जैसे जातक के लग्न और पंचम भाव में सूर्य, मंगल एवं शनि का होना और अष्टम या द्वादश भाव में बृहस्पति और राहु स्थित हो तो पितृदोष के कारण संतान होने में बाधा आती है।

लग्न में ग्रह
अष्टमेश या द्वादशेश का संबंध सूर्य या ब्रहस्पति से हो तो व्यक्ति पितृदोष से पीड़ित होता है, इसके अलावा सूर्य, चंद्र और लग्नेश का राहु से संबंध होना भी पितृदोष दिखाता है। अगर व्यक्ति की कुंडली में राहु और केतु का संबंध पंचमेश के भाव या भावेश से हो तो पितृदोष की वजह से संतान नहीं हो पाती।

पिता की हत्या
यदि कोई व्यक्ति अपने हाथ से अपनी पिता की हत्या करता है, उन्हें दुख पहुंचाता या फिर अपने बुजुर्गों का असम्मान करता है तो अगले जन्म में उसे पितृदोष का कष्ट झेलना पड़ता है। जिन लोगों को पितृदोष का सामना करना पड़ता है
पितृदोष का निवारण
पितृ दोष को शांत करन के उपाय तो हैं लेकिन आस्था और आध्यात्मिक झुकाव की कमी के कारण लोग अपने साथ चल रही समस्याओं की जड़ तक ही नहीं पहुंच पाते।

अमावस्या को श्राद्ध
अगर कोई व्यक्ति पितृदोष से पीड़ित है और उसे अप्रत्याशित बाधाओं का सामना करना पड़ रहा है तो उसे अपने पूर्वजों का श्राद्ध कर्म संपन्न करना चाहिए। वे भले ही अपने जीवन में कितना ही व्यस्त क्यों ना हो लेकिन उसे अश्विन कृष्ण अमावस्या को श्राद्ध अवश्य करना चाहिए।

पीपल को जल
बृहस्पतिवार के दिन शाम के समय पीपल के पेड़ की जड़ में जल चढ़ाने और फिर सात बार उसकी परिक्रमा करने से जातक को पितृदोष से राहत मिलती है।

सूर्य को जल
शुक्लपक्ष के प्रथम रविवार के दिन जातक को घर में पूरे विधि-विधान से ‘सूर्ययंत्र’ स्थापित कर सूर्यदेव को प्रतिदिन तांबे के पात्र में जल लेकर, उस जल में कोई लाल फूल, रोली और चावल मिलाकर, अर्घ देना चाहिए।

पूर्वजों से आशीर्वाद
शुक्ल पक्ष के प्रथम शनिवार को शाम के समय पानी वाला नारियल अपने ऊपर से सात बार वारकर बहते जल में प्रवाहित कर दें और अपने पूर्वजों से मांफी मांगकर उनसे आशीर्वाद मांगे।

गाय को गुड़
अपने भोजन की थाली में से प्रतिदिन गाय और कुत्ते के लिए भोजन अवश्य निकालें और अपने कुलदेवी या देवता की पूजा अवश्य करते रहें। रविवार के दिन विशेषतौर पर गाय को गुड़ खिलाएं और जब स्वयं घर से बाहर निकलें तो गुड़ खाकर ही निकलें। संभव हो तो घर में भागवत का पाठ करवाएं।

पूर्वजन्म
हिन्दू धर्म में पूर्वजन्म और कर्मों का विशेष स्थान है। मौजूदा जन्म में किए गए कर्मों का हिसाब-किताब अगले जन्म में भोगना पड़ता है इसलिए बेहतर है कि अपने मन-वचन-कर्म से किसी को भी ठेस ना पहुचायी जाय

छठवां भाव और कर्ज की समस्या

हमारा जन्म होते ही हम सभी अपने प्रारब्ध के चक्र से बंध जाते हैं और जन्मकुंडली हमारे इसी प्रारब्ध को प्रकट करती है हमारे जीवन में सभी घटनाएं नवग्रह द्वारा ही संचालित होती हैं।  आज के समय में जहाँ आर्थिक असंतुलन हमारी चिंता का एक मुख्य कारण है वहीँ एक दूसरी स्थिति जिसके कारण अधिकांश लोग चिंतित और परेशान रहते हैं वह है "कर्ज" धन का कर्ज चाहे किसी से व्यक्तिगत रूप से लिया गया हो या सरकारी लोन के रूप में ये दोनों ही स्थितियां व्यक्ति के ऊपर एक बोझ के समान बनी रहती हैं कई बार ना चाहते हुये भी परिस्थितिवश व्यक्ति को इस कर्ज रुपी बोझ का सामना करना पड़ता है वैसे तो आज के समय में अपने कार्यो की पूर्ती के लिए अधिकांश लोग कर्ज लेते हैं परन्तु जब जीवन पर्यन्त बनी रहे या बार बार सामने आये तो वास्तव में यह भी हमारी कुंडली में बने कुछ विशेष ग्रहयोगों के कारण ही होता है -

" हमारी कुंडली में "छटा भाव" कर्ज का भाव माना गया है अर्थात कुंडली का छटा भाव ही व्यक्ति के जीवन में कर्ज की स्थिति को नियंत्रित करता है जब कुंडली के
★छठ्टे भाव में कोई पाप योग बना हो या षष्टेश ग्रह बहुत पीड़ित हो तो व्यक्ति को कर्ज की समस्या का सामना करना पड़ता है जैसे -
★यदि छठ्ठे भाव में कोई पाप ग्रह नीच
    राशि में भावस्थ हो,
★छठ्ठेे भाव में राहु-चन्द्रमाँ की युति या
★राहु-सूर्य के साथ होने से ग्रहण योग
    बन रहा हो,
★छठ्ठेे भाव में राहु मंगल का योग हो,
★छठ्ठे भाव में गुरु-चाण्डाल योग बना हो,
★शनि-मंगल या केतु-मंगल की युति छठ्ठे भाव में हो तो ...ऐसे पाप या क्रूर योग जब कुंडली के छटे भाव में बनते हैं तो व्यक्ति को
★कर्ज की समस्या बहुत परेशान करती
   है और
★री-पेमेंट में बहुत समस्यायें आती हैं।
★छठ्ठे भाव का स्वामी ग्रह भी जब नीच राशि में हो अष्टम भाव में हो या बहुत पीड़ित हो तो कर्ज की समस्या होती है । ★इसके अलावा "मंगल" को कर्ज का नैसर्गिक नियंत्रक ग्रह माना गया है !!
अतः यहाँ मंगल की भी महत्वपूर्ण भूमिका है यदि कुंडली में ...
★मंगल अपनी नीच राशि(कर्क) में हो आठवें भाव में बैठा हो, या ...
★अन्य प्रकार से अति पीड़ित हो तो भी कर्ज की समस्या बड़ा रूप ले लेती है"  

विशेष: -
यदि छठ्ठे भाव में बने पाप योग पर *बलि बृहस्पति की दृष्टि पड़ रही हो तो कर्ज का रीपेमेंट संघर्ष के बाद हो जाता है या व्यक्ति को कर्ज की समस्या का समाधान मिल जाता है परन्तु बृहस्पति की शुभ दृष्टि के आभाव में समस्या बनी रहती है l*
  छठ्ठे भाव में पाप योग जितने अधिक होंगे उतनी समस्या अधिक होगी, अतः
 * कुंडली का छठा भाव पीड़ित होने पर लोन आदि लेने में भी बहुत सतर्कता बरतनी चाहिये l*

बहुत बार व्यक्ति की कुंडली अच्छी होने पर भी व्यक्ति को कर्ज की समस्या का सामना करना पड़ता है जिसका कारण उस समय *कुंडली में चल रही अकारक ग्रहों की दशाएं या गोचर ग्रहों का प्रभाव होता है जिससे अस्थाई रूप से व्यक्ति उस विशेष समय काल के लिए कर्ज के बोझ से घिर जाता है l* उदाहरणार्थ : अकारक षष्टेश और द्वादशेश की दशा व्यक्ति कर्ज समस्या देती है l अतः प्रत्येक व्यक्ति की कुंडली में ★अलग अलग ग्रह-स्थिति  और
★अलग अलग दशाओं के कारण व्यक्तिगत  रूप से तो ★गहन विश्लेषण के बाद ही किसी व्यक्ति के लिए चल रही कर्ज समस्या के सटीक ज्योतिषीय उपाय निश्चित किये जा सकते हैं lअतः यहाँ हम कर्जमुक्ति के लिए ऐसे कुछ मुख्य उपाय बता रहे हैं  जिन्हें कोई भी व्यक्ति कर सकता है l
🕉उपाय :-

1. मंगल यन्त्र को घर के मंदिर में लाल वस्त्र पर स्थापित करें और प्रतिदिन इस मंत्र का एक माला जाप करें -

*ॐ क्राम क्रीम क्रोम सः भौमाय नमः।*
2. प्रति दिन *ऋणमोचन मंगल स्तोत्र* का पाठ करें।
3. *हनुमान चालीसा* का पाठ करें।

कुंडली मे बाधक ग्रह का अर्थ

कुंडली में बाधक ग्रह का मतलब क्या होता है

बाधक जैसा कि शब्द से ही मालूम पड़ता है कि बाधा देने वाला
वैसे हमने पहले भी मारक ग्रह की चर्चा की है मारक का मतलब मार देगा ऐसा नहीं है मारक ग्रह का मतलब है जिंदगी में जो भी गृह और भाव सबसे ज्यादा हमें उलझा कर रखता है हमें चक्र व्यूह में फंसा कर रखता है इस तरह के दो ही भाव है वह है दूसरा भाव और सातवां भाव क्योंकि हम पूरी जिंदगी वैवाहिक जिंदगी धन परिवार इस तरह इन के इर्द गिर्द घूमते रहते हैं इसीलिए इन 2 भावों को मारक भाव कहां गया है।
अभी बात करते है, बाधक ग्रह, इसे भी कॉमन सेन्सस से समझे,
जो भी चर लग्न वाले व्यक्ति होते हैं वह हमेशा आराम से बैठना पसंद नहीं करते हमेशा कुछ ना कुछ अपने फायदे वाले जुगाड़ में लगे रहते हैं और इस वजह से जो भी फायदे वाली चीजें हैं उन्हीं से उनको कष्ट होने का कारण बनता है कुल मिलाकर ऐसे लोग जो जिंदगी में बहुत ज्यादा और कम समय में ज्यादा से ज्यादा पाना चाहते हैं वह सभी लोग चर लग्न वाले व्यक्ति होते हैं वह कभी भी एक जगह आराम से नहीं बैठते इसीलिए उस लग्न के व्यक्ति को चर लग्न का व्यक्ति कहा गया है 11 भाव उनके लिए फायदा पहुंचाने वाला लाभ देने वाला उनको फल देने वाला बन जाता है इसी वजह से जो भाव उनको फल ज्यादा देता है वही उनके लिए परेशानी का कारण भी बनता है लालच का कारण भी बनता है क्योंकि लालच से उनकी भाग-दौड़ और ज्यादा बढ़ जाती है इसीलिए चर लग्न वालों व्यक्ति के लिए हमेशा 11 भाव उसमे बैठे हुए ग्रह या उसका मालिक हमेशा उस व्यक्ति को लाभ दिलाने के चक्कर में और ज्यादा भागदौड़ कराता है अगर यह भाग-दौड़ अच्छी नीयत से प्रेरित हो तो हमेशा यह बाधक ग्रह फायदा ही पहुंचाते हैं लेकिन थोड़ी सी भी परेशानी या नीयत खराब होने पर व्यक्ति को परेशानी भी उठानी पड़ती है और होता भी यही है कि लालच हमेशा धीरे-धीरे बढ़ता है और एक दिन बड़ा नुकसान का कारण बन जाता है इसलिए 11 भाव चर लग्न वाले व्यक्ति के लिए बाधक बन जाता है।
सभी 12 राशियों को उनके स्वभाव के अनुसार तीन भागों में बांटा गया है और फिर उसके आधार पर बाधक ग्रह का निर्णय किया जाता है.
मेष, कर्क, तुला और मकर राशि चर स्वभाव की राशियाँ मानी गई हैं. चर अर्थात चलायमान रहती है.
वृष, सिंह, वृश्चिक और कुंभ राशियाँ स्थिर स्वभाव की राशि मानी गई हैं. स्थिर अर्थात ठहराव रहता है. ।
मिथुन, कन्या, धनु और मीन राशियाँ द्वि-स्वभाव की राशि मानी जाती है अर्थात चर व स्थिर दोनो का समावेश इनमें होता है.।
जन्म लग्न में चर राशि मेष, कर्क, तुला या मकर स्थित हैं तब एकादश भाव का स्वामी ग्रह बाधकेश का काम करता है.।
जन्म लग्न में स्थिर राशि वृष, सिंह, वृश्चिक या कुंभ स्थित है तब नवम भाव का स्वामी ग्रह बाधकेश का काम करता है.।
यदि जन्म लग्न में द्वि-स्वभाव राशि मिथुन, कन्या, धनु या मीन स्थित है तब सप्तम भाव का स्वामी ग्रह बाधकेश का काम करता है.।
जब भी बाधक ग्रह की दशा अंतर्दशा आती है उस समय व्यक्ति को फायदा लाभ होने की संभावनाएं उतनी ही बढ़ जाती है लेकिन उसी के साथ परेशानी या उतना ही नुकसान की भी संभावना बढ़ती ह, अगर अशुभग गृह शामिल हो, अशुभ भाव के मालिक बनकर।
कुल मिलाकर यह बात निर्भर करती है कि बाधक भाव या बाधक ग्रह का संबंध अगर अच्छे ग्रहों से है अच्छी दृष्टि से है तो लाभ उतना ही बढ़ जाता है

