ज्योतिष में भचक्र की किसी राशि विशेष में ग्रह के जाने का नाम गोचर है | 'गो' का मतलब है ग्रह जो जाता है| 'चर' का मतलब है 'गमन' संचार | इसलिए दिनानुदिन आकाश में जो ग्रह जाते हैं तब उस राशि में गोचरवश ग्रह हुआ, यह कहते है जन्म-चक्र स्थिर है | इसमें ग्रहों की स्थिति जन्मकाल में है, परन्तु ग्रह स्थिर नहीं है, चलते रहते हैं | इसलिए जब जहाँ जाते हैं वहां पर उनकी स्थिति कही जाती है |
भचक्र में ये चलते रहते हैं और चक्र को पूरा करने पर फिर उसी मार्ग में दुबारा जाते हैं |इसलिए जब हम गोचर विचार कहते हैं तो जन्मकालिक ग्रह की स्थिति और ग्रह कहाँ जा रहे हैं, दोनों का ही विचार करते हैं |गोचर कुंडली फलादेश करते समय निम्नलिखित बिन्दुओं को ध्यान में रखना चाहिए -
१. ग्रह जब जन्म राशि से अथवा लग्न से बारहवें स्थान में जाते हैं तो अत्यधिक व्यय करते हैं, विशेष तौर पर उस समय जब दो या तीन ग्रह बारहवें स्थान में जाते हों|क्रूर ग्रह अधिक व्यय करते हैं | शुभ ग्रह अच्छे कार्यों में जैसे की विवाह, धर्म इत्यादि में व्यय करते हैं |
२. सूर्य, बुद्ध और शुक्र बारह राशियों का भ्रमण एक वर्ष में पूरा कर लेते हैं | ये ग्रह प्रायः एक राशि में एक मास तक रहते हैं | यदि जन्म के समय कोई ग्रह राशि में बलवान हो (अपने उच्च, मित्र अथवा अपनी ही राशि में) और किसी शुभ स्थान में भी बैठा हो तो गोचर में यदि वह किन्हीं अशुभ भावों में जाएगा तो भी उसका अधिक बुरा फल नहीं होगा |
यही फल उस समय भी समझना चाहिए जब ग्रह (जिसके गोचर का विचार किया जा रहा हो) अच्छे भाव का श्वामी हो या जन्म कुंडली में योगकारक हो |
३. यदि कोई ग्रह राशि ओर भाव में भी बलवान हो तो जब गोचर में शुभ स्थानों से जाता है तो अत्यधिक शुभ फल देता है |
४. यदि कोई ग्रह कमजोर हो (राशि और नवांश में नीच का हो या किसी शत्रु की राशि और नवांश में हो) और किसी क्रूर ग्रह के साथ बैठा हो या दृष्ट हो और उसपर किसी शुभ ग्रह की युति या दृष्टि न हो अथवा अशुभ स्थानों का श्वामी हो, अस्त हो तो गोचर में वह शुभ स्थानों में जाता हुआ भी विशेष शुभ फल नहीं देगा |
५. गोचर में यदि किसी ग्रह का क्रूर ग्रहों से योग हो या उसपर क्रूर ग्रहों की दृष्टि पड़े, तो गोचर में जाते हुए ग्रह का अच्छा फल कम हो जाता है और बुरा फल बढ़ जाता है| यदि कोई ग्रह गोचर में अस्त हो या अपनी नीच राशि या नीच नवांश में हो तो उसका भी इसी प्रकार फल होता है|
६. गोचर में जब किसी ग्रह का किसी शुभ ग्रह से योग होता है अथवा उसपर किसी शुभ ग्रह की दृष्टि पड़ती है तो तो उस गोचर में जाते हुए ग्रह का अच्छा फल बढ़ जाता है और ख़राब फल कम हो जाता है|
उदाहरण के लिए मंगल यदि तीसरे स्थान में जा रहा हो और उसी समय शुक्र अथवा गुरु भी वहां जाएँ तो मंगल के शुभ फल को बढ़ाएंगे| इसके अलावा यदि मंगल नवम स्थान से जा रहा हो और उसपर गुरु की द्रष्टि पड़े तो मंगल का अशुभ फल कम हो जायेगा|
७. जब कोई ग्राह अपनी उच्च राशि या अपनी स्वयं की राशि या अपने नवांश या उच्च नवांश में से जाता है तो उसका अच्छा फल बढ़ता है और ख़राब फल कम हो जाता है
उदाहरण के लिए शनि के साढ़े सात वर्ष (साढ़े साती) ख़राब मानी गई है, परन्तु कन्या राशि वाले के लिए अंतिम ढाई वर्षों में शनि तुला में आयेगा| तुला राशि शनि का उच्च स्थान है इसलिए वहां पर शनि अधिक पीड़ा नहीं देगा|
८. शुभ ग्रह गोचर में जब वक्री होते हैं तो अधिक शुभ फल देते हैं| क्रूर ग्रहों के वक्री होने पर अत्यधिक अशुभ फल होता है|
९. सबसे अधिक शुभ अथवा अशुभ प्रभाव उस समय होता है जिस समय दो या अधिक ग्रह गोचर में वक्री हो जाएँ (शुभ ग्रह अथ्वा क्रूर ग्रह)
१०. क्रूर ग्रह अशुभ स्थानों में जाते हुए ज्यादा बुरा फल देंगे यदि जिस राशी में वे जा रहे है उस राशि में जन्म के समय कोई ग्रह बैठा हो तो भी अच्छा फल देते हैं|
उदहारण के लिए गुरु चौथे स्थान में जा रहा हो जहाँ सूर्य भी जन्म के समय है तो जिस समय गुरु सूर्य पर से जायेगा तो सूर्य अच्छा फल देगा जैसे उच्च स्थान, नए मित्र, नया कार्य, पिता का या स्वयं का धन इत्यादि|
१२. यदि जन्म के समय किसी भाव पर शुभ ग्रहों की द्रष्टि हो तो गोचर में क्रूर ग्रह भी उस भाव में जाते हुए बहुत बुरा फल नहीं देंगे|
१३. जन्म के समय लग्न में बैठा हुआ ग्रह गोचर में जिस भाव में जायेगा उस भाव का फल देगा|१४. जो अच्छा या बुरा फल ग्रह जन्म-कुंडली में बताता है वह फल उस समय होगा जब ग्रह लग्न में ले जा रहा हो|
१५. गोचर विचार में सूर्य और मंगल प्रथम १० अंश के भीतर, गुरु और शुक्र १० से २० अंश के भीतर तथा बुध सम्पूर्ण राशि में अपना फल देते हैं|
१६. यह गोचर में किसी प्रकार का अच्छा या बुरा फल देगा यह इस बात पर निर्भर करता है की वह ग्रह जन्म-कुंडली में-
(अ) किन भावों का स्वामी है ?