कुंडली में संतान योग

कुंडली में संतान योग प्रश्न: कैसे जानें कि संतान कब और कितनी होंगी? पुत्रा और पुत्री की संख्या कैसे जानेंगे? संतान प्राप्ति या उत्तम संतान सुख हेतु कारगर उपायों का वर्णन करें। जीजीवन के समस्त सुखों में महत्वपूर्ण है संतान सुख। भारतीय हिन्दू धर्मशास्त्र में पांच प्रकार के ऋणों की चर्चा की गई है जिनमें एक है पितृ ऋण। पितृ ऋण बगैर संतानोत्पति के नहीं चुकाया जा सकता। वंश को आगे बढ़ाने हेतु पुत्रोत्पति ही पितृ ऋण चुकाने का मार्ग है। कहा गया है अपुत्रस्य गति नास्ति शास्त्रेषु श्रुयते मुने (पाराशर होरा शास्त्र) अर्थात् पुत्रहीन व्यक्ति को सद्गति नहीं मिलती। जब लोग विवाह बंधन में बंध जाते हैं, तो संतानोत्पति की ओर अग्रसर होते हैं। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार जातक की जन्मकुंडली उसके कर्मों का लेखा-जोखा है। संतान सुख प्रारब्ध, जिसे हम नियति कहते हैं, से जुड़ा हुआ है। संतान सुख कब और कितना मिलेगा यह भी प्रारब्ध से जुड़ा हुआ है। संतान प्राप्ति कब? शीघ्र संतान प्राप्ति- पंचम भाव में मेष, वृष या कर्क राशि में राहु या केतु हो तो संतान सुख की प्राप्ति शीघ्र होती है। सप्तमेश की नवांश राशि के स्वामी पर लग्नेश, द्वितीयेश व नवमेश की दृष्टि हो तो संतान शीघ्र होती है। लग्नेश पंचम में हो तथा उस पर चंद्र की पूर्ण दृष्टि हो तो पुत्र संतान होती है। स्त्री का क्षेत्र सम राशि व सम नवांश में तथा पुरुष का बीज विषम राशि व विषम नवांश में हो तो अविलम्ब संतान की प्राप्ति शीघ्र होती है। बली गुरु पर लग्नेश की दृष्टि हो तो संतानोत्पत्ति शीघ्र होती है। विलंब से संतान प्राप्ति: राहु एकादश भाव में हो तो संतान अधिक आयु में होती है। चंद्र कर्क राशि में पाप युत या पाप दृष्ट हो तथा सूर्य पर शनि की दृष्टि हो तो अधिक आयु में संतान की प्राप्ति होती है। लग्नेश, पंचमेश और नवमेश शुभ ग्रहों से युत होकर त्रिक भावों में हों तो संतान विलंब से होती है। पंचम भाव में पाप ग्रह तथा दशम भाव में शुभ ग्रह हों तो संतान होने में विलंब होता है। पंचम मंे गुरु हो तथा पंचमेश शुक्र के साथ हो तो 32 वर्ष के आयु के पश्चात् संतान होती है। पंचम में केवल गुरु हो, अष्टम में चंद्र हो, चतुर्थ या पंचम में पाप ग्रह हो तो 30 वर्ष की आयु के पश्चात् संतानोत्पति होती है। नवम भाव में गुरु हो तथा गुरु से नवम में शुक्र लग्नेश से युत हो तो 40 वर्ष की आयु में संतानोत्पति होती है। केंद्र में गुरु तथा पंचमेश हो तो 36 वर्ष की आयु में संतान लाभ होता है। लग्न में मंगल, पंचम में सूर्य तथा अष्टम में शनि हो तो संतान प्राप्ति में विलम्ब होता है। लग्न में शनि, अष्टम में गुरु और द्वादश में मंगल हो तथा पंचम में जलीय राशि न हो तो संतान विलंब से प्राप्त होती है। लग्न में अशुभ राशि (मेष, सिंह, वृश्चिक, मकर या कुंभ) में पाप ग्रह हों, मंगल सम राशि में हो तथा सूर्य निर्बल हो तो 30 वर्ष की आयु के पश्चात् संतान होती है। गुरु चतुर्थ में, चंद्र अष्टम में तथा पाप ग्रह पंचम भाव में हो तो 30 वर्ष की आयु के बाद संतान प्राप्त होती है। वृष, सिंह, कन्या और वृश्चिक अल्प सुत (कम संतान वाली) राशि कहलाती है। यह राशियां पंचम में हों तो थोड़ी सन्तति होती है और वह भी बहुत समय के बाद। निम्न स्थिति में बहुत यत्न करने पर संतान प्राप्ति होती है- पंचम में अल्पसुत राशि (वृष, सिंह, कन्या और वृश्चिक) में सूर्य हो, शनि अष्टम में हो और मंगल लग्न में हो। शनि लग्न में हो, गुरु अष्टम में हो और मंगल द्वादश में तथा पांचवें भाव में अल्पसुत राशि हो। चंद्र एकादश भाव में हो, गुरु से पांचवें भाव में पाप ग्रह हो और लग्न में कई ग्रह हों। संतान प्राप्ति का समय: लग्नेश, सप्तमेश, पंचमेश, गुरु एवं जो पांचवे भाव को देखने वाले ग्रहों में से किसी एक की महादशा या अंतर्दशा हो तो संतान की प्राप्ति होती है। पंचमेश या यमकंटक जिस राशि या नवांश में हो उससे त्रिकोण मंे जब गोचरवश गुरु आता है, तब भी संतान प्राप्ति होती है। लग्नेश जब गोचरवश- पंचमेश से योग करे, अपनी उच्च राशि में आए, अपनी स्वराशि में आए तब पुत्र प्राप्ति हो सकती है। यदि लग्नेश गोचरवश पंचम में आए या पंचमेश जहां स्थित है उस राशि में आए तब भी संतान प्राप्ति के लिए अनुकूल अवसर होता है। ;पद्ध लग्नेश की राशि, अंश, कला, विकला ;पपद्ध सप्तमेश की राशि, अंश, कला, विकला ;पपपद्ध पंचमेश की राशि अंश कला, विकला- (राश्यांशों का योग करने पर यदि राशियों का योग 12 से अधिक आए तो 12 राशियां घटाकर) इनको जोड़ने से जो राशि अंश, कला, विकला आए वह किस नक्षत्र के अंतर्गत पड़ती है, यह निकालें।उस नक्षत्र के स्वामी की जब महादशा आए और पंचम भावस्थ ग्रह या पंचम को देखने वाले ग्रह अथवा पंचमेश की अंतर्दशा हो तो संतान प्राप्ति होती है। यह देखिए कि पंचमेश, पंचमेश जिस राशि में है उसका स्वामी, पंचमेश जिस नवांश में है उसका स्वामी, गुरु, गुरु जिस राशि में है उसका स्वामी गुरु जिस नवांश में है उसका स्वामी इनमें से कौन बलवान है? उपर्युक्त में जो बलवान हो उसकी दशा-अंतर्दशा में संतान प्राप्ति होती है। यह देखा जाए गुरु से पंचम कौन सा स्थान है? गुरु से पंचम में जो राशि हो उसका स्वामी किस राशि और नवांश में है? उस राशि या नवांश से जब त्रिकोण में गोचरवश गुरु आए तब संतान प्राप्ति होगी। यह भी देखिए कि चंद्र किस नक्षत्र में है। इस नक्षत्र का स्वामी और इस नक्षत्र से पांचवे नक्षत्र का स्वामी जो ग्रह हो उसकी राशि अंश, कला, विकला आपस में जोड़ लीजिए। जो योग आए, उस राशि अंश, कला, विकला, पर या उससे नवम, पंचम गोचरवश गुरु आए तो संतान प्राप्ति होगी। गर्भ ठहरने की स्थिति- यदि पुरुष की कुंडली में सूर्य और शुक्र अपनी राशि और अपने अंश में बलवान होकर उपचय स्थानों में जा रहे हों और स्त्री की कुंडली में मंगल और चंद्रमा अपने भाव और अंश में बलवान होकर उपचय स्थान में जा रहे हों तो गर्भ धारण का योग बनता है। गर्भाधान के लिए अनुकूल स्थितियां- रजोदर्शन के बाद 16 दिनों तक स्त्री प्रायः गर्भधारण के योग्य होती है, किंतु यह आवश्यक नहीं कि वह इस अवधि में गर्भवती हो ही। गर्भाधान की संभावना ग्रह स्थितियों पर निर्भर है। पंचम भाव एवं भावेश के आधार पर स्त्री व पुरुष की प्रजनन शक्ति का पता लगाया जाता है। यदि पंचम भाव एवं भावेश शक्तिशाली हों, तो संतान प्राप्ति का संकेत मिल जाता है। पुरुष की जन्म कुंडली से पंचम भाव की क्षमता को बीज तथा स्त्री के पंचम भाव की क्षमता को क्षेत्र कहा जाना उपयुक्त है। यों कहें कि अप्रत्यक्ष रूप से बीज शुक्र का तथा क्षेत्र रज का प्रतिनिधित्व करता है। यदि बीज और क्षेत्र दोनों ही कमजोर हों तो प्रजनन संभव नहीं है। सामान्य रूप से सूर्य प्रजनन शक्ति तथा शुक्र शुक्राणुओं का कारक है, इसलिए कुंडली में इन ग्रहों की अनुकूल स्थितियां जरूरी हैं। जब ये विषम राशियों में हों, तब संभावना बढ़ जाती है। इसी प्रकार स्त्री की जन्म कुंडली में मंगल रक्त का स्वरूप बदलने की क्षमता रखता है तथा चंद्र गर्भधारण की क्षमता, इसलिए इन दोनों का सम राशि में होना लाभप्रद होता है, बशर्ते अन्य ग्रहों का प्रतिकूल प्रभाव न हो। संतान होगी या नहीं, शीघ्र होगी या विलंब से आदि की जानकारी के लिए सर्वप्रथम पुरुष एवं स्त्री की जन्म कुंडलियों के विश्लेषण से बीज एवं क्षेत्र स्पष्ट कर विचार करना जरूरी है। पुरुष की कुंडली में सूर्य स्पष्ट, शुक्र स्पष्ट और गुरु स्पष्ट, सूर्य, गुरु और शुक्र तीनों ग्रहों की राशि, अंश, कला और विकला जोड़ लें। जोड़ने पर यदि विषम राशि और विषम नवांश आए तो समझें कि इस पुरुष में पुत्र उत्पन्न करने की पूर्ण क्षमता है। यदि राशि और नवांश में से एक विषम और एक सम आए तो मिलाजुला फल समझना चाहिए और यदि सम राशि तथा सम नवांश आए तो समझना चाहिए पुरुष में संतानोत्पति की क्षमता नहीं है। स्त्री की कुंडली में चंद्र स्पष्ट, मंगल स्पष्ट और गुरु स्पष्ट (अर्थात् इन तीनों ग्रहों की राशि, अंश, कला और विकला) को जोड़ने से जो फल आए वह यदि सम राशि, सम नवांश में हो तो उस स्त्री में संतानोत्पति की पूर्ण क्षमता, राशि और नवांश में एक सम और एक विषम हो, तो आधी और दोनों विषम हों, तो पूर्ण अक्षमता समझनी चाहिए। न कितनी होंगी? गुरु और शुक्र पंचम भाव में हो, तो अनेक संतान होती हैं। पंचम भाव में शुक्र की राशि या नवांश हो तथा पंचम पर शुक्र की दृष्टि हो, तो संतान अधिक होती हैं। पंचम भाव में पंचमेश तथा गुरु हो तथा सूर्य स्वगृही हो, तो पांच संतानें होती हैं। बुध या राहु तृतीय भाव में हांे, तो दो पुत्र व तीन पुत्रियां होती हैं। बुध मकर राशि में पंचम भाव में हो, तो तीन संतान होती हैं। चंद्र व केतु पंचम में हों, तो केवल एक संतान होती है। बुध व शनि पंचम में हों, तो भी केवल एक संतान होती है। मंगल मकर राशि में पंचम भाव में हो, तो तीन संतानंे होती हैं। कर्क राशि में शनि पंचम में हो, तो अनेक संतानें होती हैं। जितने पुरुष ग्रह पंचम को देखते हों उतने पुत्र और जितने स्त्री ग्रह को देखते हों उतनी पुत्रियां होती हैं। शनि कुंभ राशि में पंचम भाव में हो, तो पांच संतान होती हैं। पुत्र कितने होंगें? यदि पाप ग्रह पंचमेश होकर पंचम में हो तथा पंचम में अन्य पाप ग्रह हांे, तो पुत्र अधिक होते हैं। गुरु, मंगल, सूर्य तथा पंचमेश पुरुष राशि के नवांश में हों अथवा पुरुष ग्रहों से युत या दृष्ट हों तो पुत्रों की संख्या अधिक होती है। पंचम भाव में पंचमेश पुरुष राशि के नवांश में हो अथवा पुरुष ग्रहों से युत या दृष्ट हो तो पुत्रों की संख्या अधिक होती है। मकर राशि में केवल गुरु हो और वह पंचम में हो तो कई पुत्र होते हैं। लग्न में राहु, पंचम में गुरु तथा नवम में शनि हो, तो छह पुत्र होते हैं। कुंभ राशिस्थ शनि एकादश में हो, तो अनेक पुत्र होते हैं। पंचम भाव में तुला राशि हो तथा पंचम भाव पर चंद्र व शुक्र की दृष्टि हो, तो कई पुत्र होते हैं। पंचम भाव में सूर्य शुभ ग्रहों से दृष्ट हो, तो तीन पुत्र होते हैं। पंचम में सूर्य हो, तो एक पुत्र, मंगल हो, तो तीन तथा गुरु हो, तो पांच पुत्र होते हैं। मकर अथवा कुंभ से पंचम राशि क्रमशः वृष या मिथुन में शनि हो तो केवल एक पुत्र होता है। पुत्रियां कितनी होंगी? एकादश में बुध, चंद्र या शुक्र हो, तो पुत्रियां अधिक होती हैं। चंद्र और बुध पंचम में हो, तो अनेक पुत्रियां होती हैं। लग्न या चंद्र मंगल की राशि में तथा शुक्र के त्रिशांश में हो तो कई पुत्रियां होती हैं। पंचम में सम राशि या नवांश हो, उसमें बुध या शनि स्थित हो तथा उस पर शुक्र या चंद्र की दृष्टि हो तो अनेक पुत्रियां होती हैं। पंचम भाव में चंद्रमा की राशि अथवा शुक्र की सम राशि हो उस पर चंद्रमा या शुक्र की दृष्टि हो तो अनेक पुत्रियां होती हैं। पंचमेश द्वितीय या अष्टम में हो तो अनेक पुत्रियां होती हैं। चंद्र, बुध या शुक्र पंचम में हो तो पुत्रियां अधिक होती हैं। चंद्रमा, बुध या शुक्र पंचमेश होकर द्वितीय या अष्टम में हो तो पुत्रियों की संख्या अधिक होती है। मकर राशिस्थ शनि पंचम में हो तो पुत्रियां अधिक होती हैं। बुध पंचम या सप्तम भाव में सम राशि में हो तो अनेक पुत्रियां होती हैं। पंचम में सम राशि हो तथा एकादश में बुध, चंद्रमा व शुक्र हो तो पुत्रियां अधिक होती हैं। पंचम में चंद्रमा हो तो दो, बुध हो तीन, शुक्र हो तो पांच तथा शनि हो तो सात पुत्रियां होती हैं। तृतीय भाव में बली बुध हो तथा पंचम में चंद्रमा हो तो पांच पुत्रियां होती हैं। बुध पंचम में हो अथवा पंचमेश बुध हो तो तीन पुत्रियां होती हंै। कर्क राशि में गुरु पंचम में हो तो कन्याएं अधिक होती हैं। चंद्र या शुक्र मकर राशि में पंचम में हो, तो पुत्रियां अधिक होती हैं। संतान प्राप्ति में बाधाकारक योग: फलदीपिका के अनुसार यदि जन्म कुंडली में पंचम भाव का स्वामी शत्रु राशि या नीच राशि में हो या अस्त हो और लग्न से षष्ठ, अष्टम या द्वादश हो तो संतान प्राप्ति में बाधा आती है। इसी प्रकार कोई नीच, शत्रु अथवा अस्त ग्रह पंचम भाव में स्थित हो या षष्ठ, अष्टम अथवा द्वादश का स्वामी होकर पंचम भाव में स्थित हो, तो भी पुत्र का अभाव या पुत्र कष्ट होता है। जो बाधाकारक ग्रह जिस राशि में स्थित हो उसके अनुसार यह निर्णय करना चाहिए कि किस देवता, वृक्ष या जीव के कारण बाधा आ रही है, और फिर उसकी शांति का उपाय करना चाहिए। यदि संतान बाधाकारक ग्रह सूर्य हो, तो समझना चाहिए कि यह भगवान शंभु और गरुड़ के द्रोह या पितरों के शाप का फल है। यदि संतान प्रतिबंधक ग्रह चंद्र हो, तो माता या किसी अन्य सधवा स्त्री को दुःख पहुंचाने या भगवती के शाप के कारण संतान में बाधा होती है। यदि संतान प्रतिबंधक ग्रह मंगल हो, तो ग्राम देवता या भगवान कार्तिक के प्रति अनास्था या शत्रुओं अथवा भाई बन्धुओं के शाप के कारण संतान कष्ट होता है। यदि बुध बाधाकारक हो, तो बिल्ली को मारने के कारण या मछलियों अथवा अन्य प्राणियों के अंडों को नष्ट करने के कारण या कम उम्र के बालक-बालिकाआंे के शाप अथवा भगवान विष्णुके कोप के कारण संतानोत्पत्ति में कठिनाई आती है। यदि जन्म कुंडली में गुरु की स्थिति शुभ नहीं हो और उसके कारण संतान नहीं हो रही हो, तो समझना चाहिए कि व्यक्ति ने वर्तमान जन्म में या पूर्व जन्म में फलदार वृक्षों को कटवाया है या अपने कुल गुरु या कुल पुरोहित से द्रोह किया है। यदि शुक्र बाधाकारक है, तो समझना चाहिए कि व्यक्ति ने पुष्प के वृक्षों को कटवाया है या गाय को कष्ट दिया है अथवा यह बाधा किसी साध्वी के शाप के कारण आया है। यदि जन्म कुंडली में शनि की स्थिति ठीक नहीं हो, तो संतान बाधा पीपल के पेड़ को कटवाने या पिशाच, प्रेत तथा यमराज के शाप के कारण आ सकती है। कालसर्प योग एवं संतान बाधा: यदि कुंडली में पंचम भाव से कालसर्प योग निर्मित हो रहा हो, तो ऐसी स्थिति में संतान बाधा होती है। पंचम भाव में राहु या केतु हो और राहु और केतु की धुरी में सभी ग्रह आएं या कुंडली में राहु-चंद्र, राहु-मंगल, राहु-शुक्र, शनि-चंद्र, राहु-गुरु या चंद्र-केतु की युति हो, पंचमेश और पंचम भाव दूषित हों या पंचमेश के साथ राहु या केतु द्वारा कालसर्प योग निर्मित हो रहा हो, तो संतानोत्पति में बाधा होती है और इस योग की शांति के उपरांत संतान सुख की प्राप्ति होती है। सर्पशाप के कारण संतान बाधा: बृहत् पराशर होरा शास्त्र के अनुसार निम्नलिखित योगों में सर्पराज के शाप अथवा पूर्व जन्म या वर्तमान जन्म में जाने-अनजाने की गई सर्प हत्या के दोष के कारण भी संतान प्राप्ति में कठिनाई होती है- पंचम में स्थित राहु को मंगल पूर्ण दृष्टि से देखे अथवा राहु मेष या वृश्चिक में हो। पंचमेश राहु के साथ कहीं भी हो तथा पंचम में शनि हो और शनि या मंगल को चंद्र देखे या उनसे उसकी युति हो। संतानकारक अर्थात् पंचम भाव का कारक गुरु राहु के साथ हो और पंचमेश निर्बल हो तथा लग्नेश व मंगल साथ-साथ हों। गुरु व मंगल एक साथ हों, लग्न में राहु स्थित हो, पंचमेश भाव 6, 8 या 12 में हो। कुछ अन्य योगों का विवरण, जिनमें सर्प शाप के कारण संतानोत्पत्ति में बाध आती है, इस प्रकार है- पंचम में 3, 6 राशि हांे, मंगल अपने ही नवांश में हो, लग्न में राहु व गुलिक हों। पंचम में 1, 8 राशि हों, पंचमेश मंगल राहु के साथ हो अथवा पंचमेश मंगल का बुध के साथ दृष्टि संबंध हो। पंचम में सूर्य, मंगल और शनि या राहु, बुध और गुरु एकत्र हों और लग्नेश व पंचमेश निर्बल हों। लग्नेश व राहु, पंचमेश व मंगल और गुरु व राहु एक साथ हांे। सर्पशाप की निवृति के लिए नागपूजा कुल परंपरानुसार करनी चाहिए। नागराज की मूर्ति की प्रतिष्ठा अथवा सोने के नागराज की मूर्ति बनवाकर नित्य पूजा करनी चाहिए। इसी प्रकार, पितृशाप, मातृशाप, भ्रातृशाप, मातुलशाप, ब्रह्मशाप, पत्नीशाप या प्रेतादिशाप के कारण संतान हानि होती है। इन शापों से मुक्ति का उपाय करने के पश्चात् संतान सुख की प्राप्ति हो सकती है। वंश आगे चलेगा या नहीं: फलदीपिका में बताया गया है कि निम्न योगों से प्रभावित जातक का वंश आगे नहीं चलता। चतुर्थ में अशुभ ग्रह हों, सप्तम भाव में शुक्र हो और दशम भाव में चंद्र हो। प्रथम, पंचम, अष्टम या द्वादश भाव में अशुभ ग्रह हों। सप्तम भाव में बुध और शुक्र हों, पंचम में गुरु हो और क्रूर ग्रह चतुर्थ भाव में हो। चंद्र पंचम में हो और प्रथम, अष्टम तथा द्वादश भाावों में पाप ग्रह हों। यदि संतानोत्पत्ति में बुध और शुक्र बाधक हों, तो शिव पूजन करना चाहिए। गुरु या चंद्रकृत दोष हो, तो मंत्र, यंत्र और औषधि प्रयोग का प्रयोग करना चाहिए। राहु बाधक हो, तो कन्यादान कन्यादान करना चाहिए। सूर्य का दोष हो तो भगवान विष्णु के मंत्र का जप या हरिवंश पुराण का श्रवण करना चाहिए। सामान्यतः संतान से जुड़े सब दोषों को दूर करने तथा अच्छी संतान की प्राप्ति के लिए हरिवंश पुराण का भक्तिपूर्वक श्रवण करना चाहिए

पंचम भाव और संतान विचार

बुद्धि प्रबंधात्मजमंत्र विद्या विनेयगर्भ स्थितिनीति संस्था:।
सुताभिधाने भवने नराणां होरागमज्ञै: परिचिन्तनीयम्।।

जातकाभरणम्
बुद्धि, प्रबंध, संतान, मंत्र (गुप्त विचार), गर्भ की स्थिति, नीति आदि शुभाशुभ विचार पंचम भाव से करना चाहिए। पंचम भाव की राशि एवं पंचमेश, पंचमेश किस राशि एवं स्थान में बैठा है तथा उसके साथ कौन-कौन से ग्रह स्थित हैं। पंचम भाव पर किन-किन ग्रहों की दृष्टि है, पुत्र कारक गुरु, नवम भाव तथा नवमेश की स्थिति, नवम भाव पंचम से पंचम होता है।

अत: यह पोते का स्थान भी कहलाता है। पंचम भाव के स्वामी पर किन-किन भावेशों की दृष्टि है, पंचमेश कारक है या अकारक, सौम्य ग्रह है या दृष्ट ग्रह तथा पंचम भाव से संबंधित दशा, अंतर्दशा और प्रत्यंतदशा आदि।

संतानधिपते: पञ्चषष्ठरि: फस्थिवेखले।
पुत्रोभावो भवेत्तस्य यदि जातो न जीवति।।

पंचमेश से 5/6/10 में यदि केवल पापग्रह हो तो उसको संतान नहीं होती, हो भी तो जीवित नहीं रहती हैं।

मंदस्य वर्गे सुतभाव संस्थे निशाकरस्थेऽपि च वीक्षितेऽमिन्।
दिवाकरेणोशनसा नरस्क पुनर्भवासंभव सूनुलब्धे:।।

पंचम भाव में शनि के वर्ग हों तथा उसमें चंद्रमा बैठा हो और रवि अथवा शुक्र से दृष्ट हो तो उसको पौनर्भ व (विधवा स्त्री से विवाह करके उत्पन्न) पुत्र होता है।

नवांशका: पंचम भाव संस्था यावन्मितै : पापखगै:द्रदृष्टा:।
नश्यंति गर्भ: खलु तत्प्रमाणाश्चे दीक्षितं नो शुभखेचरेंद्रे :।।

पंचम भाव नवमांश पर जितने पापग्रह की दृष्टि हो उतने गर्भ नष्ट होते हैं किन्तु यदि उस पर शुभ ग्रह की दृष्टि न हो।

भूनंदनों नंदनभावयातो जातं च जातं तनयं निहन्ति।
दृष्टे यदा चित्र शिखण्डिजेन भृगो: सुतेन प्रथमोपन्नम्।।

पंचम भाव में केवल मंगल का योग हो तो संतान बार-बार होकर मर जाती है। यदि गुरु या शुक्र की दृष्टि हो तो केवल एक संतति नष्ट होती है और अन्य संतति जीवित रहती है। बंध्या योग, काक बंध्या योग, विषय कन्या योग, मृतवत्सा योग, संतित बाधा योग एवं गर्भपात योग स्त्रियों की कुंडली में होकर उन्हें संतान सुख से वंचित कर देते हैं। इस प्रकार के कुछ योग निम्रलिखित हैं :

लगन और चंद्र लगन से पंचम एवं नवम स्थान से पापग्रहों के बैठने से तथा उस पर शत्रु ग्रह की दृष्टि हो। लगन, पंचम, नवम तथा पुत्रकारक गुरु पर पाप प्रभाव हो लगन से पंचम स्थान में तीन पाप ग्रहों और उन पर शत्रु ग्रह की दृष्टि हो। आठवें स्थान में शनि या सूर्य स्वक्षेत्री हो। तीसरे स्थान पर स्वामी तीसरे ही स्थान में पांचवें या बारहवें में हो और पंचम भाव का स्वामी छठे स्थान में चला गया हो।जिस महिला जातक की कुंडली में लगन में मंगल एवं शनि इकठे बैठे हों। लगन में मकर या कुम्भ राशि हो। मेष या वृश्चिक हो और उसमें चंद्रमा स्थित हो तथा उस पर पापग्रहों की दृष्टि हो।

पांचवें या सातवें स्थान में सूर्य एवं राहू एक साथ हों। पांचवें भाव का स्वामी बारहवें स्थान में व बारहवें स्थान का स्वामी पांचवें भाव में बैठा हो और इनमें से कोई भी पाप ग्रह की पूर्ण दृष्टि में हो।

आठवें स्थान में शुभ ग्रह स्थित हो साथ ही पांचवें तथा ग्यारहवें घर में पापग्रह हों। सप्तम स्थान में मंगल-शनि का योग हो और पांचवें स्थान का स्वामी त्रिक स्थान में बैठा हो।

पंचम स्थान में मेष या वृश्चिक राशि हो और उसमें राहू की उपस्थिति हो या राहू पर मंगल की दृष्टि हो। शनि यदि पंचम भाव में स्थित हो और चंद्रमा की पूर्ण दृष्टि में हो और पंचम भाव का स्वामी राहू के साथ स्थित हो।

मंगल दूसरे भाव में, शनि तीसरे भाव में तथा गुरु नवम या पंचम भाव में हो तो पुत्र संतान का अभाव होता है। यदि गुरु-राहू की युति हो। पंचम भाव का स्वामी कमजोर हो एवं लग्न का स्वामी मंगल के साथ स्थित हो अथवा लगन में राहू हो, गुरु साथ में हो और पांचवें भाव का स्वामी त्रिक स्थान में चला गया हो।

पंचम भाव में मिथुन या कन्या राशि हो और बंधु मंगल के नवमांश में मंगल के साथ ही बैठ गया हो और राहू तथा गुलिक लगन में स्थित हो। आदि-आदि कई योगों का वर्णन ज्योतिष ग्रंथों में मिलता है जो संतति सुख हानि करता है तथा कुंडली मिलान करते समय सुखी दाम्पत्य जीवन के लिए इन्हें विचार में लाना अति आवश्यक होता है।पति या पत्नी में से किसी एक की कुंडली में संतानहीनता योग होता है तो दाम्पत्य जीवन नीरस हो जाता है। अनुभव में यह भी नहीं पाया गया है कि संतानहीनता योग वाली महिला की शादी संतति योग वाले पुरुष के साथ की जाए अथवा संतानहीन योग वाले पुरुष की शादी संतित योगा वाली महिला के साथ की जाए और इस प्रकार का कुयोग दूर हो जाए लेकिन यह कुयोग नहीं कटता और जीवन भर संतान का अभाव बना रहता है। ऐसी स्थिति में ईश कृपा, देव कृपा या संत कृपा ही इस कुयोग को काट सकती है। निम्र उपाय भी संतान सुख देने में सहायक होते हैं।

षष्ठी देवी का जप पूजन एवं स्त्रोत पाठ आदि का अनुष्ठान पुत्रहीन व्यक्ति को सुयोग पुत्र संतान देने में सहायक होता है।

संतान गोपाल मंत्र- ॐ क्लीं  ॐ क्लीं देवकीसुत गोविंद वासुदेव जगत्पते। देहि ने तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं क्लीं क्लीं क्लीं ॐ का जप एवं संतान गोपाल स्रोत का नियमित पाठ भी संतति सुख प्रदान करने वाला होता है।

इसके अतिरिक्त भगवान शिव की आराधना एवं जप, पूजा, अनुष्ठान, कन्या दान, गौदान एवं अन्य यंत्र-तंत्र तथा औषधियां अपनाने से भी संतति सुख प्राप्त किया जा सकता है।

गुरु, माता-पिता, ब्राह्मण, गाय आदि की सेवा, पुण्य, दान, यज्ञ आदि संतानहीनता को मिटाने वाले होते हैं।

नवरात्रि में सर्ववाधाविनिर्मुक्तो धनधान्यसुतान्वित:। मनुष्यों मत्प्रसादेन भवि यति न संशय:।।

इस मंत्र से दुर्गा सप्तशती का नवचंडी या शतचंडी पाठ का अनुष्ठान भी संतान सुख देता है।

सभी भावों में शनि के कष्ट निवारण के उपाय

भाव में शनि ------ अपने ललाट पर प्रतिदिन दूध अथवा दही का तिलक लगाए । शनिवार के दिन न तो तेल लगाए और न तेल खाए । तांबे के बने हुए चार साँप शनिवार के दिन नदी में प्रवाहित करे । · भगवान शनिदेव या हनुमान जी के मंदिर में जाकर यह प्रथना करे की प्रभु- हमसे जो पाप हुए हैं , उनके लिए हमे क्षमा करो ,हमारा कल्याण करो । जब भी आपको समय मिले शनि दोष निवारण मंत्र का जाप करे ।

दूसरे भाव में शनि  -------- शराब का त्याग करे और मांसाहार भी न करे । साँपो को दूध पिलाए, कभी भी साँपो को परेशान न करे , न ही मारे । दो रंग वाली गाए / भैस कभी भी न पालें । अपने ललाट पर दूध / दही का तिलक करे ! रोज शनिवार को कडवे तेल का दान करें ।शनिवार के दिन किसी तालाब, नदी में मछलियों को आटा डाले । सोते समय दूध का सेवन न करें । शनिवार के दिन सिर पर तेल न लगाएं ।

तीसरे भाव में शनि  ----- आपके घर का मुख्य दरबाजा यदि दक्षिण दिशा की ओर हो तो उसे बंद करवा दे । रोज शनि चालीसा पढ़ें तथा दूसरों को भी शनि चालीसा भेंट करें । शराब का त्याग करे और मांसाहार भी न करे । गले में शनि यंत्र धारण करें । मकान के आखिर में एक अंधेरा कमरा बनवाएँ । अपने घर पर एक काला कुत्ता पाले तथा उस का ध्यान रखें । घर क अंदर कभी हैंडपम्प न लगवाएँ ।

चतुर्थ भाव में शनि ---- रात में दूध न पिये । · पराई स्त्री से अवैध संबंध कदापि न बनाएँ । कौवों को दना खिलाएँ । सर्प को दूध पिलाएँ ,काली भैस पालें ,कच्चा दूध शनिवार दिन कुएं में डालें । एक बोतल शराब शनिवार के दिन बहती नदी में प्रवाहित करें ।

पंचम भाव में शनि  -------- पुत्र के जन्मदिन पर नमकीन वस्तुएं बांटनी चाहिए- मिठाई आदि नहीं । माँस और शराब का सेवन न करें, काला कुत्ता पालें और उसका पूरा ध्यान रखें ,शनि यंत्र धारण करें,शनिदेव की पुजा करें, शनिवार के दिन अपने भार के दसवें हिस्से के बराबर वजन करके – बादाम नदी में प्रवाहित करने का कार्य करें ।

छठवाँ भाव में शनि ·----  चमड़े के जूते , बैग , अटैची आदि का प्रयोग न करें । शनिवार का व्रत करें । चार नारियल बहते पनि में प्रवाहित करें - ध्यान रहे , गंदे नाले मे नहीं करें , परिणाम बिल्कुल उल्टा होगा । हर शनिवार के दिन काली गाय को घी से चुपड़ी हुई रोटी नियमित रूप से खिलाएँ , शनि यंत्र धारण करें ।

सप्तमभाव में शनि --- पराई स्त्री से अवैध संबंध कदापि न बनाएँ , हर शनिवार के दिन काली गाय को घी से चुपड़ी हुई रोटी नियमित रूप से खिलाएँ । शनि यंत्र धारण करें ,मिट्टी के पात्र में शहद भरकर खेत में मिट्टी के नीचे दबाएँ। खेत की जगह बगीचे में भी दबा सकते हैं , अपने हाथ में घोड़े की नाल का शनि छल्ला धारण करें ।

अष्टम भाव में शनि  ------ गले में चाँदी की चेन धारण करें , शराब का त्याग करे और मांसाहार भी न करे । शनिवार के दिन आठ किलो उड़द बहती नदी में प्रवाहित करें । उड़द काले कपड़े में बांध कर ले जाएँ और बंधन खोल कर ही प्रबहित करें । सोमवार के दिन चावल का दान करना आपके लिए उत्तम हैं । काला कुत्ता पालें और उसका पूरा ध्यान रखें ।

नवम भाव में शनि  ------ पीले रंग का रुमाल सदैव अपने पास रखें , साबुत मूंग मिट्टी के बर्तन में भरकर नदी में प्रवाहित करें, साव 6 रत्ती का पुखराज गुरुवार को धारण करें , कच्चा दूध शनिवार दिन कुएं में डालें । · हर शनिवार के दिन काली गाय को घी से चुपड़ी हुई रोटी नियमित रूप से खिलाएँ , शनिवार के दिन किसी तालाब, नदी में मछलियों को आटा डाले ।

दशम भाव में शनि ------ पीले रंग का रुमाल सदैव अपने पास रखें । आप अपने कमरे के पर्दे , बिस्तर का कवर , दीवारों का रंग आदि पीला रंग की करवाएँ- यह आप के लिए उत्तम रहेगा ।पीले लड्डू गुरुवार के दिन बाँटे , आपने नाम से मकान न बनवाएँ , अपने ललाटपर प्रतिदिन दूध अथवा दही का तिलक लगाए ,शनि यंत्र धारण करें । जब भी आपको समय मिले शनि दोष निवारण मंत्र का जाप करे ।

एकादश भाव में शनि ------- शराब और माँस से दूर रहें ,मित्र के वेश मे छुपे शत्रुओ से सावधान रहें । · सूर्योदय से पूर्व शराब और कड़वा तेल मुख्य दरवाजे के पास भूमि पर गिराएँ , परस्त्री गमन न करें , शनि यंत्र धारण करें , कच्चा दूध शनिवार दिन कुएं में डालें , कौवों को दना खिलाएँ ।

बारह भाव में शनि ----- जातक झूठ न बोले , शराब और माँस से दूर रहें , चार सूखे नारियल बहते पनि में परवाहित करें , शनि यंत्र धारण करें , शनिवार के दिन काले कुत्ते ओर गाय को रोटी खिलाएँ । शनिवार को कडवे तेल , काले उड़द का दान करे ,सर्प को दूध पिलाएँ !