(ब) किस स्थान में बैठा हुआ है ?
(स) किस वस्तु का कारक है ?
(द) गोचर में किस भाव में जा रहा है ?
यहाँ भाव का विचार जन्म राशि से, जन्म लग्न से तथा ग्रह के मूल स्थान से करना चाहिए |नवम भाव से भाग्य विचार
नवम भाव का कारक ग्रह गुरु होता है| नवम भाव से मुख्य चार प्रकार के विचार होते हैं|
१. एवं नवम भाव का कारक ग्रह बलि हो ६,८,१२ भाव में स्थित न हो, केंद्र-त्रिकोण में स्थित हो तो पूर्ण फल मिलता है|
२. यदि नवम भाव में स्थित ग्रह नवम भाव के राशि स्वामी के मित्र हो तथा शुभ-स्थानों का स्वामी होकर नवम भाव में स्थित हो तो पूर्ण फल प्रदान करता है|
३. यदि नवम भाव का स्वामी बलि होकर केंद्र त्रिकोण में स्थित हो और मित्र राशि, स्वराशी, शुभ ग्रहों से दृष्ट हो तो पूर्ण फल प्रदान करेगा| अर्थात नवम भाव का कारक ग्रह नवमेंश नवम भाव, नवम भाव पर दृष्टि ये चार प्रकार के कारक शुभ स्थान के भाव का हो, शुभ ग्रह से दृष्ट हो बली ६,८,१२ में न हो तो सात प्रतिशत पूर्ण फल प्रदान करेगा| अतः इन सभी शुभ स्थानों के शुभ ग्रहों के युत दृष्ट बलि इत्यादि होने पर उन-उन स्थानों के कारकत्व पूर्ण दृष्टि होकर जातक को शुभ फल प्राप्त होगा| यदि इसके विपरीत हो तो फल भी विपरीत समझना चाहिए|
यदि शुभ अशुभ दोनों प्रकार का योग हो तो उनमें से जो बलि होगा उसका फल मिलेगा| यदि शुभ अशुभ समान रूप से बलि हों तब जातक के जीवन में शुभ अशुभ दोनों ही समान रूप से विद्यमान होगा| यदि नवम भाव के उपरोक्त चार कारक सप्त वर्ग में शुभ अपनें भाव, स्वगृही मित्र, गृही उच्च शुभ वर्ग इत्यदि में प्राप्त हो तो जातक का भाग्य बहुत महत्वपूर्ण बन जायेगा ऐसा जातक समाज देश विदेश धर्म में विख्यात होगा| प्रसिद्ध व्यक्ति होगा|नवम भाव से भाग्य विचार
नवम भाव का कारक ग्रह गुरु होता है| नवम भाव से मुख्य चार प्रकार के विचार होते हैं|
१. एवं नवम भाव का कारक ग्रह बलि हो ६,८,१२ भाव में स्थित न हो, केंद्र-त्रिकोण में स्थित हो तो पूर्ण फल मिलता है|
२. यदि नवम भाव में स्थित ग्रह नवम भाव के राशि स्वामी के मित्र हो तथा शुभ-स्थानों का स्वामी होकर नवम भाव में स्थित हो तो पूर्ण फल प्रदान करता है|
३. यदि नवम भाव का स्वामी बलि होकर केंद्र त्रिकोण में स्थित हो और मित्र राशि, स्वराशी, शुभ ग्रहों से दृष्ट हो तो पूर्ण फल प्रदान करेगा| अर्थात नवम भाव का कारक ग्रह नवमेंश नवम भाव, नवम भाव पर दृष्टि ये चार प्रकार के कारक शुभ स्थान के भाव का हो, शुभ ग्रह से दृष्ट हो बली ६,८,१२ में न हो तो सात प्रतिशत पूर्ण फल प्रदान करेगा| अतः इन सभी शुभ स्थानों के शुभ ग्रहों के युत दृष्ट बलि इत्यादि होने पर उन-उन स्थानों के कारकत्व पूर्ण दृष्टि होकर जातक को शुभ फल प्राप्त होगा| यदि इसके विपरीत हो तो फल भी विपरीत समझना चाहिए|
यदि शुभ अशुभ दोनों प्रकार का योग हो तो उनमें से जो बलि होगा उसका फल मिलेगा| यदि शुभ अशुभ समान रूप से बलि हों तब जातक के जीवन में शुभ अशुभ दोनों ही समान रूप से विद्यमान होगा| यदि नवम भाव के उपरोक्त चार कारक सप्त वर्ग में शुभ अपनें भाव, स्वगृही मित्र, गृही उच्च शुभ वर्ग इत्यदि में प्राप्त हो तो जातक का भाग्य बहुत महत्वपूर्ण बन जायेगा ऐसा जातक समाज देश विदेश धर्म में विख्यात होगा| प्रसिद्ध व्यक्ति होगा|
नवम भाव पर विचरणीय विषय
भाग्य शक्ति, (गुरु-पिता, धर्म, तप, शुभ कार्य, धर्मगुरु, धर्म के कार्यों में संलग्न रहना तथ दया, दान, शिक्षा से लाभ, विद्या, परिश्रम, बड़े लोग, मालिक, शुद्ध आचरण, तीर्थ यात्रा, लम्बी दुरी की यात्रा, गुरु के प्रति भक्ति, ओषधि, चित्त की शुद्धता, देवता की उपासना, कमी हुई सम्पत्ति, न्याय प्रताप, आरोग्य सत्संग, ऐश्वर्य धन कम होते जाना, वैराग्य, वेद पठन, दैवी शक्ति संस्थापन, साले का विचार, परोपकार, नदी या समुद्र का प्रवास, विदेश यात्रा, स्थानांतरण, नौकरी में परिवर्तन, सन्यास, मेहमान धरोहर, दुसरे का विवाह, कानून, दर्शनशास्त्र, बड़े अधिकारी, उच्च शिक्षा इत्यादि|
भाग्योदय वर्ष
ग्रह सूर्य चन्द्र मंगल बुद्ध गुरु शुक्र शनि राहू
वर्ष २२ २४ २८ ३२ १६ २५ ३६ ४२
जैसे भाग्येश के नवांश में यदि चन्द्रमा हो तो जातक का भाग्योदय २४ वर्ष पर होगा|
१. बुद्ध भागेश हो तो ३२ वें वर्ष में होगा| गुरु की स्थिति शुभ होती है, तो जातक भाग्यशाली होता है|