क्या होती है शनि की साढ़ेसाती ?

भारतीय ज्योतिष शास्त्र में शनि की गणना सर्वाधिक प्रभावशाली ग्रह के रूप में की गई है। यह जितना अनिष्ट फल प्रदायक है उतना ही उत्कृष्ट और अभीष्ट
फलदायक भी है।
विश्व के 25 प्रतिशत व्यक्ति शनि की
साढ़ेसाती और 30 प्रतिशत व्यक्ति
इसकी ढैया के प्रभाव में सदैव रहते हैं।
तो क्या ये 50-55 प्रतिशत व्यक्ति हमेशा
साढ़ेसाती या ढैया के प्रभाव से हर वक्त परेशान रहते हैं ?
और वे लोग जिन पर न साढ़ेसाती हो
और न ही ढैया, क्या कभी कोई विशेष संकट में नहीं आते?
यदि आते हैं तो फिर शनि को ही हम क्यों इस नजरिए से देखते हैं?
सत्य तो यह है कि साढ़ेसाती या ढैया का प्रभाव शुभ होगा या अशुभ इसका निर्धारण करने के लिए हमें शनि के आकार-प्रकार, रूप-रंग और स्वभाव के साथ-साथ जन्म कुंडली में उसकी स्थिति और अन्य ग्रहों के साथ संबंधों पर भी ध्यान देना चाहिए।
शनि अन्य ग्रहों की अपेक्षा बहुत विशाल एवं सूर्य से सर्वाधिक दूरी पर स्थित है। यह पूर्णतया कांतिहीन ग्रह है और अन्यान्य ग्रहों की अपेक्षा इसकी गति भी
सर्वाधिक मंद है। इसीलिए इसका नाम तम, शनैश्चर या मंद भी है। शास्त्रों के मुताबिक इसकी उत्पत्ति सूर्य से हुई है। अतः अर्कज, सूर्यपुत्र, भानुज आदि नामों का यही कारण है।

शनि का व्यास (116464 किलोमीटर) और सूर्य से इसकी दूरी (88 करोड़ 60 लाख मील) है। सूर्य की एक पूरी परिक्रमा करने में इसे 295 वर्ष लग जाते हैं। हालांकि यह अपनी
धुरी पर 10 घंटे 12 मिनट में ही एक
चक्कर कर लेता है। हमारे 70 वर्ष शनि के एक वर्ष के बराबर होते हैं। एक भूचक्र अर्थात सभी (बारह) राशियों
की एक परिक्रमा पूरी करने में इसे 29
वर्ष 5 माह 17 दिन और 5 घंटे लग जाते हैं। यह पृथ्वी से 89 करोड़ मील दूरी
पर है और इसे एक राशि पर लगभग अढ़ाई वर्ष भ्रमण करना पड़ता है।
शनि तम प्रधान होने के नाते तामसी स्वभाव का है। इसमें नपुंसकत्व की मात्रा अधिक होती है। यह दो राशियों क्रमश: मकर और कुंभ का स्वामी है। तुला के 20 अंश तक इसकी उच्च राशि और मेष
के 20 अंश तक इसकी नीच राशि मानी जाती है। कुंभ इसकी मूल त्रिकोण राशि है।
सूर्य, चंद्र और मंगल शत्रु ग्रह, मेष, कर्क, सिंह और वृश्चिक शत्रु राशि हैं, जबकि बुध, शुक्र, और राहु इसके मित्र ग्रह और वृष, मिथुन, कन्या और तुला इसकी मित्र
राशियां हैं। इसी प्रकार गुरु इसका न तो मित्र है और न ही शत्रु, यानी सम है और धनु व मीन राशियां भी इसके लिए सम हैं। इसी प्रकार मेष राशि जहां नीच राशि है, वहीं शत्रु राशि भी और तुला जहां मित्र
राशि है वहीं उच्च राशि भी है।
शनि वातरोग, मृत्यु, चोरी-डकैती का मामला, मुकद्दमा, फांसी, जेल, तस्करी, जुआ, जासूसी, शत्रुता, लाभ-हानि, दिवालिया, राजदंड, त्यागपत्र, राज्य भंग, राज्य लाभ या व्यापार-व्यवसाय का कारक माना जाता है।
शनि जिस राशि में स्थित होता है उससे तृतीय, सप्तम और दशम राशि पर पूर्ण दृष्टि रखता है।
इसकी ढैयाअढ़ाई वर्ष की और साढ़ेसाती साढ़े सात वर्ष की होती है। सौर वर्ष
की गणना से साढ़े सात वर्ष में 2700 दिन होते हैं, जबकि एक राशि में सवा दो नक्षत्र के हिसाब से कुल 9 नक्षत्र
होते हैं अर्थात तीन राशि नक्षत्रों के 27 चरण के भ्रमण में शनि को 2700 दिन या साढ़े सात वर्ष लग जाते हैं।
इस प्रकार किसी भी नक्षत्र के एक चरण
का भ्रमण करने में शनि को प्राय: 100 दिन लग जाते हैं।
स्पष्ट है कि शत्रु, मित्र, सम, उच्च, नीच, निज, और मूल त्रिकोण राशियों के अनुसार शनि की साढ़ेसाती हो या ढैया अपना अलग-अलग फल देगी। कुछ में अत्यंत निकृष्ट तो किसी में अत्यंत श्रेष्ठ फल भी प्रदान करने में समर्थ होगा, जबकि अन्य स्थितियों में वह शुभाशुभ मिश्रित फल प्रदायक ही होगा।
गोचर कालिक स्थितियों के साथ जन्मांग चक्र के ग्रहों का तालमेल देखे बिना इन शुभाशुभ फलों का सही निर्धारण नहीं किया जा सकता।
चरणों के हिसाब से भी फलों में परिवर्तन होता रहता है। ये परिवर्तन भी शुभाशुभ या मिश्रित हो सकते हैं।
शनि की साढ़ेसाती तब शुरू होती है जब शनि गोचर में जन्म राशि से 12वें घर में
भ्रमण करने लगता है और तब तक रहती है जब वह जन्म राशि से द्वितीय भाव में स्थित रहता है।
वास्तव में शनि जन्म राशि से 45 अंश से 45 अंश बाद तक जब भ्रमण करता है तब उसकी साढ़ेसाती होती है।
इसी प्रकार चंद्र राशि से चतुर्थ या अष्टम भाव में शनि के जाने पर ढैया आरंभ होती है। सूक्ष्म नियम के अनुसार जन्म राशि से चतुर्थ भाव के आरंभ से पंचम भाव की संधि तक और अष्टम भाव के आरंभ से नवम भाव की संधि तक शनि की ढैया होनी चाहिए।
इस प्रकार जन्म नक्षत्र से 27 चरण और 65 चरण के बाद शनि की स्थिति से
चतुर्थ और अष्टमभाव मध्य होता है। इससे 4 चरण आगे और 4 चरण पीछे तक वह भाव होता है अर्थात जन्म नक्षत्र 23 चरण व्यतीत होने पर 24 चरण में जो राशि और नक्षत्र आए और उसमें शनि संचरण करे तब शनि की ढैया (पहली) आरंभ होती है और 32वां चरण जो राशि या नक्षत्र हो, उसमें शनि जब तक रहे तब तक पहली ढैया रहती है।
इसी प्रकार जन्म नक्षत्र से 62वें चरण में जो राशि या नक्षत्र हो उसमें शनि के जाने पर दूसरी ढैया आरंभ होगी और 69 चरण तक जो राशि या नक्षत्र हो उसमें शनि जब तक रहेगा तब तक उसकी दूसरी ढैया रहेगी। अस्तु, पाठकों को भयभीत नहीं होना चाहिए।
इसके अतिरिक्त भी अनेक कारण हैं जब
साढ़ेसाती या ढैया का प्रभाव या तो पड़ता ही नहीं या पड़ता भी है तो वह
नहीं के बराबर होता है। यथा-
1. मान लीजिए चंद्र राशि से आपके लिए शनि की साढ़ेसाती चल रही है, लेकिन जन्म लग्न से इस प्रकार का योग नहीं हो
रहा है तब शनि की साढ़ेसाती का पूर्ण
अशुभ फल आपको नहीं प्राप्त होगा।
2. शनि की साढ़ेसाती चल रही है किन्तु गोचर में शनि जिस राशि में है, वह
शनि की निज, स्वमूल त्रिकोण उच्च या मित्र राशि है, तो शनि की साढ़ेसाती का प्रभाव अशुभ न होकर शुभ फलदायक होगा।
3. जन्म कुंडली में शनि योग कारक हो
किसी ग्रह से युक्त या दुष्ट हो, शुभ भावों का अधिपति होकर शुभ भावों में विराजमान हो और जिस घर में बैठने से
साढ़ेसाती आरंभ हो रही हो वह राशि
भी उच्च या स्वमूल त्रिकोण राशियों में से हो तो साढ़ेसाती शुभफलदायक होगी।
4. यदि कालखंड के अनुसार शनि का निवास दाहिनी भुजा, पेट, मस्तक, नेत्र में हो तो शनि की साढ़ेसाती विजय, लाभ, राजसुख और सुख प्रदान करने वाली होगी।
5. यदि शनि जन्मकालिक आश्रित राशि से तीसरे, छठे या ग्यारहवें भाव में स्थित हो तो भी शनि की साढ़ेसाती का पूर्ण अशुभ प्रभाव नहीं पड़ेगा।
6. शनि की साढ़ेसाती या ढैया का पूर्ण
अशुभ प्रभाव तभी होगा जब चंद्र लग्न और जन्म लग्न दोनों से ही ऐसी स्थिति उत्पन्न हुई हो और शनि अपनी नीच, शत्रु राशि में स्थित हो, पाप ग्रहों से युक्त या दुष्ट हो और किसी शुभ ग्रह की दृष्टि न हो।
जीवन की प्रथम साढ़ेसाती का प्रभाव भी जीवन में नहीं के बराबर ही होता है। अत: केवल शनि की साढ़ेसाती या ढैया से हताश होने की कोई जरूरत नहीं है।
मान लिया उपरोक्त सभी दृष्टि से शनि की
साढ़ेसाती अशुभ फल प्रदायक है किन्तु महादशा, अंतरदशा और प्रत्यंतर दशा किन्हीं ऐसे ग्रहों की है जो जन्म कुंडली में योग कारक, शुभभावों के स्वामी या शुभग्रह या कारक ग्रहों के साथ या उनसे दृष्ट हो तो भी शनि की साढ़ेसाती के प्रभाव को क्षीण कर देंगे।

ग्रहों की उच्च-नीच राशियाँ

ग्रहों की उच्च-नीच राशियाँ निम्नानुसार है।

1. सूर्य - मेष में उच्च, तुला में नीच

2. चंद्र - वृषभ में उच्च, वृश्चिक में नीच

3. बुध - कन्या में उच्च, मीन में नीच

4. शुक्र - मीन में उच्च, कन्या में नीच

5. मंगल - मकर में उच्च, कर्क में नीच

6. गुरु - कर्क में उच्च, मकर में नीच

7. शनि - तुला में उच्च, मेष में नीच

8. राहु - मिथुन में उच्च, धनु में नीच

9. केतु - धनु में उच्च, मिथुन में नीच

इनके अलावा प्रत्येक ग्रह की मूल त्रिकोण राशियाँ भी दी गई हैं। मूल त्रिकोण राशि में होने पर ग्रह बलवान हो जाते हैं और शुभ फल देते हैं।

ग्रह मूल / त्रिकोण राशि
1. सूर्य - सिंह
2. चंद्र - वृषभ
3. बुध - कन्या
4. शुक्र - तुला
5. मंगल - मेष
6. गुरु - धनु
7. शनि - कुंभ
8. राहु - मिथुन
9. केतु - धनु

फलादेश करते समय इन राशियों का ध्यान रखकर ही ग्रहों के बलाबल की गणना की जाती है।

कुंडली फलादेश की विधि

कुंडली मे 1,5,9 भाव सबसे शुभ,4,7,10 शुभ,2,3,11 सम तथा 6,8,12 अशुभ कहें जाते हैं |

1)ग्रह अपनी मूल त्रिकोण राशि का पूरा फल व स्वराशि का आधा फल प्रदान करते हैं अर्थात मेष लग्न मे गुरु भाग्य स्थान का पूरा व द्वादश स्थान का आधा फल प्रदान करेगा यह नियम फलदीपिका के 15वे अध्याय भाव चिंता से लिया गया हैं |

2)ज्योतिष रत्नाकर के अनुसार ग्रहो का अन्य ग्रहो व भावो पर प्रभाव उनके दीप्तांशो पर निर्भर करता हैं जो इस प्रकार से हैं |

सूर्य 10 अंश,चन्द्र 5 अंश,मंगल 4 अंश,बुध 3.5 अंश,गुरु व शनि 4.5 अंश,शुक्र 3 अंश,राहू केतू जिस ग्रह की राशि मे होंगे उनके दीप्तांश उसी ग्रह के अनुसार होंगे |

उदाहरण के लिए यदि लग्न 13 अंश का हैं और भाग्य स्थान मे गुरु 18 अंश का हैं तो गुरु का प्रभाव किसी भी दृस्ट गृह व भाव पर 4.5 अंश आगे या पीछे तक ही होगा इस प्रकार गुरु के अंश लग्न के अंश से अधिक होने पर उसका प्रभाव ना तो नवम भाव पर होगा और ना ही लग्न पर यदि यह अंतर 4.5 से कम होता तब प्रभाव होता | इस प्रकार अंतर अधिक होने पर गुरु का प्रभाव किसी भी भाव पर नहीं हैं | अब यदि तीसरे भाव मे सूर्य 10 अंश का हैं तो उसका प्रभाव तीसरे व नवम दोनों भावो पर होगा गुरु के अंश मे केवल 8 का अंतर होने से (सूर्य दीप्तांश से ज़्यादा) सूर्य की गुरु पर दृस्टी मानी जाएगी जबकि गुरु की सूर्य पर नहीं | इसी प्रकार अन्य ग्रहो का प्रभाव होगा |

3)भाव स्वामी की अपेक्षा भाव का बलाबल प्रमुख होता हैं जिसके अनुसार यदि किसी भाव पर अशुभ प्रभाव पड़ रहा होतो उसके स्वामी का बली होना अधिक सहायक नहीं होगा जबकि शुभ प्रभाव होने पर उसके स्वामी की निर्बलता कम करने मे सहायक होगा | कुंडली फलादेश की विधि


कुंडली मे 1,5,9 भाव सबसे शुभ,4,7,10 शुभ,2,3,11 सम तथा 6,8,12 अशुभ कहें जाते हैं |

1)ग्रह अपनी मूल त्रिकोण राशि का पूरा फल व स्वराशि का आधा फल प्रदान करते हैं अर्थात मेष लग्न मे गुरु भाग्य स्थान का पूरा व द्वादश स्थान का आधा फल प्रदान करेगा यह नियम फलदीपिका के 15वे अध्याय भाव चिंता से लिया गया हैं |

2)ज्योतिष रत्नाकर के अनुसार ग्रहो का अन्य ग्रहो व भावो पर प्रभाव उनके दीप्तांशो पर निर्भर करता हैं जो इस प्रकार से हैं |

सूर्य 10 अंश,चन्द्र 5 अंश,मंगल 4 अंश,बुध 3.5 अंश,गुरु व शनि 4.5 अंश,शुक्र 3 अंश,राहू केतू जिस ग्रह की राशि मे होंगे उनके दीप्तांश उसी ग्रह के अनुसार होंगे |

उदाहरण के लिए यदि लग्न 13 अंश का हैं और भाग्य स्थान मे गुरु 18 अंश का हैं तो गुरु का प्रभाव किसी भी दृस्ट गृह व भाव पर 4.5 अंश आगे या पीछे तक ही होगा इस प्रकार गुरु के अंश लग्न के अंश से अधिक होने पर उसका प्रभाव ना तो नवम भाव पर होगा और ना ही लग्न पर यदि यह अंतर 4.5 से कम होता तब प्रभाव होता | इस प्रकार अंतर अधिक होने पर गुरु का प्रभाव किसी भी भाव पर नहीं हैं | अब यदि तीसरे भाव मे सूर्य 10 अंश का हैं तो उसका प्रभाव तीसरे व नवम दोनों भावो पर होगा गुरु के अंश मे केवल 8 का अंतर होने से (सूर्य दीप्तांश से ज़्यादा) सूर्य की गुरु पर दृस्टी मानी जाएगी जबकि गुरु की सूर्य पर नहीं | इसी प्रकार अन्य ग्रहो का प्रभाव होगा |

3)भाव स्वामी की अपेक्षा भाव का बलाबल प्रमुख होता हैं जिसके अनुसार यदि किसी भाव पर अशुभ प्रभाव पड़ रहा होतो उसके स्वामी का बली होना अधिक सहायक नहीं होगा जबकि शुभ प्रभाव होने पर उसके स्वामी की निर्बलता कम करने मे सहायक होगा | 4)नवांश कुंडली का महत्व

5)वक्री ग्रह यदि अस्त ना होतो युवा अवस्था मे नीच राशि पर होने पर भी बली होते हैं |

6) जो ग्रह जिस भाव मे हो उसके स्वामी का बलाबल भाव मे बैठे ग्रह को प्रभावित करेगा | उदाहरण के लिए सिंह राशि मे बैठे मंगल को सूर्य का बली होना बढ़ाएगा जबकि बलहीन होना मंगल को निर्बल करेगा | यह बल दो प्रकार का होगा साधारण बल तथा विशेष बल |

साधारण बल मे ग्रह का अस्त/ऊंच/नीच/मित्र राशि मे होना तथा बाल/कुमार/प्रोढ़/वृद्द अवस्था मे होना |
विशेष बल मे ग्रह की भाव पर स्थिति,ग्रह की मूल त्रिकोण/सम राशि पर पड़ने वाले प्रभाव/जिस राशि मे ग्रह हैं उसके स्वामी की स्थिति |

आइए अब उपरोक्त नियमो के अनुसार कुंडली का अध्ययन करते हैं | 5/11/1970 14:25 दिल्ली की यह पत्रिका कुम्भ लग्न व कुम्भ नवांश की हैं |

1)प्रथम नियम के अनुसार कुंडली के शुभ,अशुभ व सम ग्रहो का निर्धारण करे |

सूर्य सप्तम भाव का स्वामी होने से शुभ तथा साथ मे मारकेश भी हैं |

चन्द्र छठे भाव का स्वामी होने से अशुभ हैं |

मंगल सम राशि दशम मे व मूल त्रिकोण राशि तीसरे भाव मे होने से शुभ हैं  |

बुध सम राशि पंचम मे व मूल त्रिकोण राशि अष्टम मे होने से अशुभ हैं परंतु पंचम भाव के  फल भी देगा जिसके लिए हमें कारक गुरु को भी देखना होगा |गुरु मूल त्रिकोण राशि लाभ भाव मे होने से तथा सम राशि दूसरे भाव मे होने से सम ग्रह हैं इसकी स्थिति के अनुसार ही इसका फल होगा |

शुक्र भाग्य(मूल त्रिकोण) व चतुर्थ भाव(सम राशि) का स्वामी होने से अत्यंत शुभ हैं |

शनि लग्न व द्वादश का स्वामी होने से शुभ हैं |


इस प्रकार इस कुंडली मे सूर्य,शुक्र,शनि,मंगल शुभ तथा चन्द्र,बुध,अशुभ व गुरु सम ग्रह हुये ।

ग्रह और रोग

*प्रत्येक ग्रह हमारे शरीर पर प्रभाव डालते है। जिससे की हमे बीमारियों का सामना करना पड़ता है।नीचे में बता रहा हूँ कि कौनसा  ग्रह  कौनसा रोग दे सकते  है ⁉*

 *सूर्य और रोग:*
-------------------------------
*★विवेक  : विवेक खोना ।*
*★दिमाग : दिमाग और शरीर का दायां भाग सूर्य से प्रभावित होकर रोग देता है।*
*★अकड़न :सूर्य के कारण खराब होने पर शरीर में अकड़न आ सकती है।*
*★थूक का आना :मुंह में थूक आते रहता है।*
*★दिल का रोग :दिल के रोग का होना।*  
*★धड़कन :धड़कन का कम-ज्यादा होते रहना ।*
*★दांतों  : दांतों में तकलीफ का होना।*
*★बेहोशी और सिरदर्द  :का रोग होना ।*

*चंद्र ग्रह और रोग :*
-----------------------------------
*★दिल और बायां भाग : दिल और शरिर के (left) बायां भाग मे चंद्र ग्रह का प्रभाव होने से रोग देता है।*
*★रोग : सर्दी-जुकाम, मिर्गी, पागलपन, बेहोशी, मासिक धर्म, फेफड़े संबंधी रोगो का होना।*
*★मासिक धर्म : स्त्रि जात्का को मासिक धर्म ठीक से न होना।★स्मरण शक्ति कमजोर होना,   ★मानसिक तनाव और मन में घबराहट होना, शंका और अनिश्चित भय का होना ।*
*★आत्महत्या : मन में आत्महत्या करने के विचार  आते रहेना ।*

*मंगल और रोग :*
--------------------------------
*★रोग : नेत्र रोग, उच्च रक्तचाप, वात रोग, गठिया रोग, फोड़े-फुंसी, जख्मी या चोट। ।*
*★बुखार : बार-बार बुखार का आना ।*
*★रोग :शरीर में कंपन ,गुर्दे में पथरी,शारीरिक ताकत मे कमी ,।*
*★शरीर के जोड़  :शरीर के जोड़ मे समस्या का होना ।*
*★रक्त : मंगल से रक्त संबंधी बीमारी हो सकती है  ।*
*★बच्चे पैदा होने मे समस्या हो सकती ।*

*बुध ग्रह और रोग :*
------------------------------------
*★तुतलाहट : तुतलाहट का होना।*
*★: सूंघने की शक्ति क्षीण होना ।*
*★दांतों :  दांतों का खराब होना।*
*★मित्र : मित्र से संबंध ख़राब होना।*
*★बहन, बुआ और मौसी  : बहन, बुआ और मौसी पर मुसीबत आना।*
*★नौकरी या व्यापार : नौकरी या व्यापार में हानि होना।*
*★बदनामी  :बदनामी होती है। राहु हो तो बदनामी हेतु प्राण देने के मानसिक रूप रहते हैं  l*

 *गुरु ग्रह और रोग :*
-------------------------------------
*रोग :  पेचिश, रीढ़ की हड्डी में दर्द, कब्ज, रक्त विकार, कानदर्द, पेट फूलना, जिगर में खराबी ,अस्थमा, दमा, श्वास आदि के रोग, गर्दन, नाक या सिर में दर्द , वायु विकार, फेफड़ों में दर्द ।*

*राहु के रोग  :*
------------------------
*रोग : गैस प्रॉब्लम, बाल झड़ना , उदर रोग, बवासीर, पागलपन ।*
*मानसिक तनाव  : मानसिक तनाव का रहना ।*
*नाखून :नाखून का  टूटते रहना ।*
*मस्तिष्क : मस्तिष्क में पीड़ा और दर्द का बने रहना  ।*
*पागलखाने, दवाखाने या जेलखाने जा  सकता है।*
*राहु अचानक से कोई बड़ी बीमारी पैदा हो सकती  है।*

 *केतु का रोग  :*
-------------------------------
*पेशाब :पेशाब का रोग, कान, रीढ़, घुटने, लिंग, जोड़ की समस्या ।*
*संतान : संतान उत्पति में कठिनाई ।*
*बाल  : सिर के बाल झड़ते हैं।*
*नसों :शरीर की नसों में कमजोरी का होना ।*
*चर्म रोग :  चर्म रोग होता है।*
*कान :सुनने की क्षमता कमजोर होना ।*

विशेष महत्वपूर्ण योग 4

  अमला योग-
परिभाषा -जिस जातक की कुंडली में चन्द्र लग्न से १० वे भाव में कोई भी शुभ ग्रह बुध, शुक्र, गुरु में से कोई भी ग्रह हो तो, इस योग का निर्माण होता है।
फल- जिस जातक की कुंडली में यह योग होता है , उसको अपने जीवन में सभी भौतिक सुख सुविधा प्राप्त होती है।  यह जातक गुणवान , चरित्रवान , तथा प्रसिद्ध होता है।  साथ ही पूरा जीवन सुख पूर्वक जीता है।
विशेष -इन ग्रहों के बलवान होने पर ही यह फल पूर्ण रूप से घटित होगा , अन्यथा कुछ मात्रा में फल जरूर मिलेगा।
नोट -अन्य ग्रहों की युति से फल बदल जायेगे।

शनिवार, 23 सितंबर 2017

कालसर्प प्रकार, दोष, निवारण

कुंडली के बारह भावों में विभिन्न ग्रहों की स्थितियां बनती हैं जिनके आधार पर विश्लेषण करने पर योग बनते हैं. इन्हीं योगों में एक स्थिति बनती हैं - काल सर्प दोष की.

काल सर्प योग में काल यानि राहु के नक्षत्र के स्वामी यम यानि काल और सर्प यानि केतु के नक्षत्र स्वामी आश्‍लेषा के स्वामी सर्प से मिल कर बनता है.
इस योग में राहु और केतु के बीच सभी गृह आते हैं और इसीलिए इन दोनों छाया ग्रहों का आपके सम्पूर्ण भाग्य पर प्रभाव पड़ता है.

कालसर्प योग से आपके सभी कार्यों में बाधा आती है, कड़ी मेहनत का कोई परिणाम नहीं निकलता, संतान से कष्ट मिलता है और शत्रु आप पर हावी होने लगते हैं.

सभी भावों के हिसाब से पूरे बारह कालसर्प योग बनते हैं.
1- अनंत कालसर्प योग
2- कुलिक कालसर्प योग
3- वासुकि कालसर्प योग
4- शंखपाल कालसर्प योग
5- पद्म कालसर्प योग
6- महापद्म कालसर्प योग
7- शेषनाग कालसर्प योग
8- विषाक्त कालसर्प योग
9- घातक कालसर्प योग
10- तक्षक कालसर्प योग
11- कर्कोटक कालसर्प योग
12- शंखनाद कालसर्प योग

ज्योतिषाचार्य प्रह्लाद शर्मा ने काल सर्प दोष की पहचान और निवारण दोनों दिए हैं, आप अपनी जन्म पत्री में इनका मिलान कर के कालसर्प दोष होने की पुष्टि कर सकते हैं.

१- अनंत कालसर्प योग
योग:
यदि जातक के जन्‍मांग के प्रथम भाव में राहु और सप्‍तम भाव में केतु हो तथा इसके बीच सारे ग्रह आ जाये तो अनंत काल सर्प योग होता हे.
प्रभाव:
जातक के घर में कलह होती रहती है. परिवार वालों या मित्रों से धोखा मिलने की आशंका हमेशा बनी रहती है. मानसिक रूप से व्‍यक्ति परेशान रहता है, हालांकि ऐसे लोग सिर्फ अपने मन की ही करते हैं.
यतिउपाय:
अनन्त कालसर्प दोष होने पर नागपंचमी के दिन एकमुखी, आठमुखी या नौमुखी रुद्राक्ष धारण करें.
यदि इस दोष के कारण स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता है तो नागपंचमी के दिन रांगे (एक धातु) से बना सिक्का पानी में प्रवाहित करें.

२-. कुलिक कालसर्प योग
योग:
यदि जातक के जन्‍मांग के द्वितीय भाव में राहु और अष्‍टम भाव में केतु हो तथा इसके बीच सारे ग्रह आ जाये तो यह कुलिक काल सर्प योग होता है.
प्रभाव:
इस वजह से जातक गुप्‍त रोग से जूझता रहता है. इनके शत्रु भी अधिक होते हैं परिवार में परेशानी रहती है और वाणी में कटुता रहती है.
यतिउपाय:
कुलिक नामक कालसर्प दोष होने पर दो रंग वाला कंबल अथवा गर्म वस्त्र दान करें.
चांदी की ठोस गोली बनवाकर उसकी पूजा करें और उसे अपने पास रखें.

३- वासुकि कालसर्प योग
योग:
यदि जातक के जन्‍मांग में राहु तृतीय और केतु भाग्‍य भाव यानि 9वें भाव में हो तथा इसके बीच सारे ग्रह आ जाये तो वासुकि काल सर्प योग होता है.
प्रभाव:
ऐसे लोगों को भाईयों से कभी सहयोग नहीं मिलता. ऐसे लोगों का स्‍वभाव चिड़चिड़ा होता है. ये लोग कितना भी कष्‍ट क्‍यों न आ जाये, किसी से कहते नहीं.
यतिउपाय:
वासुकि कालसर्प दोष होने पर रात्रि को सोते समय सिरहाने पर थोड़ा बाजरा रखें और सुबह उठकर उसे पक्षियों को खिला दें. - नागपंचमी के दिन लाल धागे में तीन, आठ या नौमुखी रुद्राक्ष धारण करें.

४- शंखपाल कालसर्प योग
योग:
यदि जातक के जन्‍मांग में राहु चौथे भाव में और केतु दसवें भाव में हो तथा इसके बीच सारे ग्रह आ जाये तो शंखपाल कालसर्प योग बनता है.
प्रभाव:
ऐसे लोगों का माता पिता से हमेशा अनबन बन रहता है और ये लोग पारिवारिक कलह में ही उलझे रहते हैं. इनका मित्रों के साथ भी नहीं बनता.
यतिउपाय:
शंखपाल कालसर्प दोष के निवारण के लिए 400 ग्राम साबूत बादाम बहते पानी में प्रवाहित करें.
शिवलिंग का दूध से अभिषेक करें.