२. गुरु स्वगृही उच्चगत केन्द्रगत हो तो जातक भाग्यशाली होता है|
३. नवमेंश और गुरु शुभ वर्ग में हो तो जातक भाग्यशाली होता है| साथ ही नवम भाव में शुभ ग्रह हो|
४. नवम भाव में पाप ग्रह हो, नीच राशि का हो या अस्त हो तो ऐसा जातक भाग्यहीन होता है|
५. नवम भाव में कोई भी ग्रह उच्च राशि का, मित्र राशि का एवं स्वग्रही हो तो ऐसा जातक भाग्यवान होता है|
६. भाग्येश अष्टम में, नीच्चस्थ हो, पाप ग्रह से युत या दृष्ट हो, पाप ग्रह के नवमांश में हो तो ऐसा जातक भाग्यहीन होकर भींख मांगता है|
७. भाग्येश शुभ ग्रह से दृष्ट या युत हो तथा नवम भाव शुभ ग्रह से युत हो तो ऐसा जातक महाँ भाग्यशाली होता है|
८. यदि गुरु नवम भाव में हो और नवमेंश केंद्र में हो, लग्नेंश बलि हो तो जातक भाग्यशाली और यदि इसके विपरीत ग्रह बल्हीनहो निचस्थ हो तो जातक भाग्यहीन होता है| दशाफल
दशा- अन्तर्दशा का ज्ञान प्राप्त करना उतना कठिन नहीं है जितना फल ज्ञात करना| फलित ज्ञान प्राप्त करने में कठिनाई इसलिए आती है महादशा किसी ग्रह की और अन्तर्दशा, प्रत्यंतरदशा इत्यदि किसी और ग्रह की चल रही होती है| फलतः इनकी सम्यक संगति बैठाकर अनुपालिक फल निर्धारण करना एक अत्यंत जटिल एवं कठिन प्रक्रिया है जिस प्रकार शहद और घी दोनों अलग-अलग पदार्थ अमृत समान गुण वाले होकर भी दोनों संभाग मिलकर विष का निर्माण कर देते हैं, जिसका प्रभाव अपनी अलग विशेषता रखता है, बिल्कुल वैसे ही किसी ग्रह की महा दशा में किसी अन्य ग्रह की महादशा आने पर फलित भी बदल जाता है| महादशा की समयावधि लम्बी होती है और किसी भी ग्रह की महादशा का सम्पूर्ण भोग्य समय एक समान फलदायक नहीं होता| महादशा वाला ग्रह जिस राशि में है उसके १०-१० अंश क्र तीन भाग करें राशि के ऐसे एक भाग को द्रेश्काण कहते है| अब देखें की महादशा वाला ग्रह राशि के किस भाग (द्रेश्काण) में है, यदि प्रथम द्रेश्काण है तो महादशा के प्रथम भाग में, द्दितीय द्रेश्काण है तो महादशा के मध्य भाग में अपना शुभाशुभ फल प्रदान करेगा|
दशाफल सूत्र- यदि कोई ग्रह वार्गोत्तमी है तो अपनी दशा-अन्तर्दशा में शुभ फल प्रदान करता है|
यदि कोई ग्रह वार्गोत्तमी तो हो, लेकिन अपनी नीच राशि में होतो मिश्रित फल देता है|
त्रिक स्थान (६,८,१२) के श्वामी अपनी दशा में अशुभ फल देते हैं|
त्रिक स्थान में बैठे ग्रह अपनी महादशा में त्रिकेश कि अंतर दशा आने पर व त्रिकेश की महादशा में अपनी अन्तर्दशा आने पर अशुभ फल देते हैं|
क्रूर ग्रह की महादशा में जब जन्म नक्षत्र से तीसरे, पांचवें व सातवें ग्रह के स्वामी की अन्तरदशा हो तो अशुभ फल मिलते हैं|
क्रूर ग्रह की महादशा और जन्मराशि के स्वामी की अन्तर्दशा में भी अशुभ फल प्राप्त होता है|
जन्म राशि से आठवीं राशि के स्वामी की दशा में क्रूर ग्रह की अन्तर्दशा कष्टदायक होती है|
शनि की दशा चौथी, मंगल व राहू की दशा पाचवीं और वृहस्पति की दशा छठी पड़ती हो तो ये विशेष कष्टकारक रहती है| जैसे शुक्र की महादशा में जन्म हो तो राहू की महादशा पाचवीं होगी, वृहस्पति की छठी आदि|
किसी राशि के अंतिम अंशों में स्थित ग्रह कि दशा-अन्तर्दशा अनिष्टकारक होती है|
यदि उच्च राशि में स्थित ग्रह नवांश में नीच का हो जाये तो अशुभ फल देता है|
यदि नीच राशि में स्थित ग्रह उच्च नवांश में हो तो अपनी दशा में शुभ फल देता है|
किसी ग्रह की महादशा में उसके शत्रु ग्रह की अन्तर्दशा आने पर अनेक कष्ट होते हैं|
यदि महादशा नाथ से अन्तर्दशा का स्वामी त्रिक स्थान ६,८,१२ में हो तो अशुभ फल देता है|
राहू लग्न से तीसरे, छठे, आठवें, ग्यारहवें स्थित हो तथा चन्द्रमा से दूसरे या आठवें भाव में स्थित हो तो अपनी दशा में मारक होता है| यदि इन्हीं स्थानों में वह शुक्र अथवा गुरु से सम्बन्ध करें तो भी मारक होता है| शत्रु छेत्री ग्रह की दशा में जातक के कार्यों में विघ्न- बाधाएं आती हैं|
षष्ठेश की दशा में अन्य अशुभ फल तो मिलते ही हैं, रोगों से भी कष्ट मिलता है|
अस्तग्रह की दशा में अनेक अशुभ फल प्राप्त होते हैं|
वक्री ग्रह की दशा में परदेशवास, रोग, पीड़ा, धनहानि तथा मानहानि जिसे फल मिलते हैं|
राहू अथवा केतु से युक्त पापी ग्रह की दशा विशेष कष्टदायक व्यतीत होती है|
लग्नेश अष्टमस्थ हो तो अपनी दशा में अत्यधिक पीड़ा देता है, यहाँ तक की मृतु भी सम्भव है|
छिण चन्द्रमा और पाप ग्रह युक्त बुध अशुभ फलदायक होता है|
यदि लग्नेश होरा, द्रेश्काण, नवांश, द्वदशांश व लग्न का स्वामी हो तो अपनी दशा में अत्यंत शुभ फलदायक होता है| भाव का स्वामी जिस राशि में बैठा हो और उस राशि अथवा भाव का स्वामी छठें, आठवें या बारहवें भाव में स्थित हो तो भाव के स्वामी ग्रह
की दशा में भावजन्य फल का नाश हो जाता है| उदाहरणार्थ- पंचम भाव का स्वामी बुध यदि दशम भाव में स्थित हो और वहां वृश्चिक राशि हो, जिसका स्वामी मंगल छठे भाव में कर्क राशि का स्थित हो तो बुध की दशा में पंचम भाव सम्बन्धी फल नष्ट हो जाता है|
षष्ठेश व अष्टमेशकी परस्पर दशा-अन्तर्दशा होने पर अशुभ फल ही प्राप्त होता है|
शुभ ग्रह की महादशा में पापी ग्रह की अन्तर्दशा आने पर पहले दुःख बाद में सुख मिलता है|
महाशेष व अंतरशेष किस राशि में हैं, किस ग्रह से दृष्ट हैं, किस ग्रह के साथ हैं, इन सब का सम्यक अध्यन करके ही फलाफल का निर्णय करना चाहिए|विवाह योग विचार
यावन्तो वा विहन्गा मदनसदनगाश्चेन्निजाधीशद्रिष्टा-
स्तावन्तो निर्विवाहास्त्व्थ सुमतिमता ज्ञेयमित्थं कुटुम्बे |
कार्यो होराग्मज्ञैरधिकबलवतां खेचराणां हि योगा -ददेष्यं तत्रवीर्यंरविविधुकुभुवमन्गदिक्शैलसंख्यम् ||
सप्तम स्थान में जितने ग्रह हों, उतने ही विवाह होते हैं | लेकिन उन पर सप्तमेश की दृष्टि आवश्यक है इसी प्रकार कुटुंब स्थान अर्थात् दुतीय स्थान में जितने ग्रह द्वितीयेश से दृष्ट हों, उतने ही विवाह होते हैं बुद्धिमान दैवग्यों अधिक बल वाले ग्रह के योगों से विवाह की संख्या का विचार करना चाहिए इस प्रशंग में सूर्य, चन्द्र व मंगल का क्रमशः ६,१०,७ रूपा बल होता है | शेष ग्रहों का ६ रूपा बल होता है, ऐसा पद्दति के नियम से स्वतः सिद्ध है अर्थात् शेष ग्रह ६ रूपा से अधिक बलि होनें पर बलि मानें जाते है | इस श्लोक की संख्या प्राचीन टीकाकारों नें उक्त प्रकार से ही की है | लेकिन सुकसुत्त्रों के सन्दर्भ में इन पर नई रौशनी पड़ती है | सामान्यतः ३ रूपा या अंश तक षड्बल होनें पर ग्रह निर्बल, ६ से कम होने पर मद्दयम बाली और ६ से अधिक बल होने पर बलवान माना जाता है | यह बात पद्दति ग्रंथों से सिद्ध है तथा हमारे विचार से भी यही बात यहाँ उपयुक्त है | सूत्रों का पाठ प्रस्तुत है |(1) कल्त्राधिपेन कुटूम्बाधिपेन वा दृष्टा यावन्तो ग्रहाः कलत्रस्थानं कुटुम्बस्थानं वा गताः तावत् संख्यकानि कलत्राणी भवन्ति |
(२) अथवा बलाधिक्यात् |
(३) तत्र रवेः षट् |
(४) चन्द्रस्य दश |
(५) भौमश्य सप्त |
(६) बुधस्य सप्तदश |
(७) गुरोः षोडश |
(८) शुक्रस्य विन्शतिः |
(९) शनेरेकोनविन्शतिः |
(१०) राहोः |
(११) केतोः
(१२) इत्यादि ज्ञेयम्
(१३) सत्यमेन कलत्र चिन्ता | (शुकसुत्र )
श्लोक की प्रथम पंक्ति का अर्थ सुत्रानुसारी हमनें किया है | यद्यपि 'कुटुम्ब' शब्द का अर्थ प्राचीनो ने 'अन्य परिवारजन' किया था, लेकिन सूत्रानुसार सप्तम या द्वितीय में जितने ग्रह सप्तमेश व द्वितीयेश में दृष्ट हों उतनी ही स्त्रियाँ होती हैं, यह बात सिद्ध होती है तथ यही उपयुक्त है | लेकिन बल के सन्दर्भ में सूत्रकार नें जो संख्या बताई है वह संख्या वास्तव में विंशोत्तरी दशा में इन ग्रहों के दशा वर्षों की संख्या ही है | इसी आधार पर सूर्य, चन्द्रमा व मंगल का बल भी गणेश कवि ने ६,१०,७ क्रमशः माना है जो सुत्रानुसारी है | लेकिन शेष ग्रहों के बल का उल्लेख श्लोकों में नहीं है यह बल विचार प्राचीन जैमिनियत या पराशरमत या यवन मतानुशार पद्धति ग्रंथों के भी विरुद्ध है | हमारी अल्प बुद्धि मई इस सुत्त्रोक्त बल का तारतम्य अवगत नहीं होता है | विद्दवान पाठक इस प्रकरण की प्रमाणिकता पर विचार करें | अस्तु,विवाह संख्या के विषय में भी आजकल जोतिषीयों को आधुनिक दृष्टिकोण अपनाना चाहिए | आजकल एकाधिक विवाह गैरकानूनी हैं | अतः सामाजिक पदवी प्रतिष्ठा व स्थिति देखकर एकाधिक विवाह की बात कहनी चाहिए | सामान्यतः द्दितियेश व सप्तमेश पर शुभ प्रभाव या इनका परस्पर सम्बन्ध अथवा किसी शुभ भाव में इस्थिति विवाह की द्योतक होगी | लेकिन साधुओं सन्यासियों आदि के सन्दर्भ में संतान योगों की तरह विवाह योगों को भी निष्क्रिय ही समझना चाहिए |