५- पद्म कालसर्प योग
योग:
यदि जातक के जन्‍मांग में राहु पांचवें भाव में हो और केतु ग्यारहवें भाव में हो तथा इसके बीच सारे ग्रह आ जाये तो पद्म कालसर्प योग बनता है.
प्रभाव:
इसके कारण जातक के विद्याध्ययन में कुछ व्यवधान उपस्थित होता है. परंतु कालान्तर में वह व्यवधान समाप्त हो जाता है. उन्हें संतान प्राय: विलंब से प्राप्त होती है, या संतान होने में आंशिक रूप से व्यवधान उपस्थित होता है. जातक को पुत्र संतान की प्राय: चिंता बनी रहती है.
यतिउपाय:
शुभ मुहूर्त में मुख्य द्वार पर चांदी का स्वस्तिक एवं दोनों ओर धातु से मिर्मित नाग चिपका दें.
- पद्म कालसर्प दोष होने पर नागपंचमी के दिन से प्रारंभ करते हुए 40 दिनों तक रोज सरस्वती चालीसा का पाठ करें.
जरुरतमंदों को पीले वस्त्र का दान करें और तुलसी का पौधा लगाएं.

६- महापद्म कालसर्प योग
योग:
राहु छठे भाव में और केतु बारहवे भाव में और इसके बीच सारे ग्रह अवस्थित हों तथा इसके बीच सारे ग्रह आ जाये तो महापद्म कालसर्प योग बनता है.
प्रभाव:
इस योग में जातक शत्रु विजेता होता है, विदेशों से व्यापार में लाभ कमाता है लेकिन बाहर ज्यादा रहने के कारण उसके घर में शांति का अभाव रहता है. इस योग के जातक को एक ही चिज मिल सकती है धन या सुख. इस योग के कारण जातक यात्रा बहुत करता है उसे यात्राओं में सफलता भी मिलती है परन्तु कई बार अपनो द्वारा धोखा खाने के कारण उनके मन में निराशा की भावना जागृत हो उठती है.
यतिउपाय:
महापद्म कालसर्प दोष के निदान के लिए हनुमान मंदिर में जाकर सुंदरकांड का पाठ करें.
नागपंचमी के दिन गरीब, असहायों को भोजन करवाकर दान-दक्षिणा दें.

७- शेषनाग काल सर्प योग
योग:
यदि किसी की कुंडली के बारहवें भाव में राहु और छठे भाव में केतु के अंतर्गत सभी ग्रह विद्यमान हों तथा इसके बीच सारे ग्रह आ जाये तो शेषनाग काल सर्प योग होता है.
प्रभाव:
ऐसे लोगों के खिलाफ लोग तंत्र-मंत्र का इस्‍तेमाल ज्‍यादा करते हैं. इन्‍हें मानसिक रोग लगने की आशंका ज्‍यादा रहती है. यदि राहु के साथ मंगल है तो इनके सारे शत्रु परस्‍त हो जाते हैं. यानी इनका कोई कुछ नहीं बिगाड़ पाता है. विदेश यात्रा से लाभ मिलते हैं, लेकिन साझेदारी के व्‍यापार में हानि उठानी पड़ती है.
यतिउपाय:
हनुमान चालीसा का 108 बार पाठ करें और मंगलवार के दिन हनुमान जी की प्रतिमा पर लाल वस्त्रा सहित सिंदूर, चमेली का तेल व बताशा चढ़ाएं.
किसी शुभ मुहूर्त में मसूर की दाल तीन बार गरीबों को दान करें.

८- विषाक्‍त कालसर्प योग
योग:
यदि व्‍यक्ति की कुंडली के ग्‍यारहवें भाव में राहु और पांचवें भाव में केतु सभी ग्रहों को समेटे हुए हो विषाक्‍त काल सर्प योग होता है.
प्रभाव:
ऐसे लोग अच्‍छी विद्या हासिल करते हैं. इन्‍हें पुत्र की प्राप्ति होती है. ये उदारवादी होते हैं, लेकिन कभी-कभी पारिवारिक कलह का सामना करना पड़ता है. ये कभी भी किसी पर मेहरबान हो सकते हैं.
यतिउपाय:
श्रावण मास में 30 दिनों तक महादेव का अभिषेक करें.
सोमवार को शिव मंदिर में चांदी के नाग की पूजा करें, पितरों का स्मरण करें तथा श्रध्दापूर्वक बहते पानी या समुद्र में नागदेवता का विसर्जन करें.

९- घातक काल सर्प योग
योग:
घातक काल सर्प योग तब बनता है, जब कुंडली के 10वें भाव में राहु और चतुर्थ भाव में केतु तथा इसके बीच सारे ग्रह आ जाये.
प्रभाव:
ऐसे लोगों के वैवाहिक जीवन में तनाव बना रहता है. पै‍तृक संपत्ति जल्‍दी नहीं मिल पाती है. ऐसे लोग नौकरी या व्‍यापार के लिये हमेशा परेशान रहते हैं. कर्ज भी बहुत जल्‍दी चढ़ जाता है. हृदय और सांस के रोग की परेशानी बनी रहती है.
यतिउपाय:
नित्य प्रति हनुमान चालीसा का पाठ करें व प्रत्येक मंगलवार का व्रत रखें और हनुमान जी को चमेली के तेल में सिंदूर घुलाकर चढ़ाएं तथा बूंदी के लड्डू का भोग लगाएं.
एक वर्ष तक गणपति अथर्वशीर्ष का नित्य पाठ करें.

१०- तक्षक कालसर्प योग
योग:
केतु लग्न में और राहु सप्तम स्थान में हो तथा इसके बीच सारे ग्रह आ जाये तो तक्षक नामक कालसर्प योग बनता है. कालसर्प योग की शास्त्रीय परिभाषा में इस प्रकार का अनुदित योग परिगणित नहीं है. लेकिन व्यवहार में इस प्रकार के योग का भी संबंधित जातकों पर अशुभ प्रभाव पड़ता देखा जाता है. प्रभाव:
क्षक नामक कालसर्प योग से पीड़ित जातकों को पैतृक संपत्ति का सुख नहीं मिल पाता. या तो उसे पैतृक संपत्ति मिलती ही नहीं और मिलती है तो वह उसे किसी अन्य को दान दे देता है अथवा बर्बाद कर देता है. ऐसे जातक प्रेम प्रसंग में भी असफल होते देखे जाते हैं. गुप्त प्रसंगों में भी उन्हें धोखा खाना पड़ता है. वैवाहिक जीवन सामान्य रहते हुए भी कभी-कभी संबंध इतना तनावपूर्ण हो जाता है कि अलगाव की नौबत आ जाती है.
यतिउपाय:
कालसर्प दोष निवारण यंत्रा घर में स्थापित करके, इसका नियमित पूजन करें.
सवा महीने जौ के दाने पक्षियों को खिलाएं

११- कर्कोटक कालसर्प योग
योग:
केतु दूसरे स्थान में और राहु अष्टम स्थान में तथा इसके बीच सारे ग्रह आ जाये तो कर्कोटक नाम कालसर्प योग बनता है.
प्रभाव:
ऐसे जातकों के भाग्योदय में इस योग की वजह से कुछ रुकावटें अवश्य आती हैं. नौकरी मिलने व पदोन्नति होने में भी कठिनाइयां आती हैं. कभी-कभी तो उन्हें बड़े ओहदे से छोटे ओहदे पर काम करनेका भी दंड भुगतना पड़ता है.
यतिउपाय:
हनुमान चालीसा का 108 बार पाठ करें और पांच मंगलवार का व्रत करते हुए हनुमान जी को चमेली के तेल में घुला सिंदूर व बूंदी के लड्डू चढ़ाएं.

1२- शंखचूड़ कालसर्प योग
योग:
केतु तीसरे स्थान में व राहु नवम स्थान में तथा इसके बीच सारे ग्रह आ जाये तो शंखचूड़ नामक कालसप्र योग बनता है.
प्रभाव:
इस योग से पीड़ित जातकों का भाग्योदय होने में अनेक प्रकार की अड़चने आती रहती हैं. व्यावसायिक प्रगति, नौकरी में प्रोन्नति तथा पढ़ाई-लिखाई में वांछित सफलता मिलने में जातकों को कई प्रकार के विघ्नों का सामना करना पड़ता है. इसके पीछे कारण वह स्वयं होता है क्योंकि वह अपनो का भी हिस्सा छिनना चाहता है. अपने जीवन में धर्म से खिलवाड़ करता है.
यतिउपाय:
महामृत्युंजय कवच का नित्य पाठ करें और श्रावण महीने के हर सोमवार का व्रत रखते हुए शिव का रुद्राभिषेक करें.
चांदी या अष्टधातु का नाग बनवाकर उसकी अंगूठी हाथ की मध्यमा उंगली में धारण करें. किसी शुभ मुहुर्त मेंअपने मकान के मुख्य दरवाजे पर चांदी का स्वस्तिक एवं दोनों ओर धातु से निर्मित नाग चिपका दें

मंगलवार, 19 सितंबर 2017

द्वितीय भाव - वाणी पर कैसे होता है ग्रहों का असर

कुंडली में द्वितीय भाव वाणी का भी होता है।

 आज मै आपको ये जानकारी देने जा रही हूँ जब कोई *ग्रह वाणी भाव में अकेला* बैठा हो तो उसका वाणी पर क्या असर होगा। ये सिर्फ एक General Opinion है अतः यहाँ हम द्रष्टि/नक्षत्र/राशि या युति का विचार नही करेगे।

 यदि वाणी भाव में सूर्य हो तो जातक की वाणी तेजस्वी होगी।वाणी आदेशात्मक ज्यादा होगी।गलत बात होने पर जातक जोरदार आवाज से प्रतिक्रिया देगा।

 यदि वाणी भाव में चंद्र हो तो जातक की वाणी शालीन होगी।जातक बहुत धीरे और कम शब्दों में अपनी राय रखेगा।जातक की मधुर वाणी की दुनिया कायल होगी।जातक बात रखने से पहले आज्ञा माँगेगा।

 यदि वाणी भाव में मंगल हो तो जातक की वाणी उग्र और तेज होगी। जातक की बात पड़ोसियों के कान तक पहुँच जायेगी।गुस्सा आने पर जातक गाली-गलौच में कभी निःसंकोच नही करेगा।जातक चिल्लाने और शौर मचाने में माहिर होगा।

 यदि वाणी भाव में बुध हो तो जातक बेवजह बातूनी होगा।मुफ्त की राय देना जातक का शौक का शौक होगा।चूंकि अकेला बैठा बुध कभी शुभकर्तरी में नही होता,यदि बुध पापकर्तरी में हुआ तो जातक चुगलखोर होगा।

 यदि वाणी भाव में गुरु है तो जातक की वाणी सकारात्मक होगी जातक उपदेशक की तरह अपनी बात को विस्तारपूर्वक कहता है जैसे -“मतलब/अर्थात/Means/म्हणजे कि” ये उसकी बातो में ज्यादा प्रयोग होता है। जातक पुरुष से तीव्र और स्त्रियों से मधुर वाणी में बात करने वाला होता है।

 यदि वाणी भाव में शुक्र हो तो जातक की वाणी अत्यंत विनम्र होगी।जातक कवि,गायक भी हो/बन सकता है।वाणी में प्यार और आनंद की मिठास होगी।जातक की बाते रोमांटिक होती है।

 यदि वाणी भाव में शनि हुआ तो जातक की वाणी बहुत संतुलित और संयमित होगी। शब्दों की मर्यादा का उल्लंघन बहुत कम या ना के बराबर।जातक हमेशा “शासन कर रही सरकार” का वाणी से विरोध करेगा।

 यदि वाणी भाव में राहू हुआ तो जातक गप्पे मारने वाला,बेवजह बहस करने वाला होगा।जातक के मुँह से हमेशा गाली/अपशब्द निकलेगे। वाणी नकारात्मक होगी।सीटी बजाना जातक का शौक हो सकता है।

 यदि वाणी भाव में केतु हो तो जातक मुँहफट होगा।यदि केतु शुभकर्तरी में हो तो जातक जो भी कहेगा उसकी 70% बाते/भविष्यवाणी सही होगी..और यदि केतु पापकर्तरी में हो तो जातक हमेशा “हाय देने वाला” और “कडवी जुबान” रहेगा साथ ही उसकी बाते 70% सच साबित होगी।

सातवां भाव काम/पार्टनरशिप

पद्धति द्वारा सप्तम, अर्थात काम, के भाव पर प्रस्तुत लेख है |. सप्तम भाव लग्न का सम्मुख अर्थात पूरक भाव है |. अतः संसार में आना अर्थात देह का प्रकट होना लग्न है तो उसका कारण है |

 सम्मुख में काम का भाव, और से मुक्ति मिले तो संसार में आने से भी मुक्ति मिलेगी |. देह का काम से सीधा सम्बन्ध है, काम की पूर्ति हेतु ही जीव देह धारण करता है |. लग्न का सम्बन्ध है देह और उसके गुण-अवगुण से, सांसारिक चरित्र एवं प्रकट स्वभाव से, अतः काम की पूर्ति का भी इन दैहिक लक्षणों से सम्बन्ध है |

 संसार मे आपका प्रकट चरित्र और प्रकट और प्रकट स्वभाव कैसा है,इसपर काम की पूर्ति या आपूर्ति निर्भर करती है | दोनों भावो का एक दूशरे पर पूर्ण दृष्टि है | काम (सप्तम) से दूशरा भाव है अष्टम जो मृत्यु, दैहिक जीवन मे कमजोरियों अर्थार्त छिद्र एवं गुप्त ज्ञान का भाव है, एवं धनभाव का सम्मुख होने के कारन ऋण का भाव है |

 अष्टम भाव काम का धनभाव है, अतः अष्टम भाव शुभ रहे तो काम की पूर्ति की सम्भावना मे वृद्धि होती है, काम हेतु जो वाक्य-पटुता चाहिये वह मिलती है, काम की पूर्ति मे कुटुंब से सहयोग मिलता है, अथवा काम के सम्बन्ध वाला नया कुटुंब प्राप्त होता है | काम से तीसरा भाव है धर्म का नवम भाव | अतः धर्म भाव शुभ रहे तो काम हेतु पराक्रम की योग्यता बढती है , इस कार्य में भाइयों से सहयोग मिलता है | किन्तु काम का स्वामी धर्म भाव मे रहे तो धर्म को काम नस्ट करता है , जबकि कामभाव में धर्मेश रहे तो काम पे धर्म का नियंत्रद बढ़ता है | काम का चतुर्थ है कर्म का दसम भाव | अतःदसम शुभ रहे तो काम के क्षेत्र मे आत्मीय सम्बन्ध बनता है,हार्दिक प्रेम का सम्बन्ध बनता है , जो मेलापक अच्छा होने पे दृढ हो जाता है |

 दसम शुभ हो तो दाम्पत्य जीवनी मे मत्र्पझ से सहयोग मिलता है और घर का सुख भी मिलता है | एकादस भाव शुभ हो तो काम की बुद्धि तीव्र होती है क्यूंकि वह काम से पचम है | द्वादश शुभ हो तो काम के मार्ग में शत्रु और रोग बाधा नही बनते | लग्न शुभ हो तो काम की पूर्ति मे देह और स्वभाव सह्वोग करता है | धनभाव शुभ हो तो काम की पूर्ति में मृतु या दुर्घटना और गंभीर रोग आदि बाधक नही बनते | तीसरा भाव शुभ हो तो काम मे भाग्य साथ देता है , वह काम का भाग्यभाव है |चौथा भाव शुभ हो तो काम की पूर्ति मे जो आवश्य कर्म चाहिए वे बेखटके होने लगते है  | पचम भाव शुभ हो तो काम हेतु जो आय चाहिए उसमे बधा दूर होती है  |

 षष्ठ भाव शुभ हो तो काम के बाधक दूर होते है | उपरोक्त फल केवल काम के संदर्भ से सभी भावो का फल है | उन भावो का लग्न के या अन्य भावो के संदर्भो मे जो फल है उनका समावेश नही किया गया है | भावेसो के फलो का भी समवेस नही किया गया है | आरूढ़ पदों और कार्कांश एवं षोडश वर्ग आदि कुंडलियों मे यह परिक्रिया फलो मे सूक्क्षमता लाने मे सहायक होगी | उपरोक्त फल मे एक विशेषता है – काम त्रिकोण मे सप्तम के साथ एकादस तथा तृतीय भाव होते है | अतः काम की पूर्ति मे समस्त बारह भावो मे सर्वाधिक शुभ यही तीन भाव हनी चैहिये – पराक्रम एवं आमदनी दुरुस्त रहने से काम की पूर्ति होती है | सप्तम भाव को कुछ लोग धर्मपत्नी का भाव समझ लेते है | सप्तम भाव काम – पत्नी का भाव है , धर्म – पत्नी का भाव नवम है जहा से यज्ञ|दी धर्म के विषय देखे जाते है | बिना पत्नी वाले को यज्ञ का अधिकार नहीं होता | किन्तु धर्मपत्नी से भी काम का सम्बन्ध सप्तम भाव ही बनता है | इस जटिलता को आधुनिक लोग समझ नहीं पते क्यूंकि वैदिक विवाह का अर्थ लोग भूल चुके है , जिसमे पत्नी काम की पूर्ति का साधन नही बल्कि धर्म की पूर्ति का साधन है , अतः “धर्मपत्नी” कहलाती है , जिसपर समूचा गृहस्थ – धर्म टिका होता है | अब दुसरे द्रितिकोद से देखे | लग्न से सप्तम काम है , अतः  पूर्ण दृष्टी का सम्बन्ध है | एक दूशरे के पूरक है |

 द्रितीय भाव से षष्ठ है काम , अत: धन का सत्रु है – जो काम के पीछे दोड़ता है उनके धन का नाश होता है और कुटुंब से सम्बन्ध बिगडते है |

 तृतीय भाव से पचम है काम , अत: पराक्रम का अक्ल काम देता है , किस प्रकार का और कौन सा पराक्रम करे यह अक्ल काम की वासना से प्राप्त होती है |

 चतुर्थ से चतुर्थ है काम , अत: काम तो घर का भी घर है गृहस्त आश्रम का आधार है , भूमि – भवन एवं मैत्री आदि हार्दिक संबंधो को निर्धारित करने वाली नीव है |

 पचम से तीसरा है काम , अत: बुद्धि और सांसारिक विधाओ का पराक्रम – भाव है काम कामवासना ना हो तो लोग सांसारिक विधाओ के लिए पराक्रम करना छोड़ दे |

 षष्ठ से दूशरा है काम ,

अत: कामभाव शुभ हो तो शत्रु एवं रोगों के विरुद्ध धन आदि द्वारा रक्षा करना है , कामभाव असुभ हो तो शत्रु एवं रोग से रक्षा हेतु धन आदि साधनों का नाश होता है | अष्टम से द्वादश है काम , अत: मोक्ष – त्रिकोण के गुप्तज्ञान का नाश काम करता है , एवं अष्टम अशुभ हो तो काम हेतु भी छिद्र या कमजोरियां मे वृधि होती है | नवंम से एकादस है काम ,अत: धर्म हेतु यह लाभ का भाव है ,काम शुभ हो तो धर्म मे सहायक है | दसम से दसम है काम , अत: काम भाव शुभ हो तो कर्मशीलता बढती है , पितृपक्ष से सहयोग मिलता है | काम से निरास लोग कर्म ठीक से नही कर पाते | एकादस से नवम है काम , आय या लाभ का धर्म है काम , अर्थार्त सप्तम भाव के बली होने से लाभ मे वृधि हेतु धार्मिक कार्य संपन्न होते है |

द्वादश से अष्टम है काम ,मोक्ष की मृतु है काम !

दूसरा विवाह और अन्य स्त्रीयां

प्रिय पाठक गण आज मै आपको द्वि विवाह व उसमे सहायक कुछ योगो की जानकरी इस लेख के माध्यम से प्रस्तुत करने का प्रयास करुंगा।
प्रायः अधिकांशतः सभी को ज्ञात होता है कि हमारी जन्म कुंडली का सप्तम भाव भार्या व विवाह स्थान कहलाता है । लेकिन यह तथ्य बहुत कम व्यक्तियो को ज्ञात होता है कि जीवन साथी से अलगाव के पश्चात आगामी विवाह योग अथवा भार्या या स्त्री का विचार कहां से करें और किस भाव से करें । इस विषय मे भी आपको विद्वानो का मतांतर देखने को मिल सकता है ।
हमे ज्ञात है कि सप्तम स्थान भार्या अर्थात पत्नी स्थान होता है लेकिन अगर हमारी पहली पत्नी से हमारा अलगाव होता है या अपनी पहली पत्नी के अतिरिक्त दूसरी स्त्री का विचार करें या संबध बनाये तो वह हमारी पत्नी की सौतन कहलायेगी अर्थात सप्तम भाव से छटा भाव यानी कि हमारी कुंडली का 12वां भाव दूसरी स्त्री को सूचित करता है। इसी तरह
तीसरी स्त्री का स्थान 12वे से छटा यानी कि 5वां स्थान होता है। क्रमशः इसी तरह आप अन्य स्त्रीयो का विचार कर सकते है।
दूसरे विवाह व स्त्रीयो से संबधित कुछ योग निम्नलिखित है ।
यदि सप्तमेश और द्वितीयेश शु्क्र के साथ या पाप ग्रह के साथ होकर 6,8,12 भाव मे हो तो दूसरी शादी का योग बनता है।
यदि लग्न,सप्तम, चंद्र द्विस्वभाव राशियो मे पड रहे हो तो दूसरे विवाह के योग मे सहायक होते है।
यदि लग्नेश ,सप्तमेश , जन्मेश्वर व शुक्र द्विस्वभाव राशियो मे हो तो भी दूसरे विवाह के योग बनते है।
यदि सातवे घर का मालिक शुभ ग्रहो से युक्त होकर 6,8,12 मे पडा हो और सातवां भाव पाप युक्त हो तो दूसरी शादी का योग बनता है ।
लग्नेश उच्च ,वक्री ,मूलत्रिकोण,स्वग्रही या अच्छे वर्ग का हो तो बहुत सी स्त्रीयो की प्राप्ती कराता है।
यदि सातवां भाव पापयुक्त हो व सातवे का मालिक नीच राशि मे हो तो दो विवाह का योग बनता है।
चंद्रमा या शुक्र सातवे हो तो जीवन मे अनेक स्त्रीयो का योग बनता है।
यदि नोवें घर का मालिक सातवे घर मे हो और सातवे घर का मालिक चौथे घर मे हो तथा सातवे और ग्यारहवें घर का मालिक केन्द्र मे हो तो अनेक स्त्री़यो का योग बनता है।
दसवे घर के मालिक और उसका नवांशपति दोनो शनि के साथ हो और साथ मे छटे घर का मालिक भी हो या छटे घर के मालिक देख रहा हो तो अनेक स्त्रीयो का योग बनता है।
यदि 1,2,7 भावो मे कोई पापी ग्रह हो और सातवे का मालिक नीच या अस्त हो तो अनेक स्त्रीयो का योग बनाता है।
...............और इस तरह काफी योग है।

राहु:एक परिचय

क्या-है-राहू

हिरन्यकश्यप की सिंहिका नामक पुत्री का विवाह विप्रचिति नामक दानव के साथ हुआ था उसी के गर्भ से राहु ने जन्म लिया।

 विप्रचिति हमेशा दानवी शक्तियों, आसुरी शक्तियों से दूर रहे और साथ ही समुद्र मंथन के समय अमृतपान के कारण राहु को अमरत्व एवं देवत्व की प्राप्ति हुई। तभी से शिव भक्त राहु अन्य ग्रहों के साथ ब्रह्मा जी की सभा में विराजमान रहते हैं इसलिए इन्हें ग्रह के रूप में मान्यता मिली।

 क्या है राहू ?

 जन्मकुंडली में राहु पूर्व जन्म के कर्मों के बारे में बताता है।

राहु परिवर्तनशील, अस्थिर प्रकृति का ग्रह माना जाता है। राहु में अंतर्दृष्टि भी होती है ताकि वह काल की रचनाओं के बारे में सोच सके बता सके। भौतिक दृष्टि से इसका कोई रंग, रूप, आकार नहीं है, इसकी कोई राशि, वार नहीं होता।

 वैदिक ज्योतिषियों ने इसकी स्वराशि, उच्च राशि और मूलत्रिकोण राशियों की कल्पना की है। जातक परिजात में राहु की उच्च राशि मिथुन, मूलत्रिकोण कुंभ और स्वराशि कन्या मानी गई है।

 राहु का व्यवहार अत्यंत प्रभावशाली देखा गया है। राहु पूर्वाभास की योग्यता भी विकसित करता है। विशेषकर जब राहु जल राशियों कर्क, वृश्चिक, मीन में हो और उस पर बृहस्पति की दृष्टि हो।

राहु छुपे हुए रहस्यों, तंत्र, मंत्र, काला जादू व भूत प्रेत का कारक भी है। राहु की तामसिक प्रवृत्ति के कारण वह चालाक है और व्यक्ति को भौतिकता की ओर पूर्णतया अग्रसर करता है, बहुत महत्वाकांक्षी व लालची बनाता है, जिसके लिए व्यक्ति साम-दाम-दंड-भेद की नीतियां अपनाकर जीवन में आगे बढ़ता है।

इसी तरह यह व्यक्ति को भ्रमित भी रखता है। एक के बाद दूसरी इच्छाओं को जागृत करता है। इन्हीं इच्छाओं की पूर्ति हेतु वह विभिन्न धार्मिक कार्य व यात्राएं भी करता है। राहु प्रधान व्यक्ति में दिखावा करने की प्रवृत्ति विशेष रूप से पायी जाती है। राहु कार्य जाल में फंसाता है, जीवन में आकर्षण को बनाये रखता है, हार नहीं मानता अर्थात इच्छा शक्ति को जागृत रखता है।

 राहु का योग जन्म पत्रिका में जिस ग्रह के साथ होगा उसी में विकार उत्पन्न हो जायेगा और केतु का योग जिस ग्रह के साथ होगा उसकी काट होगी। उसका दोष कम हो जायेगा। कोई भी ग्रह राहु के मुख में होगा उस व्यक्ति का व्यवहार उस भाव से संबंधित असंयमित हो जायेगा।

सूर्य के निकट रहने पर राहु सूर्य का सारा बल ग्रहण कर लेता है । इस प्रकार राहु चंद्र के साथ मन की स्थिति बहुत अव्यवस्थित करके मन में उथल-पुथल मचा देता है। विचारों और भावनाओं में विकार उत्पन्न हो जाता है। ऐसा देखने में आया है कि जिन जातकों की जन्मपत्रिका में राहु और चंद्रमा की युति हो वे बहुत परेशान देखे गये हैं, मानसिक सामंजस्यता की बेहद कमी देखी गयी है। अन्य पाप ग्रहों का भी दृष्टि या युति संबंध हो तो मानसिक रोगी व पागलपन की स्थिति भी देखी गयी है।

 राहु गुरु के साथ मिलकर गुरु चांडाल योग का निर्माण करता है जो विवाह व ज्ञान प्राप्ति में बाधा बन जाता है। इस प्रकार राहु सभी ग्रहों के साथ युति करके किसी न किसी प्रकार का विकार उत्पन्न करता है। किंतु यह सब फल राहु की दशा अंतर्दशा आने पर ही मिलते हैं। मित्र राशियों में शुभ व शत्रु राशियों में अशुभ फल देते हैं। राहु के परिणाम शुभ मिलेंगे या अशुभ यह मूलतः नक्षत्रों द्वारा ज्ञात किया जा सकता है।

राहु के अपने नक्षत्र हैं आद्रा, स्वाति एवं शतभिषा। इन नक्षत्रों में राहु रहने पर शुभ परिणाम देता है।

बहु विवाह योग 1

1- चन्द्र एवं शुक्र बलि होकर किसी भी भाव में एकसाथ स्थित हो तो ऐसे जातक के बहुत पत्नियाँ होगी |

 2- लग्नेश उच्च अथवा स्वराशीगत केंद्र भावों में स्थित हो तो ऐसे जातक के बहुत विवाह होते है |

 3- लग्न में एक ग्रह उच्च राशी में स्थित हो तो भी ऐसे जातक से बहुत विवाह होते है |

 4- लग्नेश और चतुर्थ भाव का अधिपति केन्द्रीय भावों में स्थित हो तो भी ऐसे जातक के बहुत से विवाह होते है |

 5- शनि सप्तमेश हो तथा वह पापग्रह से युत हो तो ऐसे जातक से बहुत से विवाह होते है |

 6- बाली शुक्र की द्रष्टि सप्तम भाव पर हो तो भी ऐसे जातक से बहुत से विवाह होते है |