भचक्र में ये चलते रहते हैं और चक्र को पूरा करने पर फिर उसी मार्ग में दुबारा जाते हैं |इसलिए जब हम गोचर विचार कहते हैं तो जन्मकालिक ग्रह की स्थिति और ग्रह कहाँ जा रहे हैं, दोनों का ही विचार करते हैं |गोचर कुंडली फलादेश करते समय निम्नलिखित बिन्दुओं को ध्यान में रखना चाहिए -
१. ग्रह जब जन्म राशि से अथवा लग्न से बारहवें स्थान में जाते हैं तो अत्यधिक व्यय करते हैं, विशेष तौर पर उस समय जब दो या तीन ग्रह बारहवें स्थान में जाते हों|क्रूर ग्रह अधिक व्यय करते हैं | शुभ ग्रह अच्छे कार्यों में जैसे की विवाह, धर्म इत्यादि में व्यय करते हैं |
२. सूर्य, बुद्ध और शुक्र बारह राशियों का भ्रमण एक वर्ष में पूरा कर लेते हैं | ये ग्रह प्रायः एक राशि में एक मास तक रहते हैं | यदि जन्म के समय कोई ग्रह राशि में बलवान हो (अपने उच्च, मित्र अथवा अपनी ही राशि में) और किसी शुभ स्थान में भी बैठा हो तो गोचर में यदि वह किन्हीं अशुभ भावों में जाएगा तो भी उसका अधिक बुरा फल नहीं होगा |
यही फल उस समय भी समझना चाहिए जब ग्रह (जिसके गोचर का विचार किया जा रहा हो) अच्छे भाव का श्वामी हो या जन्म कुंडली में योगकारक हो |
३. यदि कोई ग्रह राशि ओर भाव में भी बलवान हो तो जब गोचर में शुभ स्थानों से जाता है तो अत्यधिक शुभ फल देता है |
४. यदि कोई ग्रह कमजोर हो (राशि और नवांश में नीच का हो या किसी शत्रु की राशि और नवांश में हो) और किसी क्रूर ग्रह के साथ बैठा हो या दृष्ट हो और उसपर किसी शुभ ग्रह की युति या दृष्टि न हो अथवा अशुभ स्थानों का श्वामी हो, अस्त हो तो गोचर में वह शुभ स्थानों में जाता हुआ भी विशेष शुभ फल नहीं देगा |
५. गोचर में यदि किसी ग्रह का क्रूर ग्रहों से योग हो या उसपर क्रूर ग्रहों की दृष्टि पड़े, तो गोचर में जाते हुए ग्रह का अच्छा फल कम हो जाता है और बुरा फल बढ़ जाता है| यदि कोई ग्रह गोचर में अस्त हो या अपनी नीच राशि या नीच नवांश में हो तो उसका भी इसी प्रकार फल होता है|
६. गोचर में जब किसी ग्रह का किसी शुभ ग्रह से योग होता है अथवा उसपर किसी शुभ ग्रह की दृष्टि पड़ती है तो तो उस गोचर में जाते हुए ग्रह का अच्छा फल बढ़ जाता है और ख़राब फल कम हो जाता है|
उदाहरण के लिए मंगल यदि तीसरे स्थान में जा रहा हो और उसी समय शुक्र अथवा गुरु भी वहां जाएँ तो मंगल के शुभ फल को बढ़ाएंगे| इसके अलावा यदि मंगल नवम स्थान से जा रहा हो और उसपर गुरु की द्रष्टि पड़े तो मंगल का अशुभ फल कम हो जायेगा|
७. जब कोई ग्राह अपनी उच्च राशि या अपनी स्वयं की राशि या अपने नवांश या उच्च नवांश में से जाता है तो उसका अच्छा फल बढ़ता है और ख़राब फल कम हो जाता है
उदाहरण के लिए शनि के साढ़े सात वर्ष (साढ़े साती) ख़राब मानी गई है, परन्तु कन्या राशि वाले के लिए अंतिम ढाई वर्षों में शनि तुला में आयेगा| तुला राशि शनि का उच्च स्थान है इसलिए वहां पर शनि अधिक पीड़ा नहीं देगा|
८. शुभ ग्रह गोचर में जब वक्री होते हैं तो अधिक शुभ फल देते हैं| क्रूर ग्रहों के वक्री होने पर अत्यधिक अशुभ फल होता है|
९. सबसे अधिक शुभ अथवा अशुभ प्रभाव उस समय होता है जिस समय दो या अधिक ग्रह गोचर में वक्री हो जाएँ (शुभ ग्रह अथ्वा क्रूर ग्रह)
१०. क्रूर ग्रह अशुभ स्थानों में जाते हुए ज्यादा बुरा फल देंगे यदि जिस राशी में वे जा रहे है उस राशि में जन्म के समय कोई ग्रह बैठा हो तो भी अच्छा फल देते हैं|
उदहारण के लिए गुरु चौथे स्थान में जा रहा हो जहाँ सूर्य भी जन्म के समय है तो जिस समय गुरु सूर्य पर से जायेगा तो सूर्य अच्छा फल देगा जैसे उच्च स्थान, नए मित्र, नया कार्य, पिता का या स्वयं का धन इत्यादि|
१२. यदि जन्म के समय किसी भाव पर शुभ ग्रहों की द्रष्टि हो तो गोचर में क्रूर ग्रह भी उस भाव में जाते हुए बहुत बुरा फल नहीं देंगे|
१३. जन्म के समय लग्न में बैठा हुआ ग्रह गोचर में जिस भाव में जायेगा उस भाव का फल देगा|१४. जो अच्छा या बुरा फल ग्रह जन्म-कुंडली में बताता है वह फल उस समय होगा जब ग्रह लग्न में ले जा रहा हो|
१५. गोचर विचार में सूर्य और मंगल प्रथम १० अंश के भीतर, गुरु और शुक्र १० से २० अंश के भीतर तथा बुध सम्पूर्ण राशि में अपना फल देते हैं|
१६. यह गोचर में किसी प्रकार का अच्छा या बुरा फल देगा यह इस बात पर निर्भर करता है की वह ग्रह जन्म-कुंडली में-
(अ) किन भावों का स्वामी है ?