पंचांग विचार

ज्योतिष सिखने के लिए पंचांग का ज्ञान होना परम आवश्यक है।
पंचांग अर्थात जिसके पाँच अंग है तिथि, नक्षत्र, करण, योग, वार।
इन पाँच अंगो के माध्यम से ग्रहों की चाल
की गणना होती है।
तिथिः
कुल तिथियाँ 16 होती है,जो पंचांग में कृष्ण पक्ष व
शुकल पक्ष के अंतर्गत प्रदर्शित होती है,तिथियों के
नाम एकम् द्वितीया, तृतीया,
चतुर्थी, पंचमी, षष्ठी,
सप्तमी, अष्टमी, नवमी,
दशमी, एकादशी, द्वाद्वशी,
त्रयोदशी, चतुर्दशी, अमावस्या और
पूर्णिमा है।
नक्षत्रः
नक्षत्रों की कुल संख्यां 27 होती
है,जिनके नाम इस प्रकार है
अंक नक्षत्र-नक्षत्रस्वामी पद(1,2,3,4)
1 अश्विनी-केतु (चु,चे,चो,ला)
2 भरणी-शुक्र (ली,लू,ले,ला)
3 कृत्तिका-सूर्य (अ,ई,उ,ए)
4 रोहिणी -चंद्र (ओ,वा,वी,वु)
5 मृगशीर्षा-मंगल (वे,वो,का,की)
6 आर्द्रा-राहु (कु,घ,ड.,छ)
7 पुनर्वसु-गुरु (के,को,हा,ही)
8 पुष्य-शनि (हु,हे,हो,ड)
9 अश्लेषा-बुध (डी,डू,डे,डो)
10 मघा-केतु (मा,मी,मू,मे)
11 पूर्बाफाल्गुनी-शुक्र (मो,टा,टी,टू)
12 उत्तरफाल्गुनी-सूर्य (टे,टे,पा,पी)
13 हस्त-चंद्र (पू,ष,ण,ठ)
14 चित्रा-मंगल (पे,पो,रा,री)
15 स्वाति-राहु (रू,रे,रो,ता)
16 विशाखा-गुरु (ती,तू,ते,तो)
17 अनुराधा-शनि (ना,नी,नू,ने)
18 ज्येष्ठा-बुध (नो,या,यी,यू)
19 मूला-केतु (ये,यो,भा,भी)
20 पूर्वाषाढ़ा-शुक्र (भू,धा,फा,ढा)
21 उत्तराषाढ़ा-सूर्य (भे,भो,जा,जी)
22 श्रवण-चंद्र (खी,खू,खे,खो)
23 धनष्ठा-मंगल (गा,गी,गु,गे)
24 शतभिषा-राहु (गो,सा,सी,सू)
25 पूर्वाभाद्रप्रद-गुरु (से,सो,दा,दी)
26 उत्तराभाद्रप्रद-शनि (दू,थ,झ,ञ)
27 रेवती-बुध (दे,दो,च,ची)
यदि 360 डिग्री को 27 से विभाजित किया जाए तो एक
नक्षत्र 13 डिग्री 20 अंश का होता है।
वारः अर्थात दिनों की संख्या सात है, सोमवार , मंगलवार
, बुधवार, वीरवार, शुक्रवार, शनिवार और रविवार।
करणः तिथि के आधे भाग को अर्थात आधी तिथि जितने
समय में बीतती हैं उसे करण कहते है
ये कुल 11 है, जिनके नाम बव, बालव, कौलव तेतिल, गर, वणिज,
विष्टि, शकुनि, चतुष्पद, नाग और किश्तुघ्न है।
योगः सूर्य तथा चन्द्र के राश्यांशो के योग से बनने वाले 27 प्रकार
के योग होते है, जिनके नाम विष्कुम्भ, प्रीति,
आयुष्मान, सौभाग्य, शोभन, अतिगण्ड, सिद्ध, सुकर्मा, धृति, शुल,
वृद्धि, धु्रव, व्याघात, हर्षण, वज्र, सिद्धि, व्यतिपात, वरियान,
परिघ, शिव, साध्य, शुभ, शुक्ल, ब्रह्म, ऐन्द्र, वैधृति
वैदिक ज्योतिष में मुख्यतः ग्रह व तारों के प्रभाव का अध्ययन
किया जाता है। पृथ्वी सौर मंडल का एक तरह का
ग्रह है। इसके निवासियों पर सूर्य तथा सौर मंडल के ग्रहों का
प्रभाव पड़ता है, ऐसा ज्योतिष की मान्यता है।
पृथ्वी एक विशेष कक्षा में चलायमान है।
पृथ्वी पर रहने वालों को सूर्य इसी में
गतिशील नजर आता है। इस कक्षा के आसपास कुछ
तारों के समूह हैं, जिन्हें नक्षत्र कहा जाता है और
इन्हीं 27 तारा समूहों यानी नक्षत्रों से
12 राशियों का निर्माण हुआ है। जिन्हें इस प्रकार जाना जाता है।
1-मेष, 2-वृष, 3-मिथुन, 4-कर्क, 5-सिंह, 6-कन्या, 7-तुला,
8-वृश्चिक, 9-धनु, 10-मकर, 11-कुंभ, 12-मीन।
प्रत्येक राशि 30 अंश की होती है।
पूर्ण राशिचक्र 360 अंश का होता है।
ग्रह लिंग विशोंतरी दशा(वर्ष)
सूर्य पुर्लिंग 6 वर्ष
चंद्र स्त्रीलिंग 10 वर्ष
मंगल पुर्लिंग 7 वर्ष
बुध नपुंसक 17 वर्ष
बृहस्पति पुर्लिंग 16 वर्ष
शुक्र स्त्रीलिंग 20 वर्ष
शनि पुर्लिंग 9 वर्ष
राहु पुर्लिंग 18 वर्ष
केतु पुर्लिंग 17 वर्षराहु एवं केतु वास्तविक ग्रह
नहीं हैं, इन्हें ज्योतिष शास्त्र में छायाग्रह माना
गया है।
ग्रहों की आपसी मित्रता-शत्रुता इस
प्रकार है...
ग्रह मित्र शत्रु सम
सूर्य चंद्र, मंगल, गुरु शुक्र, शनि बुध
चंद्र सूर्य, बुध मंगल, गुरु शुक्र शनि
मंगल सूर्य, चंद्र, गुरु बुध शुक्र, शनि
बुध सूर्य शुक्र,चंद्र मंगल, गुरु, शनि
गुरु सूर्य, चंद्र, मंगल बुध,शुक्र शनि
शुक्र बुध, शनि सूर्य, चंद्र, मंगल गुरु
शनि बुध, शुक्र सूर्य, चंद्र मंगल गुरु
राशियों का स्वभाव और उनका स्वामी...
राशि स्वभाव राशि स्वामी
मेष चर मंगल
वृषभ स्थिर शुक्र
मिथुन द्विस्वभाव बुध
कर्क चर चंद्र
सिंह स्थिर सूर्य
कन्या द्विस्वभाव बुध
तुला चर शुक्र
वृश्चिक स्थिर मंगल
धनु द्विस्वभाव गुरु
मकर चर शनि
कुंभ स्थिर शनि
मीन द्विस्वभाव गुरु
यदि 360 डिग्री को 12 से विभाजित किया जाए तो एक
राशि 30 डिग्री की होती है।
ग्रहो का कारकत्व
सूर्य - आत्मा ,पिता , मान-सम्मान ,प्रतिष्ठा ,नेत्र ,आरोग्यता
,प्रशासन ,मस्तिक , सुवर्ण ,गेंहू ,शक्ति मानक आदि लाल
वस्तुओं का कारक है
चंद्रमा - माता ,मन ,बुद्धि ,स्त्री ,धन ,चावल ,कपास
आदि श्वेत वस्त्र ,मोती, गला दाई आँख ,बाई आँख
,नाडी तंत्रादि
मंगल - पराक्रम , बल भूमि ,भाई , सेना , अग्नि ,गुड , मुंगा , ताम्र
,चोट , दुर्घटना आदि का कारक है
बुध - यह विद्या ,वाणी ,बुद्धि ,मित्र , सुख , मातुल
,बुध -बांधव ,गणित ,शिल्प ,ज्योतिष ,चाची
,मामी , हरिवस्त्र ,घृत, पन्ना रत्न आदि का कारक है
गुरु -यह विवेक ,बुद्धि ,मित्र , शरीर पुष्टि पुत्र
ज्ञान ,शास्त्र -धर्म ,बड़े भाई ,उदारता ,पुष्प -राग
,पीतवर्ण ,सुवर्ण ,ब्राह्मण ,मंत्री ,
सत्वगुण ,पति,सुख ,पौत्र,पितामह आदि का कारक है
शुक्र- आयु , वाहन ,आभूषणादि ,सांसारिक सुख ,व्यापार,कामसुख
,वीर्य ,चांदी,काव्य -रूचि
,संगीत ,श्वेत ,वस्त्र ,चांदी ,
हीरा,दुग्धादि पदार्थ का कारक है
शनि - आयु ,जीवन ,मुत्युकारक ,सेवक ,दुःख ,रोग
,विपति ,शिल्प ,भैंस, केश ,तिल ,तेल ,नीलम ,लोहाआदि
पदार्थो का कारक है
राहु -सर्प ,लाटरी ,गुप्त -धन ,भुत - बाधा,प्रयास
,तस्करी कम्बल,नारियल ,सप्तधान्य ,गुमेद आदि
पदार्थो का कारक है
केतु - यह गुप्त शक्ति ,कठिन कार्य ,दुख, धूम्ररंग ,अति
पीड़ा ,चर्मरोग ,व्रण, तन्त्र-विद्या,बकरी
,नीच जाती ,कुष्णवस्त्र ,कंबलादि, पदार्थो
का कारक है
जन्म कुंडली में यदि कोई कारक ग्रह शुभ भाव में
पड़ा हो या शुभ ग्रह द्वारा दृष्ट हो तो कारक ग्रह से संबंधित
सुख की प्राप्ति होगी। जब कोई ग्रह
अशुभ भाव में पड़ा हो अथवा पापी गृह से युक्त या
दुष्ट हो तो उस ग्रह के कारकत्व से संबंधित सुख में
कमी आएगी ।
द्वादश भावो द्वारा विचारणीय विषय
कुंडली में प्रत्येक भाव का अपना अपना महत्व होता
है। इन्ही द्वादश भावो में स्थिति राशियां एवं ग्रह
अपना शुभआशुभ फल प्रगट करते है। द्वादश भावों में प्रत्येक
भाव में विचारणीय विषयो के संबंध में लिखा है
प्रथम भावः इस भाव में मुख्य रूप से जातक का
शारीरिक गठन ,स्वास्थय ,आयुपरमान,
शारीरिक रूप ,वर्ण, चिन्ह जाती ,स्वभाव
,गुण ,आकृति ,सुख दुखः ,शिर ,पितामह ,जन्म ,प्रारम्भिक
जीवन ,वर्तमान कालादि का विचार किया जाता है लग्न
एवं लग्नेश की स्थिति के बलाबलनुसार जातक स्वास्थ्य
स्वभाव तथा व्यक्तित्व का ज्ञान किया जाता है इस भाव में मिथुन
,कन्या ,तुला ,एवं कुंभ राशि बलवान मानी
जाती है इस भाव का कारक ग्रह सूर्य है।
द्वितीय भावः शरीर की रक्षा
के लिए धन अन्न ,वस्त्र द्रव्य एवं कुटुम्बदि साधनो
की आवश्यकता होती है। इस कारण धन
भाव भी कहते है। भाव से धन संग्रह ,परिवारिक
सुख ,मित्र ,विद्या ,खाद्य पदार्थ ,वस्त्र ,मुख ,दाहिनी
आँख ,नाक ,वाणी ,स्वर संगीत आदि कला
,विद्वता ,लेखन कला ,अर्जित धन ,सम्पति ,सुवर्णदि धातुओं का
क्रयविक्रय आदि का विचार किया जाता है।
द्वितीय भाव को मारक स्थान भी कहते
है इस भाव का कारक ग्रह ब्रहस्पति है। तृतीय
भावः इस भाव से भाई बहनो का सुख ,सहोदर, पराक्रम ,नौकर-
चाकर ,साहस ,शौर्य, धैर्य, गायन ,भोगाभ्यास
,नजदीकी संबंधियो का सुख ,रेलयात्रा
,दाहिना कान ,हिम्मत ,सेना ,सेवक, माता पिता की मुत्यु
,चाचा ,मामा ,दमा ,खांसी, श्वास, भुजा, कर्ण आदि रोगो का
विचार किया जाता है।तीसरे भाव का कारक ग्रह मंगल
है।चतुर्थ भावः इस भाव से सुख दुख ,माता ,स्थायी
सम्पति ,मकान ,जायदाद ,भूमि ,सवारी ,चैपाया, मित्र
बन्धु बांधव ,परोपकार के काम ,गृह खेत ,तालाब पानी
,नदी ,बाग ,बगीचा ,मामा ,श्वसुर
,नानी ,पेट , छाती ,आदि के रोग ,गृहस्थ्य
जीवन इस भाव से किया जाता है चंद्रमा व बुध ग्रह
इस स्थान के कारक है
पंचम भावः इस भाव से बुद्धि ,नीति, विद्या ,गर्भ ,संतान
से सुख दुख ,गुप्त मंत्र ,शास्त्र ज्ञान ,विद्धता ,मंत्र सिद्धि ,
विचार शक्ति ,लेखन कला ,लाटरी शेयर आदि आकास्मिक
धन लाभ या हानि ,यश अपयश का सुख प्रबन्धात्मक योग्यता
,पूर्वजन्म की स्थिति ,भविष्य ज्ञान ,आध्यात्मिक
रूचि ,मनोरंजन प्रेम संबंध ,इच्छाशक्ति ,जेठराग्नि ,गर्भाशय ,पेट
,मूत्रसह्यादि संबंधी विकारो का विचार पंचम भाव से
करते है। इस भाव का कारक ग्रह ब्रहस्पति है।
षष्ठ् भाव: इस भाव से शत्रु रोग ,ऋण ,चोरी या
दुर्घटना आदि की स्थिति ,दुष्टकर्म ,युद्ध ,अपयश
,मामा , मौसी ,सौतली माता से सुख दुख
,विश्वासघात ,पाप ,कर्म ,हानि ,शव बन्धुवर्ग से विरोध ,नाभि ,गुदा
स्थान , कमर ,संबंधी रोगो का विचार षष्ट भाव से करते
है शनि व मंगल भाव के कारक माने जाते है
सप्तम भावः इस भाव से स्त्री एवं विवाह सुख ,काम
वासना ,पति पत्नी संबंध ,साझेदारी के काम,
व्यापार में लाभ हानि वाद विवाद, मुकदमा ,कलह ,पितामह , प्रवास
,विदेश गमन ,भाई बहन की संतान ,लघु यात्राएं ,दैनिक
आय ,समझौता ,प्रत्येक शत्रु ,काम विकार ,बवासीर
वस्ति ,जननेन्द्रिय संबंध गुप्त रोगो का विचार किया जाता है इस
केंद्र भाव में वृश्चिक राशि बलवान होती है इसे मारक
स्थान भी कहते है इस भाव का कारक ग्रह शुक्र
है
अष्ट्म भावः इस भाव से मुत्यु के कारण ,आयु ,गुप्तधन
,की प्राप्ति ,विध्न ,पुरातत्व प्रेम ,समुद्रादि द्वारा
दीर्घ यात्राएं ,पूर्व जन्म की
जानकारी मृत्यु के बाद स्थिति, स्त्री से
भूमि धन आदि का लाभ दुर्घटना ,यातना ,गुदा , अंडकोष आदि
गुप्तेन्द्रिय संबंधी गुप्त रोगो एवं कष्टो ,पति या
पत्नी की आयु का मान ,ताऊ ,विघ्न ,दास्य
वर्ग एवं विषम परिस्थितियो का विचार अष्ट्म भाव से किया जाता है
नवम भाव: इस भाव से मानसिक वृति ,धर्म ,दान ,शील
,पुण्य ,तीर्थ यात्रा ,विद्या ,भाग्यो दय ,विदेश यात्रा
,मंत्र सिद्धि ,उत्तम विद्या ,बड़े भाई, पौत्र ,बहनोई ,भावजादि से
संबंध ,धार्मिक पुर्नजन्म प्रवृति संबंधी ज्ञान ,मंदिर
,गुरुद्वारा आदि धर्म स्थल गुरु भक्ति ,यश कीर्ति एवं
जंघा आदि विचार किया जाता है इस भाव का कारक ग्रह सूर्य व गुरु
है।
दशम भावः इस भाव को केंद्र एवं कर्म भाव भी कहते
है इस भाव से पिता का सुख दुख, अधिकार ,राज्य प्रतिष्ठा
,पदोन्नति ,नौकरी, व्यापार, विदेश गमन,
जीविका का साधन ,कार्य सिद्धि नेतृत्व ,सरकार ,सास
,वर्षा ,वायु यानादि, आकाशीय वृतांत एवं घुटनो आदि में
विकारो का दशम से देखा जाता है। दशमभाव में मेष, वृष, सिंह, धनु
(उत्तरार्ध),मकर राशि का पूर्वाद्ध बलवान होता है। दशम भाव के
कारक ग्रह सूर्य ,बुध गुरु ,एवं शनि है।
एकादश भाव: इस भाव से लाभ आय भाई ,मित्र जामाता (जमाई)
,ऐश्वर्य सम्पति ,मोटर -वाहन के सुख ,गुप्तधन, बड़े भाई या
बड़ी बहन ,दांया कान , मांगलिक कार्य, ऐश्वर्य
की वस्तु ,द्वितीय पत्नी एवं
पिंडलियों का विचार 11वें भाव से करते है। इस भाव का कारकग्रह
गुरू है।
दादश भाव: इसको व्यय स्थान व्यय स्थान भी कहते
है इस भाव से धन हानि ,खर्च ,दान ,दंड व्यसन ,रोग, शत्रु
पक्ष से हानि, बाहरी स्थानो से संबंधित नेत्र
पीड़ा, फजूल खर्च ,स्त्री पुरुष, गुप्त
सम्बन्ध, शयन सुख , दुख -पीड़ा बंधन (जेलादि)
,मृत्यु के बाद प्राणी की गति मोक्ष ,कर्ज,
षड्यंत्र ,धोखा ,राजकीय संकट ,शरीर में
पाँव एवं तलुवों आदि का विचार किया जाता है। इस भाव का कारक
ग्रह शनि है।इसके इलावा जातक की जन्म
कुंडली में और भी कुंडलिया
होती है ये वर्गीय कुंडलिया लग्न
कुंडली का विस्तार होती है इन से
भी जातक के जीवन का फलित किया जाता
है इनके नाम इस प्रकार है लग्न कुंडली ,चन्द्र
कुंडली ,सूर्य कुंडली ,होरा
कुंडली , द्रेष्काण कुंडली ,चतुर्थांश
कुंडली , पंचमांश कुंडली , षष्ठांश
कुंडली , सप्तमांश कुंडली , अष्ठमांश
कुंडली , नवमांश कुंडली , दशमांश
कुंडली , एकादशांश कुंडली , द्वादशांश
कुंडली , षोडशांश कुंडली , विशांश
कुंडली , चतुर्विशांश कुंडली , सप्तविशांश
कुंडली , त्रिशांश कुंडली , खवेदांश
कुंडली , अक्ष्वेदांश कुंडली , षष्टयंश
कुंडली के इलावा पाद, उपपाद, मुंथादि का विचार किया जाता
है।

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