(ब) किस स्थान में बैठा हुआ है ?
(स) किस वस्तु का कारक है ?
(द) गोचर में किस भाव में जा रहा है ?
यहाँ भाव का विचार जन्म राशि से, जन्म लग्न से तथा ग्रह के मूल स्थान से करना चाहिए |नवम भाव से भाग्य विचार
नवम भाव का कारक ग्रह गुरु होता है| नवम भाव से मुख्य चार प्रकार के विचार होते हैं|
१. एवं नवम भाव का कारक ग्रह बलि हो ६,८,१२ भाव में स्थित न हो, केंद्र-त्रिकोण में स्थित हो तो पूर्ण फल मिलता है|
२. यदि नवम भाव में स्थित ग्रह नवम भाव के राशि स्वामी के मित्र हो तथा शुभ-स्थानों का स्वामी होकर नवम भाव में स्थित हो तो पूर्ण फल प्रदान करता है|
३. यदि नवम भाव का स्वामी बलि होकर केंद्र त्रिकोण में स्थित हो और मित्र राशि, स्वराशी, शुभ ग्रहों से दृष्ट हो तो पूर्ण फल प्रदान करेगा| अर्थात नवम भाव का कारक ग्रह नवमेंश नवम भाव, नवम भाव पर दृष्टि ये चार प्रकार के कारक शुभ स्थान के भाव का हो, शुभ ग्रह से दृष्ट हो बली ६,८,१२ में न हो तो सात प्रतिशत पूर्ण फल प्रदान करेगा| अतः इन सभी शुभ स्थानों के शुभ ग्रहों के युत दृष्ट बलि इत्यादि होने पर उन-उन स्थानों के कारकत्व पूर्ण दृष्टि होकर जातक को शुभ फल प्राप्त होगा| यदि इसके विपरीत हो तो फल भी विपरीत समझना चाहिए|
यदि शुभ अशुभ दोनों प्रकार का योग हो तो उनमें से जो बलि होगा उसका फल मिलेगा| यदि शुभ अशुभ समान रूप से बलि हों तब जातक के जीवन में शुभ अशुभ दोनों ही समान रूप से विद्यमान होगा| यदि नवम भाव के उपरोक्त चार कारक सप्त वर्ग में शुभ अपनें भाव, स्वगृही मित्र, गृही उच्च शुभ वर्ग इत्यदि में प्राप्त हो तो जातक का भाग्य बहुत महत्वपूर्ण बन जायेगा ऐसा जातक समाज देश विदेश धर्म में विख्यात होगा| प्रसिद्ध व्यक्ति होगा|नवम भाव से भाग्य विचार
नवम भाव का कारक ग्रह गुरु होता है| नवम भाव से मुख्य चार प्रकार के विचार होते हैं|
१. एवं नवम भाव का कारक ग्रह बलि हो ६,८,१२ भाव में स्थित न हो, केंद्र-त्रिकोण में स्थित हो तो पूर्ण फल मिलता है|
२. यदि नवम भाव में स्थित ग्रह नवम भाव के राशि स्वामी के मित्र हो तथा शुभ-स्थानों का स्वामी होकर नवम भाव में स्थित हो तो पूर्ण फल प्रदान करता है|
३. यदि नवम भाव का स्वामी बलि होकर केंद्र त्रिकोण में स्थित हो और मित्र राशि, स्वराशी, शुभ ग्रहों से दृष्ट हो तो पूर्ण फल प्रदान करेगा| अर्थात नवम भाव का कारक ग्रह नवमेंश नवम भाव, नवम भाव पर दृष्टि ये चार प्रकार के कारक शुभ स्थान के भाव का हो, शुभ ग्रह से दृष्ट हो बली ६,८,१२ में न हो तो सात प्रतिशत पूर्ण फल प्रदान करेगा| अतः इन सभी शुभ स्थानों के शुभ ग्रहों के युत दृष्ट बलि इत्यादि होने पर उन-उन स्थानों के कारकत्व पूर्ण दृष्टि होकर जातक को शुभ फल प्राप्त होगा| यदि इसके विपरीत हो तो फल भी विपरीत समझना चाहिए|
यदि शुभ अशुभ दोनों प्रकार का योग हो तो उनमें से जो बलि होगा उसका फल मिलेगा| यदि शुभ अशुभ समान रूप से बलि हों तब जातक के जीवन में शुभ अशुभ दोनों ही समान रूप से विद्यमान होगा| यदि नवम भाव के उपरोक्त चार कारक सप्त वर्ग में शुभ अपनें भाव, स्वगृही मित्र, गृही उच्च शुभ वर्ग इत्यदि में प्राप्त हो तो जातक का भाग्य बहुत महत्वपूर्ण बन जायेगा ऐसा जातक समाज देश विदेश धर्म में विख्यात होगा| प्रसिद्ध व्यक्ति होगा|
नवम भाव पर विचरणीय विषय
भाग्य शक्ति, (गुरु-पिता, धर्म, तप, शुभ कार्य, धर्मगुरु, धर्म के कार्यों में संलग्न रहना तथ दया, दान, शिक्षा से लाभ, विद्या, परिश्रम, बड़े लोग, मालिक, शुद्ध आचरण, तीर्थ यात्रा, लम्बी दुरी की यात्रा, गुरु के प्रति भक्ति, ओषधि, चित्त की शुद्धता, देवता की उपासना, कमी हुई सम्पत्ति, न्याय प्रताप, आरोग्य सत्संग, ऐश्वर्य धन कम होते जाना, वैराग्य, वेद पठन, दैवी शक्ति संस्थापन, साले का विचार, परोपकार, नदी या समुद्र का प्रवास, विदेश यात्रा, स्थानांतरण, नौकरी में परिवर्तन, सन्यास, मेहमान धरोहर, दुसरे का विवाह, कानून, दर्शनशास्त्र, बड़े अधिकारी, उच्च शिक्षा इत्यादि|
भाग्योदय वर्ष
ग्रह सूर्य चन्द्र मंगल बुद्ध गुरु शुक्र शनि राहू
वर्ष २२ २४ २८ ३२ १६ २५ ३६ ४२
जैसे भाग्येश के नवांश में यदि चन्द्रमा हो तो जातक का भाग्योदय २४ वर्ष पर होगा|
१. बुद्ध भागेश हो तो ३२ वें वर्ष में होगा| गुरु की स्थिति शुभ होती है, तो जातक भाग्यशाली होता है|
२. गुरु स्वगृही उच्चगत केन्द्रगत हो तो जातक भाग्यशाली होता है|
३. नवमेंश और गुरु शुभ वर्ग में हो तो जातक भाग्यशाली होता है| साथ ही नवम भाव में शुभ ग्रह हो|
४. नवम भाव में पाप ग्रह हो, नीच राशि का हो या अस्त हो तो ऐसा जातक भाग्यहीन होता है|
५. नवम भाव में कोई भी ग्रह उच्च राशि का, मित्र राशि का एवं स्वग्रही हो तो ऐसा जातक भाग्यवान होता है|
६. भाग्येश अष्टम में, नीच्चस्थ हो, पाप ग्रह से युत या दृष्ट हो, पाप ग्रह के नवमांश में हो तो ऐसा जातक भाग्यहीन होकर भींख मांगता है|
७. भाग्येश शुभ ग्रह से दृष्ट या युत हो तथा नवम भाव शुभ ग्रह से युत हो तो ऐसा जातक महाँ भाग्यशाली होता है|
८. यदि गुरु नवम भाव में हो और नवमेंश केंद्र में हो, लग्नेंश बलि हो तो जातक भाग्यशाली और यदि इसके विपरीत ग्रह बल्हीनहो निचस्थ हो तो जातक भाग्यहीन होता है| दशाफल
दशा- अन्तर्दशा का ज्ञान प्राप्त करना उतना कठिन नहीं है जितना फल ज्ञात करना| फलित ज्ञान प्राप्त करने में कठिनाई इसलिए आती है महादशा किसी ग्रह की और अन्तर्दशा, प्रत्यंतरदशा इत्यदि किसी और ग्रह की चल रही होती है| फलतः इनकी सम्यक संगति बैठाकर अनुपालिक फल निर्धारण करना एक अत्यंत जटिल एवं कठिन प्रक्रिया है जिस प्रकार शहद और घी दोनों अलग-अलग पदार्थ अमृत समान गुण वाले होकर भी दोनों संभाग मिलकर विष का निर्माण कर देते हैं, जिसका प्रभाव अपनी अलग विशेषता रखता है, बिल्कुल वैसे ही किसी ग्रह की महा दशा में किसी अन्य ग्रह की महादशा आने पर फलित भी बदल जाता है| महादशा की समयावधि लम्बी होती है और किसी भी ग्रह की महादशा का सम्पूर्ण भोग्य समय एक समान फलदायक नहीं होता| महादशा वाला ग्रह जिस राशि में है उसके १०-१० अंश क्र तीन भाग करें राशि के ऐसे एक भाग को द्रेश्काण कहते है| अब देखें की महादशा वाला ग्रह राशि के किस भाग (द्रेश्काण) में है, यदि प्रथम द्रेश्काण है तो महादशा के प्रथम भाग में, द्दितीय द्रेश्काण है तो महादशा के मध्य भाग में अपना शुभाशुभ फल प्रदान करेगा|
दशाफल सूत्र- यदि कोई ग्रह वार्गोत्तमी है तो अपनी दशा-अन्तर्दशा में शुभ फल प्रदान करता है|
यदि कोई ग्रह वार्गोत्तमी तो हो, लेकिन अपनी नीच राशि में होतो मिश्रित फल देता है|
त्रिक स्थान (६,८,१२) के श्वामी अपनी दशा में अशुभ फल देते हैं|
त्रिक स्थान में बैठे ग्रह अपनी महादशा में त्रिकेश कि अंतर दशा आने पर व त्रिकेश की महादशा में अपनी अन्तर्दशा आने पर अशुभ फल देते हैं|
क्रूर ग्रह की महादशा में जब जन्म नक्षत्र से तीसरे, पांचवें व सातवें ग्रह के स्वामी की अन्तरदशा हो तो अशुभ फल मिलते हैं|
क्रूर ग्रह की महादशा और जन्मराशि के स्वामी की अन्तर्दशा में भी अशुभ फल प्राप्त होता है|
जन्म राशि से आठवीं राशि के स्वामी की दशा में क्रूर ग्रह की अन्तर्दशा कष्टदायक होती है|
शनि की दशा चौथी, मंगल व राहू की दशा पाचवीं और वृहस्पति की दशा छठी पड़ती हो तो ये विशेष कष्टकारक रहती है| जैसे शुक्र की महादशा में जन्म हो तो राहू की महादशा पाचवीं होगी, वृहस्पति की छठी आदि|
किसी राशि के अंतिम अंशों में स्थित ग्रह कि दशा-अन्तर्दशा अनिष्टकारक होती है|
यदि उच्च राशि में स्थित ग्रह नवांश में नीच का हो जाये तो अशुभ फल देता है|
यदि नीच राशि में स्थित ग्रह उच्च नवांश में हो तो अपनी दशा में शुभ फल देता है|
किसी ग्रह की महादशा में उसके शत्रु ग्रह की अन्तर्दशा आने पर अनेक कष्ट होते हैं|
यदि महादशा नाथ से अन्तर्दशा का स्वामी त्रिक स्थान ६,८,१२ में हो तो अशुभ फल देता है|
राहू लग्न से तीसरे, छठे, आठवें, ग्यारहवें स्थित हो तथा चन्द्रमा से दूसरे या आठवें भाव में स्थित हो तो अपनी दशा में मारक होता है| यदि इन्हीं स्थानों में वह शुक्र अथवा गुरु से सम्बन्ध करें तो भी मारक होता है| शत्रु छेत्री ग्रह की दशा में जातक के कार्यों में विघ्न- बाधाएं आती हैं|
षष्ठेश की दशा में अन्य अशुभ फल तो मिलते ही हैं, रोगों से भी कष्ट मिलता है|
अस्तग्रह की दशा में अनेक अशुभ फल प्राप्त होते हैं|
वक्री ग्रह की दशा में परदेशवास, रोग, पीड़ा, धनहानि तथा मानहानि जिसे फल मिलते हैं|
राहू अथवा केतु से युक्त पापी ग्रह की दशा विशेष कष्टदायक व्यतीत होती है|
लग्नेश अष्टमस्थ हो तो अपनी दशा में अत्यधिक पीड़ा देता है, यहाँ तक की मृतु भी सम्भव है|
छिण चन्द्रमा और पाप ग्रह युक्त बुध अशुभ फलदायक होता है|
यदि लग्नेश होरा, द्रेश्काण, नवांश, द्वदशांश व लग्न का स्वामी हो तो अपनी दशा में अत्यंत शुभ फलदायक होता है| भाव का स्वामी जिस राशि में बैठा हो और उस राशि अथवा भाव का स्वामी छठें, आठवें या बारहवें भाव में स्थित हो तो भाव के स्वामी ग्रह
की दशा में भावजन्य फल का नाश हो जाता है| उदाहरणार्थ- पंचम भाव का स्वामी बुध यदि दशम भाव में स्थित हो और वहां वृश्चिक राशि हो, जिसका स्वामी मंगल छठे भाव में कर्क राशि का स्थित हो तो बुध की दशा में पंचम भाव सम्बन्धी फल नष्ट हो जाता है|
षष्ठेश व अष्टमेशकी परस्पर दशा-अन्तर्दशा होने पर अशुभ फल ही प्राप्त होता है|
शुभ ग्रह की महादशा में पापी ग्रह की अन्तर्दशा आने पर पहले दुःख बाद में सुख मिलता है|
महाशेष व अंतरशेष किस राशि में हैं, किस ग्रह से दृष्ट हैं, किस ग्रह के साथ हैं, इन सब का सम्यक अध्यन करके ही फलाफल का निर्णय करना चाहिए|विवाह योग विचार
यावन्तो वा विहन्गा मदनसदनगाश्चेन्निजाधीशद्रिष्टा-
स्तावन्तो निर्विवाहास्त्व्थ सुमतिमता ज्ञेयमित्थं कुटुम्बे |
कार्यो होराग्मज्ञैरधिकबलवतां खेचराणां हि योगा -ददेष्यं तत्रवीर्यंरविविधुकुभुवमन्गदिक्शैलसंख्यम् ||
सप्तम स्थान में जितने ग्रह हों, उतने ही विवाह होते हैं | लेकिन उन पर सप्तमेश की दृष्टि आवश्यक है इसी प्रकार कुटुंब स्थान अर्थात् दुतीय स्थान में जितने ग्रह द्वितीयेश से दृष्ट हों, उतने ही विवाह होते हैं बुद्धिमान दैवग्यों अधिक बल वाले ग्रह के योगों से विवाह की संख्या का विचार करना चाहिए इस प्रशंग में सूर्य, चन्द्र व मंगल का क्रमशः ६,१०,७ रूपा बल होता है | शेष ग्रहों का ६ रूपा बल होता है, ऐसा पद्दति के नियम से स्वतः सिद्ध है अर्थात् शेष ग्रह ६ रूपा से अधिक बलि होनें पर बलि मानें जाते है | इस श्लोक की संख्या प्राचीन टीकाकारों नें उक्त प्रकार से ही की है | लेकिन सुकसुत्त्रों के सन्दर्भ में इन पर नई रौशनी पड़ती है | सामान्यतः ३ रूपा या अंश तक षड्बल होनें पर ग्रह निर्बल, ६ से कम होने पर मद्दयम बाली और ६ से अधिक बल होने पर बलवान माना जाता है | यह बात पद्दति ग्रंथों से सिद्ध है तथा हमारे विचार से भी यही बात यहाँ उपयुक्त है | सूत्रों का पाठ प्रस्तुत है |(1) कल्त्राधिपेन कुटूम्बाधिपेन वा दृष्टा यावन्तो ग्रहाः कलत्रस्थानं कुटुम्बस्थानं वा गताः तावत् संख्यकानि कलत्राणी भवन्ति |
(२) अथवा बलाधिक्यात् |
(३) तत्र रवेः षट् |
(४) चन्द्रस्य दश |
(५) भौमश्य सप्त |
(६) बुधस्य सप्तदश |
(७) गुरोः षोडश |
(८) शुक्रस्य विन्शतिः |
(९) शनेरेकोनविन्शतिः |
(१०) राहोः |
(११) केतोः
(१२) इत्यादि ज्ञेयम्
(१३) सत्यमेन कलत्र चिन्ता | (शुकसुत्र )
श्लोक की प्रथम पंक्ति का अर्थ सुत्रानुसारी हमनें किया है | यद्यपि 'कुटुम्ब' शब्द का अर्थ प्राचीनो ने 'अन्य परिवारजन' किया था, लेकिन सूत्रानुसार सप्तम या द्वितीय में जितने ग्रह सप्तमेश व द्वितीयेश में दृष्ट हों उतनी ही स्त्रियाँ होती हैं, यह बात सिद्ध होती है तथ यही उपयुक्त है | लेकिन बल के सन्दर्भ में सूत्रकार नें जो संख्या बताई है वह संख्या वास्तव में विंशोत्तरी दशा में इन ग्रहों के दशा वर्षों की संख्या ही है | इसी आधार पर सूर्य, चन्द्रमा व मंगल का बल भी गणेश कवि ने ६,१०,७ क्रमशः माना है जो सुत्रानुसारी है | लेकिन शेष ग्रहों के बल का उल्लेख श्लोकों में नहीं है यह बल विचार प्राचीन जैमिनियत या पराशरमत या यवन मतानुशार पद्धति ग्रंथों के भी विरुद्ध है | हमारी अल्प बुद्धि मई इस सुत्त्रोक्त बल का तारतम्य अवगत नहीं होता है | विद्दवान पाठक इस प्रकरण की प्रमाणिकता पर विचार करें | अस्तु,विवाह संख्या के विषय में भी आजकल जोतिषीयों को आधुनिक दृष्टिकोण अपनाना चाहिए | आजकल एकाधिक विवाह गैरकानूनी हैं | अतः सामाजिक पदवी प्रतिष्ठा व स्थिति देखकर एकाधिक विवाह की बात कहनी चाहिए | सामान्यतः द्दितियेश व सप्तमेश पर शुभ प्रभाव या इनका परस्पर सम्बन्ध अथवा किसी शुभ भाव में इस्थिति विवाह की द्योतक होगी | लेकिन साधुओं सन्यासियों आदि के सन्दर्भ में संतान योगों की तरह विवाह योगों को भी निष्क्रिय ही समझना चाहिए |
नरेंद्र प्रसाद,जन्म समय 12:05 PM,14.05.1976,ellenabad(haryana)
जवाब देंहटाएंकर्क लग्न की कुंडली का विवेचन करें सर